Monday, May 17, 2021

सृजनात्मकता (Creativity)

 सृजनात्मकता/रचनात्मकता (Creativity)

अर्थ (Meaning) -  सृजनात्मकता (Creativity) सामान्य रूप से जब हम किसी वस्तु या घटना के बारे में विचार करते हैं तो हमारे मन-मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न  होते  है। उत्पन्न विचारों को जब हम व्यावहारिक (Practical) रूप प्रदान करते हैं तो उसके पक्ष एवं विपक्ष (Pros and Cons), लाभ एवं हानियाँ (Profit and Losses) हमारे समक्ष आती हैं। इस स्थिति में हम अपने विचारों की सार्थकता एवं निरर्थकता (Meaningful and Meaningless) को पहचानते हैं। सार्थक विचारों को व्यवहार में प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की स्थिति सृजनात्मक चिन्तन/सृजनात्मकता (Creativity)  कहलाती है।

 उदाहरण- जेम्स वाट एक वैज्ञानिक था। उसने रसोईघर से आने वाली एक आवाज को सुना तथा जाकर देखा कि चाय की केतली का ढक्कन बार-बार उठ रहा है तथा गिर रहा है। एक सामान्य व्यक्ति के लिये सामान्य घटना थी परन्तु सृजनात्मक व्यक्ति के लिये सृजनात्मक चिन्तन का विषय थी।

यहाँ से सृजनात्मक चिन्तन (Creative Thinking) की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जेम्सवाट ने सोचा कि भाप में शक्ति होती है इसके लिये उसने केतली के ढक्कन पर पत्थर रखकर उसकी शक्ति का परीक्षण किया। इसके बाद उसने उसका उपयोग दैनिक जीवन में करने पर विचार किया तथा भाप के इन्जन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की।


परिभाषाएं (Definitions)

1. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow)  के अनुसार - सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को व्यक्त करने वाली मानसिक प्रक्रिया है। (Creativity is a mental process to express the original outcomes.)

2. जेम्स ड्रेवर (James Drever) के अनुसार-  “सृजनात्मकता मुख्यतः नवीन रचना या उत्पादन में होती है।” (Creativity is essentially found in new constructions or productions.)

3. कोल और ब्रूस (Cole & Bruce) के अनुसार- “सृजनात्मकता एक मौलिक उत्पादन के रूप में मानव-मन की ग्रहण करने, अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवं क्रिया है।" (Creativity is an ability and activity of man's mind to grasp, express and appreciate in the form of an original product.)

4. हैमोविज एवं हैमोविज (Haimowitz & Haimowitz)  के अनुसार-  सृजनात्मकता व्यक्ति की वह क्षमता है जो उसे नवाचार (innovation) करने, आविष्कार करने तथा चीजों को इस तरह नये ढंग से रखने, जिस तरह वे पहले कभी न रखी गयी हों ताकि उनके महत्व या सुन्दरता में वृद्धि हो सके। (Creativity has been defined as the capacity to innovate, to invent, to place elements in a way in which they have never been placed, so that their value or beauty is enhanced.)

5. आइसेंक (Eysenck) के अनुसार-  “सृजनात्मकता वह योग्यता है जिसके द्वारा नये सम्बन्धों का ज्ञान होता है, असाधारण विचारों की उत्पत्ति होती है तथा परम्परागत ढंग (Pattern) से हट कर चिन्तन किया जाता है। " (Creativity is the ability to see relationship, to produce unusual ideas and to deviate from traditional pattern of thinking.) 

6. स्किनर  (Skinner) के अनुसार– “सृजनात्मक विचारक वह है जो नवीन क्षेत्रों को खोजता है, नये प्रकार से अवलोकन करता है, नवीन भविष्यवाणी करता है तथा नवीन निष्कर्ष निकालता है।”(The creative thinker is one who explores new areas and makes new observations, new prediction and new inferences.)

7. स्टेल (Steil)  के अनुसार - जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो और जो किसी समय में समूह के द्वारा स्वीकृत हो , उपयोगी हो, वह कार्य सृजनात्मकता कहलाता है । (When it results in a novel work that is accepted as tenable or useful or satisfying by a group at some point in time.)

 परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर हम कह सकते हैं कि
सृजनात्मकता व्यक्ति की वह क्षमता (Ability) है जो उसे कुछ नयी खोज करने, किसी समस्या के समाधान हेतु परम्परागत (Traditional) विधियों से हटकर अनेक प्रकार की नवीन विधियों का प्रयोग करने, मौलिक (original) रूप से चिन्तन करने तथा समाज के उपयोग हेतु नवीन उत्पादों का सृजन करने में सहायता प्रदान करती है।


सृजनात्मकता की प्रकृति (Nature of Creativity)

1. सृजनात्मकता सार्वभौमिक (Universal) होती है। प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार की कुछ न कुछ सृजनात्मकता (Creativity) होती है।
2. सृजनात्मकता (Creativity)  द्वारा पूर्ण अथवा आंशिक रूप से नये विचार अथवा नवीन  वस्तु की उत्पत्ति होती है। 
3. सृजनात्मकता (Creativity)  से मौलिक (Original) परिणाम प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए लाभदायक होते हैं। 
4. सृजनशील व्यक्ति के विचारों में लचीलापन (Flexibility) होती  है अतः वह अपने विचारों में सदैव परिवर्तन तथा परिमार्जन (Modification) करने के लिए तत्पर रहता है।
5 . सृजनात्मकता एक ऐसी अनोखी (Unique) मानसिक प्रक्रिया है जिसके साथ व्यक्ति की अन्य योग्यताएँ भी जुड़ी होती हैं।

7. सृजनात्मकता (Creativity)  में चिन्तन की प्रकृति अभिप्रेरित तथा स्थाई होती है।
8. सृजनात्मकता अभिव्यक्ति सृजक को आनन्द तथा सन्तोष (Joy and Satisfaction) प्रदान करती है। 
9. सृजनात्मक व्यक्ति अपने कार्य को इतनी तल्लीनता (धुन) से करते हैं कि लोग उनको सनकी अथवा पागल
समझने लगते हैं। 
10. सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया में बहु-प्रतिक्रियाओं (Multiplicity of responses) को प्रोत्साहित किया जाता है। 
11. सृजनात्मक क्षमताएँ यद्यपि जन्म-जात होती हैं लेकिन प्रशिक्षण तथा अच्छे वातावरण के द्वारा इनका कुछ सीमा तक विकास किया जा सकता है।


 सृजनात्मकता के  क्षेत्र  (Scope of Creativity)

 विभिन्न विचारकों के अनुसार सर्जनात्मकता के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

  1.  विज्ञान (Science) - इसके अन्तर्गत भौतिकी (Physics), रसायन (Chemistry), औषधि-निर्माण (Drug manufacturing) आदि से सम्बन्धित हर प्रकार के  अविष्कार  (Invention )एवं अनुसंधान आ जाते हैं।
  2. कला-कौशल (Art- skills) - संगीत, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला तथा धातु, काष्ठ, चर्म, कागज  आदि से सम्बंधित कौशल भी सृजनात्मक के अंतर्गत आते हैं।
  3. तकनीकी (Technology)- इसमें विशेष रूप से मशीनों, उनके यंत्रों और पुर्जों आदि के निर्माण का क्षेत्र आ जाता है । 
  4. साहित्य (Literature)- इसके अन्तर्गत कविता (poem), कहानी (Story), नाटक (drama), उपन्यास (Novel), निबन्ध (Essay) आदि की रचना तथा भाषणकला,  लेखन -कला सम्मिलित है।
  5. सामाजिक क्षेत्र  (Social Area)- व्यक्ति को समाज में आपस में एक दूसरे के सहयोग द्वारा अनेक प्रकार के सामाजिक  क्रियाओं-धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, राजनैतिक आदि को सम्पादित करना पड़ता है और अनेक समस्याओं का  समाधान करना पड़ता है। इन सभी अवसरों पर व्यक्ति अपनी सृजनात्मक शक्ति का प्रयोग करता है। 
  6. व्यक्तिगत क्षेत्र (Individual  Area )-  व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी व्यवसाय, उद्योग या कार्य में लगा रहता वह सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक, प्रशासनिक जिस क्षेत्र में रहता है, अपनी सृजनात्मकता का प्रयोग करता  है।
  7. मानसिक प्रक्रियाओं का क्षेत्र (Field of mental Processes) - विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे कल्पना (Imagination), चिन्तन (Thinking), तर्क (Logic), समस्या-समाधान (Problem Solving)  सृजनात्मकता के  प्रमुख भाग होते  है।



Sunday, May 16, 2021

शिक्षार्थियों की अभिप्रेरणा को बढ़ाने की विधियाँ (Techniques of Enhancing Learner's Motivation)

 शिक्षार्थियों की अभिप्रेरणा को बढ़ाने की विधियाँ (Techniques of Enhancing Learner's Motivation) 

शिक्षार्थियों को सीखने के लिए पूर्ण रूप से अभिप्रेरित करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अनेक विधियों का विकास किया है-


1. पढ़ाए जाने वाले विषय अथवा सिखाए जाने वाले कौशल की उपयोगिता (Utility of the subject taught or skills taught) -
उपयोगिता सबसे अधिक शक्तिशाली अभिप्रेरक (Motive) होता है। यदि शिक्षार्थियों को यह स्पष्ट कर दिया जाए कि पढ़ाया जाने वाला विषय  (Subject) अथवा सिखाया जाने वाला कौशल (Skill) उनके जीवन में उनके लिए कितना उपयोगी है तो जितना अधिक उन्हें उसकी उपयोगिता का आभास होगा, वे सीखने के लिए उतने ही अधिक अभिप्रेरित (Motivate) होंगे।

2. पढ़ाए जाने वाले विषय अथवा सिखाए जाने वाले कौशल के प्रशिक्षण के उद्देश्य (Aims)
किसी विषय (Subject) अथवा कौशल (Skill) की जीवन में उपयोगिता के साथ पढ़ाए जाने वाले विषय अथवा सिखाए जाने वाले कौशल के उद्देश्य एवं लक्ष्य भी स्पष्ट करना आवश्यक होता है। ये प्रथम विधि से अभिप्रेरित शिक्षार्थियों को सीखने के लिए और अधिक अभिप्रेरित (Motivate) करते हैं। शिक्षार्थियों को सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल के सीखने के उद्देश्य जितने अधिक स्पष्ट होते हैं वे सीखने के लिए उतने ही अधिक अभिप्रेरित होते हैं और उनकी सीखने सम्बन्धी क्रियाएँ भी उतनी ही अधिक उद्देश्य लक्षित  होती हैं।

3. शिक्षार्थियों की आवश्यकताएं (Needs)-  किसी विषय का ज्ञान एवं कौशल का शिक्षण  एवं प्रशिक्षण अपने में कितना भी उपयोगी क्यों न हो लेकिन वह शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं करता तो शिक्षार्थी उसे सीखने के लिए अभिप्रेरित नहीं होते। शिक्षार्थियों को अभिप्रेरित करने के लिए यह आवश्यक होता है कि सिखाए जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल का सम्बन्ध उनकी आवश्यकताओं से जोड़ा जाए। छात्रों की विषय अथवा कौशल के प्रति अभिप्रेरणा की यह उत्तम विधि मानी जाती है।


4. शिक्षार्थियों का आकांक्षा स्तर (Aspiration Level)— कुछ शिक्षार्थी केवल उत्तीर्ण होने भर की आकांक्षा रखते हैं  कुछ  द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने की और कुछ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की। इसी प्रकार कुछ शिक्षार्थी छोटे-मोटे व्यवसाय को प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हैं, कुछ की आकांक्षाएँ इससे अधिक होती हैं और कुछ की आकांक्षाएँ तो बहुत अधिक होती  है। यह देखा गया है कि जिन शिक्षार्थियों का आकांक्षा स्तर जितना अधिक ऊँचा होता है वे उससे सम्बंधित  ज्ञान एवं कौशल सीखने के लिए उतने ही अधिक अभिप्रेरित होते हैं। साफ जाहिर है कि शिक्षार्थियों का आकांक्षा स्तर उठाकर हम उनकी अभिप्रेरणा में वृद्धि कर सकते हैं।

5. कक्षा का वातावरण (Class Climate)-  कक्षा का वातावरण भी शिक्षार्थियों को अभिप्रेरित करने में अभिप्रेरक (Motive)  का कार्य करता है। सुन्दर कक्ष , शुद्ध हवा, पर्याप्त प्रकाश, शान्त वातावरण, शिक्षक-शिक्षार्थियों के बीच के सम्बन्ध और शिक्षार्थियों के आपस के सम्बन्ध, इन सबसे कक्षा का वातावरण तैयार होता है। जिस कक्षा में सीखने के लिए जितना अच्छा वातावरण होता है उस कक्षा के शिक्षार्थी उतने ही अधिक अभिप्रेरित (Motivate) होते हैं।

6. शिक्षक का व्यवहार (Teacher Behaviour)- शिक्षक का शिक्षार्थियों के प्रति प्रेम, सहानुभूति एवं सहयोगपूर्ण व्यवहार  होता है छात्रों की भावनाओं का सम्मान करके, उन्हें अभिव्यक्ति के स्वतन्त्र अवसर प्रदान करके और उनकी समस्याओं का तुरन्त हल करके शिक्षार्थियों की अभिप्रेरणा को सरलता से बढ़ा सकता है।

 7. प्रशंसा एवं निन्दा (Appreciation and Censure) इस सन्दर्भ में किए गए मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से दो तथ्य उजागर हुए। प्रथम यह कि औसत बुद्धि वाले शिक्षार्थियों के लिए प्रशंसा अच्छे अभिप्रेरक का कार्य करती है और छोटे बच्चों के लिए निन्दा अच्छे अभिप्रेरक का कार्य करती है। और दूसरा यह कि निन्दा की अपेक्षा प्रशंसा अधिक अच्छा अभिप्रेरक होता है। यह कार्य शिक्षक शिक्षार्थियों की सही अनुक्रिया के लिए प्यार  एवं मुस्कान भरी स्वीकृति एवं सुन्दर, शाबास, बहुत ठीक आदि शब्दों के द्वारा कर सकते हैं। गलत अनुक्रिया पर निन्दा के स्थान पर सहयोग अधिक उत्तम अभिप्रेरक होता है। यदि कोई शिक्षार्थी बार-बार गलत अनुक्रिया करे तब भी उसकी निन्दा, प्रेम एवं सहानुभूति के साथ करनी चाहिए।


8. पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment)- इस सन्दर्भ में किए गए मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पाया गया कि जिस समूह की प्रशंसा की गई उसकी निष्पत्ति उस समूह से अधिक थी जिसकी आलोचना की गई थी और जिसे नियन्त्रण में रखा गया था। हाँ, कुछ परिस्थितियों में बच्चों को दण्ड देना अभिप्रेरक का कार्य करता है पर दण्ड बड़ी सावधानी से देना चाहिए क्रोध की स्थिति में दण्ड देना हानिकारक होता है, शिक्षार्थी अभिप्रेरित होने के स्थान पर पलायन कर जाते हैं। पुरस्कार भी बड़ी सावधानी से देना चाहिए, यह लोभ का कारण नहीं बनना चाहिए; यह पदक अथवा प्रमाण-पत्र के रूप में देना अधिक प्रभावी होता है। 

9. प्रतिस्पर्धा  एवं प्रतियोगिता (Rivalry and Competition) - कभी-कभी स्पर्धा आधारित  प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता भी अच्छे अभिप्रेरक (Motives) का कार्य करती हैं। यह प्रतिस्पर्धा व्यक्तिगत के स्थान पर सामूहिक स्तर की अधिक प्रभावशाली होती है। व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा एवं प्रतियोगिता जहाँ अच्छे अभिप्रेरक का कार्य करती हैं वहाँ शिक्षार्थियों में द्वेष की भावना भी उत्पन्न करती हैं, परन्तु सामूहिक प्रतिस्पर्धा एवं प्रतियोगिता शिक्षार्थियों को अपने समूह को विजयश्री दिलाने हेतु अधिक श्रम करने के लिए अभिप्रेरित करती हैं। शिक्षकों को प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता का उपयोग बड़ी सावधानी से करना चाहिए। 
10. सफलता का ज्ञान (Knowledge of Success)-    मनोवैज्ञानिक स्कीनर ने अपने प्रयोगों में पाया कि यदि सीखने वाले को अपनी सफलता का ज्ञान तुरन्त करा दिया जाए तो वह उसके लिए अभिप्रेरक का कार्य करता है, वह उससे आगे के कार्य को और अधिक उत्साह से करता है। स्कीनर ने इसे पुनर्बलन (Reinforcement) की संज्ञा दी। 

11. बालकेन्द्रित शिक्षण उपागम (Child Centered approach of teaching)- पूरी शिक्षण प्रक्रिया की मुख्य धुरी बालक है। इसलिए कहा गया है कि "Teaching is meant for the learner and the learner is not meant for teaching” इसलिए शिक्षक को चाहिये कि वह शिक्षण कार्य करते समय बालकों की रुचि, आवश्यकताओं, मानसिक स्तर तथा अभिक्षमताओं का पूरी तरह से ध्यान रखे।


12. शिक्षण की सहायक सामग्री तथा प्रविधियों का प्रयोग (Use of teaching aids and devices) -
शिक्षक को चाहिये कि वह उपयुक्त शिक्षण सामग्री, युक्तियों (Tactics), सीखने के नियमों तथा नवीन शिक्षण सामग्री का प्रयोग करके बालकों को सीखने के लिए अभिप्रेरित करे।
(i) ज्ञात से अज्ञात (Known to Unknown), सरल से जटिल (Easy to Complex) , स्थूल से सूक्ष्म (Macro to Micro) , निश्चित से अनिश्चित (Fixed to Doubtful)  तथा विश्लेषण से संश्लेषण (Analysis to Synthesis) जैसी युक्तियों का प्रयोग करके विषय-वस्तु को बोधगम्य (Understandable) बनाये।
(ii)  करके सीखना , विषय-वस्तु को अच्छी तरह से व्यवस्थित (organised) करना, लचीलापन अपनाना,  सीखने के नियमों (तत्परता, अभ्यास तथा प्रभाव) का उपयोग करना, पृष्ठ-पोषण (feed back devices) का प्रयोग करना आदि शिक्षण के अधिगम के नियमों का कक्षा में भरपूर उपयोग किया जाना चाहिये।
(iii) अध्यापक को कक्षा में दृश्य-श्रव्य सामग्री, टी.वी. फिल्म, चार्टर, प्रोजक्टर, चार्ट, मॉडल आदि का प्रयोग करके विषय-वस्तु को रोचक ढंग से प्रस्तुत करना चाहिये। 




Tuesday, May 11, 2021

अभिप्रेरणा का शैक्षिक महत्व (Educational Importance of Motivation)

 

अभिप्रेरणा का शैक्षिक महत्व (Educational Importance of Motivation)


बालक की शिक्षा में अभिप्रेरणा (Motivation) का अत्यधिक महत्व है। अभिप्रेरणा के द्वारा अध्यापक कक्षा में बालकों को नियंत्रित (Controlled) तथा सक्षम बनाने के लिए ध्यानमग्न (Attention) कर सकता है। शिक्षा में अभिप्रेरणा के महत्व को निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. अधिगम के लिए प्रोत्साहन हेतु (For encouragement to learning)- शिक्षा में अपेक्षित अधिगम (Expected learning) के लिए अभिप्रेरणा एक प्रभावशाली आधार है। अभिप्रेरणा का अधिगम स्वरूप, मात्रा एवं गति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कक्षा में प्रभावशाली अभिप्रेरणा के अभाव में अभीष्ट शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति में कठिनाई होती है। ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार के अभिप्रेरक (Motives) प्रदान किये जाने चाहिए, तभी विद्यार्थी अधिगम से सफलतापूर्वक  निर्धारित लक्ष्य की दिशा में क्रियाशील रहकर प्रगति कर सकते हैं।

2. अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्ति करने हेतु (To gain maximum knowledge)- 
क्रो तथा क्रो के अनुसार, “अध्यापक विद्यार्थियों में प्रतियोगिता (Competition)  की भावना को विकसित करके उन्हें अधिकाधिक ज्ञानार्जन हेतु अभिप्रेरणा प्रदान कर सकते हैं।” कक्षा में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के अतिरिक्त शेष विद्यार्थियों को भी प्रतिस्पर्धा, प्रशंसा आदि के द्वारा अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने   हेतु अभिप्रेरित किया जा सकता है।

3. अनुशासन विकसित करने हेतु (To develop discipline) - विद्यार्थियों में स्वअनुशासन (Self-discipline) की भावना का विकास करने में भी अभिप्रेरणा का अत्यधिक महत्व है। मनोविज्ञान के ज्ञान के प्रभाव के फलस्वरूप स्वअनुशासन की भावना विकसित करने पर आज सर्वाधिक बल दिया जा रहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उपयुक्त अभिप्रेरकों के माध्यम से विद्यार्थियों को वांछित व्यवहारों का अभ्यास कराने से उसमें स्व-अनुशासन (Self-discipline) की भावना का विकास किया जा सकता है।

4. उचित मार्ग- दर्शन हेतु (For proper guidance) - समय-समय पर बालकों का उचित मार्ग- दर्शन करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। शैक्षिक क्षेत्र में समायोजन (Adjustment), समस्या समाधान (Problem Solving), अध्ययन तथा अनुशासन आदि के लिए बालकों को मार्ग- दर्शन की अपेक्षा रहती है। इस हेतु विभिन्न अभिप्रेरकों का प्रयोग करके बालकों में रुचि एवं उत्साह (Excitement) का संचार किया जा सकता है तथा उन्हें लक्ष्य प्राप्ति के लिए दिशा प्रदान किया जा सकता है।

5. सामाजिक तथा चारित्रिक गुणों के विकास हेतु (For the development of social and character qualities) - विद्यार्थियों में चारित्रिक एवं सामाजिक विकास (Character and Social Development) करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है। बालक की प्रशंसा तभी की जा सकती है जब वह उच्च चारित्रिक गुणों वाला हो, उसकी आदतें अच्छी हों तथा उसका व्यवहार समाज के अनुकूल हो। बालकों में अपेक्षित चारित्रिक तथा सामाजिक गुणों का पर्याप्त विकास हो, इसके लिए आवश्यक है कि ऐसा वातावरण बनाया जाए जिसमें वह वांछनीय व्यवहारों को सीखने का अभ्यास कर सके। 

6. व्यवहार में वांछित परिवर्तन हेतु (For desired change in behavior) - बालकों के व्यवहार में शिक्षा द्वारा वांछित परिवर्तन कर उसके व्यक्तित्व (Personality) का विकास किया जाता है। व्यक्तित्व के विकास का आधार व्यवहार में परिवर्तन एवं संशोधन है  । शिक्षा की किसी भी व्यवस्था में, विशेष रूप से औपचारिक व्यवस्था (Formal arrangement) में, बालकों में वांछित व्यावहारिक परिवर्तन के लिए ही समस्त  प्रयास किए जाते हैं। इन व्यवहार परिवर्तनों का मुख्य माध्यम शैक्षणिक  क्रियाएँ होती हैं। इन क्रियाओं द्वारा बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब उनसे सम्बन्धित क्रियाकलापों में बालक रुचि, ध्यान और उत्साह से भाग ले। इसके लिए बालकों को अभिप्रेरित किया जाना अति आवश्यक है जिससे वे स्वयं ही सक्रिय होकर वांछित व्यवहार परिवर्तनों की दिशा में अग्रसर हो सकें।

7. उच्च आकांक्षा स्तर हेतु (For high aspirations Level) - बालकों द्वारा शिक्षा में उच्च सफलता प्राप्त करने के लिए उच्च आकांक्षा स्तर की आवश्यकता होती है। बिना उच्च आकांक्षा स्तर के बालक उच्च स्तर का शैक्षिक अथवा अधिगम सम्बन्धी प्रयास नहीं करता, इसके लिए स्वस्थ मनोवृत्ति (Healthy attitude)  की भी अपेक्षा रहती है। अतः बालकों में स्वस्थ मनोवृत्ति का विकास करने तथा उच्च आकांक्षाओं की दिशा में उत्साहित करने हेतु शिक्षक को पर्याप्त एवं उचित अभिप्रेरकों का प्रयोग करना चाहिए जिससे बालकों में उच्च सामाजिकता, सहयोग, सद्भाव, निष्ठा तथा मानसिक व्यापकता आदि का विकास हो सके तथा वह उच्च शैक्षिक उपलब्धि के साथ-साथ समाज में अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित कर सके।

मैस्लो के सिद्धांत का शैक्षिक अनुप्रयोग (Educational Implication of Maslow's Theory)


1. मास्लो के आवश्यकताओं के सिद्धांत के पदानुक्रम ने स्कूलों में शिक्षण और कक्षा प्रबंधन में एक बड़ा योगदान दिया है। 

2. वातावरण में एक प्रतिक्रिया के लिए व्यवहार को कम करने के बजाय , मास्लो  शिक्षा और सीखने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाता है।

 3. मास्लो  व्यक्ति के पूर्ण शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक और बौद्धिक गुणों को देखता है और कैसे वे सीखने पर प्रभाव डालते हैं। इसको स्पष्ट करता है।

4. एक छात्र की संज्ञानात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने से पहले, उन्हें पहले अपनी बुनियादी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करना होगा।

5. मास्लो का सुझाव है कि छात्रों को दिखाया जाना चाहिए कि वे कक्षा में मूल्यवान और सम्मानित हैं, और शिक्षक को एक सहायक वातावरण बनाना चाहिए। कम आत्म-सम्मान वाले छात्र अकादमिक रूप से एक सर्वोत्तम दर पर प्रगति नहीं करेंगे जब तक कि उनका आत्म-सम्मान मजबूत नहीं हो जाता।

6. छात्रों को अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने और पहुंचाने के लिए कक्षा के भीतर भावनात्मक और शारीरिक रूप से सुरक्षित और स्वीकृत महसूस करने की आवश्यकता है।



















अधिगम के प्रकार (Types of Learning)

 अधिगम के प्रकार (Types of Learning)

सामान्यतः अधिगम तीन प्रकार के होते हैं-

  • संज्ञानात्मक/ज्ञानात्मक अधिगम (Cognitive/Knowledgeable Learning)
  • क्रियात्मक अधिगम (Conative /Functional Learning)
  • भावात्मक अधिगम (Affective/Emotional Learning)


  • संज्ञानात्मक/ज्ञानात्मक अधिगम (Cognitive/ Knowledgeable Learning)- इस प्रकार के अधिगम का संबंध ज्ञान से होता है अर्थात अधिगमकर्ता अपने ज्ञान में वृद्धि करता है इस प्रकार के अधिगम में ज्ञान अर्जित करने निम्न विधियां  होती हैं-

(A) प्रत्यक्षात्मक अधिगम (Perceptual Learning)-  मूर्त वस्तुओं को देखकर, सुनकर, छूकर सीखना। यह शैशवावस्था में पाया जाता है।

(B) प्रत्यात्मक अधिगम ( Conceptual Learning)- किसी विषय  वस्तु के बारे में अमूर्त चिंतन, कल्पना या तर्क के आधार पर सीखना प्रत्यात्मक अधिगम कहलाता है। यह विशेषता किशोरावस्था  वाले बालकों में पाई जाती है।

(C)  साहचर्यात्मक अधिगम (Associated Learning)-  जब पहले से सीखे अनुभवों को नए ज्ञान के साथ जोड़ा जाता है या  समान अधिगम परिस्थितियों में एक अधिगम प्रक्रिया को दूसरे अधिगम प्रक्रिया से जोड़ा जा सकता है। 
 
  • क्रियात्मक अधिगम (Conative /Functional Learning)- यह क्रिया से सम्बंधित अधिगम है । इसे मनोदैहिक अधिगम भी कहा जाता है। विभिन्न प्रकार की क्रियाओं जैसे - तैरना, सिलाई सीखना, खाना बनाना ,  संगीत, नृत्य आदि के माध्यम से होने वाला अधिगम क्रियात्मक अधिगम कहलाता है। 
  • भावात्मक अधिगम (Affective/Emotional Learning)- यह जीव की भावनाओं से संबंधित अधिगम है । यदि किसी बालक को चित्र, रंग , आकृति सवेंग शब्द  को आधार मानकर सिखाया जाता है तो उसे भावात्मक अधिगम कहते हैं।

रोबेर्ट मिल्स गैने (Robert Mills Gagne) केे अनुसार-

 रोबेर्ट  मिल्स गैने (Robert Mills Gagne)  ने अधिगम के आठ प्रकार बताये हैं। इन्होंने अपनी किताब "अधिगम की शर्तें (Conditions of Learning)  (1965) में इन 8 प्रकार के अधिगम की व्याख्या की है।  इसे अधिगम का सोपानिकी सिद्धान्त भी कहते हैं ।



  • संकेत अधिगम (Signal Learning)-  संकेत अधिगम  परिस्थिति पॉवलोव द्वारा प्रस्तुत शास्त्रीय अनुबन्धन के सिद्धांत (Classical Conditioning Theory) पर आधारित है।  छोटे बच्चों को अक्षर ज्ञान संकेत अधिगम की उपस्थिति में उत्पन्न किया जाता है। जैसे अक्षर  की पहचान करने के लिए कबूतर का चित्र, अक्षर के लिए खरगोश आदि। इसको गैने द्वारा निम्न स्तर में रखा गया है।
  • उद्दीपन- अनुक्रिया अधिगम (Stimulus-Response Learning)- थार्नडाइक के प्रयास-त्रुटि सिद्धान्त, स्किनर के क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त (Trial-error theory, Skinner's operant conditioning theory) के समान है।  थार्नडाइक के प्रयोग में बिल्ली सही और गलत उद्दीपकों को पहचान कर और अपनी अनुक्रिया में संसोधन करके सही अनुक्रिया सीख लेती है।
  • श्रृंखला अधिगम (Chain Learning)- श्रृंखला अधिगम में दो या दो से अधिक उद्दीपक अनुक्रिया संबंधों को साथ-साथ जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार की अधिगम में व्यक्तिगत संबंधों को क्रमानुसार संबंधित किया जाता है।
  • शाब्दिक साहचर्य अधिगम (Verbal Associative Learning)- इस प्रकार के अधिगम में शाब्दिक अनुक्रिया क्रम की व्यवस्था की जाती है। अधिक जटिल शाब्दिक श्रृंखला के लिए व्यवस्था क्रम एक संकेत का कार्य करती है। शाब्दिक इकाई को सीखने के लिए  उससे पूर्व की इकाई सहायता प्रदान करती है 
  • विभेदन अधिगम (Discrimination Learning)- विभेदन अधिगम के अंतर्गत बालक भिन्न-भिन्न उद्दीपनों के प्रति अनुकूलन से भिन्न भिन्न स्पष्ट अनुक्रिया करना सीख जाता है एक जैसे दिखने वाले उद्दीपनों में विभेद करने की क्षमता आ जाती है और विभेदी उद्दीपन के अनुरूप अनुक्रिया करने में बालक समर्थ हो जाता है।
  • संप्रत्यय अधिगम (Concept Learning)-  जब किसी वस्तु की पहचान गुणों के आधार पर किया जाता है तो उसे संप्रत्यय अधिगम कहते हैं। 
  • सिद्धान्त/नियम अधिगम (Rule/Principle Learning)- नियम अधिगम को महासंप्रत्यय अधिगम (Super Concept) भी कहा जाता है क्योंकि नियम की शाब्दिक रूप में भी अभिव्यक्ति की जा सकती हैं नियम अधिगम में बालकों द्वारा विचारों का संयोजन किया जाता है इस प्रकार के अधिगम में दो या अधिक संप्रत्ययों को श्रृंखलाबद्ध किया जाता है जिससे एक नियम की संकल्पना बनती है। जैसे- पृथ्वी में गरुत्वाकर्षण शक्ति है।
  • समस्या समाधान अधिगम (Problem solving learning)- समस्या समाधान अधिगम में बालक द्वारा पूर्व में सीखे गए नियमों का उपयोग वर्तमान समस्या का हल करने में किया जाता है । इस प्रकार समस्या समाधान अधिगम  नियम-अधिगम का एक प्राकृतिक विस्तार है । इस अधिगम में चिंतन की सामग्री निहित होती है। इसको गैने सर्वश्रेष्ठ् प्रकार बताया है ।





Sunday, May 9, 2021

अभिप्रेरणा के सिद्धान्त (Theories of Motivation)

 अभिप्रेरणा के सिद्धान्त (Theories of Motivation)

अभिप्रेरणा के मुख्य सिद्धान्त निम्न हैं-
1. अभिप्रेरणा का मूल प्रवृत्ति का सिद्धांत (Instinct theory of Motivation)-   

मानव व्यव्हार को मूल प्रवृतियों द्वारा अभिप्रेरित होने का प्रत्यय  सर्वप्रथम विलियम जेम्स ने दिया था।  मूल प्रवृतियों पर आधारित अभिप्रेरणा सिद्धांत का प्रतिपादन मैक्डूगल ने 1980 में किया था। इन्होने माना कि मानव का प्रत्येक व्यवहार उसकी मूल प्रवृतियों द्वारा संचालित होता है ।                                                              

2. उपलब्धि अभिप्रेरणा का सिद्धांत (Theory of Achievement Motivation)-
                    
 प्रतिपादक -          D.C. Maclelland & J.W. Atkinson                                                                      
उपलब्धि की  आवश्यकता को मुख्य अभिप्रेरक (Drive) माना  है जिसको व्यक्ति की किसी कार्य में सफलता की प्रत्याशाओं (Expectations) के द्वारा पहचाना जा सकता है ।                                                                            

3. सत्ता अभिप्रेरणा का सिद्धांत (Theory of power Motivation)-   
                               
प्रतिपादक -  Alfred Adler                                                                                                
पुस्तक -   The practice and Theory of Individual psychology                                        
व्यक्ति को अभिप्रेरित करने में क्रोध (Agression) की प्रवृति को अधिक महत्व  दिया जिसको आगे चलकर सत्ता की इच्छा (Will for Power) के रूप में प्रस्तुत किया  सत्ता की इच्छा (Will for Power) का व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले अनेक कार्यों में बड़ा योगदान रहता है ।                                                                                                                                       
4. अहम अन्तरग्रसता का अभिप्रेरणा सिद्धान्त (Ego-Involvement theory of Motivation) -

प्रतिपादक - शैरीफ और कैन्टिल (1974)                                                                                          
पुस्तक -   The Psychology of Ego-Involvement                                                          
अहम् को व्यक्ति की की अभिवृतियों का समूह माना है।  
                                                                              
5. अभिप्रेरणा का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-analytic theory of Motivation)

प्रतिपादक - सिगमन फ्रॉयड 
इस सिद्धान्त में सिगमण्ड फ्रायड ने व्यवहार को प्रभावित करने वाले दो कारक बताये- एक मूल प्रवृत्तियां तथा दूसरा अचेतन मन। फ्रायड के अनुसार मनुष्य में मूल रूप से दो ही मूल प्रवृत्तियां होती हैं- एक जीवन मूल प्रवृत्ति (Life instinct or Eros) और दूसरी मृत्यु मूल प्रवृत्ति (Death instinct or Thanaros) । मनुष्य के व्यवहार के संचालन में ये दोनों मूल प्रवृत्तियाँ महत्वूपर्ण मानी गयी हैं। जीवन-मूल प्रवृत्ति व्यक्ति को सकारात्मक कार्यों, जैसे- आत्म सुरक्षा, दूसरों से प्रेमपूर्वक व्यवहार करना तथा अपनी क्षमताओं का विकास करने आदि की ओर उन्मुख करती है। जब जीवन-प्रवृत्ति शिथिल हो जाती है तो मृत्यु- प्रवृत्ति सक्रिय होकर व्यक्ति को विध्वंसकारी कार्यों, जैसे दूसरों की बुराई, निन्दा, आलोचना करना, छल कपट से दूसरों को हानि पहुंचाना, हत्या अथवा आत्महत्या करने आदि के लिए अभिप्रेरित करती है। 

6. अभिप्रेरणा का प्रोत्साहन सिद्धांत (Incentive theory of Motivation)-

प्रतिपादक-  वोल्स और कॉफमैन  
इस सिद्धांत के अनुसार,” मनुष्य जिस वातावरण में रहता है उस वातावरण में निश्चित वस्तुएं उसे किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।

7. अभिप्रेरणा का आवश्यकता सिद्धांत (Need theory of Motivation)-

प्रतिपादक- हेनरी मरे तथा अब्राहम मैस्लो   (1930)
आवश्यकता के दो  प्रकार बताये - 
1. दैहिक आवश्यकता (Biological/Primary Need) - भोजन, पानी सहित 12 आवश्यकताएं बताई हैं 
2. मनोवैज्ञानिक आवश्यकता (Psychological/Secondary Need) - सम्बन्ध, प्रेम सहित 28 आवश्यकताएं बताई हैं 

8. अभिप्रेरणा का शारीरिक सिद्धांत (Physiological Theory of Motivation)-

प्रतिपादक-      मॉर्गन 
इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य में अभिप्रेरणा किसी बाह्य उद्दीपक द्वारा उत्पन्न नहीं होती है बल्कि उसके शरीर के अन्दर के तन्त्रों में होने वाले परिवर्तनों के कारण होती है। इन परिवर्तनों के कारण शरीर के अन्दर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएं (Reactions) होती रहती हैं। यह सिद्धान्त केन्द्रीय अभिप्रेरक अवस्था  [Central Motive State (CMS)] के नाम से भी जाना जाता है । इस सिद्धान्त में प्रत्येक मानवीय व्यवहार की व्याख्या केंद्रीय अभिप्रेरक अवस्था (CMS) के आधार की जाती है। 

9. उद्दीपन -अनुक्रिया अभिप्रेरणा सिद्धांत (S-R Theory of Motivation)-

प्रतिपादक-      थॉर्नडाइक  (व्यवहारवादी) 
मनुष्य का व्यवहार शरीर के द्वारा उद्दीपन के फलस्वरूप होने वाली प्रतिक्रिया है 

10. अभिप्रेरणा का चालक सिद्धान्त  (Drive Theory of Motivation)

प्रतिपादक-      सी० एल० हल 
व्यक्ति का व्यवहार आवश्यकताओं की संतुष्टि पर निर्भर करता है 


अभिप्रेरणा का  आवश्यकता सिद्धान्त (Need Theory of Motivation)


इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय हेनरी मरे तथा अब्राहम मैसलो (Abraham Maslow)  को जाता है मरेे ने आवश्यकताओं को दो भागों में में विभक्त किया है-
प्रथम जैविक या प्राथमिक (Biological or Primary) आवश्यकताएं तथा दूसरी मनोजन्य अथवा गौण (Psychogenic or Secondary) आवश्यकताएं। मरे के अनुसार व्यक्ति की अभिप्रेरणाओं का मुख्य स्रोत उसकी अतृप्त इच्छाएं (Unquenchable desires) हैं। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु उन कार्यों के करने केे लिये तैयार  होता है जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करे । मरे का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति की कुछ आवश्यकताएं उसके लिए अधिक महत्वपूर्ण होती हैं जबकि कुछ महत्वहीन । मरे की दृष्टि में अधिकांश अभिप्रेरणाएं पर्यावरणीय कारकों का प्रतिफल होती हैं जबकि कुछ अभिप्रेरणाएं व्यक्ति की निजी आवश्यकताओं के कारण प्रभावित होती हैं। मरे ने चौबीस मुख्य आवश्यकताओं का चयन किया जो कथानक बोध परीक्षण (Thematic Apperception Test) द्वारा मापी जा सकती है। 


मैसलो का आवश्यकता का पदानुक्रम सिद्धान्त (Maslow's Need Hierarchy Theory)


इस सिद्धान्त के अनुसार जब व्यक्ति को किसी चीज की कमी का अहसास होता है तो उसकी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए वह क्रियाशील हो जाता है अर्थात् आवश्यकता व्यक्ति को किसी कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है। मैसलो के अनुसार व्यक्ति निम्न स्तर की माँगों की पूर्ति करते हुए उत्तरोत्तर (step by step) क्रम की माँगों की पूर्ति करने का प्रयास करता है। अतः व्यक्ति का अभिप्रेरणात्मक व्यवहार (Motivational Behaviour) उसकी तृप्त माँगों (Satisfaction needs) से संचालित न होकर अतृप्त माँगों (Extinction needs) से संचालित होता है। अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि व्यक्ति आत्मसिद्धि (self realization) के स्तर की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर लेता है ।

 

1. शारीरिक आवश्यकता (Physiological Needs) Maslow Theory के अनुसार मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता (Primary Need) उसकी शारीरिक संतुष्टि होती है जिसके अभाव में वह जीवन व्यतित करने की कल्पना तक नही कर सकता। शारीरिक आवश्यकताओं में भोजन, पानी, वस्त्र, मन की एकाग्रता, यौन संबंधी आवश्यकताएं एवं शरीर के आराम हेतु निद्रा आदि। इस  सिद्धांत के अनुसार यह सभी आवश्यकताएं मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं (Primary Needs) होती है जिसकी पूर्ति हेतु वह सबसे पहले प्रयास  करता हैं। इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पश्चात इन  आवश्यकताओं को स्थायी रूप प्रदान करने हेतु एवं संरक्षित करने हेतु उसे सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होती है।


2. सुरक्षा की आवश्यकता (Safety Needs) – जब व्यक्ति को उसकी प्रथम चरण की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है तो तब उसको अपने अस्तित्व की चिंता होने लगती है वह अपने अस्तित्व की महत्ता को जानने लगता है जिस कारण वह अपने जीवन-मृत्यु के संबंध में सोचने लगता हैं। अपने जीवन को स्थिरता प्रदान करने के लिए उसे सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होती हैं।

3. प्यार और संबंधों की आवश्यकता (Love and Belonging) – व्यक्तियों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता होती है वह इन समस्त आवश्यकताओं की प्राप्ति अकेले रहकर नही कर सकता। जिस कारण वह अपने परिवार का निर्माण करता है एवं समाज के साथ विभिन्न प्रकार के संबंधों की स्थापना करता है जैसे- पत्नी, भाई, बहन, प्यार, दोस्त आदि। सुरक्षा की आवश्यकता के चरणों की पूर्ति हो जाने के पश्चात ही वह इस चरण की आवश्यकता की पूर्ति हेतु क्रियाशील हो जाता हैं।

4. आत्मसम्मान की आवश्यकता (Need of Self-respect/Esteem Needs) – प्यार और संबंधों की आवश्यकता की पूर्ति हो जाने के पश्चात उसे समाज मे गौरवपूर्ण तरीके से जीवनयापन करने हेतु आत्मसम्मान की आवश्यकता महसूस होती है जिस कारण वह एक गौरवपूर्ण  पद प्राप्त करने और दूसरे से अपनी एक अलग पहचान बनाने अर्थात खुद को विशिष्ट दिखाने की आवश्यकता की पूर्ति करने का प्रयास करता हैं। जिस कारण समाज के सभी लोग उससे प्रेमपूर्वक व्यवहार करें एवं उसका आदर करें। मैस्लो के अनुसार- मनुष्य जीवनपर्यंत इन चार चरणों की प्राप्ति हेतु सदैव क्रियाशील रहता है एवं वह सदैव यह प्रयास करता है कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति वह जल्द से जल्द कर सके और कम ही ऐसे लोग होते है जो इन चार चरणों की पूर्ति कर पाते है और इस सिद्धांत के अंतिम चरण आत्मबोध/आत्म सिद्धि (Self-actualization) में पहुँच पाते हैं।

5. आत्मबोध/आत्म सिद्धि की आवश्यकताएं  (Needs of Self-actualization) मैस्लो ऐसे मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने सर्वप्रथम आत्मबोध को मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण माना। इस  सिद्धांत के अनुसार आत्मबोध मनुष्य की आवश्यकताओं का अंतिम चरण है। इनके अनुसार मनुष्य को आत्मबोध तब होता है जब वह अपने चारों चरणों की पूर्ति कर लेता हैं। इसमे व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों (Internal Powers) को जान लेता है एवं उसे आंतरिक संतुष्टि की प्राप्ति हो जाती है। आत्मबोध अर्थात आत्मा को जानना, सांसारिक कटुता एवं सत्यता को पहचान लेना ही आत्मबोध (Self-actualization) हैं।


इस सिद्धान्त की आलोचना करने वालों का मत है कि साधारणतया तो व्यक्ति निम्न स्तर की आवश्यकताओं की पूर्ति करके ही उच्च स्तर की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए आगे बढ़ता है लेकिन अनेक बार व्यक्ति उच्च आदर्शों अथवा विशेष उद्देश्यों जैसे- आत्म सम्मान, सामाजिक प्रतिष्ठा, राष्ट्र-हित आदि की रक्षा के लिए भूखा प्यासा रहकर अपनी जिन्दगी को दाँव पर लगाने तक के लिए तत्पर हो जाता है । क्रान्तिकारियों द्वारा भूखा रहकर आमरण अनशन करके देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राणों को न्योछावर करना, इसका ज्वलन्त उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सभी प्रकार के अभिप्रेरणा-व्यवहारों की व्याख्या माँग की सन्तुष्टि के आधार पर नहीं की जा सकती है ।


अभिप्रेरणा का प्रोत्साहन सिद्धांत (Incentive theory of Motivation)

प्रोत्साहन के सिद्धांत का प्रतिपादन वोल्स और कॉफमैन ने किया। इस सिद्धांत के अनुसार,” मनुष्य जिस वातावरण में रहता है उस वातावरण में निश्चित वस्तुएं उसे किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।
इस सिद्धान्त के अनुसार अभिप्रेरणा की उत्पत्ति वातावरण में स्थित प्रोत्साहन तथा व्यक्ति की शारीरिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं के बीच अन्तःक्रिया के द्वारा होती हैं। इस प्रक्रिया में व्यक्ति को अपने द्वारा किए जाने वाले व्यवहार के परिणाम की जानकारी पहले से ही होती है।
इनके अनुसार प्रोत्साहन दो प्रकार का होता है-

(A) धनात्मक प्रोत्साहन (Positive Incentive)- यह किसी लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। जैसे- भोजन पानी, मनपसंद वस्तु आदि।
(B) ऋणात्मक प्रोत्साहन (Negative Incentive)- यह किसी लक्ष्य की ओर बढ़ने से रोकता है। जैसे- दंड , घृणा करना, आदि

दैनिक जीवन में वातावरण में स्थित विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तथा सामाजिक प्रतिष्ठा देने वाले पद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति हमेशा लालायित तथा अभिप्रेरित होते हैं लेकिन इस सिद्धांत में मात्र  बाह्य कारकों को ही महत्व दिया गया है अतः यह सिद्धांत पूर्ण नही  है।






मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology) मनोविज्ञान के सम्प्रदाय से अभिप्राय उन विचारधाराओं से है जिनके अनुसार मनोवैज्ञानिक मन, व्यवह...