Tuesday, December 2, 2025

अधिगम का ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त (Cognitive Field Theory of Learning)

 अधिगम का ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त (Cognitive Field Theory of Learning)


अधिगम का ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त मुख्यतः मनोवैज्ञानिक कर्ट लेविन (Kurt Lewin) द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इस सिद्धान्त को अधिगम का क्षेत्रीय सिद्धान्त (Field Theory of Learning) या अधिगम का तलरूप सिद्धान्त (Topological Theory of Learning) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक कर्ट लेविन (Kurt Lewin) हैं, जिन्होंने वर्दीमर, कोहलर, कोफ्का आदि समग्राकृति सिद्धान्तवादियों के साथ बर्लिन में कार्य किया। यह सिद्धांत गेस्टाल्ट मनोविज्ञान से प्रेरित है और 1940 के दशक में विकसित हुआ, जो व्यक्ति के संपूर्ण जीवन क्षेत्र को ध्यान में रखता है । लेविन के अनुसार, किसी भी व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तिगत गुणों (Person) और उसके वातावरण (Environment) के आपसी प्रभाव का परिणाम होता है, जिसे सूत्र के रूप में इस प्रकार लिखा जाता है: 

B = f (P, E)

B = f (P, E) अर्थात व्यवहार व्यक्ति और वातावरण का फलन है ।

कर्ट लेविन (Kurt Lewin) ने  मनोविज्ञान को एक ऐसे विज्ञान के रूप में माना जिसका सम्बन्ध नित्य के जीवन से है। उसकी रुचि शिक्षण अधिगम से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करने में अधिक थी। उसके मनोविज्ञान का मुख्य केन्द्र व्यक्ति, वातावरण, परिस्थितियों (Person, Environment, Situations) की अभिप्रेरित दशायें थी। इसके अतिरिक्त वह समस्याओं के समाधान में रुचि रखता था।


इस सिद्धान्त के 4 प्रमुख तत्त्व हैं-

  • जीवन-स्थल (Life-Space):-  
यह किसी व्यक्ति का वह संपूर्ण मनोवैज्ञानिक परिवेश होता है, जिसमें उसकी इच्छाएँ, लक्ष्य, अनुभव, संज्ञानात्मक संरचना और बाधाएँ शामिल होती हैं—अर्थात् वह वातावरण और आंतरिक मनोदशा जिसमें व्यक्ति किसी समय विशेष पर कार्य करता तथा निर्णय लेता है ।  वास्तव में जीवन स्थल का अर्थ है "व्यक्तित्त्व और वातावरण में पारस्परिक सम्बन्ध"। 

  1. यह व्यक्ति के चेतन अनुभव से जुड़ा होता है—यानि जिन घटनाओं, अनुभवों या उद्देश्यों के प्रति व्यक्ति सचेत रूप से प्रतिक्रियाशील होता है, वे उसके जीवन क्षेत्र का हिस्सा होते हैं ।​​
  2. इसमें व्यक्ति (Person) तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण (Environment) शामिल होता है, जिनके बीच की क्रिया-प्रतिक्रिया व्यवहार को निर्धारित करती है।
  3. जीवन क्षेत्र सीमित नहीं होता—यह समय, परिस्थिति और अनुभव अनुसार बदलता रहता है, जैसे-जैसे व्यक्ति नया ज्ञान अर्जित करता है या नई चुनौतियों का सामना करता है ।​​ जो चीज़ें व्यक्ति के सीधे अनुभव में नहीं आईं, वे उसके जीवन क्षेत्र से बाहर मानी जाती हैं।
जीवन क्षेत्र की यह अवधारणा दर्शाती है कि व्यवहार केवल बाहरी घटनाओं से प्रभावित नहीं होता, बल्कि व्यक्ति की आंतरिक संज्ञानात्मक स्थिति और उसके द्वारा अनुभूत वातावरण का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है ।​​


  • मनोवैज्ञानिक क्षेत्र (Psychological Field) : 
कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत का व्यापक ढाँचा है, जिसके भीतर जीवन क्षेत्र (Life Space), व्यक्ति और उसका वातावरण, सभी शक्ति-प्रभाव और संबंध शामिल होते हैं। सरल शब्दों में, यह वह पूरा “मानसिक-सामाजिक परिदृश्य” है जिसमें किसी समय विशेष पर व्यक्ति सोचता, महसूस करता और व्यवहार करता है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र उस संपूर्ण मनोवैज्ञानिक जगत को कहते हैं जिसमें व्यक्ति और उससे संबंधित सभी आंतरिक (इच्छाएँ, भावनाएँ, धारणाएँ, लक्ष्य) तथा बाह्य (परिवार, साथियों, सामाजिक परिस्थितियाँ, कार्य–परिस्थिति आदि) कारक एक साथ मौजूद होते हैं और आपस में क्रिया–प्रतिक्रिया करते हैं।

  1. मनोवैज्ञानिक क्षेत्र हमेशा “समग्र” (holistic) माना जाता है; किसी एक तत्व को अलग करके पूरी तरह नहीं समझा जा सकता, क्योंकि हर भाग अन्य भागों से जुड़ा होता है।
  2. यह समयानुसार बदलता रहता है; नई जानकारी, अनुभव, सफलता–असफलता, सामाजिक परिवर्तन आदि के साथ क्षेत्र की संरचना और उसमें मौजूद वेक्टर (शक्तियाँ) और कर्षण (आकर्षण/विकर्षण) भी बदलते हैं।
  3. इसमें जीवन क्षेत्र के भीतर की चीजें (जिनसे व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से जुड़ा है) और जीवन क्षेत्र के बाहर की चीजें (जो अभी उसके अनुभव का हिस्सा नहीं हैं और उसके व्यवहार पर प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं डालतीं) – दोनों के बीच स्पष्ट सीमा (boundary) मानी जाती है।
  4. जब किसी नई समस्या, संघर्ष या लक्ष्य के कारण मनोवैज्ञानिक क्षेत्र की संरचना बदलती है (जैसे नई राहें खुलना, पुरानी बाधाओं का हटना, नए लक्ष्यों का बनना), तब उसे अधिगम और अनुकूलन (adjustment) का संकेत माना जाता है।

  • वेक्टर (Vectors): - 
कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत में “वेक्टर” (Vectors) को मनोवैज्ञानिक बल या प्रेरक शक्ति माना जाता है, जो व्यक्ति के व्यवहार की दिशा और तीव्रता को निर्धारित करती है। ये वे शक्तियाँ हैं जो व्यक्ति को किसी लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने या उससे दूर हटने के लिए प्रेरित करती हैं ।​  वेक्टर वह मनोवैज्ञानिक बल है जो जीवन क्षेत्र में व्यक्ति की “गति” (movement) को किसी दिशा में मोड़ता है, अर्थात किस दिशा में, कितनी शक्ति और किस प्रकार से व्यक्ति कार्य करेगा, यह वेक्टर से निर्धारित होता है ।​  यदि केवल एक वेक्टर कार्य कर रहा हो, तो व्यक्ति उसी दिशा में अग्रसर होता है; यदि दो या अधिक विपरीत वेक्टर हों, तो संघर्ष (conflict) या संतुलन (equilibrium) की स्थिति बन सकती है ।​
  1. दिशा (Direction) व्यक्ति को किस ओर ले जा रहा है – लक्ष्य की ओर या उससे दूर।
  2. बल कितना प्रबल या कमजोर है, इससे व्यवहार की तीव्रता पता चलती है।
  3. यह बल व्यक्ति के भीतर से (जैसे इच्छा, अभिप्रेरणा) या बाह्य परिस्थितियों से (जैसे सामाजिक दबाव, पुरस्कार, दंड) उत्पन्न हो सकता है ।​
  4. सकारात्मक कर्षण होने पर वेक्टर व्यक्ति को लक्ष्य की ओर खींचता है (Approach tendency) और नकारात्मक कर्षण होने पर वेक्टर व्यक्ति को उस वस्तु या लक्ष्य से दूर ले जाता है (Avoidance tendency) ।​

  • कर्षण (Valence):

कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत में “कर्षण” (Valence) किसी वस्तु, लक्ष्य, व्यक्ति या स्थिति की वह मनोवैज्ञानिक आकर्षण‑या‑विकर्षण शक्ति है, जो उस ओर जाने या उससे दूर रहने की प्रवृत्ति पैदा करती है। यह बताता है कि जीवन क्षेत्र में कौन‑सी चीज़ व्यक्ति के लिए “पसंदीदा/लुभावनी” है और कौन‑सी “अप्रिय/टालने योग्य” महसूस होती है ।​
कर्षण वह गुण है जिसके कारण कोई वस्तु या स्थिति व्यक्ति के लिए सकारात्मक (positive valence) या नकारात्मक (negative valence) बन जाती है। सकारात्मक कर्षण होने पर व्यक्ति की ओर जाने वाली प्रवृत्ति (approach) और नकारात्मक कर्षण होने पर दूर जाने वाली प्रवृत्ति (avoidance) उत्पन्न होती है ।​

  1. जो चीज़ें आवश्यकता की पूर्ति, आनंद, सफलता या सुरक्षा का अनुभव कराएँ, उनका कर्षण सकारात्मक होता है, जैसे पुरस्कार, प्रशंसा, वांछित लक्ष्य आदि। 
  2. जो चीज़ें भय, दर्द, विफलता, दंड या असुरक्षा से जुड़ी हों, उनका कर्षण नकारात्मक माना जाता है, जैसे कड़ी फटकार, अप्रिय कार्य, शर्मिंदा करने वाली स्थिति आदि ।​
  3. यदि किसी छात्र के लिए “अच्छे अंक और शिक्षक की प्रशंसा” का कर्षण सकारात्मक है, तो पढ़ाई की दिशा में मजबूत वेक्टर बनेगा (अधिक अध्ययन, नियमित उपस्थिति)।
  4. यदि “कक्षा में प्रश्न पूछना” शर्म, उपहास या घबराहट से जुड़ा हो और उसका कर्षण नकारात्मक लगे, तो छात्र प्रश्न पूछने से बचेगा, भले ही उसे शंका हो ।​

  • बाधाएँ, लक्ष्य और खतरे (Barriers, Goals, Threats):
लेविन के क्षेत्र सिद्धांत में “बाधाएँ, लक्ष्य और खतरे” जीवन क्षेत्र के ऐसे मुख्य घटक हैं जो वेक्टरों और कर्षण के माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार और अधिगम की दिशा तय करते हैं। संक्षेप में, लक्ष्य आकर्षण पैदा करते हैं, बाधाएँ उस लक्ष्य तक पहुँचने की राह रोकती हैं, और खतरे भय या तनाव उत्पन्न करके व्यवहार को प्रभावित करते हैं ।​

लक्ष्य (Goals): लक्ष्य वह वांछित अवस्था, वस्तु या उपलब्धि है, जिसकी ओर व्यक्ति के जीवन क्षेत्र में सकारात्मक कर्षण (positive valence) और अग्रसर वेक्टर (approach vectors) काम करते हैं, जैसे परीक्षा में उत्तीर्ण होना, नौकरी पाना, किसी कौशल में दक्ष होना ।​

बाधाएँ (Barriers): बाधा वह गतिशील अवरोध है जो व्यक्ति और उसके लक्ष्य के बीच स्थित होता है और लक्ष्य की ओर गति (locomotion) को रोकता या धीमा करता है; यह शारीरिक भी हो सकती है (संसाधनों की कमी, दूरी) और मनोवैज्ञानिक भी (भय, हीनभावना, नकारात्मक अपेक्षाएँ) ।​

खतरे (Threats):  खतरा वह स्थिति या संकेत है जो व्यक्ति के लिए संभावित हानि, विफलता, अपमान, दंड या हानि की आशंका पैदा करता है, और इस कारण जीवन क्षेत्र में नकारात्मक कर्षण तथा परिहार वेक्टर (avoidance vectors) उत्पन्न करता है ।​

जब खतरा बहुत प्रबल महसूस होता है, तो व्यक्ति अक्सर लक्ष्य से दूर भागता, बचावात्मक व्यवहार करता या वैकल्पिक, अपेक्षाकृत सुरक्षित लक्ष्यों की ओर मुड़ जाता है, जिससे अधिगम और सकारात्मक प्रयास बाधित हो सकते हैं ।​


लेविन के अनुसार अधिगम की स्थिति में प्रायः यह पैटर्न मिलता है: 
  1. व्यक्ति के पास कोई लक्ष्य होता है → लक्ष्य की ओर सकारात्मक कर्षण और अग्रसर वेक्टर बनते हैं।
  2. लक्ष्य तक पहुँचने के रास्ते में बाधा आती है → यही बाधा, यदि पार न हो सके, तो “खतरे” की अनुभूति (विफलता, दंड, हानि का डर) को जन्म दे सकती है ।
  3. यदि शिक्षक या वातावरण बाधाओं को कम करें (सहयोग, संसाधन, मार्गदर्शन देकर) और खतरे‑भावना को घटाएँ (समर्थनकारी वातावरण, त्रुटि को सीखने का अवसर मानना), तो अधिगम के लिए सकारात्मक कर्षण और प्रभावी वेक्टर मज़बूत हो जाते हैं ।


सिद्धान्त की विशेषताएं (Characteristics of Theory)

  • समग्र (Whole / Gestalt) दृष्टिकोण : यह सिद्धान्त मानता है कि अधिगम को अलग‑अलग टुकड़ों में नहीं, बल्कि पूरे पैटर्न या संरचना (Gestalt) के रूप में समझना चाहिए। शिक्षार्थी किसी भी स्थिति को उसके सम्पूर्ण संदर्भ के साथ ग्रहण करता है; केवल अलग‑थलग उद्दीपन‑प्रतिक्रिया से अधिगम की पूर्ण व्याख्या नहीं हो सकती।​
  • संज्ञानात्मक संरचना पर बल (Emphasis on Cognitive Structure): अधिगम को मानसिक संगठन, स्कीमा, अवधारणाओं और पूर्व ज्ञान की पुनर्संरचना की प्रक्रिया माना जाता है। नई जानकारी को पुराने अनुभव से जोड़कर अर्थपूर्ण रूप में संयोजित किया जाता है; केवल रटने या यांत्रिक पुनरावृत्ति को वास्तविक अधिगम नहीं माना जाता।​
  • जीवन‑क्षेत्र और मनोवैज्ञानिक क्षेत्र (Life-Sphere and Psychological Sphere): व्यक्ति का व्यवहार उसके जीवन‑क्षेत्र में मौजूद लक्ष्यों, बाधाओं, कर्षण (valence) और वेक्टर (vectors) से निर्धारित होता है; अर्थात् 
B = f (P, E)

अधिगम तब होता है जब जीवन‑क्षेत्र की संरचना में संज्ञानात्मक परिवर्तन आते हैं, जैसे नए मार्ग देखना, बाधाओं की नई व्याख्या करना या नए लक्ष्य बनाना।​
  • सक्रिय और उद्देश्यपूर्ण अधिगम (Active and Purposeful Learning): सीखने वाला निष्क्रिय नहीं, बल्कि अपने वातावरण के साथ सक्रिय अंतःक्रिया करने वाला, अर्थ खोजने वाला और समस्याएँ हल करने वाला प्राणी माना जाता है। अधिगम हमेशा किसी न किसी लक्ष्य, आवश्यकता या समस्या‑स्थिति से जुड़ा होता है; उद्देश्यहीन, बिना संदर्भ के अभ्यास की अपेक्षा लक्ष्य‑निर्देशित गतिविधियाँ अधिक प्रभावी मानी जाती हैं।​
  • अंतर्दृष्टि एवं समस्या‑समाधान पर जोर (Emphasis on Insight and Problem-Solving): अधिगम को अक्सर “insight” या अचानक समझ में आने वाली पुनर्संरचना के रूप में देखा जाता है, जहाँ व्यक्ति परिस्थिति के विभिन्न तत्वों के संबंधों को नए ढंग से देख लेता है। समस्याओं का समाधान केवल trial and error से नहीं, बल्कि स्थिति का संज्ञानात्मक विश्लेषण, तुलना, संबंध‑स्थापन और वैकल्पिक रास्ते खोजने से होता है।​
  • आंतरिक प्रेरणा और अर्थपूर्णता (Intrinsic Motivation and Meaningfulness): सिद्धान्त यह मानता है कि जब अधिगम सामग्री विद्यार्थी के लिए अर्थपूर्ण, उपयोगी और उसके जीवन‑क्षेत्र से जुड़ी हो, तब आंतरिक प्रेरणा (intrinsic motivation) बढ़ती है। पुरस्कार‑दंड की बाहरी व्यवस्था की अपेक्षा जिज्ञासा, आत्म‑सिद्धि, लक्ष्य‑पूर्ति आदि आंतरिक कारक अधिगम को अधिक स्थायी बनाते हैं।​
  • व्यक्तिगत भिन्नताओं की स्वीकृति (Acceptance of Individual Differences): हर व्यक्ति का जीवन‑क्षेत्र, पूर्व ज्ञान, अनुभव और संज्ञानात्मक शैली अलग होती है; इसलिए समान स्थिति भी अलग‑अलग विद्यार्थियों के लिए भिन्न अर्थ रख सकती है। शिक्षण‑अधिगम योजना बनाते समय विद्यार्थियों की व्यक्तिगत संज्ञानात्मक संरचना और पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक माना जाता है।​


ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त की शिक्षा में प्रमुख उपयोगिता (Utility of Cognitive Field theory in Education)


  • व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर शिक्षण (Teaching Based on Individual Differences): हर विद्यार्थी का जीवन‑क्षेत्र, पूर्व अनुभव, लक्ष्य और बाधाएँ अलग होती हैं; इसलिए शिक्षक को अधिगम सामग्री, गति और सहायता को व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार समायोजित करना चाहिए। इससे धीमे, तेज, शहरी, ग्रामीण, पहली‑पीढ़ी के सीखने वालों आदि सभी के लिए अनुकूल संज्ञानात्मक वातावरण बन पाता है ।​
  • लक्ष्य‑निर्देशित और स्पष्ट उद्देश्य (Goal-Directed and Clear Objectives): सिद्धान्त सुझाव देता है कि शिक्षण से पहले विद्यार्थियों के लिए लक्ष्य और उद्देश्यों को स्पष्ट किया जाए, ताकि उनके जीवन‑क्षेत्र में सकारात्मक कर्षण (valence) और लक्ष्य‑की ओर वेक्टर उत्पन्न हों। स्पष्ट, यथार्थवादी और विद्यार्थियों के अनुभव से जुड़े लक्ष्य उन्हें अधिगम के प्रति अधिक प्रेरित और संलग्न बनाते हैं ।​
  • समस्या‑समाधान व अंतर्दृष्टि पर बल (Emphasis on Problem-Solving and Insight): शिक्षक को ऐसे अधिगम‑अनुभव देना चाहिए जो विद्यार्थियों को स्थिति का विश्लेषण करने, सम्बन्ध खोजने और “अहा‑अनुभव” (insight) के साथ समाधान तक पहुँचने का अवसर दें, न कि केवल रटने को प्रोत्साहित करें। Project work, case studies, inquiry-based learning, experiments, and discovery-based learning  इस सिद्धान्त के अनुकूल हैं ।​
  • अधिगम‑पर्यावरण का नियोजन और संगठन (Planning and Organization of the Learning Environment): कक्षा का भौतिक, सामाजिक और भावनात्मक वातावरण इस तरह तैयार किया जाए कि अनावश्यक बाधाएँ (भय, अपमान, अत्यधिक प्रतिस्पर्धा) कम हों और सहयोग, सुरक्षा तथा खुलापन बढ़े। बैठने‑व्यवस्था, समूह कार्य, संवादात्मक वातावरण और सहायक फीडबैक, जीवन‑क्षेत्र को सीखने के लिए अनुकूल बनाते हैं ।​
  • प्रेरणा और अर्थपूर्ण अधिगम (Motivation and Meaningful Learning): शिक्षक को सीखने की सामग्री को विद्यार्थियों के वास्तविक जीवन, लक्ष्य और रुचियों से जोड़ना चाहिए, ताकि उनके लिए उसका कर्षण सकारात्मक हो और वे आंतरिक रूप से प्रेरित रहें। केवल परीक्षा केन्द्रित रटने के बजाय, अवधारणाओं की अर्थपूर्ण समझ, अनुप्रयोग और अनुभव से जोड़ना अधिक स्थायी अधिगम उत्पन्न करता है​
  • गतिशील मूल्यांकन और फीडबैक (Dynamic Assessment and Feedback): यह सिद्धान्त “डायनेमिक” या निरंतर मूल्यांकन का समर्थन करता है, जिसमें विद्यार्थी की संज्ञानात्मक संरचना को समझते हुए समय‑समय पर फीडबैक देकर उसके मार्ग में मौजूद बाधाओं की पहचान और निवारण किया जाता है। केवल अंतिम लिखित परीक्षा की जगह, प्रगति‑परीक्षा, मौखिक प्रश्न, प्रैक्टिकल कार्य, रिफ्लेक्टिव जर्नल आदि से अधिगम‑प्रक्रिया का सतत अवलोकन किया जा सकता है ।​
  • सामूहिक और सहयोगात्मक अधिगम (Group and Collaborative Learning): जीवन‑क्षेत्र में सहपाठी, समूह और सामाजिक संबंध (Peers, groups, and social relationships) भी महत्वपूर्ण तत्व हैं, इसलिए समूह‑चर्चा, सहयोगी अधिगम (collaborative learning) और सहपाठी‑शिक्षण (peer teaching) जैसे तरीकों का उपयोग उपयोगी है। इससे विद्यार्थियों को विभिन्न दृष्टिकोण मिलते हैं, संज्ञानात्मक संरचना समृद्ध होती है और सामाजिक‑भावनात्मक कौशल भी विकसित होते हैं ।




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