Monday, May 31, 2021

स्मृति प्रक्रिया के पद (Steps of Memory Process)

 स्मृति प्रक्रिया के पद (Steps of Memory Process)

वुडवर्थ ने स्मृति प्रक्रिया के चार पद बताये हैं - 


1. सीखना/अधिगम (Learning) – 

हम किसी विषय-वस्तु  को तभी स्मरण कर पाते हैं जबकि हमने उसे पहले से सीखा हो। किसी विषय-वस्तु (Subject-Matter) को सीखे बिना उसका स्मरण करना संभव नहीं है। स्मृति सीखने पर निर्भर करती है । गिलफोर्ड ने  कहा है– “किसी विषय-वस्तु को अच्छी तरह से स्मरण करने के लिए उसे अच्छी तरह से सीख लेना आधी से  अधिक लड़ाई जीत लेना है।" स्मरण (Remembering) क्षमता को बढ़ाने के लिए व्यक्ति को पाठ्य-वस्तु, अधिगम के नियमों तथा सिद्धान्तों का उचित प्रयोग करके सीखना  तथा याद करना  चाहिये। उसे नवीन ज्ञान तथा पूर्व ज्ञान में सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये। 


2. धारण (Retention)- 

स्मृति प्रक्रिया का दूसरा महत्त्वपूर्ण पद  सीखी गयी विषय-वस्तु को धारण करना है। धारण से तात्पर्य है – विषय-वस्तु (Subject-Matter) को लम्बे समय तक मस्तिष्क में संचित रखना। जब हम किसी विषय-सामग्री का अधिगम (Learning) करते हैं तो मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है और उस पर कुछ चिन्ह (engrams) अंकित हो जाते हैं जिन्हें स्मृति चिन्ह (Memory trace) कहते हैं। कुछ समय तक ये चिन्ह चेतन मस्तिष्क (Conscious Mind) में रहते हैं तथा फिर अचेतन मस्तिष्क (Unconscious mind) में चले जाते हैं। जब कभी विषय-वस्तु को स्मरण करने की आवश्यकता होती है तो ये चिन्ह चेतन मस्तिष्क में उभर आते हैं तथा व्यक्ति सीखे गये ज्ञान को पुनः प्रस्तुत करने में सक्षम होता है।  अतः पुनः स्मरण धारण पर तथा धारण सीखने पर निर्भर करता है 

रायबर्न का कहना है कि “ अधिकांश व्यक्तियों की धारण शक्ति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता है।” किसी विषय-वस्तु को धारण करना निम्न कारकों पर निर्भर करता है ।

सीखने  वाले की आयु तथा परिपक्वता (Age & Maturity of Learner)), शारीरिक तथा मानसिक स्वस्थ (Physical & Mental Health) , मानसिक क्षमता (Mental Ability), संवेगात्मक स्थिति (Emotional State), अभिरुचि तथा अभिक्षमता (Interest & Aptitude), अभिवृति (Attitude), अवधान (Attention), विषय सामग्री की प्रकृति (Nature of subject matter), सामग्री की उपयोगिता (Utility of the Material) , सीखने की विधि  (Methods of Learning) आदि ।


3. प्रत्यास्मरण/पुनः स्मरण  (Recall)—

पूर्व अनुभवों को अचेतन मन से पुनः चेतन मन  में लाना प्रत्यास्मरण (Recall) कहलाता है। यह क्रिया स्मृति चिह्न (Memory Trace) के सक्रिय होने से होती है। पुनः स्मरण वह मानसिक क्रिया है जिससे हम  पूर्वानुभवों को मौलिक उद्दीपकों (Original Stimuli) की अनुपस्थिति में चेतन मन (Conscious Mind) पर लाया जाता है। यदि पूर्व अनुभवों को अच्छी प्रकार से धारण (Retention) नहीं किया गया हो तो उनका प्रत्यास्मरण (Recall) करना कठिन होता है।  प्रत्यास्मरण (Recall) व्यक्ति की धारण शक्ति के अतिरिक्त उसकी संवेगात्मक अवस्था (Emotional Stage)  पर भी निर्भर करता है, घबराहट (Nervousness) तथा भय (Fear) की अवस्था में अच्छी प्रकार से सीखी गई विषय-वस्तु को भी व्यक्ति स्मरण नहीं कर पाता। 

Ex.- प्रायः देखने में आता है कि कुछ व्यक्ति बड़ी तैयारी के साथ Interview में आते हैं लेकिन बाहर आकर कहते हैं कि सब याद होते हुए भी मैं घबराहट में सब कुछ भूल गया। 

पुनः स्मरण प्रमुख रूप से दो प्रकार का होता है - (i) स्वाभाविक पुनः स्मरण (Spontaneous)  (ii) सप्रयास पुनः स्मरण (Deliberate)

4. पहचान/प्रतिभिज्ञान (Recognition)– 

वुडवर्थ के अनुसार - पूर्व अनुभवों को जानना ही पहचान है, या वर्तमान काल  में उस वस्तु से परिचित होना जिससे अतीत काल में परिचित (Known)  हो चुके हैं।     

पहचान  वह योग्यता (Ability) है जिसके द्वारा पूर्व अनुभवों (Prior Experiences)  अथवा सीखे हुए तथ्यों (Facts) को अन्य तथ्यों के साथ जोड़कर या उनसे अलग करके उसे स्पष्ट रूप में समझा जाता है। 

Ex.- जब हम किसी व्यक्ति से प्रथम बार मिलते हैं तो हमारे मस्तिष्क में स्मृति चिन्हों द्वारा उसका प्रतिबिम्ब बन जाता है, जब वह व्यक्ति हमें वर्षों बाद फिर मिलता है तो ये स्मृति चिन्ह पुनः उभर आते हैं तथा हम उसे दूसरे व्यक्तियों के बीच पहचानने में समर्थ होते हैं। यद्यपि प्रतिभिज्ञान एक सामान्य अनुभव है लेकिन यह एक जटिल तथा रहस्यमय प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया स्वतः (Automatically) घटित होती है।

Sunday, May 30, 2021

स्मृति का अर्थ, परिभाषा एवं अवस्थाएँ (Meaning, Definition & Stages of Memory)

 

स्मृति (Memory)

अर्थ (Meaning) -


हमारे कार्य, अनुभव या विषय वस्तु (Subject-matter) कुछ समय तक चेतन मन में रहते हैं किंतु बाद में वह अचेतन मन (Unconscious Mind) में चले जाते है और हम उसे भूल जाते हैं। इन अनुभव (Experience) विषय वस्तु (Subject-Matter), कार्य को अचेतन मन (Unconscious Mind) में संचित रखने और आवश्यकता पड़ने पर चेतन मन (Conscious Mind) में लाने की प्रक्रिया को स्मृति  (Memory)कहते हैं।
सामान्यतः व्यक्ति द्वारा अर्जित सूचनाएं मस्तिष्क में संचित करने की क्षमता स्मृति कहलाती है।
अतः स्मृति वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य अपने पूर्व अनुभवों को मानसिक संस्कार के रूप में अपने अचेतन मन में संचित रखता है और आवश्कयता पड़ने पर अपनी वर्तमान चेतना में ले आता है।
स्मृति पर सबसे पहले क्रमबद्ध अध्ययन - Hermann Ebbinghaus (1885)

परिभाषाएँ (Definitions)

हिलगार्ड (Hilgard) के अनुसार –  स्मृति वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें अतीत में सीखे गये ज्ञान, अनुभव या कौशल का पुनःस्मरण किया जाता है । (Memory is that mental process which involves recalling the previously learned knowledge, experience or skill.)

वुडवर्थ (Woodworth) के अनुसार —  स्मृति सीखे गये ज्ञान का सीधा उपयोग है। ('Memory is the direct use of what is learned.)-

रायबर्न (Ryburn) के अनुसार —  हमारे अनुभवों को संचित करने तथा कुछ देर बाद उन्हें चेतना के क्षेत्र में लाने वाली शक्ति को स्मृति कहा जाता है  (The power that we have to store our experiences and to bring them in the field of consciousness some time after the experiences have occurred, is termed memory.) 

मैक्डूगल (Mc Dougall)के अनुसार — स्मृति से तात्पर्य है भूतकालीन घटनाओं के अनुभव की कल्पना करना एवं यह पहचान लेना कि वे अपने ही भूतकालीन अनुभव हैं। (Memory implies imaging of events as experienced in the past and recognizing them as belonging to one's own past experiences.)

स्टाउट (Stout)  के अनुसार— “स्मृति एक आदर्श पुनरावृत्ति है। जिसमे अतीत काल के अनुभव उसी क्रम व ढंग से जागृत होते हैं, जैसे वे पहले हुए थे । (Memory is the merely reproduction in which the objects of past experiences are reinstated as far as possible in the order and manner of their original occurrence.)

स्मृति की अवस्थाएँ (Stages of Memory)


मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति की तीन अवस्थाएँ (Stages) अथवा तत्त्व (Components) बताए हैं-


1. संकेतन (Encoding) — संकेतन में व्यक्ति किसी सूचना या अनुभव को एक निश्चित संकेत (Code) के रूप में तंत्रिका तंत्र (Nervous System) में ग्रहण करता है। 
दूसरे शब्दों में स्मृति चिन्हों (Memory Traces) का बनना ही संकेतन है। इसे पंजीकरण  (Registration) भी कहा जाता है। संकेतन में ध्यान (Attention) , पूर्वाभ्यास (rehearsal) तथा सूचनाओं के संगठन करने की विशेष  भूमिका रहती है।

2. संचयन (Storage) -  स्मृति की दूसरी अवस्था है संचयन (Storage)। इस अवस्था में संकेतन द्वारा प्राप्त अनुभवों को कुछ समय के लिए संचित करना होता है। इसे धारण (Retention) भी कहा जाता है।

3. पुनःप्राप्ति (Retrieval)-  इस अवस्था में संचित सूचनाओं या अनुभवों (Experiences) में से आवश्यक सूचनाओं या अनुभवों को पुनः प्राप्त किया जाता है। इस अवस्था को स्मरण (Remembering) भी कहा जाता है।   
हिलगार्ड ने स्मरण (Remembering) के विभिन्न पहलुओं के लिए दो शब्दों का प्रयोग किया है पुनः जोड़ना (Reintegration) और पुनः सीखना (Relearning)। 
जब व्यक्ति किसी सूचना या अनुभव का किसी संकेत (Signal)) के माध्यम से पुनः स्मरण (Remembrance Again) करता है;  जैसे—व्यक्ति अपने पूूर्व में लिए  फोटोग्राफ देखकर उस समय की घटनाओं को याद करता है तो इसे पुनः जोड़ना (Reintegration) कहते हैं और जब व्यक्ति किसी याद की गई सामग्री को पुनः याद करता है तो उसे पुनः सीखना (Relearning) कहते हैं। जब किसी सामग्री को दुबारा याद किया जाता है तो वह पहले प्रयास की अपेक्षा जल्दी याद हो जाती है क्योंकि प्रथम प्रयास में सामग्री का कुछ अंश ही संचित होता है। 

Friday, May 28, 2021

सृजनात्मकता के विकास में शिक्षकों की भूमिका (Role of Teachers in the Development of Creativity)

 सृजनात्मकता के विकास में शिक्षकों की भूमिका   (Role of Teachers in the Development of Creativity)

 अध्यापक की भूमिका ऐसी होनी चाहिए कि वह विद्यार्थी को उसकी सृजनात्मकता की प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति हेतु उपयुक्त माध्यम ढूंढने में समुचित दिशा निर्देशन करें। सर्जनशीलता को विकसित करने के लिए गिलफोर्ड Guilford), आसबर्न (Osborn) आदि मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित व्यवहारिक सुझाव दिये है -

1. बालकों में सृजनात्मकता का विकास करने के लिए शिक्षक को स्वयं भी सृजनात्मक प्रवृत्ति का होना चाहिए उसे चाहिए कि वह स्वयं भी साहित्य (Literature), विज्ञान, कला आदि के क्षेत्र में सृजन कार्य करे और छात्रों के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करे। इससे  बालकों को प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्राप्त होता है। 

2.  शिक्षक द्वारा  छात्रों में  विभिन्न सृजनात्मक कार्यों की  नवीनतम् सूचनाओं के  संग्रह करने का अवसर एवं सुविधा प्रदान की जानी  चाहिए । 

3.  शिक्षकों द्वारा  बालकों को ऐसा वातावरण प्रस्तुत किया जाये, जो प्रोत्साहित करने वाला और क्रियाशीलता एवं नम्यता (Flexibility) की शिक्षा देने वाला हो।

4. जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जैसे सामाजिक (Social), आर्थिक (Economic), राजनैतिक (Political), वैज्ञानिक (Scientific), तकनीकी (technology) और शैक्षिक (Educational) आदि समस्याओं के समाधान की  योजना प्रस्तुत करके छात्रों से हल कराने का प्रयत्न किया जाय।

5 . सुधार, निर्माण खोज और आविष्कार की क्रियाओं में छात्रों को लगाया जाय। इससे उनमें सृजनात्मकता का विकास होगा।

6 . अध्यापक को चाहिए कि वह छात्रों को विभिन्न स्रोतों से ज्ञान (Knowledge), कौशल (Skill) एवं अन्य सूचनाएँ  (Other Information) ग्रहण करने और संग्रह करने को प्रेरित करे। 

7 . शिक्षकों द्वारा  बालकों को   उत्तर देने की पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की जानी  चाहिए  । 

8.  शिक्षकों द्वारा  बालकों  को   उचित अवसर व वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए  । 

9. बालकों में मौलिकता  एवं लचीलेपन के गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाना चाहिए ।

10.बालकों के डर (Fear) एवं झिझक (hesitation) को दूर करने का प्रयास किया जाये।

11. बालकों के लिए सृजनात्मकता को विकसित करने वाले उपकरणों (Tools) की व्यवस्था की जानी चाहिए।

12. बालकों  मे सृजनात्मकता को विकसित करने के लिए विशेष प्रकार की तकनीकी (Technology) का प्रयोग करना चाहिए। जैसे:- मस्तिश्क विप्लव (Brain Storming), किसी वस्तु के असाधारण प्रयोग, शिक्षण प्रतिमानों (Teaching models) का प्रयोग, खेल विधि (Play Method) आदि।

13. बालकों  के लिए सृजनात्मकता को विकसित करने के लिए पाठ्यक्रम में सृजनात्मक विषय- वस्तुओं का समावेश (Inclusion) किया जाना चाहिए।

14. बालकों  में सृजनात्मकता के प्रशिक्षण (training) एवं विकास (development) के लिए उन्हें अपने उत्तर  का स्वयं ही वास्तविक मूल्यांकन (Actual Evaluation) करने के लिए प्रेरित किया जाय। अर्थात् किसी समस्या के समाधान अथवा नवीन रचना के लिए बालक ने जिन तथ्यों को लागू करने का निश्चय किया है, उसका वह स्वयं ही मूल्यांकन करे कि क्या वे उस समस्या के समाधान अथवा रचना में सहायक होंगे।




Monday, May 24, 2021

सृजनशील बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Creative Children's)

 सृजनशील बालकों की विशेषताएँ 

(Characteristics of Creative Children's )

विभिन्न मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के निष्कर्षो में यह पाया गया है कि सृजनशील बालकों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-


1. क्रियाशीलता  (Productivity/Self-activity)-  सृजनशील बालक में क्रियाशीलता अधिक होती है। वह हर समय किसी-न-किसी कार्य में लगा रहता है।

2. मौलिकता (Originality)- क्रियाशील बालक में मौलिक रूप से कल्पना और चिन्तन करने की क्षमता (Ability) होती है। 

3. स्वतंत्र निर्णय-शक्ति (Free decision power) -  सृजनशील बालक किसी समस्या के समाधान करने में दूसरों के सुझावों को शीघ्र स्वीकार नहीं करता है , उसमें समस्या के सम्बन्ध में स्वयं  निर्णय लेने  की क्षमता होती है।

4. बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient) -   सृजनात्मक बालकों की बुद्धि-लब्धि उच्च होती है। 

5. जिज्ञासा एवं रुचि (Curiosity & Interest) -  इस प्रकार के बालकों में किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए  जिज्ञासा  और उत्सुकता दिखाई देती है। वे रुचिपूर्वक अपने कार्य में लगे रहते हैं। 

6. बोधगम्यता (Intelligibility) - वे किसी विषय को सरलता और शीघ्रता से समझ लेते हैं।

7. भावाभिव्यक्ति की क्षमता  (Ability of Expression) - वे अपने विचारों और कल्पना को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं। 

8. विनोदी प्रवृत्ति (Sense of Humour)- सृजनशील बालक परिहास (Humour) (मजाकिया/खुश रहने वाले) प्रिय होते हैं। वे आनन्द और मनोरंजन  में रुचि लेते हैं।
 
9. अन्तर्दृष्टि (Insight) का होना-  वे सूझ-बूझ से कार्य करते हैं। वे किसी भी कार्य में सबसे आगे पहल (initiative) करते हैं।
10. समायोजनशीलता (Adjustability) - वे अधिक सहनशील एवं परिस्थितियों के साथ शीघ्र समन्वय या समायोजन (Adjustment) करने वाले होते हैं। 
11. संवेदनशीलता (Sensitivity) - इस प्रकार के बालक अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। वे किसी भी कार्य की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हैं। 
12. अपने उत्तरदायित्वों के प्रति सजग (Alert) रहते हैं । 
13. इनमे गतिशीलता (Mobility) का गुण  पाया जाता है । 
14. आत्मनिर्भर व अधिगम स्थानांतरण (Transfer of Learning) की तीव्र  योग्यता पायी जाती है । 
15. इनके विचारों में प्रवाहशीलता (Flowability) पायी जाती है । 
16. उच्च  आकांक्षा (Aspiration Level)  स्तर होता है । 
17. एक ही समय बहुत से विचारों को सामने रखने की योग्यता (Ability) होती है । 
18. विस्तार (Distribution) की तीव्र योग्यता पायी जाती है ।
19. दूरदर्शिता (Foresight) एवं आशावादी  (Hopeful) सोच रखते हैं।  
20. सृजनात्मक  बालक अन्य बालकों की तरह जीवन न जी कर, एक नये ढंग से जीवन को जीने की कोशिश करते हैं।

Sunday, May 23, 2021

सृजनात्मक -प्रक्रिया (Creative- Process)

 सृजनात्मक -प्रक्रिया (Creative- Process)  

सृजनात्मक प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाविदों ने गहन अध्ययन किया। सृजनात्मकता की प्रक्रिया के सोपान निम्न हैं- 

1. तैयारी (Preparation) 

2. उद्भवन काल (Incubation Period) 

3. प्रकाश  या प्रेरणा (Illumination or Motivation) 

4. किसी एक विचार से बँध जाना (Stay on an idea) 

5. परिणाम का अनुमान (Result estimate):- 

6. सत्यापन  (Verification) 


1. तैयारी (Preparation) :-

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में तैयारी (Preparation) प्रथम सोपान होता है जिसमें समस्या पर गंभीरता (seriousness) के साथ कार्य किया जाता है। सर्वप्रथम समस्या का विश्लेषण (Analysis) किया जाता है और उसके समाधान के लिए एक रूपरेखा का निर्माण किया जाता है। 


(A) समस्या का प्रत्यक्षीकरण (Clarification of  the problem) :- सृजनात्मक प्रक्रिया किसी ऐसी अनूठी (Unique) समस्या के अवलोकन स्वरूप (Format) होती है जिसका प्रत्यक्षीकरण (Clarification) करना आम आदमी की पहुँच से परे है। 

जैसे-  न्यूटन ने पेड़ से नीचे गिरते हुए सेब  को देखकर इसके नीचे गिरने के कारण का पता लगाने से सम्बन्धित समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया था।


(B) समस्या में परिवर्तन ( Modification of problem ) :- समस्या का प्रत्यक्षीकरण करने के बाद समस्या के प्रत्येक पहलू का विभिन्न दृष्टिकोणों (Perspective) से अध्ययन किया जाता है तथा उसमें संभावित परिवर्तन किये जाते हैं।


(C) परम्परागत निर्णयों को स्थगित करना (Suspending Conventional judgments):- इस चरण में व्यक्ति समस्या से सम्बन्धित परम्परागत (Traditional) निर्णयों की पूर्ण रूप से उपेक्षा (Neglect) करता है तथा उनकी जगह कुछ अलग तरह के  लगने वाले विचित्र  हास्याप्रद  विचारों का प्रतिवादन करता है।


2. उद्भवन काल (Incubation Period) :-


जब व्यक्ति कई प्रकार से समस्या समाधान के प्रयास करने पर सफल नहीं हो पाता है तो उद्भवन की स्थिति आ जाती है। उद्भवन काल में व्यक्ति समस्या के बारे में चिन्तन छोड़कर चेतन/सचेत (Conscious) रूप से तो विश्राम की अवस्था में चला जाता है लेकिन अचेतन (Unconscious) रूप से वह समस्या के बारे में विचार करता रहता है। इस अवस्था में व्यक्ति दो कार्य करता है -

(i) नये ज्ञान को सीखता है, 

(ii) नये ज्ञान को पुराने ज्ञान के साथ आत्मसात् (Assimilation) करता है। 

इस अवस्था में व्यक्ति कोई प्रकाश की किरण तलाशता है जो समस्या का समाधान करने का रास्ता दिखाये।


3. प्रकाश अथवा प्रेरणा (Illumination or Motivation) :-


उद्भवन के बाद प्रकाश की किरण अथवा प्रेरणा अचेतन मन (Unconscious Mind) की गहराइयों से उत्पन्न होती है। निष्क्रिय (Inactive) रहने की अवस्था में कवि के मन  से कविता  का निर्माण होता है।  आर्कमिडीज को अपने उत्प्लावन बल (Buoyancy Force) के सिद्धान्त का ज्ञान पानी के हौज में नहाते समय अचानक हुआ था। इसी प्रकार के उदाहरणों के आधार पर ही मनोवैज्ञानिकों ने माना है कि प्रकाश अथवा प्रेरणा मानसिक निष्क्रियता (Mental Inactivity) की अवस्था में प्राप्त होती है।


4. किसी एक विचार से बँध जाना (Stay on an idea):- 


जब व्यक्ति को किसी विचार की गहन जानकारी हो जाती है तो वह अपने इस विचार को समस्या के समाधान हेतु चुन लेता है और लोग यदि उसकी आलोचना (Criticism) भी करते हैं तो भी वह अपने निर्णय पर अडिग रहता है।


5. परिणाम का अनुमान (Result estimate):- 


इस सोपान में व्यक्ति अपनी समस्या के संभावित परिणाम (Result) का अनुमान लगाने लगता है। व्यक्ति द्वारा इस व्यवस्था पर संभावित परिणाम का जो अनुमान लगाया जाता है वह सही हो भी सकते हैं और नहीं भी। परंतु उसमें व्यक्ति के उत्साह की अवस्था देखने को मिलती है।


6. सत्यापन/पुष्टिकरण (Verification):- 


यह सृजनात्मक प्रक्रिया की अन्तिम अवस्था है। इस स्थिति में वह प्रकाशित विचारों (Illuminated thoughts) की वैधता की जाँच करता है। इस स्थिति में वह यह निश्चित करता है कि उसकी सोच से प्राप्त विचार अथवा समस्या के हल ठीक हैं  या  नहीं। यदि परिणाम त्रुटिपूर्ण आते हैं तो समस्या समाधान हेतु नये सिरे से प्रयास किये जाते हैं और परिणामों को परिवर्तित अथवा संशोधित करके वांछित निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है। प्रायः देखा जाता है कि साहित्यकार(Writer) अपनी रचनाओं को आवश्यकतानुसार संशोधन करके उन्हें पुनः लिखते हैं।








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