Monday, December 1, 2025

ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त (Bruner's Theory of Cognitive Learning)

 ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त 
(Bruner's Theory of Cognitive Learning)


जीरोम ब्रुनर (Jerome Bruner, 1960) के द्वारा प्रतिपादित अधिगम सिद्धान्त को आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Modern Cognitive Theory) कहा जाता है।  ब्रुनर ने बालकों को संज्ञानात्मक व्यवहार का विस्तृत अवलोकन करके संज्ञानात्मक विकास को उसकी विशेषताओं के आधार पर तीन स्तरों- क्रियात्मक, प्रतिबिम्बात्मक तथा संकेतात्मक (functional, reflective and symbolic)  में विभक्त करके स्पष्ट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। शिक्षा के क्षेत्र में इस सिद्धान्त को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। संज्ञानात्मक विकास को विस्तृत करते हुए तथा कक्षा में छात्रों के द्वारा सीखने से सम्बन्धित किये जाने वाले व्यवहारों को ध्यान में रखकर उसने सीखने के संज्ञानात्मक सिद्धान्त की अवधारणा प्रस्तुत की है। ब्रुनर के सीखने के सिद्धान्त को निम्न भागों में विभक्त करके प्रस्तुत किया जा सकता है-


मूल धारणाएँ (Main Concept):

  • अधिगम एक सक्रिय, उद्देश्यपूर्ण तथा समस्या–समाधान की प्रक्रिया है; बच्चा पर्यावरण से जानकारी लेकर उसे वर्गीकृत व संगठित करके संप्रत्यय (concepts) बनाता है।​

  • अर्थपूर्ण अधिगम तब होता है जब बालक स्वयं चीज़ों की खोज करता है (अन्वेषण/डिस्कवरी लर्निंग) और विषय की “संरचना” (basic concepts, principles) को समझ लेता है।​
  • नया ज्ञान हमेशा पूर्व ज्ञान से जोड़ा जाता है; इसलिए अधिगम प्रगतिशील पुनर्गठन (reorganization) की प्रक्रिया है।
ब्रूनर ने बताया कि बच्चा अनुभवों को मानसिक रूप से तीन तरीकों से प्रस्तुत करता है:

  • सक्रियता विधि (Enactive mode) : 

यह वह स्थिति है जिसमें बच्चा या कोई भी व्यक्ति करके (action) के माध्यम से सीखता है, यानी ज्ञान शारीरिक क्रिया या “मसल मेमोरी” के रूप में संग्रहीत रहता है। उदाहरण: बच्चा खिलौना पकड़ना सीखता है, या किसी चीज़ को छूकर, मोड़कर समझता है – उसके लिए अनुभव करना सीखने का सबसे बड़ा तरीका है।
  1. जन्म से 3 वर्ष तक। 
  2. बालक गामक क्रिया/शारीरिक क्रिया द्वारा सीखता है। जैसे- वस्तुु को पकड़ना, चलना आदि।
  3. इस अवस्था में शिशु अपनी अनुभूतियों को शब्दविहीन क्रियाओं द्वारा व्यक्त करता है। उदा0- भूख लगने पर रोना, हाथ-पैर हिलाना आदि। इन क्रियाओं द्वारा बालक बाह्य वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करता है। 
  4. इस अवस्था में भाषा का महत्व न के बराबर होता है, यदि कोई मानसिक क्रिया का महत्व है तो वह भी नगण्य है।
  5. किसी वस्तु को समझने के लिये बालक उसे पकड़ता है, मोड़ता है, काटता है।
  6. इस अवस्था में शिशु प्रत्यक्ष अनुभव एवं कार्य स्वयं करके ही सीखता है। इस अवस्था के बालकों में बोध विकसित करने हेतु क्रिया को सबसे प्रमुख साधन माना गया है। अतः बालकों को विषय-वस्तु को क्रिया के माध्यम से सीखाना चाहिए।
  7. किसी वस्तु या क्रिया को उसके भौतिक रूप में बार-बार जोड़-तोड़ करके सीखने में मदद करता है।

  • दृश्य–प्रतिमा विधि (Iconic mode):
बच्चा चित्रों, आकृतियों, मानसिक प्रतिमाओं के रूप में अनुभवों का प्रतिनिधित्व करता; प्रत्यक्षीकरण द्वारा सीखना प्रमुख रहता है।​
  1. 4 से 8 वर्ष तक।
  2. इस अवस्था में बालक अपनी अनुभूति को अपने मन में कुछ दृश्य प्रतिमाएं प्रकट करता है और प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से सीखता है।
  3. इसमें सूचनाएं प्रतिबिंबों की सहायता से बालक तक पहुंचती है और बालक किसी चमक एवं शोर से प्रभावित होता है। 
  4. यह वास्तविकता का चरण होता है।
  5. प्रत्यक्षीकरण, स्वयं करके सीखना एवं दृश्य स्मृति का विकास इस अवस्था की मुख्य विशेषता है।
  6. यह बोधात्मक क्षेत्र की प्रतिमाओं का चरण है।
  7. इस अवस्था में बालक अपनी स्वयं की मानसिक छवि बनाने और उस आधार पर स्वयं को अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं।
  8. बालकों में बौद्धिक क्षमता इतनी विकसित हो जाती है कि मूर्त रूप से सोचने एवं समझने लगता है। अतः बालकों में बोध को विकसित करने हेतु चित्रों, मॉडलों, चार्ट, मूर्तियों आदि का प्रयोग किया जा सकता है। इसे छायात्मक अवस्था भी कहते हैं।

  • सांकेतिक विधि (Symbolic mode):

भाषा, चिन्ह, प्रतीकों के माध्यम से सोच व अधिगम; शब्दों और सूत्रों से जटिल संकल्पनाओं को व्यक्त करता है।​
  1. 8 से 13 वर्ष तक।
  2. इस अवस्था में बालक अपने अनुभवों को शब्दों में व्यक्त करता है।
  3. इस अवस्था में बालक गणित तथा तर्क का उपयोग करना सीखते हैं। 
  4. बौद्धिक विकास की यह सर्वोच्च अवस्था है। इसे शब्द चरण भी कहते हैं। 
  5. प्राप्त अनुभवों को शब्दों के माध्यम से प्रकट करना, अमूर्त चिन्तन करना, उच्च-स्तरीय विमर्शी चिन्तन करना सांकेतिक अवस्था की विशेषता है।
  6. भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से अनुभवों के संसार का संप्रेषण किया जा सकता है।
  7. अन्वेषण विधि का प्रयोग किया जाता है।
  8. इस अवस्था में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।



शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implication)



  • ब्रुनर ने कक्षा शिक्षण को अर्थपूर्ण बनाने पर बल दिया है।
  • विषय के तात्कालिक ज्ञान पर बल दिया है। तत्परता और शिक्षार्थी द्वारा स्वयं कार्य करने को महत्व दिया।
  • अन्वेषणात्मक विधि पर बल दिया।
  • सीखने में सामाजिक एवं व्यक्तिगत संबद्धता पर बल दिया।
  • आगमनात्मक विधि पर बल दिया।
  • शिक्षा का उद्देश्य स्वायत्त शिक्षार्थी (सीखने के लिए सीखना) होना चाहिए। जिसे बाद में कई स्थितियों में स्थानांतरित किया जा सकता है। विशेष रूप से शिक्षा से बच्चों में प्रतीकात्मक सोच भी विकसित होनी चाहिए।
  • ब्रूनर के मानसिक अवस्थाओं के चरणों के अनुसार शिक्षण में योग्यता व प्रविधियों का प्रयोग करना चाहिए।
  • इस सिद्धान्त के माध्यम से छात्रों द्वारा समस्या समाधान की क्षमता का विकास किया जा सकता है।
  • ब्रूनर ने सम्प्रत्यय को समझने पर बल दिया। जिससे शिक्षक वर्तमान संचार को पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों से जोड़ सकता है। इससे छात्रों के ज्ञान को समृद्ध बनाया जा सकता है।
  • शिक्षाविदों, शिक्षकों और माता-पिता को बालक के विचारों को बुनर द्वारा दिये तीनों चरणों के माध्यम से जानकर उसकी क्षमता का विकास करना चाहिये।


Sunday, November 30, 2025

टॉलमैन का अधिगम सिद्धान्त (Tolman's Theory of Learning)

 टॉलमैन का अधिगम सिद्धान्त (Tolman's Theory of Learning)

टॉलमैन का अधिगम सिद्धान्त “चिन्ह–पूर्णाकार (Sign–Gestalt / Sign Learning)” या “प्रयोजनवादी व्यवहारवाद (Purposive Behaviorism)” के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्य विचार यह है कि अधिगम केवल यांत्रिक आदत बनाना नहीं, बल्कि उद्देश्यपूर्ण (purposeful), संज्ञानात्मक (cognitive) और अर्थपूर्ण (meaningful) प्रक्रिया है।

व्यवहार  को उद्दीपक से उत्पन्न होने वाला स्वीकार करने, व्यवहार का मापन करने के लिए वस्तुनिष्ठ विधियों पर जोर देने तथा व्यवहार के परिमार्जन पर बल देने से स्पष्ट है कि टॉलमैन का सिद्धांत व्यवहारवादी दृष्टिकोण रखता है परन्तु  टॉलमैन ने व्यवहारवादियों के सामान व्यवहार यंत्रवत मानने का विरोध किया। 


टॉलमैन के सिद्धान्त का मूल विचार


  • टॉलमैन के अनुसार प्राणी (मानव–पशु) का व्यवहार उद्देश्यपूर्ण होता है; वह किसी लक्ष्य (goal) की ओर निर्देशित होता है, केवल उद्दीपन–प्रतिक्रिया की जंजीर नहीं होता।

  • अधिगम में व्यक्ति अपने वातावरण के बारे में “संज्ञानात्मक मानचित्र (Cognitive map)बनाता है; अर्थात् विभिन्न रास्तों, संकेतों, स्थानों व परिणामों का मानसिक नक्शा तैयार करता है, केवल प्रतिक्रियाओं का क्रम याद नहीं करता।
  • टॉलमैन के अनुसार अधिगम का तत्त्व “चिन्ह” है, अर्थात ऐसे संकेत या प्रतीक जिनके आधार पर व्यक्ति यह “अपेक्षा” करता है कि यदि वह ऐसा करेगा तो ऐसा परिणाम मिलेगा।
  • अधिगम का अर्थ है विभिन्न उद्दीपनों व परिस्थितियों के बीच संबंधों को समझना और उनके आधार पर भविष्य के परिणामों की भविष्यवाणी करना; इसलिए यह “अपेक्षाओं का अधिगम” है, न कि केवल मांसपेशीय प्रतिक्रियाओं का।

प्रमुख अवधारणाएँ (Main Concept):

  • प्रयोजन (Purpose): हर सीखी गई क्रिया के पीछे कोई न कोई उद्देश्य, जरूरत या लक्ष्य होता है; यदि लक्ष्य न हो तो व्यवहार स्थिर नहीं रहता।
  • मध्यवर्ती चरों (Intervening Variables): उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच प्रेरणा, लक्ष्य, पूर्व-अनुभव, जैविक दशा, व्यक्तित्व आदि ऐसे छिपे हुए तत्त्व हैं जो व्यवहार को प्रभावित करते हैं; इन्हीं को टॉलमैन ने मध्यवर्ती चर कहा।
  • अव्यक्त अधिगम (Latent Learning): प्राणी बिना तात्कालिक पुरस्कार के भी वातावरण का नक्शा सीख लेता है; जब बाद में पुरस्कार मिलता है तभी वह सीखा हुआ ज्ञान व्यवहार में प्रकट होता है।


टालमैन द्वारा प्रस्तुत सैद्धान्तिक सम्प्रत्यय
(Tolman's Theoritical Concepts)


सीखने की प्रक्रिया को समझने के लिए विभिन्न प्रकार की भूल-भूलैयों में किये गये अपने प्रयोगों के आधार पर टालमैन ने सीखने के निम्न सैद्धान्तिक संप्रत्ययों को प्रस्तुत किया-


  • चिन्ह (Sign) या संकेत: अधिगम में व्यक्ति अपने वातावरण के संकेतों (जैसे रास्ता, चिन्ह, संकेत-चिह्न, प्रतीक) के बीच संबंध को पहचानता है, न कि सिर्फ क्रमबद्ध प्रतिक्रियाओं को।

  • संज्ञानात्मक मानचित्र (Cognitive Map): अधिगम के दौरान व्यक्ति दिमाग़ में खुद-ब-खुद एक मानसिक नक्शा या संरचना बनाता है, जिससे स्थान, रास्ते और संभावित परिणामों का ज्ञान होता है।​

  • उद्देश्यपूर्ण व्यवहार (Purposive Behaviour): हर व्यवहार और अधिगम के पीछे कोई-न-कोई लक्ष्य/उद्देश्य होता है — अनायास की गई प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं।​​

  • अपेक्षा (Expectancy): व्यक्ति ‘अपेक्षा’ बना लेता है कि किसी विशेष संकेत के बाद कौन सा परिणाम आएगा; यानी वह अनुभव के आधार पर अपने व्यवहार की योजना बनाता है।​

  • मध्यवर्ती चर (Intervening Variables): उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच कुछ छिपे कारक जैसे प्रेरणा, उद्देश्य, भूख आदि अभिनय करते हैं, जो अधिगम को प्रभावित करते हैं।​​

  • अव्यक्त अधिगम (Latent Learning): बिना प्रत्यक्ष इनाम के भी अधिगम संभव है; अनुभव बाद में व्यवहार में दिख सकता है। टालमैन ने अधिगम के एक ऐसे प्रकार की चर्चा भी की है जो व्यवहार  के रूप में परिलक्षित होने से पूर्व काफी समय तक सुप्तावस्था (Dormant) में रहता है। परन्तु प्राणी को उपयुक्त परिस्थिति अथवा अभिप्रेरणा मिलने पर वह इस प्रकार के लुप्त अधिगम प्रदर्शन करने में सक्षम रहता है। टालमैन के लुप्त अधिगम संप्रत्यय के अनुसार कभी-कभी अधिगम तो होता है परन्तु पुरस्कार अथवा पुनर्बलन में मिलने के कारण ऐसा अधिगम निष्पादन के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। वस्तुतः लुप्त अधिगम का संप्रत्यय इंगित करता है कि सीखने के लिए पुरस्कार / पुनर्बलन का होना अपरिहार्य (Indispensable) नहीं है। 


1930 में टालमैन तथा  उनके सहयोगी ने लुप्त अधिगम (Latent Learning) के सन्दर्भ में किये गए एक प्रयोग में देखा गया कि भोजन (पुरस्कार/पुनर्बलन) पाये बिना भी चूहों ने भुलभुलैया में सही मार्ग सीख लिया। 17  दिन तक चल रहे इस प्रयोग में चूहों को तीन समूहों में विभक्त करके तीन समरूप भूलभुलैया (Identical Maze) में दौड़ने का प्रशिक्षण दिया गया।  एक समूह को लक्ष्य पर पहुंचने पर सदैव ही पुनर्बलन दिया गया, दुसरे समूह को लक्ष्य पर पहुंचने पर कभी-भी पुनर्बलन नहीं दिया गया एवं तीसरे समूह को दस दिन तक कोई पुनर्बलन नहीं दिया गया परन्तु  ग्यारहवें दिन से लक्ष्य पर पहुँचने पर पुनर्बलन दिया गया। देखा गया कि- 

  • लगातार पुनर्बलन पाने वाले समूह के निष्पादन में धीरे-धीरे पर्याप्त उन्नति हुई । 
  • पुनर्बलन न पाने वाले समूह में निष्पादन में बहुत थोड़ी उन्नति हुए। 
  • ग्यारहवें दिन से पुनर्बलन पाने वाले समूह के निष्पादन में बारहवें दिन से अप्रत्याशित वृद्धि हुई एवं इस समूह के निष्पादन का स्तर शीघ्र ही लगातार पुनर्बलन पाने वाले समूह के निष्पादन के बराबर हो गया।

टालमैन के अनुसार तीसरे समूह ने प्रथम दस दिनों में भूलभुलैया सीख ली थी, परन्तु  इसकी अभिव्यक्ति (Expression)नहीं हो रही थी। जब ग्यारहवें दिन से उन्हें पुनर्बलन दिया गया तो अधिगम की अभिव्यक्ति (Expression) हो गयी। यही कारण था कि पुनर्बलन पाने के बाद इस समूह के निष्पादन में अचानक वृद्धि हो गयी। दूसरे शब्दों में अधिगम विद्यमान होते हुए भी लुप्त था जो अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न होने पर प्रत्यक्षतः हो गया।



Wednesday, November 26, 2025

आसुबेल का अधिगम सिद्धांत (Ausubel's Theory of Learning)

आसुबेल का अधिगम सिद्धांत (Ausubel's Theory of Learning)

  आसुबेल ने यह सिद्धांत 1978 में दिया था। इस अधिगम सिद्धांत इसे आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धांत (Modern Cognitive Theory) भी कहा जाता है।  संज्ञानात्मक सिद्धांत इसलिए कहा जाता है कि सीखते समय व्यक्ति के मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रिया का वर्णन किया जाता है। आसुबेल के अनुसार व्यक्ति जब किसी विषय वस्तु/पूर्व ज्ञान/ अनुभव को अपनी संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive Structure) से सार्थक रूप से जोड़ लेता है तो उसे आत्मसात (Assimilation) करना कहते हैं 

इनके द्वारा लक्ष्य तथा शिक्षण सामग्री (Aims & Teaching Content) के प्रस्तुतीकरण की विधि के सुधार पर अधिक बल दिया गया  इनका मत है कि व्यक्ति अधिग्रहण (Acquisition) के द्वारा सीखता है ना की अन्वेषण के द्वारा  इनका कहना था कि सिद्धांत तथा विचार प्रस्तुत किए जाते हैं ना की खोज जाते हैं  

व्याख्यात्मक शिक्षण प्रतिमान (Explanatory Teaching Model) अर्थपूर्ण शाब्दिक अधिगम (Meaningful Verbal learning) पर अधिक बल देता है इसमें मौखिक सूचनाओं, विचार तथा विचारों में संबंध साथ-साथ चलते हैंआसुबेल का मानना है की ब्रूनर द्वारा बताई गई आगमन विधि (Inductive Method) न होकर निगमन चिंतन (Deductive Thinking) अधिगम की प्रगति में होनी चाहिए इन्होंने निगमनात्मक चिंतन पर जोर  दिया है 


आसुबेल  ने अधिगम के चार प्रकार बताएं  हैं -

  • रटन्त अधिगम (Rote Learning): विषय सामग्री को बिना समझे सीखना और ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना। 
  • अर्थपूर्ण अधिगम (Meaningful Learning):  सीखने वाली सामग्री के सार तत्व को समझना व उसे  पूर्व ज्ञान से जोड़ना।  आसुबेल  के अनुसार अर्थपूर्ण अधिगम (Meaningful learning) तीन बातों पर निर्भर करता है -
  1. अधिगम सामग्री को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है की अगला  प्रथम अध्याय दूसरे अध्याय को समझने में सहायक हो। 
  2. नए ज्ञान को अर्जित करते समय व्यक्ति का मस्तिष्क किस प्रकार कार्य कर रहा है वह उसके प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति (Positive Attitude) रखता है या नहीं। 
  3. अध्यापक नए विषय को सीखाने के लिए अधिगम संबंधी विचारों को किस प्रकार प्रस्तुत करता है। 

अतः शिक्षकों को पढ़ाए जाने वाली सामग्री का चयन, संगठन व प्रस्तुतीकरण (Selection, Organization and Presentation) इस प्रकार किया जाए कि वह छात्रों के लिए अधिक अर्थपूर्ण बन जाए। 

  • अधिग्रहण अधिगम (Acquisition Learning): छात्रों के समक्ष सीखने वाली सामग्री बोलकर या लिखकर प्रस्तुत की जाती है, छात्र उन सामग्रियों का आत्मसात (Assimilation) करने का प्रयास करता है।परंतु यह रटंत  न होकर समझकर होता है।  यह दो प्रकार का होता है -

  1. रटंत अधिग्रहण अधिगम (Rote Acquisition Learning)-   मंद, संकुचित तथा नीरस (dull, compact and boring) ।  
  2. अर्थपूर्ण अधिग्रहण अधिगम (Meaningful Acquisition Learning)-  व्यापक, तीव्र व अर्थपूर्ण (comprehensive, intense and meaningful) । 

  • अन्वेषण अधिगम (Discovery Learning): खोज करके सीखना (Learning by Discovering)।  अन्वेषण अधिगम भी दो प्रकार का होता है-  

  1. रटंत अन्वेषण अधिगम (Rote Discovery Learning)-   विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हेतु अनुक्रिया करना। 
  2. अर्थपूर्ण अन्वेषण अधिगम (Meaningful Discovery Learning)- सीखे गए तथ्यों के आधार पर किसी नए नियम का उपयोग करके नए नियम का प्रतिपादन करना और तथ्यों को आत्मसात  (Assimilation)  करके अपने अनुसार नवीन प्रकार से उनका उपयोग करना। 

अर्थपूर्ण अधिगम में आत्मसात को महत्वपूर्ण स्थान दिया है ।  उसने अधिगम में आत्मसात के चार प्रकार बताए हैं -

  1. योगात्मक अधिगम (Combinational Learning):  छात्र सामान्य समरूपता के आधार पर सीखे गए विचारों को सार्थक ढंग से अपनी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना के महत्वपूर्ण तत्वों के साथ आत्मसात करके  जोड़ता है ।  जैसे- आवश्यकता तथा पूर्ति, ताप तथा आयतन आदि । 
  2. अधीनस्थ अधिगम (Subordinate learning):  अधिक प्रचलित शब्द की कम प्रचलित समानार्थी शब्दों को सीखना। जैसे - पानी के लिए कम प्रचलित शब्द वारि,  सलिल व नीर आदि। 
  3. सहसंबंध अधिगम (Corelation Learning):  छात्र पहले सीखे हुए ज्ञान को नवीन ज्ञान से संबंधित करके उसमें परिमार्जन (Modification) या संवर्धन (Elaboration) करता है जैसे- कोई व्यक्ति अपने राष्ट्रीय ध्वज, चिन्ह व पर्वों का बहुत सम्मान करता है । उसके लिए राष्ट्रभक्ति शब्द प्रयोग किया जाता है। 
  4. उच्च कोटि अधिगम (Superordinate Learning): कई संप्रत्ययों (Concepts)  को मिलाकर किसी नई संप्रत्यय का निर्माण करना।  जैसे- गौरैया, तोता, कबूतर, मैना आदि की जानकारी के आधार पर पक्षी संप्रत्यय का विकास होता है। 

Saturday, November 22, 2025

सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Social Learning Theory)

 सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Social Learning Theory)


प्रतिपादक - अल्बर्ट बंडूरा  (Albert Bandura), सहयोगी - वाल्टर (Walters)

सिद्धांत के अन्य नाम - प्रत्यक्ष अधिगम सिद्धांत (Direct Learning Theory), प्रतिरूप अधिगम सिद्धांत (Vicarious Learning Theory), अवलोकन अधिगम सिद्धांत (Observational Learning Theory), अनुकरण सिद्धांत (Imitation Theory), सामाजिक संज्ञानात्मक सिद्धांत (Social Cognitive Theory), निर्देशन का सिद्धांत (Theory of Guidance)। 

पुस्तक - Principles of Behaviour Modification (1969)

आधार वाक्य - व्यक्ति दूसरे के व्यवहार को देखकर सीखते हैं। 

प्रयोग - अल्बर्ट नाम का बालक, बोबो  डॉल एवं जोकर। 

  • यह सिद्धांत इस बात पर विचार करता है कि कैसे पर्यावरण और संज्ञानात्मक कारक मानव अधिगम व व्यवहार को प्रभावित करने के लिए परस्पर क्रिया करते हैं। 
  • व्यक्ति का व्यवहार संज्ञान व प्रत्याशा (Expectation) द्वारा प्रमाणित होते हैं प्रत्याशा दो प्रकार की होती है परिणाम प्रत्याशा (Outcome Expectation)  और प्रभावोत्पादकता प्रत्याशा (Efficacy Expectation) । 
  • इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित अधिगम के स्थान पर अप्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित अधिगम /अवलोकनात्मक अधिगम का सीखने की प्रक्रिया में अधिक सार्थक स्थान है । 
  • जन्म से बालक अपने वातावरण में उपस्थित व्यक्तियों, परिवार के सदस्यों के व्यवहार का अवलोकन करता है एवं कुछ की व्यवहारों का अनुकरण कर अपनी व्यवहार में लाता है ।  जिन व्यक्तियों के व्यवहारों का वह अनुकरण करते हैं उन्हें निदर्श (Model) कहा जाता है किसी निदर्श (Model) के  व्यवहार का अनुकरण करके किया गया अवलोकनात्मक अधिगम को निदर्शन (Modeling)  कहा जाता है

सामाजिक अधिगम के सोपान (Steps of Social Learning Theory)




  • अवधान (Attention):-  देखना ध्यान देने योग्य प्रक्रिया महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी मॉडल के संपर्क में आने से यह सुनिश्चित नहीं होता है कि पर्यवेक्षक (Observer) ध्यान देंगे।  मॉडल को पर्यवेक्षक की रुचि जाना चाहिए और पर्यवेक्षक को मॉडल के व्यवहार को अनुकरण के लायक समझना चाहिए। यह तय करता है कि व्यवहार को मॉडल किया जाएगा या नहीं । व्यक्ति को व्यवहार और परिणामो पर ध्यान देने और व्यवहार का मानसिक प्रतिनिधित्व बनाने की आवश्यकता है । किसी व्यवहार का अनुकरण करने के लिए उसे हमारा ध्यान खींचना होगा । हम दैनिक आधार पर कई व्यवहार देखते हैं और उनमें से कई उल्लेखनीय नहीं है, इसलिए इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि क्या कोई व्यवहार दूसरों को उसका अनुकरण करने के लिए प्रभावित करता है
  • धारण करना (Retention):-  व्यवहार को धारण करना सफल अनुकरण के लिए पर्यवेक्षकों (Observer) को इन व्यवहारों को प्रतीकात्मक रूप से सहेजना होगा सक्रिय रूप से उन्हें आसानी से याद किये जाने वाले पैटर्न की व्यवस्थित करना होगा। आचरण कितना याद रहते हैं व्यवहार पर  ध्यान दिया जा सकता है लेकिन इसे हमेशा याद नहीं रखा जा सकता । जो स्पष्ट रूप से नक़ल रोकता है,  इसलिए महत्वपूर्ण है कि व्यवहार की एक स्मृति पर्यवेक्षक द्वारा बाद में निष्पादित किया जाए अधिकांश सामाजिक अधिगम तुरंत नहीं होता इसलिए यह प्रक्रिया उन मामलों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।  इसको संदर्भित करने के लिए एक स्मृति की आवश्यकता होती है
  • पुनः प्रस्तुतीकरण (Re-production) :-  उत्पादन दूसरों के सामने प्रस्तुत करना। यह उस व्यवहार को निष्पादित करने की क्षमता है जिसे मॉडल द्वारा अभी प्रदर्शित किया गया है। हम प्रतिदिन बहुत सारे व्यवहार देखते हैं जिनका हम अनुकरण करने में सक्षम होना चाहते हैं लेकिन हमेशा यह संभव नहीं हो पता क्योंकि हमारी शारीरिक क्षमता हमें सीमित करती है। यह हमारे निर्णय को प्रभावित करता है कि हमें इसका अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए या नहीं।
  • पुनर्बलन/ अभिप्रेरणा (Reinforcement/Motivation):  प्रेरणा और पुनर्बलन की प्रक्रिया मॉडल के कार्यों की नकल करने के अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम को संदर्भित करती हैं जो नकल की संभावना को बढ़ाने या घटाने की रखते हैं । यदि अनुमानित पुरस्कार अनुमानित लागत से अधिक है तो पर्यवेक्षक की नकल करने की संभावना अधिक रहेगी परंतु यदि पुनर्बलन पर्यवेक्षक के लिए महत्वहीन है तो वह व्यवहार की नकल नहीं करेंगे।



मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

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