Thursday, April 30, 2020

तुलनात्मक शिक्षा की विधियां (Strategies of Comparative Education)

                  तुलनात्मक शिक्षा की विधियां                                        (Strategies of Comparative Education)

तुलनात्मक शिक्षा के विकास तथा उसके अध्ययन की विधियों में घनिष्ठ संबंध है। तुलनात्मक अध्ययन की एक विधि है। इसका उपयोग अन्य विषयों तथा शोध अध्ययनों में किया जाता है। मानवीय व्यवहार सापेक्ष होता है , इसलिए तुलनात्मक विधि अधिक उपयोगी है। तुलनात्मक विधि को दो भागों में विभक्त किया जाता है ।
1. तुलनात्मक सामान्य विधि (Normal Comparative Method)
2. तुलनात्मक कार्य-कारण विधि (Casual Comparative Method) या घटनोत्तर अध्ययन विधि (Ex-post-facto Method)

        1. तुलनात्मक सामान्य विधियां (Normal Comparative Methods)

इस तुलनात्मक विधि के अन्तर्गत सामान्य परिस्थितियों में किन्हीं दो या दो से अधिक शिक्षा प्रणालियों तथा शिक्षा के घटकों की तुलना की जाती है। इस तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उनमें समानताओं तथा असमानताओं की पहचान की जाती है। शिक्षा प्रणालियों की विशेषताओं की सुविधा का आंकलन करके ही उन्हें अपनाया जाता है। इस विधि में सामान्य परिस्थितियों में जो अंतर पाया जाता है , उनका वर्णन किया जाता है। उनके अंतरों के कारण का कोई भी उल्लेख नही किया जाता है। ऐसे निष्कर्ष सर्वेक्षण विधि द्वारा भी प्राप्त किये जाते हैं। तुलनात्मक विधि में तुलना शब्द लक्ष्य की ओर संकेत करता है। दो या दो से अधिक शिक्षा प्रणालियों तथा घटकों की तुलना करना इसका लक्ष्य है परंतु इस लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाए , इसके लिए किसी सहायक विधि का प्रयोग किया जाता है। सहायक विधि चयन तुलना करने के विशिष्ट उद्देश्य पर निर्भर करता है।
दो शिक्षा प्रणालियों की तुलना में अगर उनके दार्शनिक पक्षों या सैद्धांतिक पक्षों की करनी हो तो हमे दार्शनिक तुलनात्मक विधि का प्रयोग करना होगा ।
इस प्रकार तुलनात्मक विधियों का वर्गीकरण उनके विशिष्ट उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है । सामान्य तुलनात्मक विधियाँ इस प्रकार से हैं-
(१) दार्शनिक तुलनात्मक विधि (Philosophical Comparative Method)
(२) ऐतिहासिक तुलनात्मक विधि (Historical Comparative Method)
(३) सर्वेक्षण तुलनात्मक विधि (Survey Comparative Method)
(४) विश्लेषणात्मक तुलनात्मक विधि (Analytical Comparative Method)
(५) संश्लेषणात्मक तुलनात्मक विधि (Synthetical Comparative Method)
(६) सांख्यिकी तुलनात्मक विधि  (Statistical Comparative Method)

(१) दार्शनिक तुलनात्मक विधि(Philosophical Comparative Method)


जब दो या दो से अधिक शिक्षा प्रणालियों तथा शिक्षा घटकों के दार्शनिक या सैद्धांतिक पक्षों की तुलना की जाती है तब इस विधि का उपयोग किया जाता है।
दार्शनिक विधि के क्षेत्र में दो विधियों का प्रयोग किया जाता है- परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विधि। परिमाणात्मक विधि का प्रयोग वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में किया जाता है । गुणात्मक विधि भी शिक्षा के क्षेत्र में समान रूप से प्रयोग की जाती है।
दार्शनिक तुलनात्मक विधि के अंतर्गत निम्न दार्शनिक पक्षों को महत्व दिया जाता है-
तर्कशास्त्र (Logic)- इस दार्शनिक विचारधारा का सम्बंध मूल रूप से भाषा के प्रयोग में होता है। इसका सम्बन्ध शुद्ध रूप से सोचने की विधि से होता है। इसके व्यापक रूप में अनेक प्रकार के सिद्धांत निहित होते हैं। इनका संबंध विचार की प्रकृति, निर्णायक शक्ति एवं तार्किक चिंतन से होता है। इसके अलावा भाषा के जो संकेत हैं उनको महत्व दिया जाता है।
तत्व मीमांसा (Metaphysics)- इसके अन्तर्गत दार्शनिक यह ज्ञात करने की कोशिश करता है कि सत्य क्या है?  प्रत्येक व्यक्ति अपने आसपास के अस्तित्व को ही समझता है परन्तु एक दार्शनिक उनके कारण एवं प्रभाव के सम्बंध को समझने की कोशिश करता है । गह तत्व के परिवर्तन तथा उसके गुणों को भी समझने का प्रयास करता है।
ज्ञान मीमांसा (Epistemology)-  इस अध्ययन में छात्र मानवीय ज्ञान की विश्वसनीयता तथा वैधता की खोज करता है एवं मानवीय ज्ञान के स्रोत को भी जानने का प्रयास करता है। ज्ञान एक मानसिक अवस्था है इसलिए यह एक व्यक्तिनिष्ठ प्रत्यय है।
नीतिशास्त्र(Moral Philosophy)- नीतिशास्त्र को कभी-कभी व्यावहारिक दर्शन भी कहते हैं क्योंकि इसके अंदर प्रमुख रूप से आचरण के मूल मानकों को महत्व दिया जाता है। नैतिक दर्शन मानवीय आचरण से कई रूप में भिन्न होता है। इसके अंतर्गत अच्छा व्यवहार क्या है और उसका अंतिम मानदण्ड क्या है?  इसका अध्ययन किया जाता है।

(२) ऐतिहासिक तुलनात्मक विधि (Historical Comparative Method)


जब  दो या दो से अधिक शिक्षा प्रणालियों या शिक्षा घटकों के विकासक्रमों की तुलना करनी हो तो इसके लिए ऐतिहासिक तुलनात्मक विधि का उपयोग करते हैं। यदि वर्तमान स्थिति को समझने के लिए आतीत के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है तो तब भी इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
गुड एवं स्केट्स के अनुसार - "इतिहास सम्पूर्ण सत्य के लिए की गई समालोचनीय खोज के संदर्भ में लिखी गई अतीत की घटनाओं एवं तथ्यों की कोई सम्पूर्ण कहानी है।"
इतिहास का एक लाभ जो बहुत बार देखा जाता है । अतीत की घटनाओं तथा तथ्यों सहित इसका छात्रों एवं अध्यापकों के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है । वैज्ञानिक तथ्य के लिये साक्ष्यों को प्रमाणित करते हैं, किन्तु इसका कोई प्रभाव नही होता है।


(३) सर्वेक्षण तुलनात्मक विधि (Survey Comparative Method)


इस विधि में शिक्षा प्रणालियों एवं शिक्षा घटकों की तुलना वर्तमान परिस्थितियों में ही की जाती है। वर्तमान स्थितियों का अध्ययन करने के लिये सर्वेक्षण किये जाते हैं और जो तथ्य प्राप्त होते हैं उनके आधार पर दो या दो से अधिक घटकों की तुलना करके समानता एवं असमानता के सम्बंध में निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं। सामान्य सर्वेक्षण इस बात से है कि किसी वस्तु की वर्तमान स्थिति क्या है? शिक्षा में होने वाले सर्वेक्षण न केवल वर्तमान पाठ्यक्रम की अच्छाइयों एवं बुराइयों की सूचना देते हैं बल्कि उनमें परिवर्तन लाने का सुझाव भी देते हैं। इन सुझावों को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का विकास भविष्य के लिये किया जाता है।
सर्वेक्षण विधि को वर्णनात्मक, नोर्मेटिव, ट्रेंड्स आदि नामों से भी जाना जाता है।   यधपि अनुसंधान में सर्वेक्षण विधि का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वर्तमान में इनका रूप क्या है?  अथवा समस्या या घटना का विवरण देता है लेकिन बहुत से सर्वेक्षण केवल वर्तमान स्थितियों के विवरण की सीमा से भी बाहर होते है।  विवरणात्मक सर्वेक्षण अध्ययन विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों की योजना बनाने में हमारे लिये सहायक है, विद्यालय जनगणना सम्भवतः विवरणात्मक विधि की शैक्षिक योजना में सबसे अधिक उपयोगिता है।

(४) विश्लेषणात्मक तुलनात्मक विधि (Analytical Comparative Method)


यह शिक्षण विधि वैज्ञानिक विधि है। इसमें वैज्ञानिक आयाम का उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग रेखागणित शिक्षण में भी किया जाता है। यह विधि तर्क चिंतन पर आधारित है। इसे सर्जनात्मक शिक्षण विधि भी कहते हैं। जिसमे अज्ञात से ज्ञात की ओर के शिक्षण सूत्र का उपयोग किया जाता है।
यह विधि समाजशास्त्रीय विधि की कठिनाई के कारण  उपयोग में लायी गयी । तुलनात्मक अध्ययन में हम बिना विश्लेषण के काम नही चला सकते क्योंकि विश्लेषण द्वारा विभिन्न तत्वों को अलग किया जाता है। ततपश्चात विविध तत्वों का तुलनात्मक अध्ययन सम्भव होता है। विश्लेषणात्मक विधि तभी उपयोगी हो सकती है जब सामाजिक एवं शैक्षिक संगठनों की सम्पूर्ण रूप से तुलना की जाय। इस प्रकार तुलना के लिए चार बातें आवश्यक हैं-
● शैक्षिक सामग्रियां एकत्रित करना।
● सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक तत्वों की व्याख्या।
● तुलना के मापदण्ड का निर्धारण।
● व्याख्या एवं निष्कर्ष निकालना।


(५) संश्लेषणात्मक तुलनात्मक विधि (Synthetical Comparative Method)



इस विधि का उल्लेख एडमंड किंग ने World Perspective in Education नामक पुस्तक में दिया है। इसमें विश्व कल्याण तथा मानव कल्याण की भावना निहित है। इस विधि को सर्जनात्मक विधि भी कहते हैं। इसमे तत्वों के संश्लेषण नवीन प्रत्यय या अधिक नियम का प्रतिपादन होता है। इस विधि में शिक्षा की समस्याओं का अध्ययन विश्व स्तर पर किया जाता है। उनका समाधान मानव कल्याण के रूप में किया जाता है। विश्लेषण तथा संश्लेषण विधियाँ एक दूसरे के पूरक हैं यद्यपि संश्लेषण की प्रक्रिया विश्लेषण के बाद आती है। चढाव क्रम में विश्लेषण से ऊपर संश्लेषण की प्रक्रिया होती है। इसमें ज्ञात से अज्ञात की ओर सूत्र का उपयोग किया जाता है। संश्लेषण में तत्वों को विश्लेषण करके उन्हें एक नए स्वरूप में संगठित किया जाता है, जिस स्वरूप से पहले अज्ञात होते हैं। विश्लेषण विधि इसकी सहायक विधि है।


(६) सांख्यिकी तुलनात्मक विधि (Statistical Comparative Method)


तुलनात्मक शिक्षा के अंतर्गत विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों तथा शिक्षा के घटकों के अध्ययन से उनकी समानताओं एवं असमानताओं का पता चलता है। इसलिए विद्वानों का कहना है कि तुलनात्मक शिक्षा में सांख्यिकी विधि का उपयोग करना चाहिए। सर्वेक्षण विधि में परीक्षणों, प्रश्नावली, रेटिंग स्केल आदि विधि उपयोग करके प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाला जाता है।  दो या दो से अधिक देशों के विभिन्न वर्षों के आंकड़ों से तुलना करना उनके अन्तर की सार्थकता का विश्लेषण सांख्यिकी विधि द्वारा किया जाता है। इस प्रकार के विश्लेषण से शिक्षा प्रणाली तथा शिक्षा के घटकों की प्रगति का बोध होता है। सांख्यिकी विश्लेषण से जो परिणाम प्राप्त होते हैं उनकी वैधता आंकड़ों की विश्वसनीयता पर निर्भर करता है।
 परन्तु सांख्यिकी विधि की सबसे बड़ी कठिनाई विश्वसनीय आंकड़े प्राप्त करना है। बहुत समय आंकड़ों के एकत्रित करने में आवश्यक सावधानी नही बरती जाती है। विभिन्न देशों में शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर जो शब्दावली प्रयुक्त होती है उनमें समानता न होने के कारण एकत्रित आंकड़ों का सांख्यिकीय विवेचन करना अत्यंत कठिन हो जाता है। इस तरह सांख्यिकीय विधि की उपयोगिता संदिग्ध हो जाती है। यह प्रविधियां वस्तुनिष्ठ नही होती हैं। आंकड़े व्यक्तिगत पक्षों से प्रभावित होते हैं। इसलिए कभी सांख्यिकी विश्लेषण से अन्तर के कारणों का सही बोध नही हो पाता है।

                                  2. तुलनात्मक कार्य-कारण विधि                                       (Casual Comparative Method)

यह विधि तुलनात्मक शिक्षा की आधुनिक विधि है इसे अर्द्ध प्रयोगात्मक विधि भी कहा जाता है। इस विधि में दो प्रणालियों के अन्तर के कारणों का बोध होता है। इस विधि के अंदर दो या दो से अधिक परिस्थितियों में समानता हो और किसी एक मे अतिरिक्त घटक का उपयोग किया जाए व उनकी समानता असमानता में बदल जाये तो तब असमानता का कारण अतिरिक्त घटक होता है।
उदाहरण के लिए किसी महाविद्यालय में स्नातक स्तर के छात्रों को दो समूहों में विभक्त किया गया । एक समूह स्नातक पाठ्यक्रमों का अध्ययन कर रहे हैं तथा दूसरे समूह के छात्र इसी पाठ्यक्रम में अध्ययन कर रहे हैं लेकिन एन0सी0सी0 कार्यक्रम अतिरिक्त लिया है। इन दोनों समूहों का समावेशन एवं नेतृत्व के गुणों में सार्थक अंतर पाया गया।इसका अर्थ यह होता है कि एन0सी0सी0 कार्यक्रम में समायोजन तथा नेतृत्व के गुणों का विकास होता है। इन समूहों पर कोई नियंत्रण नही किया अपितु सामन्यतः स्थिति में ऐसा होता है।
इस विधि में केवल एक ही देश का आंतरिक विश्लेषण किया जा सकता है क्योंकि एक देश की शिक्षा प्रणाली समान होती है और अतिरिक्त घटकों का भी उपयोग किया जाता है, जिससे कार्य-कारण का विश्लेषण किया जाता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची
  • यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन।
  • शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
  • चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।


राज्य शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद (S.C.E.R.T.)

      राज्य शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद  (State Council of Educational Research and Training, S.C.E.R.T.)


राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद के समान ही राज्य स्तर पर एस0सी0ई0आर0टी0 द्वारा कार्य किया जाता है। 1961 में केंद्र में एन0सी0ई0आर0टी0 की स्थापना की गयी। 1967 में सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश सरकार ने इसके स्वरूप के आधार पर अपने प्रदेश में राज्य शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद की स्थापना की। 1973 में केंद्र सरकार के तत्कालीन शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय ने यह सिफारिश की कि सभी राज्यों में राज्य शिक्षा संस्थान (SIE) एवं समकक्ष संस्थाओं को राज्य शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषदों (SCERTs) में परवर्तित कर दिया जाए। परिणामस्वरूप राज्यों में राज्य शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषदों की स्थापना की जाने लगी। कई राज्यों में इसे राज्य शिक्षा संस्थान के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्रीय शिक्षा अधिकारियों, जिला शिक्षा अधिकारियों, ब्लॉक शिक्षा अधिकारियों तथा विद्यालय के प्राचार्यों को दिशा निर्देश देती है। इसका मुख्य अधिकारी इसका निदेशक व संयुक्त निदेशक होता है। शिक्षा के क्षेत्र में जिन लक्ष्यों तथा अनुसंधान कार्यों को एन0सी0ई0आर0टी0 द्वारा निश्चित किया जाता है, उन्हें प्रत्येक राज्य अपनी भौगोलिक स्थिति, आवश्यकता तथा प्राप्त संसाधनों के अनुसार अपनाता है।

संरचना (Structure)- Uttarkhand




एस0सी0ई0आर0टी0 के उद्देश्य एवं कार्य (Aims and Functions of S.C.E.R.T.)- 

इसके कार्य निम्नलिखित हैं-
1. राज्य के प्राथमिक से लेकर उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की पाठ्यचर्या का निर्माण करना।
2. प्रत्येक विषय हेतु शिक्षण सामग्री का निर्माण व अध्यापकों की शिक्षा हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना।
3. विद्यलयी छात्रों के लिए मानक के अनुसार पाठ्यपुस्तकों का निर्माण करना।
4. विशिष्ट समुदाय जैसे जनजातियों की अधिकता वाले क्षेत्रों में अलग से इकाइयों को खोलकर उनके विशेषज्ञों की नियुक्ति करना एवं उनकी शिक्षा व्यवस्था करना।
5. विद्यलयी शिक्षा में नई प्रवृत्तियों एवं उपागमों के प्रसार हेतु नवाचार कार्यक्रमों का आयोजन करना ।
6. शिक्षण एवं मूल्यांकन की आधुनिक प्रविधियों व शिक्षण सहायक सामग्री के विकास का ज्ञान अध्यापकों को प्रशिक्षण द्वारा प्रदान करना।
7. एन0सी0ई0आर0टी0 , एन0सी0टी0ई0 एवं अन्य केंद्रीय संगठनों से शैक्षिक संबंध स्थापित करना। 
8. सेवारत स्कूल निरीक्षकों का उन्मुखीकरण करना।
9. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम मे सहयोग, विशेषकर शिक्षक प्रशिक्षक मंडल के कार्यक्रम की संकल्पना तथा क्रियान्वयन करना।
10. अध्यापकों के लिये पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करना। 
11. आदर्श विद्यालयों के विकास में सहायता प्रदान करना।
12. विद्यलयी शिक्षा से सम्बंधित क्षेत्रों में स्वयं अथवा अन्य संस्थानों के माध्यम से शोधकार्य करना।
13. शिक्षा विभाग द्वारा सौंपे गए कार्यक्रमों का मूल्यांकन करना।
14. प्रौढ़ शिक्षा के निदेशकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना। 
15. शिक्षण सहायक क्रियाओं एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों में शैक्षिक तकनीकी का विकास करना। 
16. राज्य की सभी डाइटों पर नियंत्रण रखना एवं उनके कार्यों के संपादन में तकनीकी सहयोग करना।
17. राज्य में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन पद्धति लागू करने हेतु प्रपत्रों एवं निर्देशों को तैयार करना।
18. अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय हेतु प्राथमिक शिक्षकों के अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण हेतु प्रशिक्षण साहित्य का विकास करना।
19. राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के अंतर्गत नवनियुक्त सेवारत शिक्षकों के आई0सी0टी0 आधारित विज्ञान, गणित एवं अंग्रेजी में प्रशिक्षण हेतु मॉड्यूल सम्प्रेषण का विकास एवं प्रकाशन करना। 

 विभाग (Departments)- 


  1. प्री-स्कूल और प्रारंभिक शिक्षा विभाग। (Department of Pre-School and Elementary Education)
  2. अनौपचारिक शिक्षा विभाग ( Department of Non-formal Education)
  3. पाठ्यचर्या अनुसंधान और विशेष पाठ्यचर्या नवीकरण परियोजना विभाग। (Department of Curriculum Research and Special Curriculum Renewal Projects)
  4. विज्ञान और गणित शिक्षा विभाग (Department of Science and Mathematics Education)
  5. जनसंख्या शिक्षा विभाग। (Department of Population Education.)
  6. शिक्षक और सेवाकालीन शिक्षा विभाग। (Department of Teacher and In-service Education.)
  7. शैक्षिक प्रौद्योगिकी विभाग। (Department of Educational Technology.)
  8. परीक्षा सुधार और मार्गदर्शन विभाग।( Department of Examination Reform and Guidance.)
  9. अनुसंधान समन्वय विभाग ( Department of Research coordination)
  10. कला और सौंदर्य शिक्षा विभाग। (Department of Art and Aesthetic Education.)
  11. कमजोर वर्गों के लिए प्रौढ़ शिक्षा और शिक्षा विभाग। (Department of Adult Education and Education for Weaker Sections.)
  12. प्रकाशन विभाग। (Department of Publication.)


 




सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 

  • अग्रवाल, जे0सी0 एवं गुप्ता, एस0 (2011), भारतीय माध्यमिक शिक्षा का 21वीं शताब्दी में दिव्य दर्शन, दिल्ली, शिप्रा पब्लिकेशन।
  • तोमर, गजेन्द्र सिंह (2017), विद्यालय संगठन एवं प्रबंधन, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
  • http://schooleducation.uk.gov.in/files/scert

Wednesday, April 29, 2020

COMPARATIVE EDUCATION (Meaning, Definitions, Need and objectives)

                      तुलनात्मक शिक्षा का प्रारंभ                                             (Beginning of Comparative Education)


फ्रांस के मार्क अन्तोइन जुलियन ने तुलनात्मक शिक्षा का अध्ययन 1817 ई0 में आरम्भ किया। अन्तोइन जुलियन ने तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों में पाए जाने वाले समान-आसमान तत्वों के विश्लेषण को महत्वपूर्ण बताया। अन्तोइन जुलियन शिक्षा को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करना चाहते थे। इसके लिए वह यह चाहते थे कि शिक्षा के समस्त तथ्यों को एक सूत्र में पिरोकर उनका विश्लेषण करना चाहिए, जिससे शिक्षा को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया जा सकता है।  जुलियन को यह विश्वास था कि किसी भी देश की शिक्षा से सम्बंधित तथ्यों का विश्लेषण के आधार पर कुछ सिद्धान्तों और नियमों का उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार अन्तोइन जुलियन ने तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में विश्लेषण पर बल दिया। लेकिन 20वीं शताब्दी से पहले तक शिक्षा जगत में उनके विचारों से कोई भी अवगत नही था।
20वीं शताब्दी के प्रारंभ से विदेशों में जाने वाले यात्रियों ने अपने यात्रा विवरणों से संबंधित देशों की शिक्षा व्यवस्था की ओर अपना ध्यान खींचा। इन यात्रियों ने यात्रा कर रहे देशों की आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति की ओर विशेष ध्यान दिया और उनके लिए शिक्षा से  संबंधित कुछ तत्वों को महत्वपूर्ण बताया।  इस बात पर जोर दिया कि किसी भी देश की शिक्षा के कुछ तत्त्व उसकी  सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

तुलनात्मक शिक्षा की परिभाषायें  (Definitions of Comparative Education)-


आई0एल0 कंडेल के अनुसार- "विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों की तुलना करके उनके अभिक्रमों, विधियों तथा उद्देश्य में अंतर को ज्ञात करना है। इसके अंतर्गत शिक्षा पर राष्ट्रीय लागत, आकार, चरित्र निर्माण, प्रति व्यक्ति आय तथा शिक्षा के विभिन्न मदों पर शैक्षिक व्यय, पंजीकरण, नामांकन, औसत छात्रों की उपस्थिति, छात्रों की धारण शक्ति की तुलना शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर करना है। तुलनात्मक आयाम का महत्व शिक्षा की समस्याओं का विश्लेषण करना एवं विभिन्न शिक्षा प्रणालियों में अंतर की तुलना करना है। समस्याओं के कारणों का पता करके समाधान ज्ञात करने का प्रयास है।"

सी0 आर्नोल्ड एंडरसन के अनुसार-  "तुलनात्मक शिक्षा को व्यापक अर्थों में परिभाषित कर सकते है कि शिक्षा के स्वरूप की अन्तः सांस्कृतिक तुलना करता है । विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियों के दृष्टिकोण, लक्ष्य, विधियों एवं उपलब्धियों तथा सामाजिक तत्वों का सहसम्बन्ध ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है।"

मेरी अन्तोइन जुलियन के अनुसार-  "शिक्षा एक सकारात्मक विज्ञान है। यह प्रशासकों के संकुचित निर्णयों, दृष्टिकोण तथा सीमित विचारों से नियंत्रित नही होना चाहिये। संकुचित नियमों का भी अनुपालन नही होता है। अन्धविश्वासों पर शिक्षा प्रारूप आधारित नही होना चाहिए।"

तुलनात्मक शिक्षा की विशेषताएं (Characteristics of Comparative Education)-  

तुलनात्मक शिक्षा की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित है-

1. शिक्षा एक विकास की प्रणाली है और तुलनात्मक शिक्षा प्रणालियों के सुधार एवं विकास की एक विधि है।
2. शिक्षा प्रणाली पर अनुसंधान अध्ययनों के निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। उनके अधार पर समान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है।
3. शिक्षा का विकास समाज करता है तथा शिक्षा एक भावी समाज का निर्माण करती है , जिसकी समाज अपेक्षा करता है। वर्तमान समय में ऐसे नागरिकों की आवश्यकता है जो विश्व के विकसित तथा विकासशील देशों के साथ चल सकें।
4. वैज्ञानिक, तकनीकी एवं माध्यमों के विकास ने राष्ट्रों की भौतिक दूरी कम कर दी है और विश्व को छोटा कर दिया है। विश्व के राष्ट्र लगातार अधिक पास आ गए हैं। एक राष्ट्र की गतिविधियां अन्य राष्ट्रों को प्रभावित करती हैं।
5. तुलनात्मक शिक्षा में अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों की विशेषताओं का अनुकूलन करते समय उस देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाता है।

तुलनात्मक शिक्षा की आवश्यकता (Need of Comparative Education)- 


1. आजकल अप्रवासी छात्रों का अधिक प्रचलन है । इसलिये शिक्षा का स्तर अन्य देशों के स्तर के समतुल्य होना चाहिए। 
2.  समस्त देशों के अनुसंधान से लाभ अर्जित करने में इसकी आवश्यकता होती है ।
3. भारतीय छात्र तकनीकी, व्यावसायिक तथा मेडिकल शिक्षा प्राप्त करके विदेशों में नौकरी के अवसर प्राप्त करते हैं।
4. आज तुलनात्मक शिक्षा की आवश्यकता केवल शिक्षा प्रणाली के विकास तक ही सीमित नही है अपितु अधिकांश समस्यायें विश्व की समस्याएं हैं। इन समस्याओं का समाधान करने में तुलनात्मक शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

तुलनात्मक शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Comparative Education)- 


1.  शिक्षा प्रणाली के घटकों के स्वरूप का विश्लेषण करना।
2.  शिक्षा के दार्शनिक पक्ष का अध्ययन करना।
3.  शिक्षा प्रणालियों के मनोवैज्ञानिक आधार का विश्लेषण करना।
4.  शिक्षा प्रणालियों के सामाजिक आधार का विश्लेषण करना।
5.  शिक्षा प्रणालियों की आर्थिक तथा वित्तीय व्यवस्था का  विश्लेषण करना।
6.  विभिन्न देशों की शैक्षिक समस्याओं का तुलनात्मक विश्लेषण करना। 
7.  विश्व की प्रगति का अवलोकन करना।
8.  विकसित तथा विकासशील देशों के शिक्षा स्तरों का अध्ययन करना।
9.  यूनेस्को का शिक्षा में योगदान का अध्ययन करना। 
10.  शिक्षा का अंतराष्ट्रीय स्तर विकसित करना।
11.  अपने देश की शिक्षा प्रणाली का आंकलन विकसित एवं विकासशील देशों की शिक्षा प्रणाली के संदर्भ में करना। 

संदर्भ ग्रंथ सूची


  • शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
  • यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन। 
  • चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।

Sunday, April 26, 2020

MULTI-DISCIPLINARY APPROACH AND INCLUSIVE EDUCATION

 बहु:अनुशासनात्मक दृष्टिकोण और समावेशी शिक्षा (Multi-disciplinary Approach and Inclusive Education)



बढ़ती जनसंख्या के साथ सार्वभौमिक दृष्टिकोण और समावेशिता चुनौतीपूर्ण एवं जटिल कार्य है, इसके लिए एक सुसंगत एवं बहु:अनुशासन वाली पहुँच की आवश्यकता होगी। समावेशी शिक्षा की गुणवत्ता केवल  समावेशी नीतियों को लागू करने, वित्तपोषण और बुनियादी ढांचा पर ही निर्भर नहीं करती, अपितु इस बात पर भी निर्भर करती है की कक्षा कक्ष की व्यवस्था किस प्रकार की है। एक शिक्षक के लिए, अपनी क्षमता व रुचि अनुसार और इष्टतम प्राप्त करने के लिए, यह बहुत आवश्यक है कि शिक्षक पूर्ण तरह से यह समझने का प्रयास करे की समावेशी शिक्षा-प्रणाली में व्यावहारिक, सामाजिक, शैक्षिक एवं ढांचागत अवरोध क्या हैं|
समावेशी शिक्षा में कक्षा का वातावरण लगातार बदल रहा है।  इसलिए शिक्षक को अच्छी तरह से  प्रशिक्षित दिया जाना चाहिए।  शिक्षक, शिक्षार्थियों की अधिगम में सहायता करने हेतु विविध प्रकार की कक्षा व्यवस्था में  विभेदित-निर्देश द्वारा शिक्षा प्रदान कर सकता है | शिक्षकों से अपेक्षा है कि वह विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बच्चों की विविध आवश्यकताओं  के अनुसार बैठने की उचित  व्यवस्था का प्रबंधन एवं उनके बेहतर अधिगम हेतु सबसे अच्छी कक्षा अभ्यास को प्रयोग में लाएं|
बहु-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण के अंतर्गत विभिन्न विषयों से  उचित प्रकार के दृष्टिकोण से सामान्य सीमाओं के बाहर की समस्याओं को परिभाषित किया जाता है और जटिल निष्कर्षो के नवीन ज्ञान के आधार पर समस्या का  समाधान निकाला जाता है |
बहु-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण में निम्न बिंदुओं पर विचार किया जाता है -

(i) कर्मचारियों को नए कौशल और नए दृष्टिकोण द्वारा सीखने हेतु ज्ञान और विशेषज्ञता साझा करनी होगी।
(ii) कभी-कभी कुछ पेशेवरों द्वारा प्रत्यक्ष सलाह एवं समर्थन प्रदान किया जाता है ।
(iii) समावेशी शिक्षा के लिये ऐसे प्रशिक्षण की आवश्यकता है जो कर्मचारियों को आत्मविश्वास और संतुष्टि प्रदान कर सकता है।
(iv) उनकी अपेक्षाओं और कार्य प्रणाली में संभावित परिवर्तन हों  जो वयस्कों के लिए मूल्यवान  और चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

बहु-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता (Need of Multidisciplinary Approach)-

समावेशी शिक्षण व्यवस्था में प्रभावी शिक्षण के लिए कक्षा शिक्षण प्रथाओं और प्रबंधन में बहु-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, उदाहरणतः विभिन्न शिक्षण पद्धति और रणनीति, जैसे- समावेशी कक्षा में बैठने की व्यवस्था, सहयोगात्मक शिक्षण, पूर्ण कक्ष शिक्षण, क्रिया-आधारित अधिगम, सहयोगात्मक अधिगम, बहुस्तरीय निर्देश, कला आधारित चिकित्सा आदि।

1. Sailor and Skrtic (1995) ने सिफारिश की कर्मचारियों के विकास के लिए एक बहु-अनुशासनात्मक  दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है जो सभी छात्रों के लिए सामान लक्ष्यों पर केंद्रित हो और यहसामान्य और विशिष्ट शिक्षकों के लिए अवसर प्रदान करता है।
2. संरचित कक्षा बनाने हेतु बहु-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसमें निम्न बिंदु शामिल हो सकते हैं:

  • समूह और व्यक्तिगत काम के लिए अलग-अलग क्षेत्रों को डिजाइन करना।
  •  कला पढ़ने के लिए केंद्र एवं  दैनिक कक्षा अनुसूची बनाने हेतु केन्द्र बनाना ।
  • कक्षा कक्ष के नियम एवं  दैनिक कक्षा अनुसूची को किसी मुख्य स्थान पर प्रदर्शित करना।
  • उद्देश्यपूर्ण आंदोलनों हेतु अवसर प्रदान करना।

3. परंपरागत रूप से प्राथमिक शिक्षण कक्षा की मुख्यधारा में एक शिक्षक, उप-सहायक शिक्षण (learning support assistant) स्टाफ अथवा सहायक शिक्षक तैनात किये गये हैं |
4. नियमित शिक्षक का सहयोग करने हेतु विशेष शिक्षा शिक्षक, संबंधित सेवा प्रदाता और संबंधित सह-व्यावसायिक व्यक्तियों द्वारा एक नियमित आधार पर सेवायें प्रदान करना|
5. उन सीखने संबंधी  सभी बाधाओं को दूर करना जो या तो शिक्षा प्रणाली के भीतर या शिक्षार्थी के भीतर उत्पन्न होती हैं जो शिक्षार्थी को शिक्षा तक पहुँचने से एवं शिक्षार्थी को  विकास करने से रोकती हैं|
6 . सीखने के लिए सार्वभौमिक डिजाइनिंग अर्थात ऐसा पाठ्यक्रम हो जिस में विभिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के लिये, विभिन्न सीखने की शैलियों, क्षमताओं और विकलांगताओं के साथ अन्य व्यक्तियों के लिए सुलभ और उपयुक्त विकल्प शामिल होना चाहिए।
7. योजना का आंकलन करने और एक शिशु को प्रारंभिक शिक्षा सेवाएं प्रदान करने हेतु इसकी आवश्यकता है |

Friday, April 24, 2020

ROLE OF FAMILY IN INCLUSIVE EDUCATION

समावेशी शिक्षा में परिवार की भूमिका(Role of Family in Inclusive Education)-

बालक के व्यवहार, अभिवृत्तियों एवं रुचियों के निर्माण के महत्व को  पहले से स्वीकार किया जाता है।  किसी भी बालक के  विकास में  उसके परिवार की मुख्य भूमिका होती है। बालक के विकास पर पारिवारिक अनुभवों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जन्म के बाद से बालक को जो प्रथम संरक्षण या वातावरण मिलता है वो परिवार का होता है। यही वातावरण बालकों में सर्वप्रथम उनकी अभिवृत्तियों का निर्माण करता है। अतः इससे स्पष्ट होता  है कि बालकों के विकास में पारिवारिक सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका है। 
हम यह जानते हैं कि बालक का प्रथम शिक्षक उसके माता -पिता को माना जाता है जो उनका शिक्षण हर तरह से करते हैं। इसलिए आज समावेशी शिक्षा में परिवार महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

बालक के पूर्ण विकास में माता - पिता की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है -
1.  माता -पिता विकलांग बालक की क्षतिग्रस्त व अक्षमता से जुड़ी  समस्या पहचान व निदान करने में सहायता कर सकते हैं तथा यदि इसकी पहचान हो जाती है तो इसका सुधार एवं उपचारात्मक कार्य विद्यालय व पेशेवर व्यक्ति मिलकर कर सकते हैं।
2.  विकलांग बालक को उसकी आवश्यकता के अनुसार उसे उपकरण दिलवाना, उसका सही संचालन करना, देखभाल एवं रख -रखाव का कार्य परिवार ही  करता है। इसके अतिरिक्त माता-पिता विद्यालय की भी सहायता कर सकते हैं।
3.  माता-पिता समाज के व्यक्तियों की सोच विकलांग बालकों के लिए सकारात्मक करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
4.  माता- पिता  तथा विशेषकर माताएं बच्चों की पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सक्रिय भागीदारी निभा कर बच्चों को प्रोत्साहन एवं समर्थन दे सकते हैं।
5.  माता-पिता समावेशी विद्यालय के संचालन में भी सहयोग दे सकते हैं। वे बालक की शिक्षा एवं समायोजन में विद्यालय एवं पेशेवर शिक्षकों की सहायता कर सकते हैं।


Thursday, April 23, 2020

BARRIERS IN INCLUSIVE EDUCATION


समावेशी शिक्षा में अवरोध ( Barriers in Inclusive Education)


समावेशी शिक्षा प्रदान करने में कई प्रकार के अवरोधों का सामना करना पड़ता है] जैसे - व्यवहारात्मक] सामाजिक और शिक्षा से संबंधित हो सकते हैं।
व्यवहारात्मक अवरोध (Attitudinal Barriers) - व्यवहारात्मक अवरोधों से तात्पर्य है कि विशिष्ट बालक  सदैव ही विचित्र प्रकार के व्यवहार दिखाते हैं। जैसे किसी बात पर चिल्लाना, अपने को किसी अन्य बालक से ऊँचा समझना है। वे यह सोचते हैं कि हम ही सब कुछ कर सकते हैं दूसरा इसे नही कर सकता है । इस प्रकार के व्यवहारों को व्यवहारात्मक अवरोध कहा जाता है।
यह अवरोध विशिष्ट बालक में अलग-अलग प्रकार के पाये जाते हैं, जैसे श्रवण बाधित बालकों में ऊँचा सुनने के कारण वह अपने को कही गयी बातें सही प्रकार से सुन नही पाते हैं तथा उनके अनुसार वह व्यवहार नही कर पाते हैं। इस कारण इन बच्चों में व्यवहारात्मक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार से दृष्टि बाधित, अस्थि विकृत एवं अन्य विशिष्ट बालक भी व्यवहारात्मक समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। अतः ये समस्याएं इन बालकों के जीवन मे अवरोध उत्पन्न करती है। इन बालकों को जीवन मे आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा प्रदान की जानी चाहिये।


सामाजिक अवरोध (Social Barriers) - सामाजिक अवरोधों से तात्पर्य है कि जब विशिष्ट बालकों को समाज मे हेय की दृष्टि से देखा जाता है तो जो बाधा उत्पन्न होती है, वह सामाजिक अवरोध कहलाते हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि मानव समाज के संपर्क में जन्म से मृत्यु तक रहता है  और मानव को सामाजिक प्राणी माना जाता है तो समाज ही उसे नकारात्मक दृष्टि से देखता है और उसके लिये अनेक अवरोध उत्पन्न करता है। इस कारण समावेशी शिक्षा प्रदान करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।



·       शैक्षिक अवरोध (Educational Barriers)- विशिष्ट बालकों को अनेक प्रकार के शैक्षिक व्यवधानों का सामना करना पड़ता है। यह शैक्षिक व्यवधान प्रत्येक बालक की विशिष्टता के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं, जैसे प्रतिभाशाली बालकों को यदि सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्रदान की जाए तो यह बालक अवसादग्रस्त हो जाते हैं । ठीक इसी प्रकार यदि विशिष्ट बालकों को सामान्य बालकों की कक्षा में बिठा दिया जाय तो वे अपना व्यवहार सामान्य रूप से प्रदर्शित नही कर पाते हैं । इस प्रकार से इन बालकों में शैक्षिक अवरोध उत्पन्न हो जाते हैं।

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