Monday, May 3, 2021

अभिप्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Motivation)

अभिप्रेरणा  (Motivation)

अर्थ (Meaning)-

 अभिप्रेरणा या प्रेरणा (Motivation) का  शाब्दिक अर्थ उत्तेजना/उद्दीपक (Stimulus) से लिया जाता है । उत्तेजना (Stimulus) किसी व्यक्ति को कार्य करने अथवा प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित (Inspire) करती है। यह उत्तेजना आन्तरिक(Internal) अथवा बाह्य (External) किसी भी प्रकार की हो सकती है ।
Motivation शब्द लैटिन भाषा के Motum या Movere शब्द से बना हैं जिसका अर्थ है Motion, Motor, To move  अर्थात् गति करना। अतः हम कह सकते हैं कि अभिप्रेरणा किसी कार्य को करने के  लिए गति प्रदान करती है।

मनोवैज्ञानिक अर्थ  में अभिप्रेरणा (Motivation) से हमारा अभिप्राय केवल आंतरिक उत्तेजनाओं (Internal Stimuli) से है जिन पर हमारा व्यवहार आधारित होता है । इसमें बाह्य  उत्तेजनाओं (External Stimuli) को महत्व नहीं दिया जाता है 

अभिप्रेरणा (Motivation) एक ऐसा प्रेरक (Drive) है या आंतरिक बल (Internal Force) है जो व्यक्ति को लक्ष्य की ओर  या निश्चित व्यवहार करने के लिए अग्रसर करता है 

परिभाषायें  (Definitions)

1. गुड के अनुसार  (According to Good) -अभिप्रेरणा किसी कार्य को प्रारम्भ करने, जारी रखने तथा सही दिशा में लगाने की प्रक्रिया है। (Motivation is the process of arousing, sustaining and regulating an activity.)

2. वुडवर्थ  के अनुसार (According to Woodworth) - "प्रेरक व्यक्ति की वह स्थिति है जो उसे निर्धारित व्यवहार करने हेतु तथा निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु उत्तेजित करती है।" ("A motive is a state of the individual which disposes him for main behaviour and for seeking certain goals.")
उपलब्धि (Achievement) =  योग्यता (Ability) + अभिप्रेरणा (Motivation) अर्थात योग्यता एवं अभिप्रेरणा से उपलब्धि प्राप्त होती है 

3. बर्नार्ड के अनुसार  (According to Bernard)–“जिस लक्ष्य के प्रति पहले कोई आकर्षण नहीं था, उस लक्ष्य के प्रति कार्य की उत्तेजना ही अभिप्रेरणा है।” ("Motivation is the stimulation of action toward a particular objective where previously there was little or no attraction toward that goal.")

4जॉनसन के अनुसार  (According to Johnson)–“अभिप्रेरणा सामान्य क्रियाओं का प्रभाव है, जो प्राणी व्यवहार की ओर इंगित करता है तथा उसका पथ-प्रदर्शन करता है। " ("Motivation is the influence of general pattern of activities in indicating and directing the behaviour of the organism.")

5.  लावेल के अनुसार  (According to Lawell) - “ अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक या आन्तरिक प्रेरणा है जो किसी आवश्यकता की  उपस्थिति में उत्पन्न होती है। यह ऐसी क्रिया की ओर गतिशील होती है जो उस आवश्यकता को संतुष्ट करेगी।" ("Motivation may be defined more formally as a psychological or internal process initiated for some need which leads to any activity which will satisfy that need.")

6.  ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार (According to Blair, Jones and Simpson)-  “प्रेरणा एक प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले की आन्तरिक शक्तियाँ या आवश्यकतायें उसके वातावरण में विभिन्न लक्ष्यों की ओर निर्देशित होती हैं।" ("Motivation is a process in which the learner energies or needs are directed towards various good objects in his environment.") 

7.  बी० एफ  स्किनर  के अनुसार  (According to B.F. Skinner) - अभिप्रेरणा  अधिगम का सर्वोत्तम राजमार्ग है । (Motivation is the best highway of learning.)

अभिप्रेरणा की प्रकृति
(Nature of Motivation) 


  1. अभिप्रेरणा प्रक्रिया (Process) एवं परिणाम (Product) दोनों हैं। 
  2. अभिप्रेरणा का जन्म किसी-न-किसी आवश्यकता (Need) से होता है।
  3. अभिप्रेरणा एक प्रबल भावात्मक (Strongly Emotional)  उत्तेजना की स्थिति होती है जिसके कारण व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक तनाव (Psychological Tension) उत्पन्न होता है जिसे कम करने के लिए वह क्रियाशील होता है।
  4. अभिप्रेरणा व्यक्ति को तब तक क्रियाशील रखती है जब तक कि उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो जाती है। 
  5. अभिप्रेरणा व्यक्ति को रुचि के अभाव में भी क्रियाशील रखती है। जैसे -  यदि कोई छात्र इंजीनियर बनने के लिए अभिप्रेरित हो और उसकी गणित में रुचि न हो तो वह उस स्थिति में भी गणित की समस्याओं को हल करने में क्रियाशील रहेगा ।
  6. अभिप्रेरणा को उत्पन्न करने वाले कारकों को मनोवैज्ञानिक भाषा में अभिप्रेरक (Motives) कहते हैं ।
  7. अभिप्रेरणा के माध्यम से ही व्यक्ति का व्यवहार संचालित होता है ।

अभिप्रेरणा के प्रकार(Types of Motivation)


अभिप्रेरणा मुख्यतः दो प्रकार की होती है-

1. सकारात्मक अभिप्रेरणा (Positive Motivation)- इस अभिप्रेरणा को आन्तरिक अभिप्रेरणा (Internal Motivation) भी कहते हैं। इसमें बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से करता है। इस कार्य को करने में उसे सुख और संतोष प्राप्त होता है शिक्षक विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन और स्थितियों का निर्माण करक बालक को सकारात्मक अभिप्रेरणा प्रदान करता है।

2. नकारात्मक अभिप्रेरणा (Negative Motivation)-  अभिप्रेरणा को बाह्य  अभिप्रेरणा (External Motivation) भी कहते हैं। इसमें बालक किसी कार्य को  अपनी स्वयं की इच्छा से  न करके किसी दूसरे की इच्छा या बाह्य प्रभाव (External Effect) के कारण करता है इस कार्य को करने से उसे किसी वांछनीय या निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति होती है। शिक्षक द्वारा  प्रशंसा,  निंदा, पुरस्कार आदि का प्रयोग करके बालक को नकारात्मक आभिप्रेरणा प्रदान करतेे हैं ।

Sunday, May 2, 2021

सीखने के स्थानांतरण के सिद्धांत और शैक्षिक महत्व (Theories and Educational Importance of Transfer of learning)

 सीखने के स्थानांतरण के सिद्धांत 

(Theories of Transfer of learning) 

मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के स्थानांतरण के सम्बन्ध में कुछ तथ्यों की खोज की है , इन्ही के सामान्यीकरण (Generalization) से प्राप्त निष्कर्षों (Findings) को स्थानांतरण के सिद्धांत कहते हैं ।


1. मानसिक अनुशासन अथवा मानसिक शक्तियों का सिद्धान्त (Theory of Mental Discipline or Mental Faculties)-


अधिगम के स्थानान्तरण (Transfer of Learning) का यह सबसे पुराना सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार हमारा मस्तिष्क  अनेक मानसिक शक्तियों के संयोग से बना है।  जैसे - तर्क (Logic) , ध्यान (Attention) , स्मृति (Memory) , कल्पना(Imagination) आदि।  इन शक्तियों को अभ्यास (exercise) के द्वारा मांसपेशियों की भाँति सशक्त बनाया जा सकता है। विभिन्न मानसिक शक्तियों (faculties) को प्रबल (Strong), नियमित (Regular) एवं सुगठित(Compact) बनाने को मनोवैज्ञानिकों ने “Doctrine of the Formal Discipline” का नाम दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की मानसिक योग्यताओं/ शक्तियों को औपचारिक (Formal) ढंग से प्रशिक्षित (Trained) तथा अनुशासित (Disciplined) कर दिया जाये तो वह उनको किसी भी क्षेत्र में प्रयोग कर सकता है। 

वर्तमान में इस सिद्धान्त को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता है क्योंकि विलियम जेम्स (William James), थॉर्नडाइक (Thorndike) तथा बिजमैन (Wesman) आदि मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया कि एक क्षेत्र में मानसिक शक्तियों के विकास किये जाने का प्रभाव दूसरे क्षेत्र में किये गये निष्पादन (Performance) में बहुत कम पाया गया अथवा बिल्कुल भी नहीं पाया गया।

2. समान तत्त्वों का सिद्धान्त (Theory of Identical Elements)-


इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक थॉर्नडाइक (Thorndike) ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब दो विषयों (Subjects) अथवा कौशलों (Skills) में कुछ समान तत्व (Element) होते हैं तो उनमें स्थानान्तरण की सम्भावना होती है; जिन विषयों अथवा कौशलों में ये समान तत्व  जितने अधिक होते हैं उनमें स्थानान्तरण की सम्भावना भी उतनी ही अधिक होती है। 
उदाहरण- संस्कृत और हिन्दी भाषा में समान तत्व  हैं इसलिए इनमें सीखने का स्थानान्तरण होता है लेकिन लैटिन और हिन्दी भाषा में समान तत्व नहीं हैं इसलिए इनमें सीखने का स्थानान्तरण नहीं होता । 
यदि इस सिद्धान्त की बारीकी से परख की जाए तो स्पष्ट होगा कि इसमें समान तत्वों का सम्प्रत्यय (Concept) ही अधूरा है, इसलिए यह सिद्धान्त भी अपने में सही होते हुए भी पूर्ण नहीं है।

3. सामान्यीकरण का सिद्धान्त (Theory of Generalization)-

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक सी० एच ० जुड (C.H. Judd) ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी एक परिस्थिति में जो कुछ भी ज्ञान अथवा कौशल सीखा जाता है, उसका सामान्यीकृत अंश ही किसी अन्य परिस्थिति में सीखे जाने वाले ज्ञान एवं कौशल के सीखने में सहायक होता है। 
उदाहरण- गणित की समस्याओं को हल करने का समस्त ज्ञान एवं कौशल ज्योतिषशास्त्र (Astrology) के क्षेत्र की गणना सीखने में सहायक नहीं होता, केवल जोड़, घटाना , गुणा, भाग और एकिक नियम का सामान्यीकृत रूप अर्थात् सूत्र ही सहायक होते हैं।

इस सिद्धान्त को “Transfer by Mastering Principles” के नाम से भी जाना जाता है जिसके अनुसार उस ज्ञान का ही व्यक्ति एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरण कर सकता है जिस पर उसने पूर्ण स्वामित्व (Mastery) प्राप्त कर लिया है। 

4. मूल्यों तथा आदर्शों का सिद्धान्त (Theory of Values and Ideals) 

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक डब्ल्यू सी० वागले (W. C. Bagley) हैं। इनके अनुसार सामान्यीकरण के द्वारा स्थानान्तरण को प्रक्रिया मूल्यों तथा आदर्शों पर आधारित है। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन के किसी क्षेत्र में ईमानदारी अथवा कर्त्तव्यनिष्ठा  (Sincerity) जैसे मूल्यों को अपनाता है तो वह अपने जीवन में अन्य क्षेत्रों में भी इन मूल्यों का पालन करता है। इसी प्रकार लापरवाह व्यक्ति हर क्षेत्र में लापरवाही दिखाता है। जो व्यक्ति समय का पाबन्द/नियमित (regular) होता है वह हर जगह निर्धारित समय से पहले ही पहुँचने का प्रयास करता है भले ही अन्य लोग वहाँ देर (late) पहुँचें। अतः बालकों में बचपन से ही ऐसे मूल्यों आदर्शों को विकसित करना चाहिये जो उसके तथा समाज के लिए उपयोगी हों। आज देश में राष्ट्रभक्त, ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ठ तथा परिश्रमी नागरिकों की आवश्यकता है जो इस भ्रष्ट तन्त्र का सफाया करने में सक्षम हो ।

5. सामान्य व विशिष्ट तत्वों का सिद्धान्त (Theory of ‘General’ & ‘Specific’ Factors) -                                   

इस सिद्धान्त का प्रतिपादक स्पीयरमैन (Spearman) है। उसके अनुसार, मनुष्य में दो प्रकार की बुद्धि होती है- सामान्य (General) और विशिष्ट (Specific)। जिनका सम्बन्ध सामान्य योग्यता और विशिष्ट योग्यता से होता है। स्थानान्तरण केवल सामान्य योग्यता का होता है, 
उदाहरण- यदि बालक - भूगोल, गणित, विज्ञान आदि किसी विषय का अध्ययन करता है, तो वह केवल अपनी सामान्य योग्यता का ही स्थानान्तरण करता है। 
भाटिया के अनुसार-“विशिष्ट योग्यताओं का स्थानान्तरण नहीं होता है, पर सामान्य योग्यता का कुछ होता है। "
("There is no transfer in special abilities but there is some in general ability.")

6. पूर्णकारवाद सिद्धांत (Gestalt Theory)-

स्थानांतरण के विषय में गेस्टाल्ट  मनोवैज्ञानिकों ने ज्ञान अथवा क्रिया को महत्व दिया है। बालक का अनुभव एक इकाई होता है। वह किसी क्षेत्र से सम्बंधित वस्तुओ का निरीक्षण (Inspection), परीक्षण (Testing) एवं प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करके सीखता है। ये मनोवैज्ञानिक सूझ को बहुत अधिक महत्व देते  हैं । इनके अनुसार सूझ (Sense) द्वारा अनुभव एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थान्तरण हो जाते हैं । कोहलर ने इस सम्बन्ध में मुर्गियों, चिम्पैजी तथा बालको पर अनेक प्रयोग करके अपने इस विचार की पुष्टि की ।

       सीखने के स्थानांतरण का  शैक्षिक महत्व और शिक्षकों की भूमिका              (Educational Importance of Transfer of Learning and Role of the Teachers)


आज शिक्षा में शिक्षण के स्थानान्तरण का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षक को  इस बात का प्रयत्न करना चाहिये कि बालकों को शिक्षा इस प्रकार से प्रदान की जाये कि एक क्रिया द्वारा प्राप्त ज्ञान का उपयोग दूसरी कियाओं में भी भली-भांति कर सकें। इसके लिये शिक्षक को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये 
  1. शिक्षक को किसी भी विषय को पढ़ाते समय उस विषय के उन अर्थों (Meanings)  पर विशेष बल देना चाहिये जिनका उपयोग दूसरे क्षेत्रों में किया जा सकता है। 
  2. शिक्षक को न केवल विषय के किसी अंश पर अधिक बल देना चाहिये बल्कि उस अंश का किस प्रकार दूसरे क्षेत्रों में व्यवहार किया जायेगा, इसका अभ्यास भी बालकों को कराना चाहिये।
  3. जब बालक किसी विषय को अच्छी तरह से सीख जाता है तभी  उसका स्थानान्तरण (Transfer) अच्छे  प्रकार से कर पाता है। इसीलिये शिक्षक को चाहिये कि विषय को सिखाते समय उसका पूरा अभ्यास भी कराये और उसको ठीक प्रकार से समझने की क्षमता (Ability) बालकों में विकसित करे।
  4. कोई शिक्षण जितना अर्थपूर्ण और जीवन के नजदीक होता है, उसका स्थानान्तरण उतने  ही आसानी से होता है। इसलिये शिक्षक को चाहिये कि वह विषय को अधिक से अधिक सार्थक बनाने का प्रयास करें।
  5.  शिक्षण के समय शिक्षक को बालकों के बौद्धिक स्तर का पूरा ध्यान रखना चाहिये। यदि बालक कम बुद्धि वाले हैं तो उसे उसी के अनुकूल समय और सुविधायें देते हुये विषय को पढ़ाना चाहिये। तीव्र बुद्धि के बालकों पर स्थानान्तरण की दृष्टि से विशेष ध्यान देना चाहिये क्योंकि ऐसे बालक अपने अनुभव और योग्यता का उपयोग सरलतापूर्वक किसी भी परिस्थिति में करने में समर्थ होते  हैं। इस प्रकार तीव्र बुद्धि, मन्द बुद्धि और सामान्य बुद्धि के बालकों को उनके स्तर के  अनुसार शिक्षण दिया जाना चाहिये। 
  6. पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि पाठ्यक्रम  निरर्थक (Meaningless) अरुचिपूर्ण और अनुपयोगी (Unusable) न हो। पाठ्यक्रम पूर्ण  सार्थक और लचीला होना चाहिये।
  7. शिक्षण विधि (Teaching Method) पर स्थानान्तरण बहुत कुछ निर्भर करता है। अतः शिक्षक को  चाहिये वह बालकों की रुचि (Interest), समझ  और आवश्यकताओं को ध्यान रखते हुए मनोवैज्ञानिक और रोचक (Attractive) शिक्षण विधियों का प्रयोग करके शिक्षण प्रदान करें ।
  8.  शिक्षक को शिक्षण में सामान्यीकरण के सिद्धान्त का प्रयोग करना चाहिये। ऐसा करने से स्थानान्तरण की सम्भावना अधिक रहती है।
  9. शिक्षक को स्वयं उस विषय का पूर्ण और स्पष्ट ज्ञान होना चाहिये, जिस विषय को वह बालकों को पढ़ा रहा है। उसे इस बात का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये कि किन विषयों में उसे स्थानान्तरण का ज्ञान देना है।
  10. शिक्षक को चाहिये कि वह बालकों को विषय की महत्ता (Importance of the subject) और उपयोगिता बताते हुये प्राप्त ज्ञान का उपयोग सामान्य जीवन में करने के लिये उत्साहित करे। ऐसा करने से वे अपनी अन्तर्निहित योग्यता का विकास कर सकेंगे और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकेंगे। बालक प्राप्त ज्ञान का उपयोग अपने दैनिक जीवन में करें तभी शिक्षण का वास्तविक स्थानान्तरण होगा, इसके लिये शिक्षक को क्रिया द्वारा सीखने (Learning by doing), योजना विधि (Project Method) आदि उपयोगी विधियों को अपनाना चाहिये। 
  11. पढ़ाते समय शिक्षक को दृश्य-श्रव्य साधनों (Audio-Visual Aids) का प्रयोग करना चाहिये जिससे पाठ्यवस्तु रोचक व प्रभावपूर्ण बन सके ।
  12. शिक्षक को यथासम्भव नकारात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer of Training) का अवसर नहीं देना चाहिये।
  13. शिक्षक द्वारा बालकों को अपने पूर्व में सीखे ज्ञान एवं कौशलों के प्रयोग के स्वतंत्र अवसर (free opportunity) प्रदान करना चाहिए ।

Thursday, April 29, 2021

सीखने का स्थानान्तरण (Transfer of Learning)

 

सीखने का स्थानान्तरण (Transfer of Learning)

अर्थ (Meaning)

स्थानांतरण (Transfer) का सामान्य अर्थ है - किसी वस्तु (Content)  अथवा व्यक्ति को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर रखना ।
सीखने का स्थानांतरण का अर्थ है -  किसी एक क्षेत्र में सीखे हुए ज्ञान (Knowledge) एवं कौशल (Skill) का किसी दूसरे क्षेत्र के ज्ञान (Knowledge)अथवा कौशल(Skill)  के सीखने में प्रयोग होना। 
उदहारण - 1.यदि किसी व्यक्ति ने साइकिल  चलानी  सीख रखी  है तो इस ज्ञान से वह मोटर साइकिल चलाना  भी आसानी से सीख जायेगा, 
2. गणित का ज्ञान दैनिक जीवन से सम्बंधित समस्याओं को हल करने में सहायक होता है ।
इसमें किसी कौशल (Skill) के प्रशिक्षण (Training) का, किसी अन्य कौशल विशेष के प्रशिक्षण में पड़ने वाला प्रभाव भी सम्मिलित होता है क्योंकि ज्ञानार्जन और कौशल प्रशिक्षण, दोनों सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत ही आते हैं। 

परिभाषायें (Definitions) 

1. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow)  के अनुसार -    सामान्यतः सीखने के एक क्षेत्र में विकसित होने वाले ज्ञान एवं कौशलों का और सोचने, अनुभव करने या कार्य करने की आदतों का सीखने के किसी दूसरे क्षेत्र में प्रयोग करना प्रशिक्षण का स्थानान्तरण कहा जाता है। ("The carry over of habits of thinking, feeling or working of knowledge, or skill from one learning area to another, is usually referred to as the transfer of training.")

2. अन्डरवुड (B. J. Underwood) के अनुसार -   "अधिगम स्थानान्तरण का अर्थ वर्तमान क्रिया पर पूर्व अनुभवों का प्रभाव होता है।" ("The influence of previous experience on current performance defines transfer of Learning.')
3. कोलसनिक (Kolesnik) के अनुसार -"अधिगम स्थानान्तरण पहली परिस्थिति से प्राप्त ज्ञान, कौशल, आदत, अभियोग्यता का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग करना है।" ("Transfer is the application of carryover of knowledge, skills, habits, attitudes or other responses from one situation in which they are initially acquired to some other situation.")

4. सोरेन्सन (Sorenson) के अनुसार - “स्थानान्तरण एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, प्रशिक्षण एवं आदतों का दूसरी परिस्थिति में  स्थानान्तरण होना है। " ("Transfer refers to the transfer of knowledge, training and habits acquired in one situation to another.")

5. ई0आर0 हिलगार्ड के अनुसार -  अधिगम स्थानान्तरण में एक क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर पड़ता है।


सीखने के स्थानान्तरण प्रकार (Types of Transfer of Learning)


 1. धनात्मक स्थानान्तरण (Positive Transfer)   जब किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान (Knowledge) अथवा कौशल (Skill) किसी दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान (Knowledge) अथवा कौशल (Skill) के सीखने में सहायक होता है तो इसे धनात्मक स्थानान्तरण कहते हैं; 
जैसे—गणित के ज्ञान का भौतिक विज्ञान  की संख्यात्मक समस्याओं के हल करने में सहायक होना और कार चलाने के कौशल का जीप अथवा ट्रक चलाने के कौशल को सीखने में सहायक होना। 
शिक्षा के क्षेत्र में इस धनात्मक स्थानान्तरण का ही महत्त्व होता है। शिक्षा के क्षेत्र में जब हम सीखने के स्थानान्तरण की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य इसी धनात्मक स्थानान्तरण से होता है।

2. ऋणात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer)– जब किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान (Knowledge) अथवा कौशल (Skill) किसी दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल  सीखने में बाधा  उत्पन्न करता   है तो इसे ऋणात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer) कहते हैं 
जैसे- विज्ञान के ज्ञान और उसमें निहित कारण कार्य सम्बन्ध का धर्म एवं दर्शन के अध्ययन में बाधक होना। शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार के स्थानान्तरण का कोई महत्त्व नहीं होता इसलिए इस पर कोई विचार नहीं किया जाता। 
3. क्षैतिज स्थानान्तरण (Horizontal Transfer)-  जब किसी एक ही स्तर की कक्षा में किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान अथवा कौशल उसी कक्षा के किसी दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल के सीखने में सहायक होता है तो इसे क्षैतिज स्थानान्तरण कहते हैं; 
जैसे - कक्षा 10 के सीखे हुए गणित के ज्ञान एवं कौशल का उसी कक्षा के विज्ञान की संख्यात्मक समस्याओं के हल करने में सहायक होना।

4. ऊर्ध्व स्थानान्तरण (Vertical Transfer)-  जब किसी पूर्व कक्षा में किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान अथवा कौशल उससे आगे की कक्षा में किसी क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल के सीखने में सहायक होता है तो इसे ऊर्ध्व स्थानान्तरण कहते हैं; 
जैसे—कक्षा 10 में सीखे जाने वाले गणित के ज्ञान एवं कौशल का कक्षा 11 में सीखे जाने वाले गणित के ज्ञान एवं कौशल के सीखने में सहायक होना। 

5. शून्य स्थानान्तरण (Zero Transfer) – जब एक कार्य का प्रशिक्षण दूसरे कार्य को सीखने न तो सहायता ही करता है और न ही बाधा उत्पन्न करता है तो इस प्रकार के प्रशिक्षण को शून्य स्थानान्तरण  कहते हैं। इस शून्य अतंरण का एक कारण यह हो सकता है कि पहले कार्य की प्रकृति का दूसरे कार्य की प्रकृति से कोई सम्बन्ध ही न हो। 
जैसे- भूगोल (Geography)  का ज्ञान भौतिक शास्त्र (Physics) की समस्या को नहीं सुलझा सकता।


6. एक पक्षीय स्थानान्तरण (Uni-Lateral Transfer)-  जब शरीर के किसी एक अंग द्वारा सीखा हुआ कोई कौशल उसी अंग द्वारा किसी दूसरे कौशल को सीखने में सहायक होता है तो इसे एक पक्षीय स्थानान्तरण कहते हैं।
जैसे—बाएँ हाथ  (Left Hand) से कपड़ा सीने के कौशल का बाएँ हाथ (Left Hand) से लिखना सीखने में सहायक होना अथवा क्रिकेट में बायें हाथ से गेंदबाजी तथा बेटिंग करना।

7. द्विपक्षीय स्थानान्तरण (Bi-Lateral Transfer) -   जब शरीर के किसी एक अंग द्वारा सीखा हुआ कोई कौशल शरीर के दूसरे अंग द्वारा उसी कौशल को या अन्य किसी कौशल को सीखने में सहायक होता है तो इसे द्विपक्षीय स्थानान्तरण कहते हैं।
जैसे— दाएँ हाथ (Right Hand) से लिखने के कौशल का बाएँ हाथ (Left Hand) से लिखना अथवा तलवार चलाना सीखने में सहायक होना ।




सीखने में स्थानान्तरण की दशाएँ 

(Conditions of Transfer of Learning)


एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान (Knowledge) एवं कौशल (Skill) दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान एवं कौशल के सीखने में तभी सहायक होता है. जब उसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हों। उसके लिए जितनी अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं, सीखने का स्थानान्तरण उतना ही अधिक होता है। अधिगम को स्थानान्तरित करने की कुछ मुख्य दशाओं का विवरण  निम्नलिखित  है-

1. सीखने वाले की सामान्य बुद्धि (Learner's General Intelligence)- सीखने वालों की सामान्य बुद्धि (General Intelligence) अधिक होनी चाहिये। सीखने वालों में यह सामान्य बुद्धि जितनी अधिक होती है उनमें उतनी ही अधिक सामान्य योग्यता (General Ability) का विकास होता है और इस प्रकार उतना ही अधिक सीखने का स्थानान्तरण होता है। गैरट (Garrett) ने एक अध्ययन में पाया कि उच्च सामान्य बुद्धि वाले छात्रों में निम्न सामान्य बुद्धि वाले छात्रों की अपेक्षा स्थानान्तरण करने की योग्यता 20 गुना होती है।

2. सीखने वाले की इच्छा (Learner's will) – स्थानान्तरण सीखने वाले  की इच्छा पर निर्भर करता है सीखने वाला सीखने के स्थानान्तरण के लिए अभिप्रेरित (Motivated) हों, उनमें ज्ञान को स्थानान्तरित करने प्रति इच्छा (Will) हो। जब तक सीखने वाले अपने पूर्व ज्ञान का प्रयोग करने के लिए तैयार नहीं होते, उन्हें इसके लिए विवश नहीं किया जा सकता। 

3. सीखने वाले की अभिवृत्ति (Attitude of the Learner) — सीखने वालों में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के प्रयोग करने की अभिवृत्ति (Attitude) हो। यह देखा गया है कि सीखने वालों में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के प्रयोग की जितनी तीव्र अभिवृति होती है वे सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का उतना ही अधिक प्रयोग नए ज्ञान एवं कौशल के सीखने में करते हैं।

4. सीखने वाले की सामान्यीकरण की योग्यता (Learner's Ability to Generalization) - सीखने वालों में सामान्यीकरण (Generalization) करने की योग्यता होनी चाहिये। सीखने वाले में अपने कार्यों एवं अनुभवों के जितने अधिक सामान्य सिद्धांत निकालने की योग्यता होती है   वे सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का उतना ही अधिक सामान्यीकरण करने में सफल होते हैं, सीखने में इसी सामान्यीकृत ज्ञान एवं कौशल का स्थानान्तरण होता है।

5. सीखने वाले का कौशल पर पूर्ण अधिकार (Learner's Mastery on the Skill)-  सीखने वालों को पूर्व में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल पर पूर्ण अधिकार (Mastery) होना चाहिये। सीखने वालों को अपने पूर्व में सीखे ज्ञान एवं कौशल पर जितना अधिक अधिकार होता है वे पूर्व में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का नए ज्ञान एवं कौशल के सीखने में उतना ही अधिक प्रयोग करते हैं।

6. सीखने वालों के आदर्श तथा मूल्य (Learner's Ideals and Values)-  सीखने वालों में आदर्श (Ideals) एवं मूल्यों (Values) का समुचित विकास होना चाहिये। आदर्श और मूल्य ही व्यक्ति के व्यवहार को स्थायी रूप प्रदान करते हैं। यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी के मूल्य को जीवन में स्थायी रूप से ग्रहण कर लेता है तो वह प्रत्येक क्षेत्र में ईमानदारी से कार्य करेगा।

7. शिक्षण-अधिगम की विधियों में समानता (Similarity in Teaching Learning Methods) - यदि दो विषयों के शिक्षण-अधिगम की विधियों में समानता होती है तो स्थानान्तरण की अधिक संभावना होती है। जैसे—नागरिकशास्त्र (Civics) तथा इतिहास (History) एक प्रकार से पढ़ाये जाते हैं अतः इनके ज्ञान का एक-दूसरे में स्थानान्तरण हो सकता है न कि भौतिक विज्ञान (Physics) की विषय सामग्री (Content) तथा तथ्यों का इतिहास में।

8. शिक्षक का सहयोग (Cooperation of Teacher)-  शिक्षक  शिक्षार्थियों को नए ज्ञान एवं कौशल के विकास में पहले से  सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के प्रयोग करने के  स्वतन्त्र अवसर दें। जितनी अधिक उन्हें स्वतन्त्रता होगी वे उतने ही  अधिक उत्साह से अपने सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का प्रयोग करेंगे। 

9. पाठ्यक्रम की प्रकृति (Nature of Curriculum)-  स्थानान्तरण के लिए शिक्षा के किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या (Curriculum) सीखने वालों की आयु (Age) परिपक्वता (Maturity), अभिक्षमता (Aptitude) एवं योग्यता (Ability) के अनुकूल हो, उसका जीवन से सम्बन्ध हो, वह सीखने वालों के लिए सार्थक (Meaningful) हो और उपयोगी (Useful) हो, उसमें सीखने वालों की रुचि (Interest) हो और उसके सभी विषयों एवं क्रियाओं में आपस में सम्बन्ध हो और उनका अपने पूर्व स्तर की पाठ्यचर्या से भी सम्बन्ध हो। जिस पाठ्यचर्या में ये तत्व  जितने अधिक होते हैं उसे पूरा करने में सीखने का स्थानान्तरण उतना ही अधिक होता है।

10. स्थानान्तरण का प्रशिक्षण (Training for Transfer) - प्रशिक्षण के द्वारा छात्रों की सीखने के स्थानान्तरण की क्षमता में बढ़ोतरी की जा सकती है। जैसे-  विज्ञान के नियमों तथा सिद्धान्तों को पढ़ाते समय छात्रों को उनके दैनिक जीवन में होने वाले उपयोग की भी क्रियात्मक जानकारी प्रदान की जाये तो वे विज्ञान के ज्ञान का अनेक जगह उपयोग कर सकते हैं। ऐसी शिक्षण अधिगम की विधियों का प्रयोग किया जाए जिनमें पूर्व में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के आधार पर नए ज्ञान एवं कौशल का विकास हो ताकि सीखने वाले अपनी समस्याओं का स्वयं समाधान करें।






Wednesday, April 28, 2021

स्किनर का क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त (Skinner's Operant Conditioning Theory)

 स्किनर का क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त 

(Skinner's Operant Conditioning Theory)


अमेरिकी मनोवैज्ञानिक स्किनर (B. F. Skinner) ने सीखने की प्रक्रिया के स्वरूप को समझने के लिए सर्वप्रथम अन्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए प्रयोगों के निष्कर्षों और सिद्धान्तों का अध्ययन किया और पावलोव के प्रत्यावर्तन (Reflex Action) और पुनर्बलन (Reinforcement) सम्प्रत्ययों को समझा। उसके बाद उन्होंने स्वतन्त्र रूप से प्रयोग किए। इस सन्दर्भ में उनके दो प्रयोगों का बड़ा महत्त्व है—एक चूहे पर किए गए प्रयोग का और दूसरा कबूतर पर किए गए प्रयोग का। 
यह सिद्धान्त पुनर्बलन पर विशेष बल देता है। इसलिये पुनर्बलन को जानना भी आवश्यक है। जब किसी प्राणी को किसी अनुक्रिया से सुखद परिणाम प्राप्त होते हैं तो उस अनुक्रिया को बार-बार करता है , इस बार-बार दोहराने की इच्छा  उत्पन्न होने को पुनर्बलन (Reinforcement) कहते हैं।
पुनर्बलन को मनोवैज्ञानिकों ने दो रूपों में विभाजित किया है-
1. धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement)-  धनात्मक पुनर्बलन में वे उद्दीपक (Stimulus) होते है जिनकी उपस्थिति में अनुक्रिया करने की शक्ति में बढ़ोतरी होती है। 
जैसे- भूखे व्यक्ति के लिए भोजन धनात्मक पुनर्बलन है।
2. ऋणात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement)- इसमे वे उद्दीपक होते हैं जिनकी अनुपस्थिति में अनुक्रिया शक्ति में बढ़ोतरी होती है। शोर, पीड़ा, दंड, अपमान आदि ऋणात्मक पुनर्बलन में आते हैं।
जैसे- किसी शिक्षक से डरने वाले बालक की अनुक्रियाओं में उस शिक्षक की अनुपस्थिति में वृद्धि होना।

इस सिद्धांत को सक्रिय अनुकूलन सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है। स्किनर के अनुसार अनुकूलन अधिगम की एक पद्धति है। उनके अधिगम संबंधी विचारों का प्रसार 1932 में हुआ था। उनकी दो पुस्तकें The Behaviour of Organism  तथा Beyond freedom of Dignity प्रसिद्ध है। व्यावहारवादियों की श्रेणी में स्किनर का नाम प्रमुख रूप से जाना जाता है। स्किनर ने दो प्रकार के व्यवहारों का वर्णन किया है- 
1. प्रकियात्मक व्यवहार (Respondent),   
2. सक्रिय व्यवहार (Operant Behaviour)

1. प्रकियात्मक व्यवहार (Respondent)- इस प्रकार का व्यवहार उद्दीपक के नियंत्रण में रहता है । जैसे- प्रकाश पड़ने पर आंखों का बन्द होना, हाथ पर पिन चुभने से हाथ का हट जाना।

2. सक्रिय व्यवहार (Operant Behaviour)- इस प्रकार का व्यवहार प्रकियात्मक व्यवहार से कुछ अलग होता है। यह व्यवहार उद्दीपक के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नही रहता है। इसमें व्यक्ति की स्वयं की इच्छा निहित  होती है। जैसे-  भोजन करना, हाथ पैर हिलाना।

क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धांत के अन्य नाम-

अनुक्रिया उद्दीपन सिद्धांत (Response Stimulation Theory), सक्रिय अनुबंधन सिद्धांत (Operant Conditioning Theory), नैमित्तिक अनुक्रिया का सिद्धांत (Theory of Instrumental response),  पुनर्बलन का सिद्धांत (Theory of Reinforcement), कार्यात्मक अनुबंधन का सिद्धांत (Theory of functional commitment). 


प्रयोग-1 : स्किनर का चूहे पर प्रयोग


स्किनर बॉक्स

स्किनर ने चूहे को बंद करने के लिए एक पिंजड़ा बनवाया। इस पिंजड़े में चूहे को अंदर करने के लिए एक दरवाजा लगाया गया था। जिसमे अंदर एक स्थान पर लीवर लगा हुआ था। इस लीवर को दबाने से भोजन की नली का रास्ता खुल जाता था और ऊपर रखा भोजन पिंजड़े में रखी प्लेट में गिर जाता था। इस पिंजड़े को स्किनर बॉक्स कहते है।  स्किनर ने इस बॉक्स में भूखे चूहे को अंदर कर दिया था उसने देखा कि चूहे ने अंदर जाते ही उछल कूद करना शुरू कर दिया। इस उछल कूद में उसका पंजा लीवर पर पड़ गया और भोजन उसकी प्लेट में आ गया। उसने भोजन प्राप्त किया और अपनी भूख मिटा ली।  इससे उसे बड़ा संतोष मिला । उसकी फिर से कुछ खाने की इच्छा हुई तो उसने फिर से उछल कूद करना शुरू कर दिया। इस उछल कूद में लीवर फिर से दब गया और उसने भोजन प्राप्त किया । 
स्किनर ने यह देखा कि भोजन मिलने से चूहे की क्रिया को पुनर्बलन (Reinforcement)  मिला। स्किनर ने चूहे पर यह प्रयोग कई बार दोहराया और देखा कि एक स्थिति ऐसी आयी कि भूखे चूहे ने पिंजड़े में पहुंचते ही लीवर दबाकर भोजन प्राप्त किया अथवा भोजन प्राप्त करना सीख लिया ।
अनुक्रिया (Response) → पुनर्बलन (Reinforcement)→ पुनरावृति (Repetition)  साधन अनुबंध (Instrumental Conditioning)

प्रयोग-2  :स्किनर का कबूतर पर प्रयोग

स्किनर ने यह प्रयोग एक कबूतर पर दोहराया।  उन्होंने इस प्रयोग के लिए एक विशेष प्रकार का बॉक्स बनवाया। इस बॉक्स में एक ऐसी ऊंचाई पर जहां कबूतर की चोंच जा सकती थी एक प्रकाशपूर्ण  की (Key) लगाई गई इस की (Key) के दबाने से कबूतर को खाने के लिए दाने मिल सकते थे साथ ही इसमें छह प्रकार की प्रकाश की ऐसी व्यवस्था की गई थी कि अलग -अलग  बटन दबाने से अलग-अलग प्रकाश होता था। इस बॉक्स को कबूतर बॉक्स (pigeon box) कहते हैं।

कबूतर बॉक्स (Pigeon Box)
कबूतर बॉक्स (Pigeon Box)


स्किनर ने इस बॉक्स में एक भूखे कबूतर को बंद कर दिया। इसके बाद की (Key) में सबसे हल्के रंग का प्रकाश पहुँचाया गया। इसकी चमक से कबूतर उसकी ओर आकर्षित हुआ और उसने इसके इधर उधर चोंच मारना शुरू कर दिया। एक बार उसकी चोंच प्रकशित की (Key)  के ऊपर लग गयी, उसके दबते ही उसे खाने के लिए दाने मिल गए। उस कबूतर पर यह प्रयोग 6 प्रकार के प्रकाश पर किया गया। स्किनर ने देखा कि प्रकाश में परिवर्तन करने से कबूतर की अनुक्रिया में थोड़ा परिवर्तन हुआ परन्तु भोजन मिलने से उसके सही जगह चोंच मारने की क्रिया को पुनर्बलन बराबर मिला और एक स्थिति ऐसी आयी जब भी इस कबूतर को भूखा रखने के बाद इस बॉक्स में बंद किया गया तो वह उस की (Key) को दबाकर भोजन प्राप्त करने लगा। दूसरे शब्दों में उसने की (Key) दबाकर भोजन प्राप्त करना सीख लिया।




स्किनर के प्रयोगों के निष्कर्ष-

 1. क्रिया करने के लिए किसी उद्दीपक (Stimulus) का होना जरूरी नहीं होता जैसा कि थॉर्नडाइक एवं पावलोव ने समझा था। क्रिया प्राणी की जैविक रचना (Organism) का एक अंग है, जब उसे कोई जैविक अथवा पर्यावरणीय आवश्यकता  (जिसे मनोवैज्ञानिक भाषा में प्रेरक (Drive) एवं अभिप्रेरक (Motive) कहते हैं) होती है, तो  वह स्वतः क्रियाशील हो जाता है; जैसे कि कबूतर ने बॉक्स के अन्दर प्रवेश करते ही भूख (Drive) के कारण क्रिया करनी शुरू कर दी थी।

2. क्रिया के परिणामस्वरूप प्राप्त सफलता से सीखने वाले को पुनर्बलन (Reinforcement) मिलता है; जैसा कि कबूतर को भोजन प्राप्त करने से मिला । स्किनर के अनुसार यह महत्वपूर्ण नहीं है कि की (Key) किस प्रकार दबी, महत्वपूर्ण यह है कि 'की (Key)' दबने से कबूतर को भोजन मिला, उसकी भूख शान्त हुई।  

3. पुनर्बलन से सीखने की क्रिया तीव्र होती है और सीखने वाला शीघ्र सीख जाता है; जैसे कि कबूतर भोजन प्राप्त होने से ‘की (Key)’ दबाना सीख गया। कबूतर द्वारा स्वतः की (Key) दबाना सीखने की अनुक्रिया को उन्होंने क्रियाप्रसूत अनुक्रिया (Emitted Response) कहा और इस प्रकार सीखने की क्रिया को क्रिया प्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) कहा। इस प्रक्रिया में सीखे जाने वाले व्यवहार को स्किनर ने क्रिया प्रसूत व्यवहार (Operant behaviour) कहा। यह व्यवहार स्वतः (Spontaneous) उत्पन्न होता है । 

4. क्रिया और पुनर्बलन के परिणामस्वरूप होने वाला अनुबन्धन ही क्रियाप्रसूत अथवा सक्रिय अनुबन्धन (Operant Conditioning) है क्योंकि यह उद्दीपक के द्वारा नहीं, क्रिया के द्वारा होता है; जैसा कि कबूतर की क्रिया और भोजन प्राप्ति में हुआ।

5. सभी प्राणी प्रायः सक्रिय अनुबन्धन द्वारा ही सीखते हैं, इस प्रकार के सीखने को सक्रिय अनुबन्धन सीखना अथवा अधिगम (Operant Conditioned Learning) कहते हैं ।

यह सिद्धांत पुनर्बलन (Reinforcement) पर विशेष बल देता है।  जब किसी प्राणी को किसी अनुक्रिया से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं तो वह उस अनुक्रिया को बार-बार दोहराता है । इस बार-बार दोहराने की इच्छा उत्पन्न होने को ही पुनर्बलन(Reinforcement) कहते हैं।
जैसे- कबूतर को की(Key)  दबाने से हुआ । इस सिद्धांत में पुनर्बलन पर अधिक बल दिया गया इसलिये इसे पुनर्बलन का सिद्धांत (Theory of Reinforcement) भी कहते हैं। 



सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की विशेषताएँ 


  1. यह सिद्धान्त क्रियाप्रसूत अनुबन्धन पर बल देता है। क्रियाप्रसूत अनुबन्धन में अनुक्रियाएँ मस्तिष्क से संचालित होती हैं, इसलिए इस प्रकार सीखना अधिक स्थायी होता है। 
  2. यह सिद्धान्त क्रिया से अधिक क्रिया के परिणाम को महत्त्व देता है और सकारात्मक परिणाम से मिलने वाले पुनर्बलन पर बल देता है जो सीखने वाले की क्रिया को गति देता है। 
  3. यह सिद्धान्त सीखने की क्रिया में सफलता पर विशेष बल देता है, सफलता से पुनर्बलन मिलता है। 
  4. यह सिद्धान्त सीखने की क्रिया में अभ्यास पर बल देता है, अभ्यास से सीखना स्थायी होता है।
  5. सक्रिय अनुबन्धन द्वारा कम बुद्धि के बच्चों को भी सिखाया जा सकता है।

सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Operant Conditioning Theory)

  1. यह सिद्धान्त पशु-पक्षियों पर प्रयोग करके प्रतिपादित किया गया है, यह उनके प्रशिक्षण के लिए अधिक उपयोगी है, यह मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया की सही व्याख्या नहीं करता। 
  2. यह सिद्धान्त बुद्धिहीन अथवा कम बुद्धि वाले प्राणियों पर लागू होता है, बुद्धि, चिन्तन एवं विवेक से पूर्ण प्राणी पर लागू नहीं होता।
  3. स्किनर ने पुनर्बलन को अधिक महत्व दिया है जबकि मनुष्य के सीखने में उद्देश्य प्राप्ति के लिए लगन/परिश्रम महत्वपूर्ण होता है। 
  4. इस सिद्धान्त के अनुसार पुनर्बलन का प्रयोग सतत् होना आवश्यक होता है, इसके अभाव में सीखने की प्रक्रिया मन्द होती जाती है जबकि मनुष्य के सीखने में लक्ष्य प्राप्ति आवश्यक होती हैं । 
  5. इस सिद्धान्त के अनुसार सीखना यान्त्रिक होता है, इसमें अधिक बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती जबकि मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया में बुद्धि, चिन्तन, तर्क एवं विवेक की आवश्यकता होती है।
  6. यह सिद्धान्त अधिगम की निम्न स्तर की क्रियाओं में प्रयुक्त किया जा सकता है लेकिन उच्च स्तरीय क्रियाओं जैसे कल्पना करना, चिन्तन करना तथा समस्या समाधान के लिए उपयोगी नहीं है



शिक्षा में  स्किनर के क्रियाप्रसूत सिद्धान्त का उपयोग-


1. पुनर्बलन का शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्व है। अधिगम की प्रक्रिया को सरल  बनाने हेतु पुनर्बलन का प्रयोग शिक्षक को करना चाहिए।

2. शिक्षक को, छात्रों के समक्ष विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि इससे छात्र अत्यन्त शीघ्र एवं सरलता से सीख सकता है । 

3. शिक्षक इस सिद्धान्त के द्वारा अधिगम में सक्रियता पर बल दे सकता है। 
4. इस सिद्धान्त के आधार पर अध्यापक वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान कर सकता है। 

5. पाठयक्रम, शिक्षण पद्धतियों व विषय-वस्तु को छात्रों की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाकर शिक्षक शिक्षण प्रदान कर छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है।

6. छात्रों ने कितना सीख लिया है? इसकी जानकारी छात्रों को प्रदान करनी चाहिए क्योंकि परिणाम की जानकारी अधिगम में सहायक सिद्ध होती है । 

7. बालकों को जटिल कार्य सिखाने हेतु इस सम्बन्ध का प्रयोग किया जा सकता है शिक्षक को, छात्रों को वर्तनी सिखाने हेतु अपेक्षित अनुक्रियाओं का संयोजन करना चाहिए जिससे बालक शब्दों का शुद्ध उच्चारण करने के साथ ही उसे लिखना भी सीख सके ।

8. इस सिद्धान्त के द्वारा मानसिक रूप से अस्वस्थ बालकों को भी प्रशिक्षित किया जा सकता है।
















Tuesday, April 27, 2021

पॉवलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धांत (Pavlov's Classical Conditioning Theory)

पॉवलव का शास्त्रीय अनुबन्धन  सिद्धांत

(Pavlov's Classical Conditioning Theory)

 

आई0पी
 पॉवलव ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1904 में किया था। पॉ
वलव रूस के निवासी और प्रसिद्ध शरीर वैज्ञानिक (Physiologists) थे। यह सिद्धांत शरीर विज्ञान से संबंधित है और इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक व्यवहारवादी (Behaviourist) है। पॉवलव को 1904 में पाचन प्रक्रिया पर किए गए कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। 
पावलोव के इस सिद्धांत को शिक्षा के क्षेत्र में लाने का श्रेय लेस्टर एंडरसन को जाता है । 

इस सिद्धांत के अनुसार जब कोई अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) कई बार स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) के साथ आता है तो व्यक्ति अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) के प्रति भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया (Natural Response) करने   लग जाता है। अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया करने के सम्बंध को अनुबन्धन / प्रत्यावर्तन (Conditioning)   कहते हैं।

पॉवलव के सिद्धांत के अन्य नाम-

अनुबंधित प्रत्यावर्तन सिद्धांत (Conditioned Reflex Theory), अनुबंधित  या अनुकूलित अनुक्रिया  (Conditioned Response Theory), अनुबन्धन सिद्धान्त (Conditioning Theory), अधिगम का प्राचीन सिद्धांत (The Oldest theory of Learning), प्रतिबद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त (Committed Response Theory)।

पॉवलव का प्रयोग (Experiment of Pavlov's)

पॉवलव द्वारा कुत्ते पर प्रयोग

पावलोव कुत्तों की पाचन क्रिया में लार के स्राव का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने उस अध्ययन में देखा कि भोजन देखकर ही कुत्ते के लार स्राव में वृद्धि हो जाती है। कुछ दिन बाद उन्होंने देखा कि भोजन लाने वाले की पैरों की आवाज सुनते ही उसमें लार स्रावित होना शुरू हो जाता है और भोजन देखकर और अधिक होने लगता है। कुत्तों की भोजन (उद्दीपक, Stimulus) के प्रति इस अनुक्रिया (Response-R) ने उन्हें मनोवैज्ञानिक अध्ययन की ओर मोड़ दिया।

पावलोव ने लकड़ी का एक उपकरण तैयार किया। इसमें बीच में लकड़ी का एक तख्ता लगा था और इस तख्ते में एक खिड़की लगी थी जिसके द्वारा कुत्ते के सामने भोजन आता है। इस उपकरण में एक स्थान पर एक घण्टी (Bell) लगी थी। पावलोव ने इस उपकरण में कुछ ऐसा प्रबन्ध किया था कि घण्टी का बटन दबाने से घण्टी बजने लगती थी और भोजन का बटन दबाते ही कुत्ते के सामने भोजन की प्लेट आ जाती थी। इस उपकरण में कुत्ते की लार एकत्रित करने के लिए एक स्थान पर बीकर की व्यवस्था थी। 
पावलोव ने यह प्रयोग एक ध्वनि बाधित (Sound Proof) कमरे में किया। उन्होंने इस उपकरण को इस कमरे में रखा और उसके एक ओर भूखे कुत्ते को बाँध दिया। इस कुत्ते की लार ग्रन्थि में ऑपरेशन द्वारा एक नली लगायी हुई थी। इस नली के दूसरे छोर को उन्होंने लार एकत्रित करने वाले बीकर में डाल दिया। उन्होंने भोजन का बटन दबाया, भोजन का बटन दबाते ही कुत्ते के सामने भोजन की प्लेट आ गयी। भोजन देखकर ही कुत्ते का लार स्राव होने लगा। पावलोव की दृष्टि से भोजन कुत्ते के लिए स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) था और भोजन देखते ही उसके मुंह से लार आना सहज अनुक्रिया (Reflex Action) थी। दूसरे दिन पावलोव ने घण्टी का बटन दबाया। घण्टी की ध्वनि सुनते ही कुत्ते के कान खड़े हो गए, पावलव ने भोजन के स्थान पर घण्टी की ध्वनि से लार स्राव अनुक्रिया के लिए अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) था । इसलिए अनुक्रिया में कान खड़े हुए। ध्वनि की प्रतिक्रिया स्वरूप कान खड़े होने में अपने में सहज क्रिया (Reflex action) है। तीसरे दिन पावलोव ने पहले घण्टी बजाई, घण्टी सुनते ही कुत्ते के कान खड़े हो गए। उन्होंने घण्टी के बटन के दो सेकण्ड बाद भोजन का बटन दबा दिया, भोजन देखते ही कुत्ते की लार ग्रन्थि से लार स्राव होने लगा। पावलोव ने यह प्रयोग कई दिनों तक किया और कुछ दिन बाद देखा कि घण्टी की ध्वनि सुनते ही कुत्ते का लार स्राव शुरू हो जाता था जो भोजन देखकर और अधिक होने का लगता था। पावलोव ने अनुबन्धित उद्दीपक (Conditioned Stimulus- CS) घण्टी की ध्वनि के साथ स्वाभाविक उद्दीपक (Unconditioned Stimulus) भोजन से स्राव में वृद्धि होने को पुनर्बलन (Reinforcement) कहा है। कुछ दिन यह प्रयोग करने के बाद पावलोव ने केवल घण्टी का बटन दबाया। उन्होंने देखा कि घण्टी की ध्वनि सुनते ही कुत्ते की लार ग्रन्थि से उतनी ही मात्रा में लार स्राव हुआ जैसा कि घण्टी की ध्वनि और भोजन से होता था। इसका कारण यह था कि वह घण्टी की ध्वनि से भोजन प्राप्त करने के लिए अनुबन्धित (Conditioned) हो गया था। पावलोव ने इस स्थिति में घण्टी की ध्वनि को अनुबन्धित उद्दीपक (Conditioned Stimulus) कहा।  पॉवलव ने स्वाभाविक उद्दीपक (US)  के स्थान पर अस्वाभाविक उद्दीपक (Conditioned Stimulus- CS) के प्रति स्वाभाविक अनुक्रिया  करने को सीखने की संज्ञा।  इस प्रकार से सीखने को पावलोव ने अनुबन्धित सहज क्रिया (Conditioned Reflex Action) कहा। आज के मनोवैज्ञानिक यह शास्त्रीय अनुबंधन (Classical Conditioning) कहते है।




पॉवलव के प्रयोग के निष्कर्ष

1. किसी स्वाभाविक उद्दीपक (Unconditioned Stimulus, US) के लिए स्वाभाविक अनुक्रिया (Unconditioned Response, UR) होती है जिसे मनोविज्ञान की भाषा में सहज क्रिया (Reflex Action) कहते हैं जैसे कि प्रयोग में भोजन (US) के प्रति लार आना (UR)। 
 US      ➡️    UR

2. किसी भी अस्वाभाविक उद्दीपक (CS) और स्वाभाविक उद्दीपक (US) को एक साथ प्रस्तुत करने से स्वाभाविक अनुक्रिया (UR) होती है जैसे  प्रयोग में घंटी + भोजन में लार स्राव होना ।

CS + US     ➡️   UR

3. स्वाभाविक उद्दीपक (Unconditioned Stimulus, US) को अनुबन्धित उद्दीपक (Conditioned Stimulus, CS) से प्रतिस्थापित (Replace) किया जा सकता है, जैसे कि प्रयोग में भोजन को घंटी की ध्वनि से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। यहाँ CS की प्रतिक्रिया UR को उन्होंने CR कहा।  
CS          ➡️     UR   or  CR

पावलोव ने CS तथा CR के बीच सम्बन्ध स्थापित होने को अनुबन्धित प्रत्यावर्तन (Conditioned Reflex) की संज्ञा दी। वर्तमान में मनोवैज्ञानिक इसे शास्त्रीय अनुबन्धन (Classical Conditioning) कहते हैं। 

4.अनुबन्धित उद्दीपक (CS) कुछ ही समय तक प्रभावित रहता है जैसा कि प्रयोग में कुछ दिनों बाद केवल घण्टी की ध्वनि (CS) से लार स्राव (CR) का बन्द होना ।

सिद्धान्त से सम्बन्धित नियम (Theory related rules)


1. समय सिद्धान्त (Time Principle) इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने में उद्दीपनों  के मध्य समय का अन्तराल एक महत्त्वपूर्ण कारक है। दोनों उद्दीपनों के मध्य समय अन्तराल जितना अधिक होगा उद्दीपनों का प्रभाव भी उतना ही कम होगा। 

2. तीव्रता का सिद्धान्त (Principle of Intensity ) इस सिद्धान्त के अनुसार यदि हम यह चाहते हैं कि कृत्रिम उद्दीपक अपना स्थायी प्रभाव बनाये रखें तो इसके लिये उसका प्राकृतिक उद्दीपक की तुलना में अधिक सशक्त होना एक अनिवार्य शर्त है, अन्यथा प्राकृतिक उद्दीपक के सशक्त होने पर सीखने वाला कृत्रिम उद्दीपक अर्थात् नये उद्दीपक पर कोई ध्यान नहीं देगा। 

3. एकरूपता का सिद्धान्त (Principle of Consistency) एकरूपता के इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुबन्धन की प्रक्रिया उसी स्थिति में सुदृढ़ होती है जब एक ही प्रयोग प्रक्रिया को बार-बार बहुत दिनों तक ठीक उसी प्रकार दोहराया जाये जैसा कि प्रयोग को उसके प्रारम्भिक चरण में क्रियान्वित किया गया था। 

4. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Repetition)-  इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि किसी क्रिया के बार-बार करने पर वह स्वभाव में आ जाती है और हमारे व्यक्तित्व का एक स्थायी अंग बन जाती है। अतः सीखने के लिये यह आवश्यक है कि दोनों उद्दीपक साथ-साथ बहुत बार प्रस्तुत किये जायें। एक-दो बार की पुनरावृत्ति से अनुकूलन सम्भव नहीं होता। यही कारण है कि पॉवलाव के प्रयोग में कई बार घण्टी बजाने के बाद ही कुत्ते को भोजन दिया जाता था। 

5. व्यवधान का सिद्धान्त (Principle of Inhibition) इस नियम के अनुसार अनुबन्धन स्थापना के लिये यह आवश्यक है कि उस कक्ष का वातावरण जहाँ प्रयोग किया जा रहा है, शान्त एवं नियंत्रित  होना चाहिये । इसीलिये दो उद्दीपनों के अतिरिक्त अन्य कोई उद्दीपन चाहे वह ध्यान आकर्षित करने वाला है अथवा ध्यान बाँटने वाला, नहीं होना चाहिये। पॉवलाव ने इसी कारण अपना प्रयोग एक बन्द कमरे में किए जहाँ कोई आवाज भी नहीं पहुँच पाती थी। 


गुण या विशेषताएँ (Merits or Characteristics)

1. यह सिद्धान्त, सीखने की स्वाभाविक विधि बताता है। अतः यह बालकों को शिक्षा देने में सहायता देता है। 
2. यह सिद्धान्त, बालकों की अनेक क्रियाओं और असामान्य व्यवहार की व्याख्या करता है।
3. यह सिद्धान्त, बालकों के समाजीकरण और वातावरण से उनका सामंजस्य स्थापित करने में सहायता देता है।
4. इस सिद्धान्त का प्रयोग करके बालकों के भय-सम्बन्धी रोगों का उपचार किया जा सकता है।
5. समाज-मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार, इस सिद्धान्त का समूह के निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। 
6. इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे व्यवहार और उत्तम अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है

शास्त्रीय अनुबन्धन का शिक्षा में प्रयोग 

(Use of Classical Conditioning in Education)


1. यह सिद्धान्त सीखने में क्रिया (Activity), अनुबन्धन (Conditioning) और पुनर्बलन (Reinforcement) पर बल देता है। शिक्षकों को बच्चों को कुछ भी पढ़ाते-सिखाते समय इनका प्रयोग करना चाहिए। इससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होती है । 
2. यह सिद्धान्त विषयों के शिक्षण में शिक्षण साधनों (Teaching Aids) के प्रयोग और अनुशासन स्थापित करने में पुरस्कार एवं दण्ड के प्रयोग पर बल देता है। शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रयोग लाभकर सिद्ध हुआ। 
3. इस विधि से ऐसे विषयों को सरलता से पढ़ाया जा सकता है जिनमें बुद्धि, चिन्तन एवं तर्क की आवश्यकता नहीं होती;  जैसे शिशुओं को अक्षरों का पढ़ना-लिखना सिखाना।
4. शास्त्रीय अनुबन्धन द्वारा बच्चों की बुरी आदतों को अच्छी आदतों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है एवं भय आदि मानसिक रोगों को दूर किया जा सकता है। अवांछित आदतों को जड़ से समाप्त करने के लिए विलोपन
की प्रक्रिया का अनुप्रयोग सतर्कता के साथ करना चाहिए।
5. शास्त्रीय अनुबन्धन द्वारा बच्चों का समाजीकरण सरलता से किया जा सकता है।
6. प्रत्येक अधिगम सामग्री की अपनी अलग प्रकृति होती है अतः उनके लिए सामान्यीकरण तथा विभेदन के लिए उचित क्षेत्रों की पहचान करना आवश्यक है। 
7. यह सिद्धान्त छात्रों में शिक्षक, विद्यालय तथा अधिगम के प्रति सकारात्मक अथवा नकारात्मक अभिवृत्ति विकसित करने में प्रयोग किया जा सकता है । 
8. सर्कस आदि में पशुओं के प्रशिक्षक इसी सिद्धान्त के आधार पर अनेक प्रकार की क्रियाएँ सिखाने में सफल हो पाते हैं।

शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Classical Conditioning Theory)


  1. यह सिद्धांत मनुष्य को एक मशीन या यंत्र मानता है
  2. यह सिद्धांत मनुष्य के विवेक , तर्क , चिंतन आदि की अवहेलना करता है।
  3. यह सिद्धांत सीखने की प्रक्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं करता है यह केवल उन्ही परिस्थितियों का वर्णन करता है जिनमे सीखने की प्रक्रिया होती है ।
  4. यह सिद्धांत केवल सरल विषय वस्तु अधिगम तक सीमित है ।
  5. इस सिद्धांत द्वारा सीखा हुआ ज्ञान अस्थायी होता है ।
  6. यह सिद्धांत उच्च स्तरीय विषय तथा विचारों  को समझाने में अनुपयोगी है 

 


मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

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