Friday, August 27, 2021

गणित का इतिहास (History of Mathematics)

 

गणित का इतिहास (History of Mathematics)


 भारतीय गणित का शुभारम्भ 'ऋग्वेद' से हुआ है। इसका इतिहास मुख्य रूप से पाँच कालखण्डों में विभाजित किया  है-

1. आदिकाल (500 ई० पू० तक)

(A) वैदिक काल (1000 ई० पू० तक) 

(B) उत्तर वैदिक काल (1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक)

  • शुल्य एवं वेदांग ज्योतिष काल
  •  सूर्य प्रज्ञाप्तिकाल

2. पूर्व मध्यकाल (500 ई० पू० से 400 ई० पू० तक) 

3. मध्यकाल (400 ई० पू० से 1200 ई० तक)

4. उत्तर मध्यकाल (1200 ई० से 1800 ई० तक) 

5. वर्तमान काल (1800 ई० के पश्चात्)


आदिकाल (500 ई० पूर्व तक) 

यह काल भारतीय गणित के इतिहास में अति महत्वपूर्ण काल है। इस काल में  अंकगणित (Arithmetic),  रेखागणित  (Geometry)  बीजगणित (Algebra) का विकास हुआ।  


(A) वैदिक काल (1000 ई० पूर्व तक) - 

  • इस काल में शून्य तथा दशमलव स्थान मान पद्धति (Decimal place value method) का अविष्कार हुआ। यह गणित की अद्भुत देन है। शून्य एवं दाशमिक स्थानमान पद्धति का महत्व इस  ओर  परिलक्षित करता है कि आज यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है तथा इसके आविष्कार ने ही गणित को प्रखर शिखर पर पहुँचाया है।
  • महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित  ‘नारद-विष्णु पुराण' के पूर्व भाग के द्वितीय पाठ में, त्रिस्कन्ध ज्योतिष के वर्णन में गणित का प्रतिपादन हुआ जिसमें एक (10० ), दश, शत, सहस्त्र अयुत (दस हजार), लक्ष (लाख), कोटि (करोड़), अर्बुद (दस करोड़), अब्ज (अरब), खर्ब (दस अरब), निखर्ब (खरब), महापद्म (दस खरब), शंकु (नील), जलधि (दस नील), अन्त्य (पद्म), पराध (शंख जो 10 के घात 17  के मान के बराबर है) इत्यादि संख्याओं के बारे में बताया गया है
  • दशामिक स्थानमान पद्धति भारत से अरब गयी और अरब से पश्चिमी देशों में पहुंची। इसी कारण से अरब के लोग 1 से 9 तक के अंकों को 'हिन्दसा' कहते हैं तथा पश्चिमी देशों में  0 - 9 तक के अंकों को 'हिन्दू-अरबीक न्यूमरल्स' (Hindu-Arabic  Numerals) कहा जाता है।


(B) उत्तर वैदिक काल (1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक) -

(i) शुल्व एवं वेदांग ज्योतिष काल-

शुल्व से तात्पर्य रस्सी से है, वह रस्सी जो यज्ञ की वेदी बनाने के लिये माप में काम आती थी।  शुल्व सूत्रों में रेखा गणित के सूत्रों का विकास एवं विस्तार उपलब्ध है। इस काल में तीन सूत्रकारों का नाम  उल्लेखनीय है -  बौधायन, आपस्तम्ब एवं कात्यायन ।

  • बौधायन शुल्व सूत्र (1000 ई० पू०) को आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जाना ने जाता है।  
  • बौधायन ने दो वर्गों के योग व अन्तर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है तथा √2 का मान दशमलव के पाँच स्थानों तक निकालने का  सूत्र भी दिया है।
            √2 = 1 + 1/3 + 1/3*4 - 1/3*4*34 = 1.41421


(ii) सूर्य प्रज्ञाप्ति काल- 

  • इस काल की प्रमुख कृतियाँ-  सूर्य प्रज्ञाप्ति तथा चन्द्र प्रज्ञाप्ति (500 ई० पू०) । जो जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। 
  • सूर्य प्रज्ञाप्ति में दीर्घवृत्त का उल्लेख मिलता है। जिस परिमंडल के नाम से जाना जाता है। 
  • भगवती सूत्र (300 ई० पू०) में भी परिमंडल शब्द दीर्घवृत्त के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसके दो प्रकार बताये गये हैं- पहला प्रतर-परिमण्डल व दूसरा घन परिमण्डल |
  • बौद्ध साहित्य में गणित को दो भागों बाँटा गया-
         (i) गणना (साधारण गणित)  

        (ii) संख्यान (उच्च गणित) 

  • संख्याओं का वर्णन तीन रूपों में किया-
          (i)  संख्येय (Countable), 

          (ii) असंख्येय (Uncountable) 

          (iii) अनन्त (Infinity) 


 पूर्व मध्यकाल (500 ई० पू० - 400 ई० तक)


  • इस युग के प्रमुख ग्रन्थों में वक्षाली गणित, सूर्य सिद्धान्त, गणितयोग, स्थानांग सूत्र, भगवती सूत्र व अनुप्रयोग द्वार सूत्र मुख्य हैं।  
  • वक्षाली गणित में अंकगणित की मूल संक्रियाऐं, दाशमिक अंकलेखन पद्धति पर लिखी हुई संख्याऐ, भिन्न, परिकर्म (योग, अन्तर, गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल), वर्ग, घन, व्याजरीति आदि का विस्तृत वर्णन है। 
  • स्थानांग सूत्र में 5 प्रकार के अनन्त की एवं अनुयोगद्वार में 4 प्रकार के प्रमाण (measure) बताये गये हैं।
  • सूर्य सिद्धान्त में वर्तमान त्रिकोणमिति का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें   ज्या (Sine), कोटिज्या (cosine) आदि का मान दिया गया है।
  • भारतीयों ने जमा, घटा (धन व ऋण) चिह्नों का विकास किया। 
  • अंकगणित की तरह बीजगणित भी भारत से अरब पहुँचा, वहाँ के गणितज्ञ 'अलख्वारीज्यी' ने अपनी पुस्तक 'अलजब्र' एवं 'अल-मुकाबला' में भारतीय बीजगणित पर आधारित विषय का प्रतिपादन किया। इनकी इस पुस्तक के नाम पर ही इस विषय का नाम 'अलजेब्रा' (Algebra) पड़ा।
  • भगवती सूत्र में  n प्रकारों में से 1-1, 2-2 प्रकारों को एक साथ लेकर जो युग्म (Combination) बनते हैं उन्हें एकक , द्विक संयोग आदि कहा गया है जिनका मान n, n(n-1)/2 आदि बताया गया है।


मध्यकाल (400 ई० से 1200 ई० तक)


  • मध्यकाल को भारतीय गणित का स्वर्ण-युग कहा जाता है, क्योंकि इस काल में ऐसे महान गणितज्ञ हुये, जिन्होंने गणित की सभी शाखाओं को ज्ञात किया। 
  •  इस काल के कुछ प्रमुख गणितज्ञ भास्कर प्रथम, आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, श्रीपति मिश्र, नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती  , महावीराचार्य आदि हैं।
  • आर्यभट्ट प्रथम (499 ई०) ने अपनी  पुस्तक 'आर्यभट्टीय' में 332 श्लोकों में गणित के महत्वपूर्ण मूलभूत सिद्धान्तों को दिया है। रेखागणित के क्षेत्र में इन्होंने का π का  मान चार स्थानों तक 3.1416 ज्ञात किया। 
  • भास्कर प्रथम (600 ई०) ने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'महाभास्करीय', 'आर्यभट्टीय ''भाष्य' और 'लघु भास्करीय' दिए हैं जिनमें आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को विकसित किया गया।
  • ब्रह्मगुप्त (628 ई०) ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त' दिया। इन्होंने बीजगणित के समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्णीत द्वि-घातीय समीकरण  (Undecidable quadratic equation) का समाधान भी बताया जिसे आयलर ने 1764 में, लांग्रेज ने 1768 ई० में प्रतिपादित किया।
  • श्रीधराचार्य (850 ई०)  ने अंकगणित पर नवशतिका तथा त्रिशतिका, पाटी गणित और बीजगणित पुस्तकों की रचना की। इनका द्विघात समीकरण हल करने का सूत्र जो "श्रीधराचार्य विधि” कहलाता है, आज भी व्यापक रूप से प्रयोग में लाया जाता है। इनकी पुस्तक 'पाटी गणित' का अनुवाद अरब में 'हिसाबुल तरब्त' नाम से हुआ।
  • महावीराचार्य (850 ई०)  ने 'गणितसार संग्रह' नामक अंकगणित के वृहत् ग्रन्थ की रचना की।
  • श्रीपति मिश्र (1039 ई०) ने 'सिद्धान्त शेखर' एवं 'गणित तिलक' (आज्ञात राशियों  के सम्बन्ध में) की रचना की। 
  • भास्कराचार्य द्वितीय (1114 ई०)  ने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सिद्धान्त शिरोमणि' तथा 'करण कुतूहल को दिया है।  वेदों में इनके सूत्रों को आधार मानकर वैदिक गणित की आधुनिक कृतियों में किया जा रहा है। 
  • लीलावती में संख्या पद्धति को आधुनिक  अंकगणित व बीजगणित की रीढ मानी जाती है।

उत्तर मध्यकाल (1200 ई० से 1800 ई० तक)

  • प्राचीन ग्रंथों पर टीकाएँ (Comments) लिखना इस काल की मुख्य देन  है ।
  • केरल के गणितज्ञ नीलकण्ठ ने 1500 ई० में एक पुस्तक में ज्या r (sin r) का मान ज्ञात किया-
ज्या r (Sin r) =  r -  / 3   +    5  / 5  -. ............

मलयालम पाण्डुलेख “मुक्तिभास" में भी यह सूत्र दिया गया है, जिसे आज हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते हैं।

  • नारायण पण्डित (1356) ने अंकगणित पर "गणितकौमुदी" (गणितीय संक्रियाओं, मैथेमैटिकल ऑपरेशन्स से सम्बंधित) नामक एक वृहत् ग्रन्थ की रचना की। इसमें अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है, जिसमें क्रमचय-संचय (Permutation), अंक विभाजन (Partition of Numbers) तथा मायावर्ग (Magic squares) प्रमुख हैं।  
  • नीलकण्ठ (1587 ई०) ने “ताजिकनीलकण्ठी" नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें ज्योतिष गणित का प्रतिपादन किया गया है।
  • कमलाकर (1608 ई०) ने सिद्धान्त-तत्व विवेक नामक ग्रन्थ की रचना की।
  • सम्राट जगन्नाथ (1731 ई०) ने “सम्राट सिद्धान्त” तथा “रेखागणित" नाम की दो पुस्तकें लिखीं। रेखागणित की वर्तमान शब्दावली अधिकांशतः इसी पुस्तक पर आधारित है।

वर्तमान काल (1800 ई० के पश्चात्) 


  • नृसिंह बापू देव शास्त्री (1831 ई० ) ने भारतीय एवं पाश्चात्य गणित पर पुस्तकों का सृजन किया। इनकी पुस्तकों में रेखागणित, त्रिकोणमिति, सायनवाद तथा अंकगणित मुख्य हैं।
  • सुधाकर द्विवेदी ने दीर्घ वृत्त लक्षण, गोलीय रेखागणित, समीकरण मीमांसा, चलन-कलन आदि अनेक पुस्तकों की रचना की। साथ ही ब्रह्मगुप्त एवं भास्कर की पुस्तकों पर टीकाएं लिखकर सामान्य जनता के लिये सुलभ कराया।
  • रामानुजम (1889 ई०)  सूत्र रूप में गणित एवं अन्य सिद्धान्तों को लिखने व सिद्ध करने की वैदिक परम्परा के आधुनिक युग के महान् गणितज्ञ हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित 50 प्रमेयों में से एक-दो को सिद्ध करने से ही गणितज्ञों एवं शोध कर्त्ताओं . को वर्ष पर्यन्त दत्तचित्त होकर परिश्रम करना पड़ा। कुछ प्रमेय अभी तक सिद्ध नहीं किये जा सके हैं। इनकी कृति “रामानुज डायरी" शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं।
  • महान् गणितज्ञ एवं दार्शनिक जगद्गुरु शंकराचार्य भारती कृष्णतीर्थ (1884-1960 ई०) आधुनिक युग में वैदिक गणित के प्रधान भाष्यकार हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक "वैदिक गणित" में वैदिक सूत्रों पुनः प्रतिपादित किया है और उनमें निहित सिद्धान्त और विधियों को इतनी सरल, सुग्राह्य एवं सुस्पष्ट (simple, intelligible and clear) भाषा में प्रस्तुत किया है कि गणित का एक साधारण विद्यार्थी भी उसे आत्मसात (assimilation) कर गणित के जटिलतम प्रश्नों को अत्यल्प समय में हल कर सकता है। है। इन्होंने हमें सर्वथा नवीन दृष्टि देकर वैदिक गणित पर शोध करने तथा उसका उपयोग करने के लिये विवश कर दिया है।

Thursday, August 26, 2021

विद्यालय पाठ्यक्रम में गणित का महत्व (Importance of Mathematics in School Curriculum)

 

विद्यालय पाठ्यक्रम में  गणित का महत्व (Importance of Mathematics in School Curriculum) 

प्राचीन काल से ही गणित को हमारे देश में एक विषय के रूप में महत्व दिया जाता रहा है। प्राचीन काल से ही विद्यालयों में गणित शिक्षण की प्रभावशाली व्यवस्था की जाती रही है। वर्तमान में भी गणित का हमारे दैनिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।  वर्तमान काल में गणित को विद्यालय पाठ्यक्रम में विशेष महत्व देने के लिए गणित विषय को सामान्यतः निम्न दृष्टिकोणों से देखा जाता है-


1. दैनिक जीवन में उपयोगी (Useful in Daily Life)-  

वर्तमान समय विज्ञान का युग है और प्रत्येक स्थान या जगह पर हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गणित का उपयोग करना पड़ता है।  दैनिक जीवन में घर में, बाहर बाजार, दुकान, आय-व्यय में, बैंक ब्याज आदि क्रय-विक्रय में गणित को ही आधार बनाया जाता है। लौकिक, वैदिक तथा सामाजिक जो आधार हैं, उन सबमें गणित का उपयोग है इसलिये विद्यालय में बालकों को प्रारम्भ से ही, प्रारम्भिक गणित का ज्ञान कराया जाये तो वे अपने दैनिक जीवन और अनुभवों को समझने और समझाने में सक्षम रहेंगे।

2. आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति में उपयोगी (Useful in Progress of Economical & Social)-  

हमारी वर्तमान आर्थिक व सामाजिक सभ्यता विज्ञान की ही देन है और विज्ञान का आधार गणित है। जब तक बालक को गणित का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह विज्ञान के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल नहीं कर सकेगा। गणित के बिना  विज्ञान में भी प्रगति होना असम्भव है। इस कारण से यह कह सकते हैं कि गणित हमारी इस आधुनिक प्रगति, विकास और सभ्यता के भवन का स्तम्भ रूप है जिसको हटा लेने से वर्तमान सभ्यता, वैज्ञानिक प्रगति और समृद्धि का भवन निश्चित रूप से गिर जायेगा।


3. बालकों के मानसिक अनुशासन बनाने में उपयोगी (Useful in making of mental discipline in Children)-

गणित का ज्ञान विद्यार्थियों के मस्तिष्क को अनुशासित करने में सहायक होता है। जब विद्यार्थी गणित के प्रश्न को हल करने का प्रयास करता है, तो उसे अपने मन को एकाग्र करना होता है। मन की एकाग्रता मानसिक अनुशासन उत्पन्न करने में सहायक होती है। इससे बालक में उत्पन्न जिज्ञासायें सन्तुष्ट होकर शान्त हो जाती हैं। गणित का अध्ययन बालक को विवेकी, आत्म-विश्वासी, तर्क-वितर्क शक्ति युक्त बनाता है। 


4. स्पष्ट भाव प्रकाशन में उपयोगी (Useful thoughts helpful in Publication)–

हम अपने विचारों, भावों को भाषा के माध्यम से ही किसी दूसरे के सामने  रखते हैं। गणित विषय की भी एक भाषा होती है, जिसका निर्माण प्रतीकों के द्वारा होता है। गणित भाषा को शुद्ध व स्पष्ट बनाता है। जब हम यह कहते हैं कि 'अमुक स्थान बहुत दूर है' तो इसका अर्थ उसकी दूरी से होता है और दूरी ज्ञात करने के लिये हमें गणित का सहारा लेना पड़ता है। उसके द्वारा ही हम यह ज्ञात कर पाते हैं कि वह स्थान कितनी दूर है। .एच० सी० वैश्य ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि, “गणित भाषा का दूसरा रूप है, क्योंकि साधारण भाषा की अपेक्षा उसमें प्रयुक्त व्यंजना अधिक शुद्ध और सूक्ष्म होती है।


5. बालकों के चरित्र निर्माण में उपयोगी (Useful in Character building of Children) - 

कुछ विद्वानों ने कहा है कि  गणित विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में सहायक होता है। गणित एक ऐसा विषय है, जिसमें अशुद्धता का कोई स्थान नहीं होता है अर्थात् गणित किसी झूठ, फरेब, आडम्बर आदि को कोई स्थान नहीं देता है। गणित के द्वारा ही विद्यार्थियों को सत्य का ज्ञान होता है  व सत्य की ओर आकर्षित होकर उनमें नैतिकता का विकास होता है, जो बालक के चरित्र निर्माण में उपयोगी सिद्ध होता है।


6. सांस्कृतिक समृद्धि के विकास में उपयोगी (Useful in the development of Cultural Growth)-

गणित को सांस्कृतिक समृद्धि के विकास की आधारशिला माना जाता है। हागवेन (Hagven) ने गणित को सभ्यता का दर्पण कहा है। (Mathematics is the mirror  of culture.) यदि हम अपनी सभ्यता के बारे में मनन करते हैं तो उसके द्वारा हमें यह पता चलता है कि मानव संस्कृति एवं गणित का विकास लगभग साथ-साथ ही हुआ है। इनकी समुचित जानकारी के लिये हमारे लिये गणित का ज्ञान करना अति आवश्यक हो जाता है। 


7. तर्क संगत, क्रमबद्ध एवं व्यवहारिक गुणों का समावेश एवं उनके विकास में उपयोगी (Useful the development of absorption and Logical Systematical and Behavioural Virtues)—

अध्यापक, विद्यार्थी को गणित शिक्षण को सोचने, समझने, विचारने, तार्किक ढंग से सोचने तथा तथ्यात्मक ढंग से हल खोजने के लिये प्रेरित करता है। जब विद्यार्थी का मस्तिष्क क्रियाशील होता है, तो उसमें अनेक विचार, तर्क, विश्लेषण और उस समस्या पर विवेचना करने की क्रियाएँ स्वतः ही उसके मस्तिष्क में संचालित हो जाती हैं। इस प्रकार की क्रियाओं से विद्यार्थी का बौद्धिक विकास होता है। उसमें तर्क-वितर्क करने, तुलना करना एवं स्वयं निर्णय करने की क्षमता उत्पन्न होती है जिससे उसके मस्तिष्क को शक्ति प्राप्त होती है। और जब उसका मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है तथा वह स्वयं ही क्रियाएँ करने लगता है।



Wednesday, August 25, 2021

गणित का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकृति (Meaning, Definitions and Nature of Mathematics)

 

 गणित का अर्थ (Meaning of Mathematics)


'गणित' शब्द बहुत प्राचीन है तथा वैदिक साहित्य में इसका बहुतायत से उपयोग किया गया है। गणित शब्द का शाब्दिक अर्थ है, “वह शास्त्र  या विद्या जिसमें गणना की प्रधानता हो।" इस प्रकार गणित के सम्बन्ध में दी गयी मान्यताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि गणित, अंक, अक्षर, चिन्ह आदि संक्षिप्त संकेतों का वह विधान है जिसकी सहायता से परिमाण (Magnitude), दिशा (Direction) तथा स्थान (Space) का बोध होता है। 

गणित विषय का प्रारम्भ गिनती से ही हुआ है और संख्या पद्धति (Number of System) इसका एक विशेष क्षेत्र है जिसकी सहायता से गणित की अन्य शाखाओं का विकास किया गया है । 

गणित मानव जीवन का एक गणनात्मक पक्ष (Quantitative aspect) है। जिसमें जीवन से संबंधित वस्तुओं के बारे में गणना करके उसके बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।  गणनात्मक पक्ष का आधार मात्रा एवं स्थान (Quantity and Space) है, जो मात्रात्मक संबंधों का प्रयोग समस्या समाधान के साथ करता है। यह विज्ञान की एक सुसंगठित , क्रमबद्ध एवं शुद्ध शाखा है। यह युक्तिसंगत तर्क की आंकिक समस्याओं का विज्ञान है।


परिभाषायें (Definitions)

गैलीलियो (Galileo) के अनुसार- गणित वह भाषा है जिसमें परमेश्वर ने संपूर्ण जगह या ब्रह्मांड को लिख दिया है (Mathematics is the language which God written Universe.) 

लौक (Locke) के अनुसार- "गणित वह है जिसके द्वारा बच्चों के मन या मस्तिष्क में तर्क करने की आदत स्थापित होती है। " (Mathematics is a way to settle the mind of children a habit of reasoning.)

गॉस (Gauss) के अनुसार- "गणित, विज्ञान की  रानी  है।"(Mathematics is the queen of the science.) 

बेल (Bell) महोदय के अनुसार- "गणित को विज्ञान का नौकर  माना जाता है। " (Mathematics is supposed to be the servant of Science.)

गिब्स (J. Willard Gibbs) के अनुसार- "गणित एक भाषा है। " (Mathematics is a language.)

बेकन (Bacon) अनुसार- गणित सभी विज्ञानों का मुख्य द्वार एवं कुंजी है।"(Mathematics is the gateway and  key to all sciences.)

होगबेन (Hogben) के अनुसार- "गणित सभ्यता और संस्कृति का दर्पण है। (Mathematics is the mirror of civilization.) 

उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण करने पर कहा जा सकता है कि- 

  • गणित गणनाओं का विज्ञान है। (Mathematics is the science of calculations.)
  • गणित विज्ञान का अमूर्त रूप है।(Mathematics is the abstract form of science.) 
  • गणित ज्ञानेन्द्रियों का विकास है । (Mathematics is the development of sense organs.)
  • गणित स्थान तथा संख्याओं का विज्ञान है । (Mathematics is the science of space and numbers.) 
  • गणित विज्ञान की क्रमबद्ध, संगठित एवं यथार्थ शाखा है।(Mathematics is the systematised, organised and exact branch of science.)
  • गणित तार्किक विचारों का विज्ञान है । (Mathematics is a science of logical reasoning.)  
  • यह आगमनात्मक विज्ञान है ।(It is an inductive science.)
  • गणित एक प्रायोगिक विज्ञान है। (Mathematics is a experimental science.) 
  • गणित मात्रात्मक तथ्यों और सम्बन्धों का अध्ययन है।(Mathematics is the study of quantitative facts and relationship) 
  • गणित में आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं । (Mathematics is draws necessary conclusions.)


गणित की प्रकृति (Nature of Mathematics)


  1. गणित में संख्यायें (Numbers), स्थान (Place), दिशा (Magnitude) तथा मापन या माप-तौल (Measurement) का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
  2. गणित की अपनी भाषा (Language) है। भाषा का तात्पर्य-गणितीय पद (Mathematical terms), गणितीय प्रत्यय (Mathematical concepts), सूत्र (Formulae), सिद्धान्त (Principles) तथा संकेतों (Signs) से है जो कि विशेष प्रकार के होते हैं तथा गणित की भाषा को जन्म देते हैं ।
  3. गणित के ज्ञान का आधार हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense organs) हैं।
  4. इसके ज्ञान का आधार निश्चित होता है जिससे इस पर विश्वास किया जा सकता है। 
  5. गणित का ज्ञान यथार्थ (Exact), क्रमबद्ध (Systematic), तार्किक (Logical) तथा अधिक स्पष्ट (Clear) होता है, जिससे उसे एक बार ग्रहण करके आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
  6. गणित में अमूर्त प्रत्ययों (Abstract concepts) को मूर्त रूप (Concrete form) में परिवर्तित किया जाता है, साथ ही उनकी व्याख्या भी की जाती है। 
  7. गणित के नियम, सिद्धान्त, सूत्र सभी स्थानों पर एक समान होते हैं जिससे उनकी सत्यता की जाँच (Verification) किसी भी समय तथा स्थान पर की जा सकती है।
  8. इसके अध्ययन में प्रत्येक ज्ञान तथा सूचना स्पष्ट होती है तथा उसका एक सम्भावित उत्तर निश्चित होता है। 
  9. इसके विभिन्न नियमों, सिद्धान्तों, सूत्रों आदि में सन्देह (Doubts) की सम्भावना नहीं रहती है।
  10. गणित के अध्ययन से आगमन (Induction), निगमन (Deduction) तथा सामान्यीकरण (Generalization) की योग्यता विकसित होती है।
  11. गणित के अध्ययन से बालकों में आत्मविश्वास (Confidence) और आत्मनिर्भरता (Self Reliance) का विकास होता है।
  12. इससे बालकों में स्वस्थ तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific attitude) विकसित होता है। 
  13. इसमें प्रदत्तों अथवा सूचनाओं (संख्यात्मक) को आधार मानकर संख्यात्मक निष्कर्ष (Numerical Inferences) निकाले जाते हैं।
  14. गणित के ज्ञान का उपयोग (Application) विज्ञान की विभिन्न शाखाओं यथा भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य विषयों के अध्ययन में किया जाता है। 
  15. गणित, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन में सहायक ही नहीं, बल्कि उनकी प्रगति तथा संगठन की आधारशिला है।

Sunday, August 22, 2021

राज्य स्तर पर शैक्षिक प्रशासन की संरचना (Structure of Educational Administration at State Level)

राज्य स्तर पर शैक्षिक प्रशासन  की संरचना (Structure of Educational Administration at State Level)




राज्यों का शैक्षिक प्रशासन भी तीन भागों में विभाजित है— 

1. मन्त्रालय (Ministry)

2. सचिवालय Secretariate) 

3. निदेशालय (Directorate)। 

शैक्षिक प्रशासन के कार्य (Functions of Educational Administration)-

1. शिक्षा मन्त्रालय (Education Ministry) - 

प्रत्येक राज्य में शिक्षा मन्त्रालय है। किसी राज्य में केवल एक शिक्षा मन्त्री है, किसी में दो और किसी में बेसिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए अलग-अलग तीन शिक्षा मन्त्री हैं। शिक्षा मन्त्रालय का मुख्य कार्य नीति निर्धारण है। जहाँ एक से अधिक शिक्षामन्त्री हैं, वे अपने-अपने विभाग के लिए नीति निर्धारण के लिए उत्तरदायी हैं। शिक्षा मन्त्री विधान सभा (Assembly) एवं विधान परिषद (Legislative Assembly) के लिए जवाबदेह है।

2. शिक्षा सचिवालय (Education Secretariate)– 

शिक्षा सचिव इसके मुख्य अधिकारी होते हैं। उनके आधीन उपसचिव और सहायक सचिव होते हैं। जिन राज्यों में एक से अधिक शिक्षा मन्त्री हैं उनमें अलग -अलग विभाग बेसिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए अलग-अलग उपसचिव होते हैं। शिक्षा सचिवालय राज्य द्वारा निश्चित शिक्षा नीति के क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी होता है। राज्य सरकार के सभी आदेश शिक्षा सचिव के नाम से ही निकाले जाते हैं। जहाँ आवश्यक होता है, यह विभाग सरकार को सलाह भी देता है।

3. शिक्षा निदेशालय (Education Directorate) - 

शिक्षा निदेशक इस विभाग के सर्वोच्च अधिकारी होते हैं। कुछ राज्यों में केवल एक ही शिक्षा निदेशक है और कुछ राज्यों में बेसिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए अलग-अलग निदेशक हैं और आवश्यतानुसार अतिरिक्त निदेशक एवं उपनिदेशक हैं। इस विभाग  का मुख्य कार्य राज्य में अपने-अपने क्षेत्र में शिक्षा की व्यवस्था करना और उसमें गुणात्मक उन्नयन (quality upgrade) करना है। यह विभाग सरकार और शिक्षा संस्थाओं को जोड़ने का कार्य करता है, सरकार को राज्य की शिक्षा प्रगति के विषय में सूचना देता है और उसे राज्य की शैक्षिक माँगों की जानकारी देता है। शिक्षा निदेशालय अपने कार्यों का निष्पादन क्षेत्रीय एवं जनपदीय शैक्षिक प्रशासनिक संगठनों के माध्यम से करता है ये शैक्षिक प्रशासकीय संगठन हैं

(i) क्षेत्रीय स्तर पर शैक्षिक प्रशासन (Educational Administration at Regional Level) 

राज्य का शिक्षा निदेशालय अपने कार्यों को सुचारु रूप से सम्पादित करने के लिए राज्य को कई क्षेत्रों में विभाजित करता है।  प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक क्षेत्रीय बेसिक शिक्षा अधिकारी, एक-एक क्षेत्रीय माध्यमिक शिक्षा अधिकारी और एक-एक क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी नियुक्त हैं। ये सभी शिक्षा उपनिदेशक स्तर के अधिकारी हैं। ये क्षेत्रीय अधिकारी अपने-अपने शिक्षा निदेशालय के अन्तर्गत कार्य करते हैं और अपने-क्षेत्र में  क्षेत्र की शिक्षा  की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी हैं। 

(ii) जनपदीय स्तर पर शैक्षिक प्रशासन (Educational Administration at District Level)-

प्रत्येक क्षेत्रीय शिक्षा कार्यालय से कई जिले जुड़े हैं। जिले स्तर पर प्रत्येक जिले में एक जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी और एक माध्यमिक शिक्षा अधिकारी नियुक्त हैं। इनके अपने-अपने कार्यालय है। जिले की  बेसिक शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी है।


(iii) विकास खण्ड स्तर पर शैक्षिक प्रशासन (Educational Administration at Development  Block Level)-

किसी भी राज्य के जिलों को जनसंख्या के आधार पर कई का विकास खण्डों में विभाजित किया गया है। इन विकास खण्डों में एक-एक शिक्षा समिति होती है जिसका प्रमुख  शिक्षा अधिकारी होता है। यह समिति अपने विभाग खण्ड की प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था को देख-रेख के लिए उत्तरदायी होती है।

(iv) ग्राम पंचायत स्तर पर शैक्षिक प्रशासन (Educational Administrate at Gram Panchayat. Level) - 

प्रत्येक विकास खण्ड के अन्तर्गत कई ग्राम पंचायत होती है। इन ग्राम पंचायतों में एक शिक्षा समिति होती है जिसका मुखिया  ग्राम पंचायत प्रधान होता है। यह समिति अपने क्षेत्र की प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होती है।

राज्यों में शिक्षा के क्षेत्र में सलाह देने एवं विशेष कार्यों का सम्पादन करने के लिए कुछ अन्य शैक्षिक प्रशासिक संस्थाओं का गठन भी किया जाता है। ये संस्थाएँ हैं-

(i) राज्य शिक्षा सलाहकार बोर्ड (State Advisory Board of Education, SABE) सरकार को शिक्षा से सम्बन्धित सभी विषयों पर अपनी सलाह देता है। 

(ii) राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (State Councils of Educational Research and Training, SCERT)-  स्कूली शिक्षा के सम्बन्ध में सरकार को सलाह देना , स्कूली शिक्षा का पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों का निर्माण करना , सेवा पूर्व एवं सेवारत शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना  और शिक्षा के क्षेत्र में नवाचारों को प्रोत्साहित करना । 

(iii) माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (Board of Secondary Education, BSE)-   राज्य की माध्यमिक शिक्षा संस्थाओं को शर्तें पूरी करने पर मान्यता देना और मान्यता प्राप्त संस्थाओं का समय-समय पर निरीक्षण करना और उन पर नियन्त्रण करना, माध्यमिक स्तर के लिए पाठ्यक्रमों का निर्माण करना, पाठ्यपुस्तकों का निर्माण अथवा चयन करना और कक्षा 10 व कक्षा 12 की सार्वजनिक परीक्षाओं का सम्पादन करना । 

(iv) राज्य स्रोत केन्द्र (State Resource Centre (SRC) -  प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन, सामग्री तैयार करना, सामग्री का प्रकाशन करना, नवाचार प्रोजेक्ट, शोध अध्ययन और मूल्यांकन आदि कार्यक्रमों का आयोजन करना।

(v) उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान (Institute of Advance Studies in Education {IASE})- SSA, RMSA योजनाओं का प्रबंध देखना, शोध कार्यों को प्रोत्साहन देना , सेवापूर्व प्रशिक्षण देना।

(vi) अध्यापक शिक्षा महाविद्यालय (College of Teacher Education) 

(vii) जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (District Institute of Education and Training {DIET})- प्राथमिक शिक्षा एवं प्राथमिक शिक्षक शिक्षा के  प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।

(viii) जिला स्रोत इकाईयाँ (District Resource Unit) 

(ix)  ब्लाक स्रोत इकाईयाँ (Block Resource Unit)- प्राथमिक स्तर के अध्यापकों को सभी प्रकार की एकेडेमिक सहायता, शिक्षक शिक्षण, सामुदायिक गतिशीलता, क्रियात्मक अनुसंधान कार्य, प्रतियोगताएँ ।






केंद्रीय स्तर पर शिक्षा प्रशासन की संरचना (Structure of Educational Administration at Central Level)

केंद्रीय स्तर पर शिक्षा प्रशासन की संरचना (Structure of Educational Administration at Central Level)

शैक्षिक प्रशासन (Educational Administration)-

शैक्षिक प्रशासन एक ऐसे सेवा करने वाली गतिविधि है जिसके माध्यम से शैक्षिक प्रक्रिया के लक्ष्य  प्रभावशाली ढंग से प्राप्त किए जाते हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने शिक्षा विभाग को शिक्षा मन्त्रालय में परिवर्तित कर दिया। 1957 में शिक्षा मन्त्रालय के साथ वैज्ञानिक अनुसन्धान को भी जोड़ दिया गया।  1958 में इस मन्त्रालय को दो भागों में बाँट दिया गया-

1. शिक्षा मन्त्रालय (Ministry of Education),

2. वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं सांस्कृतिक मामलों का मन्त्रालय (Ministry of Scientific Research and Cultural Affairs) 

यह दोनों मन्त्रालय अलग-अलग राज्यमंत्री की अध्यक्षता में रखे गये। 1963 में पुनः इन दोनों मन्त्रालयों को दो भागों में विभक्त कर दिया गया

(i) शिक्षा विभाग (Department of Education)

(ii) विज्ञान विभाग (Department of Science)

यह दोनों ही मन्त्रालय शिक्षा मन्त्री की अध्यक्षता में संगठित किये गये और शिक्षा मन्त्री की सहायता के लिए एक या दो राज्य मन्त्री या उपमन्त्री होते हैं। 1964-65 में शिक्षा मन्त्रालय को पुनर्गठित किया गया और इसमें पाँच ब्यूरो तथा चार डिवीजनों की व्यवस्था की गई।

ब्यूरो (Buereaus) -

1. विद्यालयी शिक्षा (School Education)

2. उच्च शिक्षा (Higher Education)

3. छात्रवृत्तियाँ (Scholarships) 

4. नियोजन  तथा अधीनस्थ शैक्षिक सेवायें (Planning and Ancillary Education Services)

5. भाषाएँ, साहित्य एवं ललित कलाएँ (Language, Literature and fine Arts) 

डिवीजन (Division)

1. शारीरिक शिक्षा तथा मनोरंजन (Physical Education and Recreation) 

2. बाह्य सम्बन्ध (External Relations)

3. वैज्ञानिक अनुसन्धान (Scientific Resource)

4. प्रशासन (Administration) 

सन् 1967-68 में मन्त्रालय के ढाँचे में पुनः परिवर्तन किया गया और इसमें दो नये ब्यूरो जोड़े गये और इस प्रकार कुल सात ब्यूरो हो गये।

26 सितम्बर 1985 को शिक्षा मन्त्रालय के नाम को बदल कर मानव संसाधन विकास मन्त्रालय (Ministry of Human Resource Development) रखा गया, जिसमें पाँच विभाग बनाये गये- 

1. शिक्षा विभाग (Department of Education)

2. संस्कृति विभाग (Department of Culture) 

3. कला विभाग (Department of Arts)

4. युवा कल्याण एवं खेलकूद विभाग (Department of youth Affairs and Sports)

5. महिला एवं बाल देखभाल विकास (Department of Women and Child Care)

वर्तमान में केन्द्रीय स्तर पर शैक्षिक प्रशासन तीन स्तरों में विभाजित है— 

  • मन्त्रालय (Ministry) 
  • सचिवालय (Secretariate) 
  • शैक्षिक ब्यूरो  (Educational Buereaus) । 

शैक्षिक प्रशासन एवं उनके कार्य-

1. मानव संसाधन विकास मन्त्रालय (Ministry of Human Resource Development)-  मानव संसाधन मन्त्री इस मन्त्रालय के प्रमुख अधिकारी होते हैं। इस विभाग के राज्य शिक्षा मन्त्री शिक्षा विभाग के शैक्षिक प्रशासन के मुख्य अधिकारी होते हैं। मन्त्रालय का मुख्य कार्य शिक्षा  सम्बन्धी नीतियों का निर्माण करना है।

2. शिक्षा सचिवालय (Education Secretariate) - शिक्षा सचिव (Education Secretary) इस सचिवालय के मुख्य अधिकारी होते हैं। इनके अधीन अतिरिक्त सचिव, उपसचिव और सहायक सचिव होते हैं।  सचिवालय का मुख्य कार्य शिक्षा नीति का कार्यान्वयन है।

3. शैक्षिक व्यूरो (Educational Buereaus) -  वर्तमान में शिक्षा विभाग का प्रशासन निम्न विभागों में विभाजित है।

1. डीपीईपी (District Primary Education Programme)।

2. प्रारम्भिक शिक्षा एवं यु.अ. (Elementary Education and OL)। 

3. प्रौढ़ शिक्षा तथा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन  (Adult Education and National Literacy Mission)।

4. योजना (Planning)।

5. विश्वविद्यालयी तथा उच्च शिक्षा (University and Higher Education)।

6. माध्यमिक शिक्षा एवं प्रबन्धन (Secondary Education and Administration)।

7. पुस्तक संवर्धन, छात्रवृत्ति एवं यूटीएस (Book Promotion, Scholarship and UTS)। 

8. भाषाएँ (Languages)।

9. तकनीकी शिक्षा (Technical Education)।

10. व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education)।

11. वित्त (Finance)|

12. लेखा (Accounts)।

इन सब विभागों में एक-एक सहायक सचिव है जो मानव संसाधन विकास मन्त्री और मानव संसाधन विकास राज्य मन्त्री और शिक्षा सचिव को इन विभागों के कार्य कलापों में सहायक एवं संयोजक का कार्य करते है। इन सहायक सचिवों की सहायता के लिए प्रत्येक विभाग में कई अन्य अधिकारी और सहायक स्टाफ है। इन विभागों का कार्य अपने-अपने विभागों से सम्बन्धित शैक्षिक प्रशासन की व्यवस्था करना है।

केन्द्र सरकार ने शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न विभागों के कार्य क्षेत्र में परामर्श देने और तत्सम्बन्धी कार्यों का सम्पादन करने में सहयोग करने के लिए कुछ मण्डल, परिषद, संस्थान और आयोगों का गठन किया है।

1. केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Central Advisory Board of Education, CABE) - शिक्षा संबंधित नीतियों तथा कार्यों में सरकार को सलाह देना।

2. अखिल भारतीय प्रारम्भिक शिक्षा परिषद (All India Council of Elementary Education AICEE) - प्रारंभिक शिक्षा संबंधी नीति और कार्यक्रम तैयार करना।

3. राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान (National Institute of Adult Education, NIAE) - प्रौढ़ शिक्षा संबंधित नीति एवं कार्यक्रमों को तैयार करना तथा समस्याओं का समाधान करना।

4. राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान (National Institute of Educational Planning and Administration, NIEPA) - शैक्षिक योजनाओं के निर्माण एवं प्रशासनिक कार्यों में सरकार का सहयोग करना।

5. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission UGC) - उच्च शिक्षा के स्तर मान को बनाये रखना।

6. राष्ट्रीय ग्रामीण उच्च शिक्षा परिषद (National Rural Higher Education Council (NRHEC) - ग्रामीण उच्च शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण एवं संचालन करना।

7. अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा परिषद (All India Council of Secondary Education, AICSE) - माध्यमिक शिक्षा संबंधित नीति, कार्यक्रम एवं योजना बनाना तथा उससे संबंधित समस्याओं का समाधान करना।

8. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (National Council of Educational Research and Training, NCERT) -अनुसंधान, विस्तार कार्य, स्कूली शिक्षा व शिक्षक शिक्षा संबंधित नीतियों एवं कार्यक्रमों का संचालन करना।

9. राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद (National Council for Teacher Education, NCTE) - प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का निर्माण एवं नियंत्रण करना

10. केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय (Central Directorate of Hindi, CDH)-   राष्ट्रभषा हिंदी के स्वरूप का निर्धारण एवं प्रचार का कार्य करना।

11. अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (All India Council for Technical Education, AICTE) - तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रमों के निर्माण एवं उससे संबंधित समस्याओं का समाधान करना।

12. राष्ट्रीय स्त्री शिक्षा  परिषद (National Council of Women Education)- स्त्री शिक्षा के प्रसार से सम्बंधित कार्यक्रमों का निर्माण करना ।

Tuesday, August 10, 2021

व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-analytical Theory of Personality)

 

व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-analytical Theory of Personality)

प्रतिपादक -  सिगमंड फ्रायड

व्यक्तित्व का अध्ययन करने का सबसे प्रथम सिद्धान्त मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त है। फ्रायड ने व्यक्ति के व्यवहार को समझने तथा मानसिक विकारों से पीड़ित व्यक्तियों की चिकित्सा करने में मनोविश्लेषण विधि का अधिक प्रयोग किया जिससे उसको काफी प्रसिद्धि प्राप्त हुई। फ्रायड ने मूल प्रवृत्तियों को मानव व्यवहार का निर्धारक तत्व माना है। फ्रायड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त में मूल प्रवृत्तियों की अवधारणा व्यक्तित्व की गतिशीलता को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। मूल-प्रवृत्तियों का उल्लेख व्यक्ति की जन्म-जात समस्त मनःऊर्जा (Psychic ) के रूप में किया जाता है।  इन्होंने दो मूल प्रवृत्तियों की ओर ध्यान आकर्षित किया। 

(1) जीवन मूल-प्रवृत्ति या यौन-प्रेम (Life instinct or Eros ) :

जीवन मूल प्रवृत्ति व्यक्ति को जीवित रहने के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य करती है। जीवन मूल-प्रवृत्ति से सम्बन्धित सभी मूल-प्रवृत्तियों में निहित सम्पूर्ण मानसिक शक्ति को फ्रायड ने काम-शक्ति (Libido) का नाम दिया है। जीवन मूल-प्रवृत्ति के सभी कार्य इस काम शक्ति के द्वारा ही संचालित होते हैं। काम -शक्ति में अनेक जीवन मूल प्रवृत्तियों की शक्तियाँ सम्मिलित रहती हैं, जिनमें काम-वासना, भूख तथा प्यास मुख्य हैं। जीवन मूल-प्रवृत्तियों के सम्पूर्ण समूह को संगठित रूप में फ्रायड ने यौन-प्रेम (Eros) का नाम दिया है।


(2) मृत्यु मूल -प्रवृत्ति या मूमुर्षा  (Death instinct or Thanatos) : 

मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की सभी प्रकार की जैविक  आवश्यकताओं का अन्त हो जाता है। अर्थात् मृत्यु वह कारक है जो सभी मानवीय क्रियाओं के अन्त का कारण सिद्ध होता है। इसके बाद प्राणी को जैविक आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। मृत्यु मूल-प्रवृत्ति में मृत्यु प्राप्त करने की अचेतन भावना निहित रहती है। फ्रायड के अनुसार  प्राणी के जीवन का उद्देश्य मृत्यु है।


व्यक्तित्व की सरंचना (Structure of Personality)



व्यक्तित्व का स्थलाकृतिक पहलू (Topographical Aspect of Personality)

 व्यक्ति की स्थालाकृतिक संरचना में फ्रायड ने मन के तीन स्तरों का वर्णन किया है-चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन । 

(i) चेतन (Conscious) :-  चेतन मन का वह भाग है जिसमें वे अनुभूतियाँ (experiences) निहित रहती हैं, जिनके बारे में व्यक्ति पूर्णतः अवगत रहता है। यह उन विचारों, भावनाओं, तथा सूचनाओं का भण्डार होता है जिनका व्यक्ति आसानी से तुरन्त स्मरण कर सकता है।

(ii) अर्धचेतन अथवा अवचेतन (Subconscious or Preconscious) : - व्यक्ति के अर्ध-चेतन मन में वे अनुभूतियाँ निहित रहती हैं जिनकी उसे वर्तमान में पूर्णतः जानकारी नहीं रहती है लेकिन थोड़ा प्रयास करने पर उनसे अवगत हुआ जा सकता है अर्थात् यह व्यक्ति के मन का वह भाग है जिसमें संचित अनुभूतियों को वह थोड़ा प्रयास करने पर स्मृति पटल पर वापिस ला सकता है।

(iii) अचेतन (Unconscious):  फ्रायड का मानना  था  कि व्यक्ति का व्यवहार उसके चेतन मन  की अपेक्षा अचेतन मन  अधिक  प्रभावित करता  है।  व्यक्ति का अचेतन मन उन इच्छाओं तथा प्रवृत्तियों का भण्डार होता है जिनकी पूर्ति वह वास्तविक जीवन (real life) में नहीं कर पाता है। ये अतृप्त इच्छाए तथा प्रवृत्तियाँ व्यक्ति के चेतन मन से हटकर दमन की प्रक्रिया के द्वारा उसके अचेतन में संगृहीत होती जाती हैं। आगे चलकर ये दमित इच्छाएँ व्यक्ति के व्यवहार को अनेक प्रकार से प्रभावित करती हैं। फ्रायड ने व्यक्तित्व की तुलना आइसवर्ग से की है जिसका 1/10 हिस्सा पानी से ऊपर रहता है। तथा 9/10 हिस्सा पानी में डूबा रहता है। अतः हमारे व्यक्तित्व का अधिकांश भाग अचेतन के रूप में हिमखण्ड की तरह से अदृश्य रहता है। अचेतन में दमित इच्छाओं को व्यक्ति संघर्ष के बाद ही चेतन स्तर पर ला पाता है।

 जैसे-  स्वप्न में दमित इच्छाओं की पूर्ति होते हुए दिखाई देना, किसी चीज का अचानक याद आ जाना, सम्मोहन की अवस्था में प्रश्नों का उत्तर देना, अनायास मुँह से अवांछित शब्दों का निकलना, लिखते समय असंभावित त्रुटियाँ होना तथा सोते समय समस्याओं का समाधान होना आदि क्रियाएँ अचेतन के अस्तित्व (existence) को दर्शाती हैं।


व्यक्तित्व का गत्यात्मक पहलू (Dynamic Aspect of Personality) 


व्यक्तित्व के गत्यात्मक पहलू से फ्रायड का तात्पर्य उस उपक्रम (System) से है जिसके द्वारा व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों से उत्पन्न होने वाले संघर्षों का समाधान करने का प्रयास किया जाता है। ये तीन प्रकार के  हैं -


(i) Id (इदम् ) :-  यह व्यक्तित्व का वह मूल तन्त्र (System) है जो व्यक्ति की जन्मजात मनःशक्तियों का भण्डार होता। है। इसकी प्रकृति मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर करती है। यह अहम् तथा पराहम् के संचालन के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। यह आनन्द प्राप्ति के सिद्धान्त पर कार्य करता है।  अतः यह तनाव कम करने के लिए आनन्द पथ का अनुसरण करता है, चाहे वह पथ अच्छा हो अथवा बुरा हो अर्थात् इसका यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। यह सहज् क्रियाओं (Reflex actions) तथा प्राथमिक प्रक्रिया (Primary process) को नियन्त्रित करता है। सहज् क्रियाएँ जन्मजात तथा स्वतः संचालित (automatic) क्रियाएँ होती हैं जैसे - छींकना, पलकें झपकना आदि। ये क्रियाएँ तनाव को तुरन्त दूर करती हैं। प्राथमिक प्रक्रियाओं से प्रतिमाओं के द्वारा तनाव को कम करने का प्रयास किया जाता है जैसे भूख लगने पर अच्छे भोजन की प्रतिमाओं को स्मृति में लाना। लेकिन खाने की प्रतिमाओं द्वारा भूख से उत्पन्न तनाव वास्तविक (Realistic) रूप में दूर नहीं हो पाता है। इदम् यौन प्रवृत्ति तथा आक्रामकता पर आधारित होता है और यह पूर्णतः अचेतन होता है। यह व्यक्तित्व का जैविक पहलू है| 

(ii) अहम् (Ego): यह इदम् तथा बाह्य जगत् दोनों के सम्पर्क में रहता है तथा इदम् की इच्छाओं को सामाजिक परिवेश के दायरे में सन्तुष्ट करने के उपाय जुटाता है। इसकी प्रकृति तार्किक होती है तथा यह इदम् तथा पराहम् के बीच सम्बन्ध  स्थापित करने का प्रयास करता है। अहम् द्वितीय प्रक्रिया द्वारा संचालित होता है  इसकी गतिविधियाँ वास्तविक चिन्तन (realistic thinking) पर आधारित होती हैं। जिस व्यक्ति का अहम् सशक्त (strong) होता है वह इदम् पर नियन्त्रण करके वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने में सफल रहता। है। अहम् यर्थायता के सिद्धान्त पर कार्य करता है। अहम् का विकास माता-पिता तथा बालक के सम्पर्क में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा होता है। अहम् को व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक पहलू माना जाता है ।

(iii) पराहम् (Super ego) :- पराहम् नैतिकता के सिद्धान्त पर कार्य करता है यह पूर्णतः चेतन होता है। यह मन का वह भाग है जिसे हम अन्तरात्मा (Conscience) कहते हैं । यह अहम् को उन्हीं कार्यों को करने की स्वीकृति देता है जो नैतिक मूल्यों (Moral values) के दायरे में आते हैं। पराहम् हमेशा इद्म के सम्पर्क में रहता है तथा उसकी अवांछित इच्छा पर नियन्त्रण करने की हर कोशिश करता है। यह अहं को भी नियन्त्रित करता है। इसका विकास माता-पिता तथा अध्यापक द्वारा दिए  संस्कारों और अपनाये गए आदर्शों द्वारा होता है । पराह्म व्यक्तित्व का सामाजिक पहलु माना जाता है ।

 फ्रॉयड ने आगे स्पष्ट किया कि अहम् (Ego) सदैव इदम् (Id) और पराहम् (Super Ego) के बीच साम॑ज॒स्य॒ स्थापित करने का प्रयास करता है; जिन व्यक्तियों में यह सामंजस्य हो जाता है वे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों क्षेत्रों में समायोजन करने में समर्थ होते हैं और उन्हें सुसमायोजित व्यक्तित्व (Well Adjusted Personality) कहा जाता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों में इदम् अहम् और पराहम के बीच संघर्ष बना रहता है वे व्यक्ति व्यक्तिगत अथवा सामाजिक किसी  भी क्षेत्र में समायोजन नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्तियों को कुसमायोजित व्यक्तित्व (Mal- Adjusted Personality) का कहा जाता है।


व्यक्तित्व का  विकास (Development of Personality)

 फ्रॉयड ने मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाएं   बताई हैं -

(1) मुखावस्था  (Oral Stage) : यह अवस्था जन्म से एक वर्ष की उम्र तक चलती है, जिसमें बालक मुख की क्रियाओं द्वारा लैंगिक सुख  प्राप्त करता है। स्तनपान करना, अंगूठा चूसना तथा अन्य चीजों को मुँह में डालना आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं।

(2) गुदा अवस्था  (Anal Stage):  यह अवस्था तीन वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था में बच्चा मल-मूत्र को त्यागने तथा कभी-कभी रोकने में लैंगिक सुख की प्राप्ति करता है। मल त्यागते समय वे काफी देर तक बैठे रहते हैं। 

(3) लिंग प्रधान अवस्था (Phallic Stage): यह अवस्था तीन वर्ष से पाँच वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में बच्चे अपने हाथों से जननेन्द्रियों को स्पर्श करके लैंगिक सुख की प्राप्ति करते हैं। इस में दो प्रकार की ग्रंथियों का निर्माण होता है -

1. Oedipus Complex-  मातृ-मनोग्रंथि -

  • लड़कों में पायी जाती है ।
  • माँ के प्रति प्रेम ।

2. Electra Complex- पितृ -ग्रंथि 

  • लड़कियों में पायी जाती है ।
  • पिता के प्रति प्रेम ।

(4) अव्यक्त अवस्था  (Latency Stage): यह अवस्था 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था में बच्चे सामाजिक दबाव में आकर लैंगिक इच्छाओं को अनैतिक मानकर उनका दमन करते हैं।

(5) जननेन्द्रिय अवस्था (Genital Stage) : यह अवस्या 13 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में किशोर पहले  समलिगियों तथा बाद में विषमलिगियों (Opposite sex) के साथ  सम्बन्ध बनाने में आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं ।


Monday, August 9, 2021

व्यक्तित्व का लक्षण सिद्धान्त (Trait Theory of Personality)

 व्यक्तित्व का लक्षण सिद्धान्त (Trait Theory of Personality)

ऑलपोर्ट का लक्षण सिद्धान्त (Allport's Trait Theory) 

 ऑलपोर्ट ने 1922 में  अपने शोध "An Experimental study of the Traits of Personality". में शीलगुणों/लक्षणों का अध्ययन किया ।इन शीलगुणों को व्यक्तित्व की बुनियादी इकाई (Basic Units of Personality) के रूप में निर्धारित किया। उनके  अनुसार व्यक्तित्व व्यक्ति का वह व्यवहार है जो उसमें निहित कुछ लक्षणों (Traits) से निर्देशित होता है। ऑलपोर्ट ने व्यक्तित्व लक्षणों (Personality Traits) को दो वर्गों में विभाजित किया है- 

1. सामान्य लक्षण (Common Traits) 

2. व्यक्तिगत लक्षण (Personal Traits) ।

1. सामान्य लक्षण (Common Trait) : 

सामान्य लक्षणों के वर्ग में  उन लक्षणों को रखा गया है जो किसी समाज के सभी व्यक्तियों में पाए जाते हैं और जिन लक्षणों से समाज विशेष के सामाजिक मूल्यों (Social Values) और सामाजिक रीति-रिवाजों (Social Mores) की झलक मिलती है।  इनके अनुसार व्यक्तियों में इन लक्षणों का विकास सामाजिक दबाव में होता है, ये व्यक्ति के मौलिक लक्षण नहीं होते। ये  लक्षण किसी  भी समाज के सभी व्यक्तियों में पाए जाते हैं अतः इनके आधार पर उनके व्यक्तित्व की व्याख्या नहीं की जा सकती। इनमे सहयोग करने की भावना एक सामान्य लक्षण  है। यह भावना प्रत्येक व्यक्ति में कम अथवा अधिक मात्रा में पाई जाती है। इसी प्रकार सामान्य मानसिक योग्यता भी एक सामान्य लक्षण है जो सभी व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाई जाती है।


2. व्यक्तिगत लक्षण (Personal trait): 

व्यक्तिगत लक्षण वे गुण होते  हैं जो व्यक्ति विशेष में पाये जाते हैं। ये गुण  व्यक्ति के लिए अद्वितीय या अनूठे (Unique) होते हैं। अतः इनको अद्वितीय लक्षण (Unique trait) के नाम से भी जाना जाता है। व्यक्तिगत लक्षणों के वर्ग में ऑलपोर्ट ने उन लक्षणों को रखा है जो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न होते हैं। और भिन्न-भिन्न मात्रा (Degree) में पाए जाते  हैं। ऑलपोर्ट के अनुसार मनुष्य की समायोजन की क्रियाएँ (Acts of Adjustment) इन्हीं लक्षणों से निर्देशित होती हैं। उन्होंने इन्हीं लक्षणों को व्यक्तित्व भिन्नता (Personality Differences) का आधार माना है। उनकी दृष्टि से व्यक्तित्व इन लक्षणों का योग या बंडल नहीं, इनका एक समाकलित (Integrated) रूप होता है।

ऑलपोर्ट ने व्यक्तिगत लक्षणों (Personal Traits) को व्यक्तिगत प्रवृत्ति (Personal Dispositions) की संज्ञा दी है। उन्होंने इस प्रकार की लगभग 18,000 व्यक्तिगत प्रवृत्तियों के होने का दावा किया है इनकी दृष्टि से इनमें से कुछ प्रवृत्तियों व्यक्तित्व की परिधि (Periphery) पर होती हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से देखा-समझा जा सकता है और कुछ व्यक्तित्व के अन्दर अर्थात् केन्द्र (Center) में होती हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से देखना-समझना कठिन होता है।


ऑलपोर्ट ने इन सब प्रवृत्तियों को तीन वर्गों में विभाजित किया है-

(i) मुख्य /कार्डिनल प्रवृत्तियाँ (Cardinal dispositions):- 

ये वे प्रवृत्तियाँ हैं जिन्हें मनुष्य के व्यवहार में आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि ये प्रवृत्तियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि इन्हें छिपाया नहीं जा सकता है। व्यक्ति के प्रत्येक व्यवहार में इनकी झलक दिखाई देती है और इन प्रवृत्तियों के आधार पर ही कोई व्यक्ति विशेष चर्चित होता है, 

जैसे- महात्मा गांधी शान्ति और अहिंसा की कार्डिनल प्रवृत्ति तथा सरदार पटेल कठोरता की कार्डिनल प्रवृत्ति के कारण क्रमशः अहिंसा का पुजारी तथा लौह पुरुष के रूप में संसार भर में जाने जाते हैं।


(ii) केन्द्रीय प्रवृत्तियाँ (Central dispositions): -

ये वे  प्रवृत्तियाँ हैं जो व्यक्ति के भीतर होती हैं। इनके द्वारा ही व्यक्ति का व्यक्तित्व सक्रिय रहता है। व्यक्तित्व इस प्रकार की 5 से  10 प्रवृत्तियों द्वारा ही अधिक प्रभावित होता है। सामाजिकता (Sociability). आत्म-विश्वास (Self-confidence) तथा साहसिकता आदि केन्द्रीय प्रवृत्ति के उदाहरण हैं।


(iii) गौण प्रवृत्तियाँ (Secondary dispositions ) : -

ये वे प्रवृत्तियाँ हैं जो व्यक्ति के लिए कम महत्त्वपूर्ण होती हैं और जिनकी संगतता (Consistency) तथा स्थिरता (Stability) भी कम होती है। इस प्रकार की प्रवृत्तियों में व्यक्ति के आदत जन्य व्यवहार आते हैं। 

जैसे- हेयर स्टाइल, खाने-पीने की आदतें, विशेष प्रकार की पोशाक पहनना आदि।

ऑलपोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कोई प्रवृत्ति किसी एक व्यक्ति के लिए केन्द्रीय प्रवृत्ति हो सकती है और किसी दूसरे के लिए गौण प्रवृत्ति, यह व्यक्ति में उसकी दृढ़ता (Consistency) पर निर्भर करता है। ऑलपोर्ट के अनुसार इन प्रवृत्तियों से मनुष्य का व्यवहार निर्देशित होता है। उनके अनुसार यह अभिव्यक्त व्यवहार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिचायक होता है, इसी के आधार पर किसी व्यक्ति को समझा जा सकता है और किन्हीं दो व्यक्तियों के व्यक्तित्व में भेद किया जा सकता है। 

ऑलपोर्ट के इस सिद्धान्त से अधिकतर मनोवैज्ञानिक सहमत हैं परन्तु कुछ मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि ऑलपोर्ट ने यह सिद्धान्त केवल स्वस्थ प्रौढ़ों (Healthy Adults) के व्यवहारों के अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित किया है, इसे मनोविकृत व्यक्तियों पर लागू नहीं किया जा सकता, इसलिए यह अपने में अर्द्धसत्य ही है, पूर्ण सत्य नहीं।


कैटिल का लक्षण सिद्धान्त (Cattell's Trait Theory)


केटिल के अनुसार व्यक्तित्व का सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य (Internal) एवं आन्तरिक (External) दोनों प्रकार के व्यवहार से होता है। उन्होंने किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए व्यक्ति (Person), परिस्थिति (Situation) और इन दोनों के बीच होने वाली अन्तः क्रियाओं (Interactions) के अध्ययन को आवश्यक माना है।

कैटिल ने ऑलपोर्ट द्वारा बताए गए 18,000 व्यक्तित्व लक्षणों में से सर्वप्रथम 4500 लक्षणों का चयन किया। इसके  बाद इनमें से समानार्थक (Synonym) शब्दों को निकालकर 200 लक्षणों का चयन किया और अन्त में विश्लेषण (Factor Analysis) द्वारा केवल 35 लक्षणों का चयन किया। इस आधार पर उनके इस सिद्धान्त को 'प्रतिकारक प्रणाली सिद्धान्त' (Factorial System Theory) भी कहते हैं। कैटिल ने इन 35 लक्षणों को दो वर्गों में विभाजित किया। एक सतही लक्षण (Surface Traits) और दूसरे स्रोत लक्षण (Source Traits)।


1. सतही लक्षण (Surface Traits) : 

कैटिल ने सतही लक्षणों में उन लक्षणों को रखा है जो मनुष्य के व्यवहार को प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार के लक्षण व्यक्ति की दिन-प्रतिदिन की अन्तःक्रियाओं में आसानी से परिलक्षित होते रहते हैं। इन गुणों की अभिव्यक्ति पूर्ण रूप से स्पष्ट नजर आती है। प्रसन्नता, सत्यनिष्ठा, चिन्ता (Anxiety), सहभागिता (Co-operation) आदि सतही लक्षणों के उदाहरण हैं।


2. स्रोत या मूल लक्षण (Source Traits): 

व्यक्तित्व के मूल लक्षण प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त नहीं होते हैं। ये व्यक्ति के व्यवहार को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। ये मूल लक्षण वे आधारभूत संरचनाएँ हैं, जो व्यक्तित्व का केन्द्र मानी जाती है। इन मूल लक्षणों का ज्ञान हमें तब होता है जब कई सतही गुण एक साथ मिलकर किसी मूल गुण के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। जैसे परोपकारिता, प्रसन्नता, मिलनसार तथा निःस्वार्थता नामक सतही गुण जब एक साथ किसी व्यक्ति के व्यवहार में परिलक्षित होते हैं तो वे मित्रता नामक मूल गुण के रूप में प्रकट होते हैं। मूल लक्षणों को दो भागों में विभक्त किया जाता है।

(a) शारीरिक रचना सम्बन्धी लक्षण (Constitutional Traits) : शारीरिक संरचना से सम्बन्धित लक्षणों का स्रोत प्राणी की आन्तरिक अवस्थाओं को माना जाता है।

(b) पर्यावरणीय लक्षण (Environmental traits) : ये लक्षण व्यक्ति के भौतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक वातावरण से प्रभावित होते हैं। इन तीनों प्रकार के वातावरणों से अर्जित गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के रूप में अभिव्यक्त होते हैं।

कैटिल के अनुसार इन लक्षणों के परस्पर सम्बन्ध बड़े जटिल होते हैं और इनकी अन्तःक्रिया ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को निर्धारित करती है। कैटिल के अनुसार 35 में से 23 लक्षण ऐसे हैं जो सामान्य व्यक्तियों में पाए जाते हैं और 12 लक्षण ऐसे हैं जो कुछ विशेष व्यक्तियों में पाए जाते हैं और इन 23 लक्षणों में से भी 16 लक्षण ऐसे हैं जो व्यक्तित्व के महत्त्वपूर्ण लक्षण होते हैं। उन्होंने इन 16 लक्षणों के आधार पर एक व्यक्तित्व मापन प्रश्नावली भी बनाई जिसे 16 व्यक्तित्व लक्षण प्रश्नावली (16 P.F. Questionnaire) कहते हैं। 








Sunday, August 8, 2021

व्यक्तित्व के प्रकार (Types of Personality)

 व्यक्तित्व के प्रकार (Types  of Personality)


 विभिन्न मनोवैज्ञानिकों, विद्वानों द्वारा  व्यक्तित्व के  अलग - अलग वर्गीकरण  किये गए हैं  -

1. स्वभाव के आधार पर वर्गीकरण (Classification according to temperaments)- 

हिप्पोक्रेटस् (Hyppocrates) एवं  गेलेन (Gallen) ने व्यक्तियों को स्वभाव के आधार पर चार भागों में विभक्त किया है-

(i)  उग्र स्वभावी (Chalenic)-  इस वर्ग में गैलेन ने शक्तिशाली एवं उग्र स्वभाव वाले व्यक्तियों को रखा है। इस वर्ग के व्यक्तियों को क्रोध बहुत शीघ्र आता है।

(ii) चिन्ताग्रस्त (Melancholy)-  इस वर्ग में गेलेन ने चिन्ता से ग्रस्त रहने वाले व्यक्तियों को रखा है। इस वर्ग के व्यक्ति प्रायः उदास रहते हैं और निराशावादी होते हैं।

(iii) निरुत्साही (Phlegmatic)-  इस वर्ग में गेलेन ने उत्साहहीन व्यक्तियों को रखा है। इस वर्ग के व्यक्ति प्रायः शान्तिप्रिय और आलसी  होते हैं।

(iv) उत्साही (Sanguine)-  इस वर्ग में गेलेन ने उत्साह से पूर्ण व्यक्तियों को रखा है। इस वर्ग के व्यक्ति आशावादी और क्रियाशील होते हैं। 


2. शारीरिक रचना के अनुसार वर्गीकरण (Classification according to physical structure) - 

  • मनोवैज्ञानिक शेल्डन (W.H. Sheldon) ने मनुष्य की शरीर रचना और उसके व्यक्तित्व के बीच सम्बन्धों का अध्ययन करके व्यक्तित्व के तीन प्रकार बताये हैं -


(i) गोलाकार (Endomorphic)-   इस आकार के व्यक्ति अधिक मोटे , गोल,  कोमल और स्थूल शरीर के होते हैं।यह   आराम पसन्द, शौकीन मिजाज, भोजनप्रिय और प्रसन्नचित प्रकृति के होते हैं। साथ ही परम्परावादी, सहनशील और सामाजिक होते हैं। ये परेशानी आने पर जल्दी घबरा  जाते हैं।

(ii) आयताकार (Mesomorphic)-   इस आकार के व्यक्ति जोशीले, रोमांचप्रिय, प्रभुत्ववादी और उद्देश्य केन्द्रित होते हैं। साथ ही क्रोधी प्रकृति के होते हैं। इनकी रीड की हड्डी मजबूत होती है तथा किसी परेशानी के आने पर ये उसका साहस के साथ समाधान करने का प्रयास करते हैं।

(iii) लम्बाकार (Ectomorphic)-  ऐसे व्यक्ति दुबले - पतले , कोमल , कमजोर शरीर वाले होते है। इस आकार के व्यक्ति शान्तिप्रिय एवं एकान्तप्रिय होते हैं। ये अल्प निद्रा वाले होते हैं और शीघ्र थक जाने वाले होते हैं। साथ ही निष्ठुर प्रकृति के होते हैं। इनकी रीड की हड्डी कमजोर होती है तथा ये परेशानी आने पर अन्दर ही अन्दर कुढ़ते रहते हैं और संकोचवश अपनी बात दूसरों के सामने नहीं बताते हैं।


मनोवैज्ञनिक कैचमेर  (Kretschmer)  ने व्यक्तित्व के तीन प्रकार बताये है -

(i) निबलकाय (Asthenic)-  इस प्रकार का व्यक्ति लम्बा लेकिन दुबला होता है उसके चेहरे की बनावट चपटी होती है यह अन्य लोगों से अलग रहना पसन्द करता है। यह स्वभाव से दूसरों की आलोचना करने में आनन्द लेता है लेकिन अपनी आलोचना पसन्द नहीं करता है।

(ii) सुडौलकाय  (Athletic) - इस प्रकार के व्यक्ति शरीर से हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होते हैं उनके शरीर का गठन सन्तुलित तथा सुदृढ़ होता है इनमें सामंजस्य की क्षमता अधिक होती है। 

(iii) गोलकाय  (Pyknic) - इस प्रकार के व्यक्ति बौने  तथा गोल-मटोल होते हैं। इनका चेहरा गोल तथा पेट बड़ा होता है। ये आराम तलब तथा प्रसन्नचित्त प्रकृति के होते हैं।


3. मनोवैज्ञानिक गुणों के आधार पर (On the basis of psychological characteristics)— 

 मनोवैज्ञानिक जुंग (Jung) ने मनुष्य की मानसिक प्रकृति और उसके व्यक्तित्व के बीच सम्बन्धों का अध्ययन करके व्यक्तित्व के दो प्रकार बताये हैं -

(i) बहिर्मुखी (Extrovert) -   इस प्रकार के व्यक्ति सामाजिक प्रवृत्ति के होते हैं। ये अन्य व्यक्तियों से मिलना-जुलना पसन्द करते हैं और समाज के लिए उपयोगी होते हैं। ये आदर्शवादी (Idealistic) कम और यथार्थवादी (Realistic) अधिक होते हैं। ये आशावादी (Optimistic) होते हैं और सदैव प्रसन्न रहते हैं। ये खाने-पीने और खिलाने-पिलाने में विश्वास करते हैं और मस्त रहते हैं। इनमे आत्मप्रदर्शन की भावना अधिक होती है।   इस प्रकार के व्यक्ति अधिकतर सामाजिक, राजनैतिक या व्यापारिक नेता, अभिनेता, खिलाड़ी आदि बनते हैं । 

(ii) अन्तर्मुखी (Introvert) - इस प्रकार के व्यक्ति एकान्त प्रिय होते हैं, दूसरों से मिलना-जुलना कम पसन्द करते हैं। और कुछ ही लोगों से मित्रता करते हैं। ये प्रायः रूढ़िवादी (Conservative) प्रकृति के होते हैं और पुराने रीति-रिवाजों को आदर देते हैं। ये अच्छे लेखक होते हैं परन्तु अच्छे वक्ता नहीं होते । ये अध्यनशील एवं मननशील होते हैं ।  प्रायः ऐसे व्यक्ति किताबी कीड़े होते हैं और आगे चलकर वैज्ञानिक , दार्शनिक और अन्वेषक बनते हैं । 

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इस वर्गीकरण की आलोचना की और कहा की अधिकतर लोगों में अंतर्मुखी तथा बहुर्मुखी दोनों प्रकार के गुण पाए जाते हैं ।  वर्तमान में इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है । 

(iii) उभयमुखी(Ambivert)- इस प्रकार का व्यक्ति अन्तर्मुखी गुणों को विचार में ला सकता है और बहिर्मुखी गुणों को कार्य रूप में स्थान दे सकता है। उदा०-  एक व्यक्ति अच्छा लेखक और वक्ता दोनों हो सकता है, एक व्यक्ति सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करता है किन्तु वह कोई कार्य अकेले ही करना पसन्द करता है। उभयमुखी व्यक्ति अपना तथा समाज दोनों का लाभ देखता है।

4. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के आधार पर वर्गीकरण (Classification on the basis of sociological point of view) 

मनोवैज्ञानिक  स्प्रेंजर (Spranger) ने   अपनी पुस्तक (Type of Men) में व्यक्तित्व को  6 वर्गों में विभाजित किया है -

(i) सैद्धान्तिक (Theoretical)-  इस वर्ग में स्प्रेन्जर ने उन व्यक्तियों को रखा है जो सदैव ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक रहते हैं. सिद्धान्तों को महत्त्व देते हैं और कष्ट सहनकर भी आदर्शों का पालन करते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः अव्यावहारिक होते हैं । दार्शनिक , समाज सुधारक इसी कोटि में आते हैं 

(ii) आर्थिक (Economical)-  इस वर्ग में स्प्रेन्जर ने उन व्यक्तियों को रखा है जो भौतिक सुखों के इच्छुक होते हैं, धन को अधिक महत्त्व देते हैं और धनार्जन के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः व्यावहारिक होते हैं। इस श्रेणी में व्यापारी आते हैं 

(iii) सामाजिक (Social) - इस वर्ग में स्प्रेन्जर ने उन व्यक्तियों को रखा है जो समाज और सामाजिक सम्बन्धों को अधिक महत्त्व देते हैं दयालु, त्यागी और परोपकारी होते हैं, समाज सेवक एवं समाज सुधारक होते हैं। ऐसे व्यक्ति बहुत अधिक व्यवहारकुशल होते हैं।

(iv) राजनैतिक (Political)- इस वर्ग में स्प्रेन्जर ने उन व्यक्तियों को रखा है जो राजकार्य में रुचि लेते हैं, राजसत्ता से जुड़े रहना चाहते हैं और राज्य में अपनी भागीदारी चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति राजनैतिक दाँव-पेंच में बड़े माहिर होते हैं।

(v) धार्मिक (Religious) - इस वर्ग में स्प्रेन्जर ने उन व्यक्तियों को रखा है जो ईश्वर में विश्वास करते हैं, दैवीय प्रकोप से डरते हैं और आध्यात्मिक मूल्यों का पालन करते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः आत्मसन्तोषी एवं परोपकारी होते हैं। जैसे - साधु , संत , योगी, दयालु और धर्मात्मा व्यक्ति 

(vi) सौन्दर्यात्मक (Aesthetic)-  इस वर्ग में स्प्रेन्जर ने उन व्यक्तियों को रखा है जो सौन्दर्य प्रिय होते हैं। ऐसे व्यक्तियों का झुकाव प्रायः कला, संगीत एवं नृत्य आदि की ओर अधिक होता है।


5. भगवद्गीता के अनुसार  - भगवद्गीता  में गुणों के आधार पर व्यक्तित्व के चार स्तर  बताये गए हैं -


1. तामसिक (Tamasic) -   यह व्यक्तित्व का सबसे निम्न स्तर है। इन व्यक्तियों में तमस नामक गुण की प्रधानता होती है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के व्यक्तित्व वाला व्यक्ति अज्ञान (ignorance), आलस्य (dullness), लापरवाही (Negligence) तथा अन्य दुर्गुणों से ग्रसित होता है।


2. राजसिक (Rajasic)-     इस प्रकार के व्यक्तियों में रजस गुण की प्रधानता होती है। इस व्यक्तित्व वाले व्यक्ति लालची (greedy), कर्मशील (active), बैचेन (restless) तथा अभिलाषी किस्म के होते हैं। रजस को तृष्णा (thirst), मोह (attachment) तथा क्रोध (Passion) का स्रोत (source) माना जाता है।


3.  सात्विक (Sattvic)-  इस प्रकार के व्यक्तियों में सत्त्व नामक गुण की प्रधानता होती है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति ज्ञान (knowledge) तथा दिव्य प्रकाश (light) से ओत-प्रोत होते हैं। इस स्तर तक वे ही व्यक्ति पहुँच पाते हैं जो तामसिक तथा राजसिक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। इस स्तर पर पहुँच कर व्यक्ति सदैव प्रसन्नचित्त रहता है। इतना होने पर भी यह आदर्श व्यक्तित्व नहीं माना जाता है और व्यक्ति से आशा की जाती है कि वह गुणातीत स्तर पर पहुँचने का प्रयास करे । 

4. गुणातीत (Gunatit)-  यह व्यक्तित्व का सर्वोच्च स्तर है। इस स्तर तक वे ही व्यक्ति पहुँच पाते हैं जो उपर्युक्त तीनों स्तरों की अभिवृत्तियों से प्रभावित नहीं होते हैं। यह सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ तथा मित्र-शत्रु आदि स्थितियों में समभाव रहता है अर्थात् इन सब का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को ब्रह्मज्ञानी अथवा स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।



Monday, August 2, 2021

व्यक्तित्व विकास के निर्धारक (Determinants of Personality Development)

 व्यक्तित्व विकास के निर्धारक (Determinants of Personality Development)

मनुष्य में  किसी भी प्रकार के विकास के दो मुख्य कारक होते हैं- 

1. वंशानुक्रम (Heredity) 

2. पर्यावरण (Environment) | 

व्यक्तित्व का निर्माण भी इन्हीं दो मूल कारकों पर निर्भर करता है इसलिए इन्हें व्यक्तित्व निर्माण के निर्धारक (Determinants) कहा जाता है। व्यक्तित्व वंशानुक्रम एवं पर्यावरण (heredity and environment) के प्रभाव का योग नहीं, गुणनफल होता है। (व्यक्तित्व = वंशानुक्रम * पर्यावरण)।  इनमें से किसी एक के भी अभाव में व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास नहीं हो सकता। 


वंशानुक्रमीय अथवा जैविक निर्धारक (Biological Determinants)


वंशानुक्रम से तात्पर्य मनुष्य की जैविक संरचना और जैविक क्रियाओं से होता है। इसलिए व्यक्तित्व के वंशानुक्रमीय निर्धारकों को जैविक निर्धारक (Biological Determinants) भी कहते हैं। व्यक्तित्व के वंशानुक्रमीय अथवा जैविक निर्धारकों में मुख्य रूप से निम्न निर्धारक आते हैं


1. शारीरिक रचना (Physical Structure)- 

व्यक्ति की शरीरिक बनावट में पित्रैक (Genes) की मुख्य भूमिका होती है। ये पित्रैक (Genes) ही वंशानुक्रम के वास्तविक वाहक (messenger) होते हैं। इन पित्रैकों ((Genes) की संख्या बहुत अधिक होती है और ये भिन्न-भिन्न गुणों के वाहक होते हैं। माता-पिता के संयोग के समय जिन गुणों के पित्रैकों का संयोग होता है, बच्चा उन्हीं गुणों को लेकर पैदा होता है। मनुष्य के शरीर के अंगों का अनुपात, उसकी लम्बाई एवं भार, उसका रंग-रूप, उसकी मुखाकृति और उसकी बुद्धि, इन सबका निर्धारण ये पित्रैक ही करते हैं। कोई बच्चा लड़का होगा या लड़की, बलिष्ट होगा या निर्बल (strong or weak), लम्बा होगा या नाटा, गोरा होगा या काला और सुन्दर होगा या कुरूप, यह सब पित्रैकों के संयोग (combination of Genes) पर निर्भर करता है।


2. बुद्धि (Intelligence) - 

कुछ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बुद्धि भी जन्मजात होती है, ये भी पित्रैकों (Genes) से होती है। यह भी वंशानुक्रमीय अथवा जैविक कारकों में आती है। भारतीय योग मनोवैज्ञानिक का मनना है कि यौगिक क्रियाओं द्वारा मनुष्य अपनी  बुद्धि में 30 से 40% तक वृद्धि कर सकते हैं। पर यथा यौगिक क्रियाओं को करना बड़ा कठिन कार्य है। कुछ व्यक्ति ही यह साधना कर सकते हैं, शेष को तो अपनी जन्मजात बुद्धि पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जो व्यक्ति जितना अधिक बुद्धिमान होता है उसमें उतनी ही अधिक आत्मचेतना (Self Consciousness), सामाजिकता (Sociability), सामंजस्यता (Adjustability) और दृढ़ इच्छाशक्ति (Strong-Will Power) होती है और ये सब उत्तम व्यक्तित्व के लक्षण होते हैं। तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य की बुद्धि उसके व्यक्तित्व निर्माण का एक मुख्य कारक होती है।


3. नलिकाविहीन अथवा अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Ductless or Endocrine Glands) -

मानव शरीर में दो प्रकार की ग्रंथियां होती हैं- 

  • नलिका ग्रन्थियाँ (Ductal glands) ;-  जैसे- अश्रु ग्रन्थि (Tear Gland) एवं लार ग्रन्थि (Salivary Gland)। ये ग्रन्थियां अपने द्वारा तैयार किए गए तरल पदार्थों को शरीर के तत्सम्बन्धी अंगों को नलिकाओं द्वारा भेजती हैं। 
  • नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ (Ductless glands): -  जैसे- थाइरोइड (Thyroid) एवं पैराथाईरॉयड (Para Thyroid) ग्रन्थियाँ हैं। ये ग्रन्थियाँ अपने द्वारा तैयार किए गए रसों (हारमोन्स, Harmones) को बिना किसी नलिका के सीधे रक्त के अन्दर छोड़ती हैं इसीलिए इन्हें अंतःस्रावी ग्रंथियां (Endocrine glands) कहते हैं।

भिन्न-भिन्न नलिकाविहीन ग्रन्थियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के हारमोन्स निकलते हैं जो शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों एवं उनकी क्रियाओं को सन्तुलित बनाए रखते हैं। जब इनसे निकलने वाले हारमोन्स की मात्रा कम अथवा अधिक होती है तो सम्बन्धित अंगों के विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।  कुछ नलिकाविहीन अथवा अन्तःस्रावी ग्रन्थियां व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव डालती हैं।

  • पियूष ग्रन्थि (Pituitary Gland) - यह ग्रन्थि मस्तिष्क के निचले भाग में स्थित होती है। ग्रन्थि से उत्पन्न हारमोन अन्य ग्रन्थियों को नियन्त्रित करता है और उनसे निकलने वाले हारमोन्स को उचित अनुपात बनाए रखता है। । इस ग्रन्थि के अति सक्रिय (Over Active) होने की स्थिति में व्यक्ति की लम्बाई असाधारण रूप से लगती है और वह स्वभाव से क्रोधी व झगड़ालू हो जाता है। और यदि यह ग्रन्थि आवश्यकता से कम खाव करती है। व्यक्ति के अंगों का सही रूप में विकास नहीं होता और वह बौना रह जाता है। डॉ० ईवों की दृष्टि से वाटरलू के युद्ध नेपोलियन की पराजय का मुख्य कारण उसकी पिट्यूइटरी ग्रन्थि का विकृत होना था, उसी के कारण यह अति उत्तेजित उठा था, अन्तर्द्वन्द्व में फंस गया था और सही निर्णय नहीं ले सका था। यह ग्रन्थि कण्ठ में टेंटुए के दोनों ओर फैली होती है।















  • गलग्रन्थि (Thyroid Gland) - इस ग्रन्थि का व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है । इस ग्रन्थि से अधिक मात्रा में स्राव होने पर व्यक्ति तनाव, चिन्ता, बेचैनी और उत्तेजना का अनुभव करता है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसी प्रकार ग्रन्थि के अभाव में व्यक्ति थकावट और मानसिक दुर्बलता का अनुभव करता है। यदि ग्रन्थि उचित या आनुपातिक मात्रा में रस उत्पन्न नहीं करती तो व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक विकास भली-भाँति नहीं हो पाता। वे मंद बुद्धि, दुर्बल और बौने कद के होते हैं। अतः अभिभावकों और शिक्षकों को बालक के इस प्रकार के लक्षण दिखाई देने पर चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए  और उनका उचित उपचार कराना चाहिए ।




  • पैराथाईरॉयड ग्रन्थियाँ (Para-Thyroid Glands)-  ये ग्रन्थियाँ थाईरोयड ग्रन्थि के ऊपर और नीचे स्थित होती हैं। इन ग्रन्थियों से निकलने वाले हारमोन को पैराथारमोन (Parathormone- PTH) कहते हैं। यह हारमोन रक्त में कैल्शियम की मात्रा सही बनाए रखने का कार्य करता है। इस ग्रन्थि से हारमोन की मात्रा सही रूप से स्राव होने से मनुष्य की हड्डियाँ एवं दाँत मजबूत होते हैं और मस्तिष्क सही रूप से कार्य करता है। इस हारमोन के अधिक स्राव होने से मनुष्य में कब्ज, सिरदर्द तथा किड़नी में स्टोन होने की सम्भावना बढ़ जाती है और कम स्राव होने से मनुष्यों की हड्डियों, दाँतों, लम्बाई तथा मस्तिष्क का उचित विकास नहीं होता।

  • अधिवृक ग्रन्थि (Adrenal Glands) ये ग्रन्थियाँ गुर्दों के ऊपरी भाग में स्थित होती हैं। इनसे दो प्रकार के हारमोन निकलते हैं- कारटिन (Cortin) और एड्रीनलीन (Adrenaline) । कारटिन के कार्य तो पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं हैं पर एड्रीनलीन की अपनी बड़ी भूमिका होती है। एड्रीनलीन की उपयुक्त मात्रा स्राव होने से व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक विकास सही रूप में होता है, अधिक स्राव होने से व्यक्ति का रक्तचाप (blood pressure) बढ़ जाता है, उसकी हृदय गति बढ़ जाती है और वह उत्तेजित हो जाता है और कम स्राव होने से उसका रक्तचाप कम हो जाता है, वह कमजोरी महसूस करता है, उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है और उसकी गर्दन मोटी होने व घेंघा रोग (Simple goiter) होने की सम्भावना बढ़ जाती है। यह ग्रन्थि भय एवं क्रोध की संवेगात्मक स्थिति में अधिक स्राव करती है जिससे बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 



4. तन्त्रिका तन्त्र (Nervous System)- 

 मानव शरीर के अन्दर अनेक अंग (Organs) हैं। इनमें से भिन्न-भिन्न अंग मिलकर भिन्न-भिन्न तन्त्रों (Systems) का निर्माण करते हैं। मनुष्य की समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ इन्हीं तन्त्रों द्वारा संचालित होती हैं। इसका  सर्वप्रथम अंग मस्तिष्क (Brain) होता है। किसी उद्दीपन (Stimulus) या परिस्थिति विशेष का ज्ञान तंत्रिकाओं (Nervous) के सहारे मस्तिष्क को होता है, फिर मस्तिष्क तंत्रिकाओं द्वारा आदेश देता है, तब व्यक्ति उद्दीपन या परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया (Response) करता है। इस प्रकार व्यक्ति तंत्रिकातंत्र की सहायता से परिस्थितियों को समझता है और व्यवहार करता है। उसके व्यक्तित्व का परिचायक बहुत अंशों में उसका व्यवहार होता है।

तंत्रिका तंत्र शरीर में कार्य करने वाले सभी अंगों और तंत्रों पर नियंत्रण करता है। इस तंत्र  के बिना शरीर का कोई भी अंग अथवा तंत्र कार्य नहीं कर सकता। रक्त का संचार, मांसपेशियों की क्रियाएं,  नए अनुभवों का ज्ञान, पुराने अनुभवों की स्मृति और नए विचारों का उत्पन्न होना आदि सभी कार्य इसी तंत्र पर निर्भर करते हैं। कोई मनुष्य किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह इसी तंत्र पर निर्भर करता है। मनुष्य का तंत्रिका तंत्र जितना अधिक विकसित होता है उसकी मानसिक योग्यताएं उतनी ही अधिक विकसित होती हैं। इस तंत्र में विकार आने से शरीर के सभी तंत्रों में विकार आ जाता है और मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और  वह दुर्बल एवं मंदबुद्धि का हो जाता है।


वातावरणीय निर्धारक (Environmental Determinants)


व्यक्तित्व पर वातावरण के निम्न घटक प्रभाव डालते हैं।

(A) भौतिक वातावरण (Physical Environment): 

व्यक्तित्व पर भौतिक वातावरण का काफी प्रभाव पड़ता है। उन्ही जलवायु वाले देशों के व्यक्ति अधिक गोरे, सुन्दर, स्वस्थ व कर्मठ एवं उत्साही होते हैं जबकि गर्म जलवायु वाले देशों के लोग काले, दुबले तथा आलसी होते हैं अर्थात स्वास्थ्य पर जलवायु का प्रभाव पड़ता है जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है।


(B) सामाजिक वातावरण (Social Environment):

सामाजिक वातावरण परिवार में जन्म लेने से मरण तक विभिन्न प्रकार से जीवन पर्यन्त व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करके उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। इसमें निम्न घटक सम्मिलित हैं—


(1) पारिवारिक पर्यावरण (Home Atmosphere)-

 बचपन में बच्चे को यदि घर का अच्छा वातावरण मिलता है, अर्थात् उसके माता-पिता में अच्छे सम्बन्ध हैं तथा बच्चों को उचित सहानुभूति तथा प्यार मिलता है तो वे सुसमायोजित व्यक्तित्व (Well adjusted Personality) के रूप में विकसित होते हैं। इसके विपरीत वर्ट (Burt) ने अपने अध्ययन में पाया कि 58 प्रतिशत बाल अपराधी (deliquents) ऐसे परिवारों से सम्बन्ध रखते हैं जिनके माता-पिता में झगड़े रहते हैं, माता विधवा होती है, अथवा माता-पिता तलाक शुदा होते हैं।


(2) माता-पिता तथा बच्चे के बीच सम्बन्ध (Parent-child Relationship):-

 व्यक्तित्व के विकास में माता-पिता के बच्चों के प्रति व्यवहार एवं सम्बन्ध सहायक होते हैं। यदि माता-पिता बच्चे को महत्त्व देते हैं, उसकी बातों को स्वीकार करते हैं और उसे प्रेरित करते हैं तो वह संवेगात्मक स्थिरता, शान्त स्वभाव, उचित सामाजिकता को धारण करते हुए सभी क्रिया-कलापों में रुचि लेता है जबकि उपेक्षित बच्चे इसके ठीक विपरीत आचरण करते हैं। फ्रायड के अनुसार माता-पिता का व्यवहार बच्चे में प्रेम-घृणा अथवा चिन्ता और उदासीनता उत्पन्न कर सकता है।


(3) परिवार में स्थान (Position in the family) : 

एडलर, मर्फी तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकाले कि बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में इस बात का भी प्रभाव पड़ता है कि परिवार में बच्चा सबसे बड़ा है अथवा छोटा है या फिर बीच का है। छोटे बच्चे बड़े भाई बहनों के कारण हीन भावना (Inferiority complex) से ग्रसित रहते हैं जिसकी पूर्ति वे श्रेष्ठता (Superiority) के चालक (Drive) को विकसित करके करना चाहते हैं। अतः उनके सामने द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो उसके व्यक्तित्व के समुचित विकास में बाधा डालती है।


(4) पास- पड़ोस (Neighborhood)-

परिवार से निकलकर बच्चा पास-पड़ोस (Neighborhood) में प्रवेश करता है और पास-पड़ोस के बच्चों एवं व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। पास-पड़ोस का सामाजिक पर्यावरण भी उसके व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव डालता है। यदि पड़ोस के समूह में उसे प्रेम मिलता है और सम्मानजनक स्थान मिलता है तो वह सुसमायोजन करता है अन्यथा कुसमायोजन की ओर बढ़ता है। 

(5) विद्यालय का पर्यावरण (School Environment)- 

कुछ बड़ा होने पर बच्चे विद्यालयों में प्रवेश करते हैं। बच्चे विद्यालय पर्यावरण (School Environment) को आदर्श पर्यावरण मानते हैं। यदि विद्यालयों के सदस्यों (प्रधानाचार्य, शिक्षक एवं अन्य कर्मचारियों) के बीच प्रेम, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण संबंध होते हैं और वे बच्चों के साथ भी प्रेम , सहानुभूति और सहयोगपूर्ण व्यवहार करते हैं तो ऐसे विद्यालय में बच्चों का विकास सही दिशा में होता है। अन्यथा वे कुसमायोजन की ओर बढ़ते हैं और अपराधी बन जाते हैं।

(6) सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment):-

 संस्कृति एक वृहत् सम्प्रत्यय है किसी समाज की संस्कृति में तात्पर्य उस समाज के व्यक्तियों के रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार प्रतिमानों, आचार-विचारों, रीति-रिवाजो, कला-कौशलं, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से होता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। सभी समाज अपनी इस संस्कृति का आने वाली पीढ़ी में हस्तान्तरण करते हैं, इसलिए मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में सर्वाधिक भूमिका उसकी संस्कृति की होती ही ।  जिन संस्कृतियों में जाति एवं धर्म की संकीर्णता होती है, उनके बच्चों में भी जाति एवं धर्म की संकीर्णता संक्रमित होती है, जिन इसके विपरीत जिन संस्कृतियों में जाति एवं धर्म के नाम पर संकीर्णता नहीं होती उनके बच्चों में भी जाति एवं धर्म के प्रति उदार भाव संक्रमित होते हैं। इसी प्रकार जिन समाजों की संस्कृति रूढ़िवादी होती है उनके बच्चे भी रूढ़िवादी होते हैं और जिन समाजों की संस्कृति खुली एवं प्रगतिशील होती है उनके बच्चों का व्यक्तित्व भी खुला एवं प्रगतिशील होता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ही यह कहा जाता है कि व्यक्तित्व संस्कृति का आइना है (Personalty is the mirror of culture).


(7) आर्थिक कारक (Economic Factors ) : 

गेसेल (Gessel) तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों के अध्ययनों से यह पाया गया कि गरीब बच्चे बुद्धि-लब्धि, वाक-पटुता, आत्म-विश्वास, सहभागिता, दृढ़ता आदि गुणों में सम्पन्न लोगों की अपेक्षा पिछड़ जाते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न होती है।


(8) शिक्षा (Education):- 

व्यक्तित्व के पर्यावरणीय निर्धारकों में शिक्षा का सबसे अधिक महत्त्व है। शिक्षा वह साधन है जो परिवार, पास-पड़ोस एवं विभिन्न समाजों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण के प्रभाव से निर्मित बच्चों के व्यक्तित्व में काट-छाँट करती है और उसे उचित दिशा प्रदान करती है। और यह तभी सम्भव होता है जब शिक्षा के उद्देश्य तद्नुकूल हों और उसकी पाठ्यचर्या तद्नुकूल हो । शिक्षकों का शिक्षार्थियों के प्रति व्यवहार भी इस क्षेत्र में विशेष भूमिका निभाता है। 




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