Friday, August 27, 2021

गणित का इतिहास (History of Mathematics)

 

गणित का इतिहास (History of Mathematics)


 भारतीय गणित का शुभारम्भ 'ऋग्वेद' से हुआ है। इसका इतिहास मुख्य रूप से पाँच कालखण्डों में विभाजित किया  है-

1. आदिकाल (500 ई० पू० तक)

(A) वैदिक काल (1000 ई० पू० तक) 

(B) उत्तर वैदिक काल (1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक)

  • शुल्य एवं वेदांग ज्योतिष काल
  •  सूर्य प्रज्ञाप्तिकाल

2. पूर्व मध्यकाल (500 ई० पू० से 400 ई० पू० तक) 

3. मध्यकाल (400 ई० पू० से 1200 ई० तक)

4. उत्तर मध्यकाल (1200 ई० से 1800 ई० तक) 

5. वर्तमान काल (1800 ई० के पश्चात्)


आदिकाल (500 ई० पूर्व तक) 

यह काल भारतीय गणित के इतिहास में अति महत्वपूर्ण काल है। इस काल में  अंकगणित (Arithmetic),  रेखागणित  (Geometry)  बीजगणित (Algebra) का विकास हुआ।  


(A) वैदिक काल (1000 ई० पूर्व तक) - 

  • इस काल में शून्य तथा दशमलव स्थान मान पद्धति (Decimal place value method) का अविष्कार हुआ। यह गणित की अद्भुत देन है। शून्य एवं दाशमिक स्थानमान पद्धति का महत्व इस  ओर  परिलक्षित करता है कि आज यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है तथा इसके आविष्कार ने ही गणित को प्रखर शिखर पर पहुँचाया है।
  • महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित  ‘नारद-विष्णु पुराण' के पूर्व भाग के द्वितीय पाठ में, त्रिस्कन्ध ज्योतिष के वर्णन में गणित का प्रतिपादन हुआ जिसमें एक (10० ), दश, शत, सहस्त्र अयुत (दस हजार), लक्ष (लाख), कोटि (करोड़), अर्बुद (दस करोड़), अब्ज (अरब), खर्ब (दस अरब), निखर्ब (खरब), महापद्म (दस खरब), शंकु (नील), जलधि (दस नील), अन्त्य (पद्म), पराध (शंख जो 10 के घात 17  के मान के बराबर है) इत्यादि संख्याओं के बारे में बताया गया है
  • दशामिक स्थानमान पद्धति भारत से अरब गयी और अरब से पश्चिमी देशों में पहुंची। इसी कारण से अरब के लोग 1 से 9 तक के अंकों को 'हिन्दसा' कहते हैं तथा पश्चिमी देशों में  0 - 9 तक के अंकों को 'हिन्दू-अरबीक न्यूमरल्स' (Hindu-Arabic  Numerals) कहा जाता है।


(B) उत्तर वैदिक काल (1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक) -

(i) शुल्व एवं वेदांग ज्योतिष काल-

शुल्व से तात्पर्य रस्सी से है, वह रस्सी जो यज्ञ की वेदी बनाने के लिये माप में काम आती थी।  शुल्व सूत्रों में रेखा गणित के सूत्रों का विकास एवं विस्तार उपलब्ध है। इस काल में तीन सूत्रकारों का नाम  उल्लेखनीय है -  बौधायन, आपस्तम्ब एवं कात्यायन ।

  • बौधायन शुल्व सूत्र (1000 ई० पू०) को आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जाना ने जाता है।  
  • बौधायन ने दो वर्गों के योग व अन्तर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है तथा √2 का मान दशमलव के पाँच स्थानों तक निकालने का  सूत्र भी दिया है।
            √2 = 1 + 1/3 + 1/3*4 - 1/3*4*34 = 1.41421


(ii) सूर्य प्रज्ञाप्ति काल- 

  • इस काल की प्रमुख कृतियाँ-  सूर्य प्रज्ञाप्ति तथा चन्द्र प्रज्ञाप्ति (500 ई० पू०) । जो जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। 
  • सूर्य प्रज्ञाप्ति में दीर्घवृत्त का उल्लेख मिलता है। जिस परिमंडल के नाम से जाना जाता है। 
  • भगवती सूत्र (300 ई० पू०) में भी परिमंडल शब्द दीर्घवृत्त के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसके दो प्रकार बताये गये हैं- पहला प्रतर-परिमण्डल व दूसरा घन परिमण्डल |
  • बौद्ध साहित्य में गणित को दो भागों बाँटा गया-
         (i) गणना (साधारण गणित)  

        (ii) संख्यान (उच्च गणित) 

  • संख्याओं का वर्णन तीन रूपों में किया-
          (i)  संख्येय (Countable), 

          (ii) असंख्येय (Uncountable) 

          (iii) अनन्त (Infinity) 


 पूर्व मध्यकाल (500 ई० पू० - 400 ई० तक)


  • इस युग के प्रमुख ग्रन्थों में वक्षाली गणित, सूर्य सिद्धान्त, गणितयोग, स्थानांग सूत्र, भगवती सूत्र व अनुप्रयोग द्वार सूत्र मुख्य हैं।  
  • वक्षाली गणित में अंकगणित की मूल संक्रियाऐं, दाशमिक अंकलेखन पद्धति पर लिखी हुई संख्याऐ, भिन्न, परिकर्म (योग, अन्तर, गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल), वर्ग, घन, व्याजरीति आदि का विस्तृत वर्णन है। 
  • स्थानांग सूत्र में 5 प्रकार के अनन्त की एवं अनुयोगद्वार में 4 प्रकार के प्रमाण (measure) बताये गये हैं।
  • सूर्य सिद्धान्त में वर्तमान त्रिकोणमिति का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें   ज्या (Sine), कोटिज्या (cosine) आदि का मान दिया गया है।
  • भारतीयों ने जमा, घटा (धन व ऋण) चिह्नों का विकास किया। 
  • अंकगणित की तरह बीजगणित भी भारत से अरब पहुँचा, वहाँ के गणितज्ञ 'अलख्वारीज्यी' ने अपनी पुस्तक 'अलजब्र' एवं 'अल-मुकाबला' में भारतीय बीजगणित पर आधारित विषय का प्रतिपादन किया। इनकी इस पुस्तक के नाम पर ही इस विषय का नाम 'अलजेब्रा' (Algebra) पड़ा।
  • भगवती सूत्र में  n प्रकारों में से 1-1, 2-2 प्रकारों को एक साथ लेकर जो युग्म (Combination) बनते हैं उन्हें एकक , द्विक संयोग आदि कहा गया है जिनका मान n, n(n-1)/2 आदि बताया गया है।


मध्यकाल (400 ई० से 1200 ई० तक)


  • मध्यकाल को भारतीय गणित का स्वर्ण-युग कहा जाता है, क्योंकि इस काल में ऐसे महान गणितज्ञ हुये, जिन्होंने गणित की सभी शाखाओं को ज्ञात किया। 
  •  इस काल के कुछ प्रमुख गणितज्ञ भास्कर प्रथम, आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, श्रीपति मिश्र, नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती  , महावीराचार्य आदि हैं।
  • आर्यभट्ट प्रथम (499 ई०) ने अपनी  पुस्तक 'आर्यभट्टीय' में 332 श्लोकों में गणित के महत्वपूर्ण मूलभूत सिद्धान्तों को दिया है। रेखागणित के क्षेत्र में इन्होंने का π का  मान चार स्थानों तक 3.1416 ज्ञात किया। 
  • भास्कर प्रथम (600 ई०) ने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'महाभास्करीय', 'आर्यभट्टीय ''भाष्य' और 'लघु भास्करीय' दिए हैं जिनमें आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को विकसित किया गया।
  • ब्रह्मगुप्त (628 ई०) ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त' दिया। इन्होंने बीजगणित के समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्णीत द्वि-घातीय समीकरण  (Undecidable quadratic equation) का समाधान भी बताया जिसे आयलर ने 1764 में, लांग्रेज ने 1768 ई० में प्रतिपादित किया।
  • श्रीधराचार्य (850 ई०)  ने अंकगणित पर नवशतिका तथा त्रिशतिका, पाटी गणित और बीजगणित पुस्तकों की रचना की। इनका द्विघात समीकरण हल करने का सूत्र जो "श्रीधराचार्य विधि” कहलाता है, आज भी व्यापक रूप से प्रयोग में लाया जाता है। इनकी पुस्तक 'पाटी गणित' का अनुवाद अरब में 'हिसाबुल तरब्त' नाम से हुआ।
  • महावीराचार्य (850 ई०)  ने 'गणितसार संग्रह' नामक अंकगणित के वृहत् ग्रन्थ की रचना की।
  • श्रीपति मिश्र (1039 ई०) ने 'सिद्धान्त शेखर' एवं 'गणित तिलक' (आज्ञात राशियों  के सम्बन्ध में) की रचना की। 
  • भास्कराचार्य द्वितीय (1114 ई०)  ने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सिद्धान्त शिरोमणि' तथा 'करण कुतूहल को दिया है।  वेदों में इनके सूत्रों को आधार मानकर वैदिक गणित की आधुनिक कृतियों में किया जा रहा है। 
  • लीलावती में संख्या पद्धति को आधुनिक  अंकगणित व बीजगणित की रीढ मानी जाती है।

उत्तर मध्यकाल (1200 ई० से 1800 ई० तक)

  • प्राचीन ग्रंथों पर टीकाएँ (Comments) लिखना इस काल की मुख्य देन  है ।
  • केरल के गणितज्ञ नीलकण्ठ ने 1500 ई० में एक पुस्तक में ज्या r (sin r) का मान ज्ञात किया-
ज्या r (Sin r) =  r -  / 3   +    5  / 5  -. ............

मलयालम पाण्डुलेख “मुक्तिभास" में भी यह सूत्र दिया गया है, जिसे आज हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते हैं।

  • नारायण पण्डित (1356) ने अंकगणित पर "गणितकौमुदी" (गणितीय संक्रियाओं, मैथेमैटिकल ऑपरेशन्स से सम्बंधित) नामक एक वृहत् ग्रन्थ की रचना की। इसमें अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है, जिसमें क्रमचय-संचय (Permutation), अंक विभाजन (Partition of Numbers) तथा मायावर्ग (Magic squares) प्रमुख हैं।  
  • नीलकण्ठ (1587 ई०) ने “ताजिकनीलकण्ठी" नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें ज्योतिष गणित का प्रतिपादन किया गया है।
  • कमलाकर (1608 ई०) ने सिद्धान्त-तत्व विवेक नामक ग्रन्थ की रचना की।
  • सम्राट जगन्नाथ (1731 ई०) ने “सम्राट सिद्धान्त” तथा “रेखागणित" नाम की दो पुस्तकें लिखीं। रेखागणित की वर्तमान शब्दावली अधिकांशतः इसी पुस्तक पर आधारित है।

वर्तमान काल (1800 ई० के पश्चात्) 


  • नृसिंह बापू देव शास्त्री (1831 ई० ) ने भारतीय एवं पाश्चात्य गणित पर पुस्तकों का सृजन किया। इनकी पुस्तकों में रेखागणित, त्रिकोणमिति, सायनवाद तथा अंकगणित मुख्य हैं।
  • सुधाकर द्विवेदी ने दीर्घ वृत्त लक्षण, गोलीय रेखागणित, समीकरण मीमांसा, चलन-कलन आदि अनेक पुस्तकों की रचना की। साथ ही ब्रह्मगुप्त एवं भास्कर की पुस्तकों पर टीकाएं लिखकर सामान्य जनता के लिये सुलभ कराया।
  • रामानुजम (1889 ई०)  सूत्र रूप में गणित एवं अन्य सिद्धान्तों को लिखने व सिद्ध करने की वैदिक परम्परा के आधुनिक युग के महान् गणितज्ञ हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित 50 प्रमेयों में से एक-दो को सिद्ध करने से ही गणितज्ञों एवं शोध कर्त्ताओं . को वर्ष पर्यन्त दत्तचित्त होकर परिश्रम करना पड़ा। कुछ प्रमेय अभी तक सिद्ध नहीं किये जा सके हैं। इनकी कृति “रामानुज डायरी" शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं।
  • महान् गणितज्ञ एवं दार्शनिक जगद्गुरु शंकराचार्य भारती कृष्णतीर्थ (1884-1960 ई०) आधुनिक युग में वैदिक गणित के प्रधान भाष्यकार हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक "वैदिक गणित" में वैदिक सूत्रों पुनः प्रतिपादित किया है और उनमें निहित सिद्धान्त और विधियों को इतनी सरल, सुग्राह्य एवं सुस्पष्ट (simple, intelligible and clear) भाषा में प्रस्तुत किया है कि गणित का एक साधारण विद्यार्थी भी उसे आत्मसात (assimilation) कर गणित के जटिलतम प्रश्नों को अत्यल्प समय में हल कर सकता है। है। इन्होंने हमें सर्वथा नवीन दृष्टि देकर वैदिक गणित पर शोध करने तथा उसका उपयोग करने के लिये विवश कर दिया है।

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