ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त (Bruner's Theory of Cognitive Learning)
जीरोम ब्रुनर (Jerome Bruner, 1960) के द्वारा प्रतिपादित अधिगम सिद्धान्त को आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Modern Cognitive Theory) कहा जाता है। ब्रुनर ने बालकों को संज्ञानात्मक व्यवहार का विस्तृत अवलोकन करके संज्ञानात्मक विकास को उसकी विशेषताओं के आधार पर तीन स्तरों- क्रियात्मक, प्रतिबिम्बात्मक तथा संकेतात्मक (functional, reflective and symbolic) में विभक्त करके स्पष्ट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। शिक्षा के क्षेत्र में इस सिद्धान्त को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। संज्ञानात्मक विकास को विस्तृत करते हुए तथा कक्षा में छात्रों के द्वारा सीखने से सम्बन्धित किये जाने वाले व्यवहारों को ध्यान में रखकर उसने सीखने के संज्ञानात्मक सिद्धान्त की अवधारणा प्रस्तुत की है। ब्रुनर के सीखने के सिद्धान्त को निम्न भागों में विभक्त करके प्रस्तुत किया जा सकता है-
मूल धारणाएँ (Main Concept):
- अधिगम एक सक्रिय, उद्देश्यपूर्ण तथा समस्या–समाधान की प्रक्रिया है; बच्चा पर्यावरण से जानकारी लेकर उसे वर्गीकृत व संगठित करके संप्रत्यय (concepts) बनाता है।
- अर्थपूर्ण अधिगम तब होता है जब बालक स्वयं चीज़ों की खोज करता है (अन्वेषण/डिस्कवरी लर्निंग) और विषय की “संरचना” (basic concepts, principles) को समझ लेता है।
- नया ज्ञान हमेशा पूर्व ज्ञान से जोड़ा जाता है; इसलिए अधिगम प्रगतिशील पुनर्गठन (reorganization) की प्रक्रिया है।
- सक्रियता विधि (Enactive mode) :
- जन्म से 3 वर्ष तक।
- बालक गामक क्रिया/शारीरिक क्रिया द्वारा सीखता है। जैसे- वस्तुु को पकड़ना, चलना आदि।
- इस अवस्था में शिशु अपनी अनुभूतियों को शब्दविहीन क्रियाओं द्वारा व्यक्त करता है। उदा0- भूख लगने पर रोना, हाथ-पैर हिलाना आदि। इन क्रियाओं द्वारा बालक बाह्य वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करता है।
- इस अवस्था में भाषा का महत्व न के बराबर होता है, यदि कोई मानसिक क्रिया का महत्व है तो वह भी नगण्य है।
- किसी वस्तु को समझने के लिये बालक उसे पकड़ता है, मोड़ता है, काटता है।
- इस अवस्था में शिशु प्रत्यक्ष अनुभव एवं कार्य स्वयं करके ही सीखता है। इस अवस्था के बालकों में बोध विकसित करने हेतु क्रिया को सबसे प्रमुख साधन माना गया है। अतः बालकों को विषय-वस्तु को क्रिया के माध्यम से सीखाना चाहिए।
- किसी वस्तु या क्रिया को उसके भौतिक रूप में बार-बार जोड़-तोड़ करके सीखने में मदद करता है।
- दृश्य–प्रतिमा विधि (Iconic mode):
- 4 से 8 वर्ष तक।
- इस अवस्था में बालक अपनी अनुभूति को अपने मन में कुछ दृश्य प्रतिमाएं प्रकट करता है और प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से सीखता है।
- इसमें सूचनाएं प्रतिबिंबों की सहायता से बालक तक पहुंचती है और बालक किसी चमक एवं शोर से प्रभावित होता है।
- यह वास्तविकता का चरण होता है।
- प्रत्यक्षीकरण, स्वयं करके सीखना एवं दृश्य स्मृति का विकास इस अवस्था की मुख्य विशेषता है।
- यह बोधात्मक क्षेत्र की प्रतिमाओं का चरण है।
- इस अवस्था में बालक अपनी स्वयं की मानसिक छवि बनाने और उस आधार पर स्वयं को अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं।
- बालकों में बौद्धिक क्षमता इतनी विकसित हो जाती है कि मूर्त रूप से सोचने एवं समझने लगता है। अतः बालकों में बोध को विकसित करने हेतु चित्रों, मॉडलों, चार्ट, मूर्तियों आदि का प्रयोग किया जा सकता है। इसे छायात्मक अवस्था भी कहते हैं।
- सांकेतिक विधि (Symbolic mode):
- 8 से 13 वर्ष तक।
- इस अवस्था में बालक अपने अनुभवों को शब्दों में व्यक्त करता है।
- इस अवस्था में बालक गणित तथा तर्क का उपयोग करना सीखते हैं।
- बौद्धिक विकास की यह सर्वोच्च अवस्था है। इसे शब्द चरण भी कहते हैं।
- प्राप्त अनुभवों को शब्दों के माध्यम से प्रकट करना, अमूर्त चिन्तन करना, उच्च-स्तरीय विमर्शी चिन्तन करना सांकेतिक अवस्था की विशेषता है।
- भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से अनुभवों के संसार का संप्रेषण किया जा सकता है।
- अन्वेषण विधि का प्रयोग किया जाता है।
- इस अवस्था में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implication)
- ब्रुनर ने कक्षा शिक्षण को अर्थपूर्ण बनाने पर बल दिया है।
- विषय के तात्कालिक ज्ञान पर बल दिया है। तत्परता और शिक्षार्थी द्वारा स्वयं कार्य करने को महत्व दिया।
- अन्वेषणात्मक विधि पर बल दिया।
- सीखने में सामाजिक एवं व्यक्तिगत संबद्धता पर बल दिया।
- आगमनात्मक विधि पर बल दिया।
- शिक्षा का उद्देश्य स्वायत्त शिक्षार्थी (सीखने के लिए सीखना) होना चाहिए। जिसे बाद में कई स्थितियों में स्थानांतरित किया जा सकता है। विशेष रूप से शिक्षा से बच्चों में प्रतीकात्मक सोच भी विकसित होनी चाहिए।
- ब्रूनर के मानसिक अवस्थाओं के चरणों के अनुसार शिक्षण में योग्यता व प्रविधियों का प्रयोग करना चाहिए।
- इस सिद्धान्त के माध्यम से छात्रों द्वारा समस्या समाधान की क्षमता का विकास किया जा सकता है।
- ब्रूनर ने सम्प्रत्यय को समझने पर बल दिया। जिससे शिक्षक वर्तमान संचार को पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों से जोड़ सकता है। इससे छात्रों के ज्ञान को समृद्ध बनाया जा सकता है।
- शिक्षाविदों, शिक्षकों और माता-पिता को बालक के विचारों को बुनर द्वारा दिये तीनों चरणों के माध्यम से जानकर उसकी क्षमता का विकास करना चाहिये।
सीमायें (Delimitation)
- प्रत्येक प्रकरण (Topic) को अन्वेषण विधि द्वारा पढ़ाना तथा सीखना कोई आसान कार्य नहीं है।
- सभी छात्रों में खोज प्रतिभा समान रूप से नहीं होती है। इस खोज सिद्धान्त द्वारा सृजनात्मक तथा प्रखर बुद्धि वाले बालक अधिक प्रभावशाली रूप से सीख सकते हैं जबकि मन्द बुद्धि (Dull) बालकों के लिए अधिक उपयोगी नहीं है।
- निर्धारित समय में पाठ्यक्रम को पूर्ण करना ब्रूनर के अन्वेषण सिद्धान्त द्वारा सहज कार्य नहीं है।
- ब्रूनर की यह अवधारणा है कि यदि अध्यापक विषय-सामग्री को उचित क्रम में सरलतम बनाकर प्रस्तुत करे तो बालक को किसी भी आयु में कुछ भी पढ़ाया जाना संभव है, पूर्ण रूप से सही नहीं है।
- यदि छात्र खोज करने में असमर्थ रहता है तो उसमें निराशा (frustration) उत्पन्न हो जाती है।
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