Thursday, September 9, 2021

गणित में आर्यभट्ट का योगदान (Aryabhatta's Contribution in Mathematics)

 गणित में आर्यभट्ट का योगदान  (Aryabhatta's Contribution in Mathematics)


जन्म-                476 ई0 कुसुमपुरा पाटलिपुत्र  (वर्तमान में पटना) 

प्रसिद्ध  पुस्तक - आर्यभट्टीय, आर्यस्तायता, कालकिया और गोला

इनको आर्यभट्ट प्रथम के नाम से जाना जाता है। इसी नाम के एक और गणितज्ञ इनके बाद हो चुके हैं जिन्होंने 950 ई० के लगभग महाआर्य सिद्धांत नामक पुस्तक लिखी है ।  अतः इन्हें 'आर्यभट्ट द्वितीय' के नाम से जाना जाता है। आर्यभट्ट प्रथम (499 ई०) के समय से भारतीय गणित विज्ञान का स्वर्णिम युग आरम्भ हुआ। इस बात में कोई संदेह नहीं है । आर्यभट्ट का जन्म कहाँ हुआ इस विषय पर भी कुछ मतभेद हैं। 

 इन्होंने अपनी गणितीय गणना में अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित का प्रयोग किया। इनकी  पुस्तकों में से 'आर्यभट्टीय' नामक पुस्तक प्रसिद्ध पुस्तक है। यह पुस्तक पूर्णतः श्लोकों में लिखी गयी है। इस पुस्तक में कुल पाँच अध्याय हैं जिनमें केवल एक अध्याय ही गणित पर है, व शेष चार ज्योतिष पर हैं। इसमें आर्यभट्ट ने केवल एक अध्याय में अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति और त्रिकोणमिति के 33 सूत्र दिये हैं।

आर्यभट्ट पहले गणितज्ञ थे, जिन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी गोलाकार है और अपनी धुरी पर घूमती है। जिसके आधार पर ही रात-दिन होते हैं। गणित में आर्यभट्ट का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। \

योगदान  (Contribution) -

  • इन्होंने (पाई) का मान 3.1416 दिया। ये ही पहले ऐसे गणितज्ञ थे, जिन्होंने ज्या तालिका (sins table) विकसित की। 
  • अंकगणित के क्षेत्र में वर्गमूल व घनमूल ज्ञात करने की विधियों तथा त्रैराशिक  नियम का भी उल्लेख किया है।
  • अक्षर संकेत (Alphabet Numbers)  पद्धति का अविष्कार आर्यभट्ट प्रथम ने किया। इस पद्धति में अंकों को वर्णमाला के अक्षरों द्वारा प्रकट किया जाता है। स्वरों (Vowels) को छोड़कर देवनागरी वर्णमाला में 25 वर्गीय व्यंजन (Consonants) होते. हैं तथा 9 अवर्गीय होते हैं। 25 वर्गीय व्यंजनों द्वारा से लेकर 25 तक के अंकों को प्रकट किया जा सकता है। जैसे 'ख' द्वारा 2 को, च द्वारा 6 को इत्यादि। 9 अ वर्गीय व्यंजनों य र, ल, व, श, ष, स, ह इत्यादि के द्वारा क्रमश: 30, 40, 50, 60 इत्यादि को प्रकट किया जा सकता है तथा 'अ, आ, इ, ई, उ इत्यादि क्रमश: 100, 101 102 प्रकट करते हैं। 

ख्य = ख+ य  = 2 + 30  =  32

ख्यू = (ख + य )* उ  =  32 × 10 power 4 = 3,20,000

  • आर्यभट्ट प्रथम से पहले जैन गणितज्ञों ने वर्गमूल निकालने की विधि का अविष्कार कर लिया था, परन्तु उसका स्पष्टीकरण आर्यभट्ट द्वारा ही सम्भव हो सका।

  • दशमलव पद्धति (Decimal System) को प्रयोग में लाने के लिए आर्यभट्ट ने प्रशंसनीय कार्य किया। इसके अतिरिक्त क्षेत्रफल व घनफल निकालने के सभी साधारण नियम आर्यभट्टीय में मिलते हैं। वर्ग का क्षेत्रफल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले (Sphere) तथा शंकु (Cone) का घनफल, तथा सभी प्रकार के क्षेत्रों की औसत (Average) लम्बाई और चौड़ाई जानकर क्षेत्रफल निकालने से सम्बन्धित सभी नियम इसमें मिलते हैं। इससे आर्यभट्ट की रेखागणित में प्रयोगात्मक रूप से कितनी रुचि थी,  इसका पूर्ण आभास हो सकता है।

  • पाई (π) का मान = 3.1416 (लगभग), आज हम सभी इस सम्बन्ध से अच्छी तरह परिचित हैं। विश्व में सबसे पहले आर्यभट्टीय में ही के मान की गणना की ।
  • केवल अंकगणित ही नहीं बीजगणित भी आर्यभट्ट का बहुत ऋणी है। बीजगणित की राशियों के जोड़, बाकी, गुणा और भाग के अतिरिक्त भिन्नों (Fractions) के हरों (Denominators) को सामान्य (सर्वनिष्ठ) हरों में बदलने की रीति, भिन्नों में गुणा और भाग देने की रीति, बीजगणित के कुछ साधारण सूत्र जैसे  a2 + b2 = (a+b)2 तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के समीकरणों को हल करने की विधि आर्यभट्टीय में दी गयी है ।
  • यही नहीं आर्यभट्ट ने समान्तर श्रेणी (Arithmetic Progression) के ऊपर भी अपनी लेखनी बहुत ही सुनियोजित ढंग से उठायी है। निम्न प्रकार की बीजीय सर्वसमिकाओं (Identities) के दर्शन हमें प्रथम बार आर्यभट्टीय में ही मिलते हैं।
1² +2²+ .......+ n² =  1/ 6 * n (n + 1) (2n + 1) 

  • आर्यभट्ट  गणितज्ञ ही नहीं खगोल विज्ञान के भी प्रकांड पंडित थे। उन्होंने संसार के सम्मुख यह कहने का साहस किया कि “ब्रह्माण्ड की दिन प्रतिदिन की गतिशीलता का कारण पृथ्वी का एक धुरी के सहारे घूमते रहना ही है। " (Diurnal motion of the heavens is due to the rotation of the earth about an axis).


Tuesday, September 7, 2021

केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Central Advisory Board of Education (CABE))

 केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Central Advisory Board of Education (CABE))


स्थापनावर्ष 1921 

मुख्य उद्देश्य - शिक्षा से संबंधित विषयों (नीतियों व कार्यों) पर  प्रान्तीय सरकार को सलाह देना। 

वर्ष 1923 में इसे भंग कर दिया गया और फिर वर्ष 1935 में हार्टोंग समिति (Hartong Committee) की सिफारिश पर पुनः स्थापित किया गया जो आज तक कार्य कर रहा है। यह शिक्षा मंत्रालय की महत्वपूर्ण संस्था है।आज यह मण्डल शिक्षा सम्बधी सभी महत्त्वपूर्ण समस्याओं, प्रकरणों तथा विषयों पर शिक्षा मन्त्रालय को परामर्श देता है। 

बोर्ड का गठन (Constitution of Board)-

  • अध्यक्ष (Chairman) - केन्द्रीय शिक्षा मन्त्री  
  • भारत सरकार का शिक्षा परामर्शदाता (Education Consultant)
  • भारत सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य - 15  (जिनमें 4 स्त्रियाँ होती हैं।)
  • संसद के सदस्य - 5  (3 लोकसभा + 2 राज्य सभा)
  • अन्तर विश्वविद्यालय द्वारा निर्वाचित  सदस्य - 2  
  • अखिल भारतीय प्राविधिक शिक्षा परिषद् (All India Council for Technical Education) द्वारा मनोनीत  सदस्य - 2 
  • प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधि के रूप में शिक्षा मन्त्री अथवा उसके द्वारा मनोनीत आदि इस मण्डल के प्रमुख सदस्य के रूप में कार्य करते हैं।
इस बोर्ड की वर्ष में एक बार बैठक अनिवार्यतः होती है जिसमें देश की शैक्षिक समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाता है और सुझाव प्रदान किए जाते हैं। इसकी बैठक के निर्णयों को जानने के लिए देश-विदेश के पत्रकार व प्रकाशक भी आते हैं इससे संबंधित एक शिक्षा पत्रिका भी प्रकाशित होती है जिससे इस बोर्ड के निर्णयों को सम्पूर्ण देश में प्रसारित किया जाता है। यह संस्था एक उत्तम पुस्तकालय का भी अनुरक्षण भी करती है। इस प्रकार से यह बोर्ड भारत की समस्त शिक्षा प्रबंधन का नियंत्रण करती है।

समितियाँ (Committees) - 

यह बोर्ड मुख्य रूप से 7 समितियों की सहायता से कार्य करता है। ये 7 समितियाँ  हैं- 

(i) प्राथमिक एवं बेसिक शिक्षा समिति 

(ii) माध्यमिक शिक्षा समिति,

(iii) उच्च शिक्षा समिति

(iv) सामाजिक शिक्षा समिति 

(v) उच्च एवं तकनीकी सहायता समिति

(Vi) सांस्कृतिक शिक्षा समिति

(Vii) सामाजिक कार्यों से सम्बंधित शिक्षा समिति


केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार मण्डल के कार्य -

  • केन्द्रीय और राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत नवीन शैक्षिक योजनाओं का निर्माण, कार्यान्वयन और सफलता हेतु परामर्श देना।
  • शैक्षिक विकास से सम्बन्धित राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की सूचनाओं को एकत्र करना, जाँच करना और सिफारिश के साथ केन्द्रीय व राज्य सरकारों को प्रस्तुत करना। 
  • देश की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा समस्याओं को समाधान पर विचार करना और शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक विकास और प्रसार करने में नेतृत्व प्रदान करना।
  • केन्द्र और राज्य स्तर पर सरकार द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों को दूर करने हेतु कार्य करना।
  • शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर गठित समितियों से सम्पर्क साधना और शैक्षिक कार्यक्रमों तथा क्रियाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करना ।
  • शैक्षिक विकास के लिए गठित समिति द्वारा दिये गये किसी भी सूचना, परामर्श और सुझाव का मूल्यांकन करना तथा स्वयं की सिफारिश के साथ केन्द्र व राज्य सरकार के समक्ष प्रस्तुत करना।
  • सम्पूर्ण देश के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्धारित करना और शिक्षा के आय-व्यय पर विचार करना। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 (1992 में संशोधित) में यह प्रावधान किया गया है कि शैक्षिक विकास की समीक्षा करने, व्यवस्था एवं  कार्यक्रम पर नजर रखने के लिये आवश्यक परिवर्तनों का निर्धारण करने में भी केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE) की महत्वपूर्ण भूमिका है। 


Friday, August 27, 2021

गणित का इतिहास (History of Mathematics)

 

गणित का इतिहास (History of Mathematics)


 भारतीय गणित का शुभारम्भ 'ऋग्वेद' से हुआ है। इसका इतिहास मुख्य रूप से पाँच कालखण्डों में विभाजित किया  है-

1. आदिकाल (500 ई० पू० तक)

(A) वैदिक काल (1000 ई० पू० तक) 

(B) उत्तर वैदिक काल (1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक)

  • शुल्य एवं वेदांग ज्योतिष काल
  •  सूर्य प्रज्ञाप्तिकाल

2. पूर्व मध्यकाल (500 ई० पू० से 400 ई० पू० तक) 

3. मध्यकाल (400 ई० पू० से 1200 ई० तक)

4. उत्तर मध्यकाल (1200 ई० से 1800 ई० तक) 

5. वर्तमान काल (1800 ई० के पश्चात्)


आदिकाल (500 ई० पूर्व तक) 

यह काल भारतीय गणित के इतिहास में अति महत्वपूर्ण काल है। इस काल में  अंकगणित (Arithmetic),  रेखागणित  (Geometry)  बीजगणित (Algebra) का विकास हुआ।  


(A) वैदिक काल (1000 ई० पूर्व तक) - 

  • इस काल में शून्य तथा दशमलव स्थान मान पद्धति (Decimal place value method) का अविष्कार हुआ। यह गणित की अद्भुत देन है। शून्य एवं दाशमिक स्थानमान पद्धति का महत्व इस  ओर  परिलक्षित करता है कि आज यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है तथा इसके आविष्कार ने ही गणित को प्रखर शिखर पर पहुँचाया है।
  • महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित  ‘नारद-विष्णु पुराण' के पूर्व भाग के द्वितीय पाठ में, त्रिस्कन्ध ज्योतिष के वर्णन में गणित का प्रतिपादन हुआ जिसमें एक (10० ), दश, शत, सहस्त्र अयुत (दस हजार), लक्ष (लाख), कोटि (करोड़), अर्बुद (दस करोड़), अब्ज (अरब), खर्ब (दस अरब), निखर्ब (खरब), महापद्म (दस खरब), शंकु (नील), जलधि (दस नील), अन्त्य (पद्म), पराध (शंख जो 10 के घात 17  के मान के बराबर है) इत्यादि संख्याओं के बारे में बताया गया है
  • दशामिक स्थानमान पद्धति भारत से अरब गयी और अरब से पश्चिमी देशों में पहुंची। इसी कारण से अरब के लोग 1 से 9 तक के अंकों को 'हिन्दसा' कहते हैं तथा पश्चिमी देशों में  0 - 9 तक के अंकों को 'हिन्दू-अरबीक न्यूमरल्स' (Hindu-Arabic  Numerals) कहा जाता है।


(B) उत्तर वैदिक काल (1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक) -

(i) शुल्व एवं वेदांग ज्योतिष काल-

शुल्व से तात्पर्य रस्सी से है, वह रस्सी जो यज्ञ की वेदी बनाने के लिये माप में काम आती थी।  शुल्व सूत्रों में रेखा गणित के सूत्रों का विकास एवं विस्तार उपलब्ध है। इस काल में तीन सूत्रकारों का नाम  उल्लेखनीय है -  बौधायन, आपस्तम्ब एवं कात्यायन ।

  • बौधायन शुल्व सूत्र (1000 ई० पू०) को आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जाना ने जाता है।  
  • बौधायन ने दो वर्गों के योग व अन्तर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है तथा √2 का मान दशमलव के पाँच स्थानों तक निकालने का  सूत्र भी दिया है।
            √2 = 1 + 1/3 + 1/3*4 - 1/3*4*34 = 1.41421


(ii) सूर्य प्रज्ञाप्ति काल- 

  • इस काल की प्रमुख कृतियाँ-  सूर्य प्रज्ञाप्ति तथा चन्द्र प्रज्ञाप्ति (500 ई० पू०) । जो जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। 
  • सूर्य प्रज्ञाप्ति में दीर्घवृत्त का उल्लेख मिलता है। जिस परिमंडल के नाम से जाना जाता है। 
  • भगवती सूत्र (300 ई० पू०) में भी परिमंडल शब्द दीर्घवृत्त के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसके दो प्रकार बताये गये हैं- पहला प्रतर-परिमण्डल व दूसरा घन परिमण्डल |
  • बौद्ध साहित्य में गणित को दो भागों बाँटा गया-
         (i) गणना (साधारण गणित)  

        (ii) संख्यान (उच्च गणित) 

  • संख्याओं का वर्णन तीन रूपों में किया-
          (i)  संख्येय (Countable), 

          (ii) असंख्येय (Uncountable) 

          (iii) अनन्त (Infinity) 


 पूर्व मध्यकाल (500 ई० पू० - 400 ई० तक)


  • इस युग के प्रमुख ग्रन्थों में वक्षाली गणित, सूर्य सिद्धान्त, गणितयोग, स्थानांग सूत्र, भगवती सूत्र व अनुप्रयोग द्वार सूत्र मुख्य हैं।  
  • वक्षाली गणित में अंकगणित की मूल संक्रियाऐं, दाशमिक अंकलेखन पद्धति पर लिखी हुई संख्याऐ, भिन्न, परिकर्म (योग, अन्तर, गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल), वर्ग, घन, व्याजरीति आदि का विस्तृत वर्णन है। 
  • स्थानांग सूत्र में 5 प्रकार के अनन्त की एवं अनुयोगद्वार में 4 प्रकार के प्रमाण (measure) बताये गये हैं।
  • सूर्य सिद्धान्त में वर्तमान त्रिकोणमिति का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें   ज्या (Sine), कोटिज्या (cosine) आदि का मान दिया गया है।
  • भारतीयों ने जमा, घटा (धन व ऋण) चिह्नों का विकास किया। 
  • अंकगणित की तरह बीजगणित भी भारत से अरब पहुँचा, वहाँ के गणितज्ञ 'अलख्वारीज्यी' ने अपनी पुस्तक 'अलजब्र' एवं 'अल-मुकाबला' में भारतीय बीजगणित पर आधारित विषय का प्रतिपादन किया। इनकी इस पुस्तक के नाम पर ही इस विषय का नाम 'अलजेब्रा' (Algebra) पड़ा।
  • भगवती सूत्र में  n प्रकारों में से 1-1, 2-2 प्रकारों को एक साथ लेकर जो युग्म (Combination) बनते हैं उन्हें एकक , द्विक संयोग आदि कहा गया है जिनका मान n, n(n-1)/2 आदि बताया गया है।


मध्यकाल (400 ई० से 1200 ई० तक)


  • मध्यकाल को भारतीय गणित का स्वर्ण-युग कहा जाता है, क्योंकि इस काल में ऐसे महान गणितज्ञ हुये, जिन्होंने गणित की सभी शाखाओं को ज्ञात किया। 
  •  इस काल के कुछ प्रमुख गणितज्ञ भास्कर प्रथम, आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, श्रीपति मिश्र, नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती  , महावीराचार्य आदि हैं।
  • आर्यभट्ट प्रथम (499 ई०) ने अपनी  पुस्तक 'आर्यभट्टीय' में 332 श्लोकों में गणित के महत्वपूर्ण मूलभूत सिद्धान्तों को दिया है। रेखागणित के क्षेत्र में इन्होंने का π का  मान चार स्थानों तक 3.1416 ज्ञात किया। 
  • भास्कर प्रथम (600 ई०) ने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'महाभास्करीय', 'आर्यभट्टीय ''भाष्य' और 'लघु भास्करीय' दिए हैं जिनमें आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को विकसित किया गया।
  • ब्रह्मगुप्त (628 ई०) ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त' दिया। इन्होंने बीजगणित के समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्णीत द्वि-घातीय समीकरण  (Undecidable quadratic equation) का समाधान भी बताया जिसे आयलर ने 1764 में, लांग्रेज ने 1768 ई० में प्रतिपादित किया।
  • श्रीधराचार्य (850 ई०)  ने अंकगणित पर नवशतिका तथा त्रिशतिका, पाटी गणित और बीजगणित पुस्तकों की रचना की। इनका द्विघात समीकरण हल करने का सूत्र जो "श्रीधराचार्य विधि” कहलाता है, आज भी व्यापक रूप से प्रयोग में लाया जाता है। इनकी पुस्तक 'पाटी गणित' का अनुवाद अरब में 'हिसाबुल तरब्त' नाम से हुआ।
  • महावीराचार्य (850 ई०)  ने 'गणितसार संग्रह' नामक अंकगणित के वृहत् ग्रन्थ की रचना की।
  • श्रीपति मिश्र (1039 ई०) ने 'सिद्धान्त शेखर' एवं 'गणित तिलक' (आज्ञात राशियों  के सम्बन्ध में) की रचना की। 
  • भास्कराचार्य द्वितीय (1114 ई०)  ने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सिद्धान्त शिरोमणि' तथा 'करण कुतूहल को दिया है।  वेदों में इनके सूत्रों को आधार मानकर वैदिक गणित की आधुनिक कृतियों में किया जा रहा है। 
  • लीलावती में संख्या पद्धति को आधुनिक  अंकगणित व बीजगणित की रीढ मानी जाती है।

उत्तर मध्यकाल (1200 ई० से 1800 ई० तक)

  • प्राचीन ग्रंथों पर टीकाएँ (Comments) लिखना इस काल की मुख्य देन  है ।
  • केरल के गणितज्ञ नीलकण्ठ ने 1500 ई० में एक पुस्तक में ज्या r (sin r) का मान ज्ञात किया-
ज्या r (Sin r) =  r -  / 3   +    5  / 5  -. ............

मलयालम पाण्डुलेख “मुक्तिभास" में भी यह सूत्र दिया गया है, जिसे आज हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते हैं।

  • नारायण पण्डित (1356) ने अंकगणित पर "गणितकौमुदी" (गणितीय संक्रियाओं, मैथेमैटिकल ऑपरेशन्स से सम्बंधित) नामक एक वृहत् ग्रन्थ की रचना की। इसमें अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है, जिसमें क्रमचय-संचय (Permutation), अंक विभाजन (Partition of Numbers) तथा मायावर्ग (Magic squares) प्रमुख हैं।  
  • नीलकण्ठ (1587 ई०) ने “ताजिकनीलकण्ठी" नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें ज्योतिष गणित का प्रतिपादन किया गया है।
  • कमलाकर (1608 ई०) ने सिद्धान्त-तत्व विवेक नामक ग्रन्थ की रचना की।
  • सम्राट जगन्नाथ (1731 ई०) ने “सम्राट सिद्धान्त” तथा “रेखागणित" नाम की दो पुस्तकें लिखीं। रेखागणित की वर्तमान शब्दावली अधिकांशतः इसी पुस्तक पर आधारित है।

वर्तमान काल (1800 ई० के पश्चात्) 


  • नृसिंह बापू देव शास्त्री (1831 ई० ) ने भारतीय एवं पाश्चात्य गणित पर पुस्तकों का सृजन किया। इनकी पुस्तकों में रेखागणित, त्रिकोणमिति, सायनवाद तथा अंकगणित मुख्य हैं।
  • सुधाकर द्विवेदी ने दीर्घ वृत्त लक्षण, गोलीय रेखागणित, समीकरण मीमांसा, चलन-कलन आदि अनेक पुस्तकों की रचना की। साथ ही ब्रह्मगुप्त एवं भास्कर की पुस्तकों पर टीकाएं लिखकर सामान्य जनता के लिये सुलभ कराया।
  • रामानुजम (1889 ई०)  सूत्र रूप में गणित एवं अन्य सिद्धान्तों को लिखने व सिद्ध करने की वैदिक परम्परा के आधुनिक युग के महान् गणितज्ञ हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित 50 प्रमेयों में से एक-दो को सिद्ध करने से ही गणितज्ञों एवं शोध कर्त्ताओं . को वर्ष पर्यन्त दत्तचित्त होकर परिश्रम करना पड़ा। कुछ प्रमेय अभी तक सिद्ध नहीं किये जा सके हैं। इनकी कृति “रामानुज डायरी" शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं।
  • महान् गणितज्ञ एवं दार्शनिक जगद्गुरु शंकराचार्य भारती कृष्णतीर्थ (1884-1960 ई०) आधुनिक युग में वैदिक गणित के प्रधान भाष्यकार हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक "वैदिक गणित" में वैदिक सूत्रों पुनः प्रतिपादित किया है और उनमें निहित सिद्धान्त और विधियों को इतनी सरल, सुग्राह्य एवं सुस्पष्ट (simple, intelligible and clear) भाषा में प्रस्तुत किया है कि गणित का एक साधारण विद्यार्थी भी उसे आत्मसात (assimilation) कर गणित के जटिलतम प्रश्नों को अत्यल्प समय में हल कर सकता है। है। इन्होंने हमें सर्वथा नवीन दृष्टि देकर वैदिक गणित पर शोध करने तथा उसका उपयोग करने के लिये विवश कर दिया है।

Thursday, August 26, 2021

विद्यालय पाठ्यक्रम में गणित का महत्व (Importance of Mathematics in School Curriculum)

 

विद्यालय पाठ्यक्रम में  गणित का महत्व (Importance of Mathematics in School Curriculum) 

प्राचीन काल से ही गणित को हमारे देश में एक विषय के रूप में महत्व दिया जाता रहा है। प्राचीन काल से ही विद्यालयों में गणित शिक्षण की प्रभावशाली व्यवस्था की जाती रही है। वर्तमान में भी गणित का हमारे दैनिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।  वर्तमान काल में गणित को विद्यालय पाठ्यक्रम में विशेष महत्व देने के लिए गणित विषय को सामान्यतः निम्न दृष्टिकोणों से देखा जाता है-


1. दैनिक जीवन में उपयोगी (Useful in Daily Life)-  

वर्तमान समय विज्ञान का युग है और प्रत्येक स्थान या जगह पर हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गणित का उपयोग करना पड़ता है।  दैनिक जीवन में घर में, बाहर बाजार, दुकान, आय-व्यय में, बैंक ब्याज आदि क्रय-विक्रय में गणित को ही आधार बनाया जाता है। लौकिक, वैदिक तथा सामाजिक जो आधार हैं, उन सबमें गणित का उपयोग है इसलिये विद्यालय में बालकों को प्रारम्भ से ही, प्रारम्भिक गणित का ज्ञान कराया जाये तो वे अपने दैनिक जीवन और अनुभवों को समझने और समझाने में सक्षम रहेंगे।

2. आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति में उपयोगी (Useful in Progress of Economical & Social)-  

हमारी वर्तमान आर्थिक व सामाजिक सभ्यता विज्ञान की ही देन है और विज्ञान का आधार गणित है। जब तक बालक को गणित का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह विज्ञान के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल नहीं कर सकेगा। गणित के बिना  विज्ञान में भी प्रगति होना असम्भव है। इस कारण से यह कह सकते हैं कि गणित हमारी इस आधुनिक प्रगति, विकास और सभ्यता के भवन का स्तम्भ रूप है जिसको हटा लेने से वर्तमान सभ्यता, वैज्ञानिक प्रगति और समृद्धि का भवन निश्चित रूप से गिर जायेगा।


3. बालकों के मानसिक अनुशासन बनाने में उपयोगी (Useful in making of mental discipline in Children)-

गणित का ज्ञान विद्यार्थियों के मस्तिष्क को अनुशासित करने में सहायक होता है। जब विद्यार्थी गणित के प्रश्न को हल करने का प्रयास करता है, तो उसे अपने मन को एकाग्र करना होता है। मन की एकाग्रता मानसिक अनुशासन उत्पन्न करने में सहायक होती है। इससे बालक में उत्पन्न जिज्ञासायें सन्तुष्ट होकर शान्त हो जाती हैं। गणित का अध्ययन बालक को विवेकी, आत्म-विश्वासी, तर्क-वितर्क शक्ति युक्त बनाता है। 


4. स्पष्ट भाव प्रकाशन में उपयोगी (Useful thoughts helpful in Publication)–

हम अपने विचारों, भावों को भाषा के माध्यम से ही किसी दूसरे के सामने  रखते हैं। गणित विषय की भी एक भाषा होती है, जिसका निर्माण प्रतीकों के द्वारा होता है। गणित भाषा को शुद्ध व स्पष्ट बनाता है। जब हम यह कहते हैं कि 'अमुक स्थान बहुत दूर है' तो इसका अर्थ उसकी दूरी से होता है और दूरी ज्ञात करने के लिये हमें गणित का सहारा लेना पड़ता है। उसके द्वारा ही हम यह ज्ञात कर पाते हैं कि वह स्थान कितनी दूर है। .एच० सी० वैश्य ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि, “गणित भाषा का दूसरा रूप है, क्योंकि साधारण भाषा की अपेक्षा उसमें प्रयुक्त व्यंजना अधिक शुद्ध और सूक्ष्म होती है।


5. बालकों के चरित्र निर्माण में उपयोगी (Useful in Character building of Children) - 

कुछ विद्वानों ने कहा है कि  गणित विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में सहायक होता है। गणित एक ऐसा विषय है, जिसमें अशुद्धता का कोई स्थान नहीं होता है अर्थात् गणित किसी झूठ, फरेब, आडम्बर आदि को कोई स्थान नहीं देता है। गणित के द्वारा ही विद्यार्थियों को सत्य का ज्ञान होता है  व सत्य की ओर आकर्षित होकर उनमें नैतिकता का विकास होता है, जो बालक के चरित्र निर्माण में उपयोगी सिद्ध होता है।


6. सांस्कृतिक समृद्धि के विकास में उपयोगी (Useful in the development of Cultural Growth)-

गणित को सांस्कृतिक समृद्धि के विकास की आधारशिला माना जाता है। हागवेन (Hagven) ने गणित को सभ्यता का दर्पण कहा है। (Mathematics is the mirror  of culture.) यदि हम अपनी सभ्यता के बारे में मनन करते हैं तो उसके द्वारा हमें यह पता चलता है कि मानव संस्कृति एवं गणित का विकास लगभग साथ-साथ ही हुआ है। इनकी समुचित जानकारी के लिये हमारे लिये गणित का ज्ञान करना अति आवश्यक हो जाता है। 


7. तर्क संगत, क्रमबद्ध एवं व्यवहारिक गुणों का समावेश एवं उनके विकास में उपयोगी (Useful the development of absorption and Logical Systematical and Behavioural Virtues)—

अध्यापक, विद्यार्थी को गणित शिक्षण को सोचने, समझने, विचारने, तार्किक ढंग से सोचने तथा तथ्यात्मक ढंग से हल खोजने के लिये प्रेरित करता है। जब विद्यार्थी का मस्तिष्क क्रियाशील होता है, तो उसमें अनेक विचार, तर्क, विश्लेषण और उस समस्या पर विवेचना करने की क्रियाएँ स्वतः ही उसके मस्तिष्क में संचालित हो जाती हैं। इस प्रकार की क्रियाओं से विद्यार्थी का बौद्धिक विकास होता है। उसमें तर्क-वितर्क करने, तुलना करना एवं स्वयं निर्णय करने की क्षमता उत्पन्न होती है जिससे उसके मस्तिष्क को शक्ति प्राप्त होती है। और जब उसका मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है तथा वह स्वयं ही क्रियाएँ करने लगता है।



Wednesday, August 25, 2021

गणित का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकृति (Meaning, Definitions and Nature of Mathematics)

 

 गणित का अर्थ (Meaning of Mathematics)


'गणित' शब्द बहुत प्राचीन है तथा वैदिक साहित्य में इसका बहुतायत से उपयोग किया गया है। गणित शब्द का शाब्दिक अर्थ है, “वह शास्त्र  या विद्या जिसमें गणना की प्रधानता हो।" इस प्रकार गणित के सम्बन्ध में दी गयी मान्यताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि गणित, अंक, अक्षर, चिन्ह आदि संक्षिप्त संकेतों का वह विधान है जिसकी सहायता से परिमाण (Magnitude), दिशा (Direction) तथा स्थान (Space) का बोध होता है। 

गणित विषय का प्रारम्भ गिनती से ही हुआ है और संख्या पद्धति (Number of System) इसका एक विशेष क्षेत्र है जिसकी सहायता से गणित की अन्य शाखाओं का विकास किया गया है । 

गणित मानव जीवन का एक गणनात्मक पक्ष (Quantitative aspect) है। जिसमें जीवन से संबंधित वस्तुओं के बारे में गणना करके उसके बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।  गणनात्मक पक्ष का आधार मात्रा एवं स्थान (Quantity and Space) है, जो मात्रात्मक संबंधों का प्रयोग समस्या समाधान के साथ करता है। यह विज्ञान की एक सुसंगठित , क्रमबद्ध एवं शुद्ध शाखा है। यह युक्तिसंगत तर्क की आंकिक समस्याओं का विज्ञान है।


परिभाषायें (Definitions)

गैलीलियो (Galileo) के अनुसार- गणित वह भाषा है जिसमें परमेश्वर ने संपूर्ण जगह या ब्रह्मांड को लिख दिया है (Mathematics is the language which God written Universe.) 

लौक (Locke) के अनुसार- "गणित वह है जिसके द्वारा बच्चों के मन या मस्तिष्क में तर्क करने की आदत स्थापित होती है। " (Mathematics is a way to settle the mind of children a habit of reasoning.)

गॉस (Gauss) के अनुसार- "गणित, विज्ञान की  रानी  है।"(Mathematics is the queen of the science.) 

बेल (Bell) महोदय के अनुसार- "गणित को विज्ञान का नौकर  माना जाता है। " (Mathematics is supposed to be the servant of Science.)

गिब्स (J. Willard Gibbs) के अनुसार- "गणित एक भाषा है। " (Mathematics is a language.)

बेकन (Bacon) अनुसार- गणित सभी विज्ञानों का मुख्य द्वार एवं कुंजी है।"(Mathematics is the gateway and  key to all sciences.)

होगबेन (Hogben) के अनुसार- "गणित सभ्यता और संस्कृति का दर्पण है। (Mathematics is the mirror of civilization.) 

उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण करने पर कहा जा सकता है कि- 

  • गणित गणनाओं का विज्ञान है। (Mathematics is the science of calculations.)
  • गणित विज्ञान का अमूर्त रूप है।(Mathematics is the abstract form of science.) 
  • गणित ज्ञानेन्द्रियों का विकास है । (Mathematics is the development of sense organs.)
  • गणित स्थान तथा संख्याओं का विज्ञान है । (Mathematics is the science of space and numbers.) 
  • गणित विज्ञान की क्रमबद्ध, संगठित एवं यथार्थ शाखा है।(Mathematics is the systematised, organised and exact branch of science.)
  • गणित तार्किक विचारों का विज्ञान है । (Mathematics is a science of logical reasoning.)  
  • यह आगमनात्मक विज्ञान है ।(It is an inductive science.)
  • गणित एक प्रायोगिक विज्ञान है। (Mathematics is a experimental science.) 
  • गणित मात्रात्मक तथ्यों और सम्बन्धों का अध्ययन है।(Mathematics is the study of quantitative facts and relationship) 
  • गणित में आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं । (Mathematics is draws necessary conclusions.)


गणित की प्रकृति (Nature of Mathematics)


  1. गणित में संख्यायें (Numbers), स्थान (Place), दिशा (Magnitude) तथा मापन या माप-तौल (Measurement) का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
  2. गणित की अपनी भाषा (Language) है। भाषा का तात्पर्य-गणितीय पद (Mathematical terms), गणितीय प्रत्यय (Mathematical concepts), सूत्र (Formulae), सिद्धान्त (Principles) तथा संकेतों (Signs) से है जो कि विशेष प्रकार के होते हैं तथा गणित की भाषा को जन्म देते हैं ।
  3. गणित के ज्ञान का आधार हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense organs) हैं।
  4. इसके ज्ञान का आधार निश्चित होता है जिससे इस पर विश्वास किया जा सकता है। 
  5. गणित का ज्ञान यथार्थ (Exact), क्रमबद्ध (Systematic), तार्किक (Logical) तथा अधिक स्पष्ट (Clear) होता है, जिससे उसे एक बार ग्रहण करके आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
  6. गणित में अमूर्त प्रत्ययों (Abstract concepts) को मूर्त रूप (Concrete form) में परिवर्तित किया जाता है, साथ ही उनकी व्याख्या भी की जाती है। 
  7. गणित के नियम, सिद्धान्त, सूत्र सभी स्थानों पर एक समान होते हैं जिससे उनकी सत्यता की जाँच (Verification) किसी भी समय तथा स्थान पर की जा सकती है।
  8. इसके अध्ययन में प्रत्येक ज्ञान तथा सूचना स्पष्ट होती है तथा उसका एक सम्भावित उत्तर निश्चित होता है। 
  9. इसके विभिन्न नियमों, सिद्धान्तों, सूत्रों आदि में सन्देह (Doubts) की सम्भावना नहीं रहती है।
  10. गणित के अध्ययन से आगमन (Induction), निगमन (Deduction) तथा सामान्यीकरण (Generalization) की योग्यता विकसित होती है।
  11. गणित के अध्ययन से बालकों में आत्मविश्वास (Confidence) और आत्मनिर्भरता (Self Reliance) का विकास होता है।
  12. इससे बालकों में स्वस्थ तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific attitude) विकसित होता है। 
  13. इसमें प्रदत्तों अथवा सूचनाओं (संख्यात्मक) को आधार मानकर संख्यात्मक निष्कर्ष (Numerical Inferences) निकाले जाते हैं।
  14. गणित के ज्ञान का उपयोग (Application) विज्ञान की विभिन्न शाखाओं यथा भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य विषयों के अध्ययन में किया जाता है। 
  15. गणित, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन में सहायक ही नहीं, बल्कि उनकी प्रगति तथा संगठन की आधारशिला है।

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