Monday, August 2, 2021

व्यक्तित्व विकास के निर्धारक (Determinants of Personality Development)

 व्यक्तित्व विकास के निर्धारक (Determinants of Personality Development)

मनुष्य में  किसी भी प्रकार के विकास के दो मुख्य कारक होते हैं- 

1. वंशानुक्रम (Heredity) 

2. पर्यावरण (Environment) | 

व्यक्तित्व का निर्माण भी इन्हीं दो मूल कारकों पर निर्भर करता है इसलिए इन्हें व्यक्तित्व निर्माण के निर्धारक (Determinants) कहा जाता है। व्यक्तित्व वंशानुक्रम एवं पर्यावरण (heredity and environment) के प्रभाव का योग नहीं, गुणनफल होता है। (व्यक्तित्व = वंशानुक्रम * पर्यावरण)।  इनमें से किसी एक के भी अभाव में व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास नहीं हो सकता। 


वंशानुक्रमीय अथवा जैविक निर्धारक (Biological Determinants)


वंशानुक्रम से तात्पर्य मनुष्य की जैविक संरचना और जैविक क्रियाओं से होता है। इसलिए व्यक्तित्व के वंशानुक्रमीय निर्धारकों को जैविक निर्धारक (Biological Determinants) भी कहते हैं। व्यक्तित्व के वंशानुक्रमीय अथवा जैविक निर्धारकों में मुख्य रूप से निम्न निर्धारक आते हैं


1. शारीरिक रचना (Physical Structure)- 

व्यक्ति की शरीरिक बनावट में पित्रैक (Genes) की मुख्य भूमिका होती है। ये पित्रैक (Genes) ही वंशानुक्रम के वास्तविक वाहक (messenger) होते हैं। इन पित्रैकों ((Genes) की संख्या बहुत अधिक होती है और ये भिन्न-भिन्न गुणों के वाहक होते हैं। माता-पिता के संयोग के समय जिन गुणों के पित्रैकों का संयोग होता है, बच्चा उन्हीं गुणों को लेकर पैदा होता है। मनुष्य के शरीर के अंगों का अनुपात, उसकी लम्बाई एवं भार, उसका रंग-रूप, उसकी मुखाकृति और उसकी बुद्धि, इन सबका निर्धारण ये पित्रैक ही करते हैं। कोई बच्चा लड़का होगा या लड़की, बलिष्ट होगा या निर्बल (strong or weak), लम्बा होगा या नाटा, गोरा होगा या काला और सुन्दर होगा या कुरूप, यह सब पित्रैकों के संयोग (combination of Genes) पर निर्भर करता है।


2. बुद्धि (Intelligence) - 

कुछ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बुद्धि भी जन्मजात होती है, ये भी पित्रैकों (Genes) से होती है। यह भी वंशानुक्रमीय अथवा जैविक कारकों में आती है। भारतीय योग मनोवैज्ञानिक का मनना है कि यौगिक क्रियाओं द्वारा मनुष्य अपनी  बुद्धि में 30 से 40% तक वृद्धि कर सकते हैं। पर यथा यौगिक क्रियाओं को करना बड़ा कठिन कार्य है। कुछ व्यक्ति ही यह साधना कर सकते हैं, शेष को तो अपनी जन्मजात बुद्धि पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जो व्यक्ति जितना अधिक बुद्धिमान होता है उसमें उतनी ही अधिक आत्मचेतना (Self Consciousness), सामाजिकता (Sociability), सामंजस्यता (Adjustability) और दृढ़ इच्छाशक्ति (Strong-Will Power) होती है और ये सब उत्तम व्यक्तित्व के लक्षण होते हैं। तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य की बुद्धि उसके व्यक्तित्व निर्माण का एक मुख्य कारक होती है।


3. नलिकाविहीन अथवा अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Ductless or Endocrine Glands) -

मानव शरीर में दो प्रकार की ग्रंथियां होती हैं- 

  • नलिका ग्रन्थियाँ (Ductal glands) ;-  जैसे- अश्रु ग्रन्थि (Tear Gland) एवं लार ग्रन्थि (Salivary Gland)। ये ग्रन्थियां अपने द्वारा तैयार किए गए तरल पदार्थों को शरीर के तत्सम्बन्धी अंगों को नलिकाओं द्वारा भेजती हैं। 
  • नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ (Ductless glands): -  जैसे- थाइरोइड (Thyroid) एवं पैराथाईरॉयड (Para Thyroid) ग्रन्थियाँ हैं। ये ग्रन्थियाँ अपने द्वारा तैयार किए गए रसों (हारमोन्स, Harmones) को बिना किसी नलिका के सीधे रक्त के अन्दर छोड़ती हैं इसीलिए इन्हें अंतःस्रावी ग्रंथियां (Endocrine glands) कहते हैं।

भिन्न-भिन्न नलिकाविहीन ग्रन्थियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के हारमोन्स निकलते हैं जो शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों एवं उनकी क्रियाओं को सन्तुलित बनाए रखते हैं। जब इनसे निकलने वाले हारमोन्स की मात्रा कम अथवा अधिक होती है तो सम्बन्धित अंगों के विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।  कुछ नलिकाविहीन अथवा अन्तःस्रावी ग्रन्थियां व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव डालती हैं।

  • पियूष ग्रन्थि (Pituitary Gland) - यह ग्रन्थि मस्तिष्क के निचले भाग में स्थित होती है। ग्रन्थि से उत्पन्न हारमोन अन्य ग्रन्थियों को नियन्त्रित करता है और उनसे निकलने वाले हारमोन्स को उचित अनुपात बनाए रखता है। । इस ग्रन्थि के अति सक्रिय (Over Active) होने की स्थिति में व्यक्ति की लम्बाई असाधारण रूप से लगती है और वह स्वभाव से क्रोधी व झगड़ालू हो जाता है। और यदि यह ग्रन्थि आवश्यकता से कम खाव करती है। व्यक्ति के अंगों का सही रूप में विकास नहीं होता और वह बौना रह जाता है। डॉ० ईवों की दृष्टि से वाटरलू के युद्ध नेपोलियन की पराजय का मुख्य कारण उसकी पिट्यूइटरी ग्रन्थि का विकृत होना था, उसी के कारण यह अति उत्तेजित उठा था, अन्तर्द्वन्द्व में फंस गया था और सही निर्णय नहीं ले सका था। यह ग्रन्थि कण्ठ में टेंटुए के दोनों ओर फैली होती है।















  • गलग्रन्थि (Thyroid Gland) - इस ग्रन्थि का व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है । इस ग्रन्थि से अधिक मात्रा में स्राव होने पर व्यक्ति तनाव, चिन्ता, बेचैनी और उत्तेजना का अनुभव करता है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसी प्रकार ग्रन्थि के अभाव में व्यक्ति थकावट और मानसिक दुर्बलता का अनुभव करता है। यदि ग्रन्थि उचित या आनुपातिक मात्रा में रस उत्पन्न नहीं करती तो व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक विकास भली-भाँति नहीं हो पाता। वे मंद बुद्धि, दुर्बल और बौने कद के होते हैं। अतः अभिभावकों और शिक्षकों को बालक के इस प्रकार के लक्षण दिखाई देने पर चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए  और उनका उचित उपचार कराना चाहिए ।




  • पैराथाईरॉयड ग्रन्थियाँ (Para-Thyroid Glands)-  ये ग्रन्थियाँ थाईरोयड ग्रन्थि के ऊपर और नीचे स्थित होती हैं। इन ग्रन्थियों से निकलने वाले हारमोन को पैराथारमोन (Parathormone- PTH) कहते हैं। यह हारमोन रक्त में कैल्शियम की मात्रा सही बनाए रखने का कार्य करता है। इस ग्रन्थि से हारमोन की मात्रा सही रूप से स्राव होने से मनुष्य की हड्डियाँ एवं दाँत मजबूत होते हैं और मस्तिष्क सही रूप से कार्य करता है। इस हारमोन के अधिक स्राव होने से मनुष्य में कब्ज, सिरदर्द तथा किड़नी में स्टोन होने की सम्भावना बढ़ जाती है और कम स्राव होने से मनुष्यों की हड्डियों, दाँतों, लम्बाई तथा मस्तिष्क का उचित विकास नहीं होता।

  • अधिवृक ग्रन्थि (Adrenal Glands) ये ग्रन्थियाँ गुर्दों के ऊपरी भाग में स्थित होती हैं। इनसे दो प्रकार के हारमोन निकलते हैं- कारटिन (Cortin) और एड्रीनलीन (Adrenaline) । कारटिन के कार्य तो पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं हैं पर एड्रीनलीन की अपनी बड़ी भूमिका होती है। एड्रीनलीन की उपयुक्त मात्रा स्राव होने से व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक विकास सही रूप में होता है, अधिक स्राव होने से व्यक्ति का रक्तचाप (blood pressure) बढ़ जाता है, उसकी हृदय गति बढ़ जाती है और वह उत्तेजित हो जाता है और कम स्राव होने से उसका रक्तचाप कम हो जाता है, वह कमजोरी महसूस करता है, उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है और उसकी गर्दन मोटी होने व घेंघा रोग (Simple goiter) होने की सम्भावना बढ़ जाती है। यह ग्रन्थि भय एवं क्रोध की संवेगात्मक स्थिति में अधिक स्राव करती है जिससे बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 



4. तन्त्रिका तन्त्र (Nervous System)- 

 मानव शरीर के अन्दर अनेक अंग (Organs) हैं। इनमें से भिन्न-भिन्न अंग मिलकर भिन्न-भिन्न तन्त्रों (Systems) का निर्माण करते हैं। मनुष्य की समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ इन्हीं तन्त्रों द्वारा संचालित होती हैं। इसका  सर्वप्रथम अंग मस्तिष्क (Brain) होता है। किसी उद्दीपन (Stimulus) या परिस्थिति विशेष का ज्ञान तंत्रिकाओं (Nervous) के सहारे मस्तिष्क को होता है, फिर मस्तिष्क तंत्रिकाओं द्वारा आदेश देता है, तब व्यक्ति उद्दीपन या परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया (Response) करता है। इस प्रकार व्यक्ति तंत्रिकातंत्र की सहायता से परिस्थितियों को समझता है और व्यवहार करता है। उसके व्यक्तित्व का परिचायक बहुत अंशों में उसका व्यवहार होता है।

तंत्रिका तंत्र शरीर में कार्य करने वाले सभी अंगों और तंत्रों पर नियंत्रण करता है। इस तंत्र  के बिना शरीर का कोई भी अंग अथवा तंत्र कार्य नहीं कर सकता। रक्त का संचार, मांसपेशियों की क्रियाएं,  नए अनुभवों का ज्ञान, पुराने अनुभवों की स्मृति और नए विचारों का उत्पन्न होना आदि सभी कार्य इसी तंत्र पर निर्भर करते हैं। कोई मनुष्य किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह इसी तंत्र पर निर्भर करता है। मनुष्य का तंत्रिका तंत्र जितना अधिक विकसित होता है उसकी मानसिक योग्यताएं उतनी ही अधिक विकसित होती हैं। इस तंत्र में विकार आने से शरीर के सभी तंत्रों में विकार आ जाता है और मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और  वह दुर्बल एवं मंदबुद्धि का हो जाता है।


वातावरणीय निर्धारक (Environmental Determinants)


व्यक्तित्व पर वातावरण के निम्न घटक प्रभाव डालते हैं।

(A) भौतिक वातावरण (Physical Environment): 

व्यक्तित्व पर भौतिक वातावरण का काफी प्रभाव पड़ता है। उन्ही जलवायु वाले देशों के व्यक्ति अधिक गोरे, सुन्दर, स्वस्थ व कर्मठ एवं उत्साही होते हैं जबकि गर्म जलवायु वाले देशों के लोग काले, दुबले तथा आलसी होते हैं अर्थात स्वास्थ्य पर जलवायु का प्रभाव पड़ता है जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है।


(B) सामाजिक वातावरण (Social Environment):

सामाजिक वातावरण परिवार में जन्म लेने से मरण तक विभिन्न प्रकार से जीवन पर्यन्त व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करके उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। इसमें निम्न घटक सम्मिलित हैं—


(1) पारिवारिक पर्यावरण (Home Atmosphere)-

 बचपन में बच्चे को यदि घर का अच्छा वातावरण मिलता है, अर्थात् उसके माता-पिता में अच्छे सम्बन्ध हैं तथा बच्चों को उचित सहानुभूति तथा प्यार मिलता है तो वे सुसमायोजित व्यक्तित्व (Well adjusted Personality) के रूप में विकसित होते हैं। इसके विपरीत वर्ट (Burt) ने अपने अध्ययन में पाया कि 58 प्रतिशत बाल अपराधी (deliquents) ऐसे परिवारों से सम्बन्ध रखते हैं जिनके माता-पिता में झगड़े रहते हैं, माता विधवा होती है, अथवा माता-पिता तलाक शुदा होते हैं।


(2) माता-पिता तथा बच्चे के बीच सम्बन्ध (Parent-child Relationship):-

 व्यक्तित्व के विकास में माता-पिता के बच्चों के प्रति व्यवहार एवं सम्बन्ध सहायक होते हैं। यदि माता-पिता बच्चे को महत्त्व देते हैं, उसकी बातों को स्वीकार करते हैं और उसे प्रेरित करते हैं तो वह संवेगात्मक स्थिरता, शान्त स्वभाव, उचित सामाजिकता को धारण करते हुए सभी क्रिया-कलापों में रुचि लेता है जबकि उपेक्षित बच्चे इसके ठीक विपरीत आचरण करते हैं। फ्रायड के अनुसार माता-पिता का व्यवहार बच्चे में प्रेम-घृणा अथवा चिन्ता और उदासीनता उत्पन्न कर सकता है।


(3) परिवार में स्थान (Position in the family) : 

एडलर, मर्फी तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकाले कि बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में इस बात का भी प्रभाव पड़ता है कि परिवार में बच्चा सबसे बड़ा है अथवा छोटा है या फिर बीच का है। छोटे बच्चे बड़े भाई बहनों के कारण हीन भावना (Inferiority complex) से ग्रसित रहते हैं जिसकी पूर्ति वे श्रेष्ठता (Superiority) के चालक (Drive) को विकसित करके करना चाहते हैं। अतः उनके सामने द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो उसके व्यक्तित्व के समुचित विकास में बाधा डालती है।


(4) पास- पड़ोस (Neighborhood)-

परिवार से निकलकर बच्चा पास-पड़ोस (Neighborhood) में प्रवेश करता है और पास-पड़ोस के बच्चों एवं व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। पास-पड़ोस का सामाजिक पर्यावरण भी उसके व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव डालता है। यदि पड़ोस के समूह में उसे प्रेम मिलता है और सम्मानजनक स्थान मिलता है तो वह सुसमायोजन करता है अन्यथा कुसमायोजन की ओर बढ़ता है। 

(5) विद्यालय का पर्यावरण (School Environment)- 

कुछ बड़ा होने पर बच्चे विद्यालयों में प्रवेश करते हैं। बच्चे विद्यालय पर्यावरण (School Environment) को आदर्श पर्यावरण मानते हैं। यदि विद्यालयों के सदस्यों (प्रधानाचार्य, शिक्षक एवं अन्य कर्मचारियों) के बीच प्रेम, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण संबंध होते हैं और वे बच्चों के साथ भी प्रेम , सहानुभूति और सहयोगपूर्ण व्यवहार करते हैं तो ऐसे विद्यालय में बच्चों का विकास सही दिशा में होता है। अन्यथा वे कुसमायोजन की ओर बढ़ते हैं और अपराधी बन जाते हैं।

(6) सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment):-

 संस्कृति एक वृहत् सम्प्रत्यय है किसी समाज की संस्कृति में तात्पर्य उस समाज के व्यक्तियों के रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार प्रतिमानों, आचार-विचारों, रीति-रिवाजो, कला-कौशलं, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से होता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। सभी समाज अपनी इस संस्कृति का आने वाली पीढ़ी में हस्तान्तरण करते हैं, इसलिए मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में सर्वाधिक भूमिका उसकी संस्कृति की होती ही ।  जिन संस्कृतियों में जाति एवं धर्म की संकीर्णता होती है, उनके बच्चों में भी जाति एवं धर्म की संकीर्णता संक्रमित होती है, जिन इसके विपरीत जिन संस्कृतियों में जाति एवं धर्म के नाम पर संकीर्णता नहीं होती उनके बच्चों में भी जाति एवं धर्म के प्रति उदार भाव संक्रमित होते हैं। इसी प्रकार जिन समाजों की संस्कृति रूढ़िवादी होती है उनके बच्चे भी रूढ़िवादी होते हैं और जिन समाजों की संस्कृति खुली एवं प्रगतिशील होती है उनके बच्चों का व्यक्तित्व भी खुला एवं प्रगतिशील होता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ही यह कहा जाता है कि व्यक्तित्व संस्कृति का आइना है (Personalty is the mirror of culture).


(7) आर्थिक कारक (Economic Factors ) : 

गेसेल (Gessel) तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों के अध्ययनों से यह पाया गया कि गरीब बच्चे बुद्धि-लब्धि, वाक-पटुता, आत्म-विश्वास, सहभागिता, दृढ़ता आदि गुणों में सम्पन्न लोगों की अपेक्षा पिछड़ जाते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधा उत्पन्न होती है।


(8) शिक्षा (Education):- 

व्यक्तित्व के पर्यावरणीय निर्धारकों में शिक्षा का सबसे अधिक महत्त्व है। शिक्षा वह साधन है जो परिवार, पास-पड़ोस एवं विभिन्न समाजों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण के प्रभाव से निर्मित बच्चों के व्यक्तित्व में काट-छाँट करती है और उसे उचित दिशा प्रदान करती है। और यह तभी सम्भव होता है जब शिक्षा के उद्देश्य तद्नुकूल हों और उसकी पाठ्यचर्या तद्नुकूल हो । शिक्षकों का शिक्षार्थियों के प्रति व्यवहार भी इस क्षेत्र में विशेष भूमिका निभाता है। 




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