Thursday, April 29, 2021

सीखने का स्थानान्तरण (Transfer of Learning)

 

सीखने का स्थानान्तरण (Transfer of Learning)

अर्थ (Meaning)

स्थानांतरण (Transfer) का सामान्य अर्थ है - किसी वस्तु (Content)  अथवा व्यक्ति को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर रखना ।
सीखने का स्थानांतरण का अर्थ है -  किसी एक क्षेत्र में सीखे हुए ज्ञान (Knowledge) एवं कौशल (Skill) का किसी दूसरे क्षेत्र के ज्ञान (Knowledge)अथवा कौशल(Skill)  के सीखने में प्रयोग होना। 
उदहारण - 1.यदि किसी व्यक्ति ने साइकिल  चलानी  सीख रखी  है तो इस ज्ञान से वह मोटर साइकिल चलाना  भी आसानी से सीख जायेगा, 
2. गणित का ज्ञान दैनिक जीवन से सम्बंधित समस्याओं को हल करने में सहायक होता है ।
इसमें किसी कौशल (Skill) के प्रशिक्षण (Training) का, किसी अन्य कौशल विशेष के प्रशिक्षण में पड़ने वाला प्रभाव भी सम्मिलित होता है क्योंकि ज्ञानार्जन और कौशल प्रशिक्षण, दोनों सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत ही आते हैं। 

परिभाषायें (Definitions) 

1. क्रो एवं क्रो (Crow & Crow)  के अनुसार -    सामान्यतः सीखने के एक क्षेत्र में विकसित होने वाले ज्ञान एवं कौशलों का और सोचने, अनुभव करने या कार्य करने की आदतों का सीखने के किसी दूसरे क्षेत्र में प्रयोग करना प्रशिक्षण का स्थानान्तरण कहा जाता है। ("The carry over of habits of thinking, feeling or working of knowledge, or skill from one learning area to another, is usually referred to as the transfer of training.")

2. अन्डरवुड (B. J. Underwood) के अनुसार -   "अधिगम स्थानान्तरण का अर्थ वर्तमान क्रिया पर पूर्व अनुभवों का प्रभाव होता है।" ("The influence of previous experience on current performance defines transfer of Learning.')
3. कोलसनिक (Kolesnik) के अनुसार -"अधिगम स्थानान्तरण पहली परिस्थिति से प्राप्त ज्ञान, कौशल, आदत, अभियोग्यता का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग करना है।" ("Transfer is the application of carryover of knowledge, skills, habits, attitudes or other responses from one situation in which they are initially acquired to some other situation.")

4. सोरेन्सन (Sorenson) के अनुसार - “स्थानान्तरण एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, प्रशिक्षण एवं आदतों का दूसरी परिस्थिति में  स्थानान्तरण होना है। " ("Transfer refers to the transfer of knowledge, training and habits acquired in one situation to another.")

5. ई0आर0 हिलगार्ड के अनुसार -  अधिगम स्थानान्तरण में एक क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर पड़ता है।


सीखने के स्थानान्तरण प्रकार (Types of Transfer of Learning)


 1. धनात्मक स्थानान्तरण (Positive Transfer)   जब किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान (Knowledge) अथवा कौशल (Skill) किसी दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान (Knowledge) अथवा कौशल (Skill) के सीखने में सहायक होता है तो इसे धनात्मक स्थानान्तरण कहते हैं; 
जैसे—गणित के ज्ञान का भौतिक विज्ञान  की संख्यात्मक समस्याओं के हल करने में सहायक होना और कार चलाने के कौशल का जीप अथवा ट्रक चलाने के कौशल को सीखने में सहायक होना। 
शिक्षा के क्षेत्र में इस धनात्मक स्थानान्तरण का ही महत्त्व होता है। शिक्षा के क्षेत्र में जब हम सीखने के स्थानान्तरण की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य इसी धनात्मक स्थानान्तरण से होता है।

2. ऋणात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer)– जब किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान (Knowledge) अथवा कौशल (Skill) किसी दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल  सीखने में बाधा  उत्पन्न करता   है तो इसे ऋणात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer) कहते हैं 
जैसे- विज्ञान के ज्ञान और उसमें निहित कारण कार्य सम्बन्ध का धर्म एवं दर्शन के अध्ययन में बाधक होना। शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार के स्थानान्तरण का कोई महत्त्व नहीं होता इसलिए इस पर कोई विचार नहीं किया जाता। 
3. क्षैतिज स्थानान्तरण (Horizontal Transfer)-  जब किसी एक ही स्तर की कक्षा में किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान अथवा कौशल उसी कक्षा के किसी दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल के सीखने में सहायक होता है तो इसे क्षैतिज स्थानान्तरण कहते हैं; 
जैसे - कक्षा 10 के सीखे हुए गणित के ज्ञान एवं कौशल का उसी कक्षा के विज्ञान की संख्यात्मक समस्याओं के हल करने में सहायक होना।

4. ऊर्ध्व स्थानान्तरण (Vertical Transfer)-  जब किसी पूर्व कक्षा में किसी एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान अथवा कौशल उससे आगे की कक्षा में किसी क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान अथवा कौशल के सीखने में सहायक होता है तो इसे ऊर्ध्व स्थानान्तरण कहते हैं; 
जैसे—कक्षा 10 में सीखे जाने वाले गणित के ज्ञान एवं कौशल का कक्षा 11 में सीखे जाने वाले गणित के ज्ञान एवं कौशल के सीखने में सहायक होना। 

5. शून्य स्थानान्तरण (Zero Transfer) – जब एक कार्य का प्रशिक्षण दूसरे कार्य को सीखने न तो सहायता ही करता है और न ही बाधा उत्पन्न करता है तो इस प्रकार के प्रशिक्षण को शून्य स्थानान्तरण  कहते हैं। इस शून्य अतंरण का एक कारण यह हो सकता है कि पहले कार्य की प्रकृति का दूसरे कार्य की प्रकृति से कोई सम्बन्ध ही न हो। 
जैसे- भूगोल (Geography)  का ज्ञान भौतिक शास्त्र (Physics) की समस्या को नहीं सुलझा सकता।


6. एक पक्षीय स्थानान्तरण (Uni-Lateral Transfer)-  जब शरीर के किसी एक अंग द्वारा सीखा हुआ कोई कौशल उसी अंग द्वारा किसी दूसरे कौशल को सीखने में सहायक होता है तो इसे एक पक्षीय स्थानान्तरण कहते हैं।
जैसे—बाएँ हाथ  (Left Hand) से कपड़ा सीने के कौशल का बाएँ हाथ (Left Hand) से लिखना सीखने में सहायक होना अथवा क्रिकेट में बायें हाथ से गेंदबाजी तथा बेटिंग करना।

7. द्विपक्षीय स्थानान्तरण (Bi-Lateral Transfer) -   जब शरीर के किसी एक अंग द्वारा सीखा हुआ कोई कौशल शरीर के दूसरे अंग द्वारा उसी कौशल को या अन्य किसी कौशल को सीखने में सहायक होता है तो इसे द्विपक्षीय स्थानान्तरण कहते हैं।
जैसे— दाएँ हाथ (Right Hand) से लिखने के कौशल का बाएँ हाथ (Left Hand) से लिखना अथवा तलवार चलाना सीखने में सहायक होना ।




सीखने में स्थानान्तरण की दशाएँ 

(Conditions of Transfer of Learning)


एक क्षेत्र में सीखा हुआ ज्ञान (Knowledge) एवं कौशल (Skill) दूसरे क्षेत्र में सीखे जाने वाले ज्ञान एवं कौशल के सीखने में तभी सहायक होता है. जब उसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हों। उसके लिए जितनी अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं, सीखने का स्थानान्तरण उतना ही अधिक होता है। अधिगम को स्थानान्तरित करने की कुछ मुख्य दशाओं का विवरण  निम्नलिखित  है-

1. सीखने वाले की सामान्य बुद्धि (Learner's General Intelligence)- सीखने वालों की सामान्य बुद्धि (General Intelligence) अधिक होनी चाहिये। सीखने वालों में यह सामान्य बुद्धि जितनी अधिक होती है उनमें उतनी ही अधिक सामान्य योग्यता (General Ability) का विकास होता है और इस प्रकार उतना ही अधिक सीखने का स्थानान्तरण होता है। गैरट (Garrett) ने एक अध्ययन में पाया कि उच्च सामान्य बुद्धि वाले छात्रों में निम्न सामान्य बुद्धि वाले छात्रों की अपेक्षा स्थानान्तरण करने की योग्यता 20 गुना होती है।

2. सीखने वाले की इच्छा (Learner's will) – स्थानान्तरण सीखने वाले  की इच्छा पर निर्भर करता है सीखने वाला सीखने के स्थानान्तरण के लिए अभिप्रेरित (Motivated) हों, उनमें ज्ञान को स्थानान्तरित करने प्रति इच्छा (Will) हो। जब तक सीखने वाले अपने पूर्व ज्ञान का प्रयोग करने के लिए तैयार नहीं होते, उन्हें इसके लिए विवश नहीं किया जा सकता। 

3. सीखने वाले की अभिवृत्ति (Attitude of the Learner) — सीखने वालों में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के प्रयोग करने की अभिवृत्ति (Attitude) हो। यह देखा गया है कि सीखने वालों में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के प्रयोग की जितनी तीव्र अभिवृति होती है वे सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का उतना ही अधिक प्रयोग नए ज्ञान एवं कौशल के सीखने में करते हैं।

4. सीखने वाले की सामान्यीकरण की योग्यता (Learner's Ability to Generalization) - सीखने वालों में सामान्यीकरण (Generalization) करने की योग्यता होनी चाहिये। सीखने वाले में अपने कार्यों एवं अनुभवों के जितने अधिक सामान्य सिद्धांत निकालने की योग्यता होती है   वे सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का उतना ही अधिक सामान्यीकरण करने में सफल होते हैं, सीखने में इसी सामान्यीकृत ज्ञान एवं कौशल का स्थानान्तरण होता है।

5. सीखने वाले का कौशल पर पूर्ण अधिकार (Learner's Mastery on the Skill)-  सीखने वालों को पूर्व में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल पर पूर्ण अधिकार (Mastery) होना चाहिये। सीखने वालों को अपने पूर्व में सीखे ज्ञान एवं कौशल पर जितना अधिक अधिकार होता है वे पूर्व में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का नए ज्ञान एवं कौशल के सीखने में उतना ही अधिक प्रयोग करते हैं।

6. सीखने वालों के आदर्श तथा मूल्य (Learner's Ideals and Values)-  सीखने वालों में आदर्श (Ideals) एवं मूल्यों (Values) का समुचित विकास होना चाहिये। आदर्श और मूल्य ही व्यक्ति के व्यवहार को स्थायी रूप प्रदान करते हैं। यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी के मूल्य को जीवन में स्थायी रूप से ग्रहण कर लेता है तो वह प्रत्येक क्षेत्र में ईमानदारी से कार्य करेगा।

7. शिक्षण-अधिगम की विधियों में समानता (Similarity in Teaching Learning Methods) - यदि दो विषयों के शिक्षण-अधिगम की विधियों में समानता होती है तो स्थानान्तरण की अधिक संभावना होती है। जैसे—नागरिकशास्त्र (Civics) तथा इतिहास (History) एक प्रकार से पढ़ाये जाते हैं अतः इनके ज्ञान का एक-दूसरे में स्थानान्तरण हो सकता है न कि भौतिक विज्ञान (Physics) की विषय सामग्री (Content) तथा तथ्यों का इतिहास में।

8. शिक्षक का सहयोग (Cooperation of Teacher)-  शिक्षक  शिक्षार्थियों को नए ज्ञान एवं कौशल के विकास में पहले से  सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के प्रयोग करने के  स्वतन्त्र अवसर दें। जितनी अधिक उन्हें स्वतन्त्रता होगी वे उतने ही  अधिक उत्साह से अपने सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का प्रयोग करेंगे। 

9. पाठ्यक्रम की प्रकृति (Nature of Curriculum)-  स्थानान्तरण के लिए शिक्षा के किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या (Curriculum) सीखने वालों की आयु (Age) परिपक्वता (Maturity), अभिक्षमता (Aptitude) एवं योग्यता (Ability) के अनुकूल हो, उसका जीवन से सम्बन्ध हो, वह सीखने वालों के लिए सार्थक (Meaningful) हो और उपयोगी (Useful) हो, उसमें सीखने वालों की रुचि (Interest) हो और उसके सभी विषयों एवं क्रियाओं में आपस में सम्बन्ध हो और उनका अपने पूर्व स्तर की पाठ्यचर्या से भी सम्बन्ध हो। जिस पाठ्यचर्या में ये तत्व  जितने अधिक होते हैं उसे पूरा करने में सीखने का स्थानान्तरण उतना ही अधिक होता है।

10. स्थानान्तरण का प्रशिक्षण (Training for Transfer) - प्रशिक्षण के द्वारा छात्रों की सीखने के स्थानान्तरण की क्षमता में बढ़ोतरी की जा सकती है। जैसे-  विज्ञान के नियमों तथा सिद्धान्तों को पढ़ाते समय छात्रों को उनके दैनिक जीवन में होने वाले उपयोग की भी क्रियात्मक जानकारी प्रदान की जाये तो वे विज्ञान के ज्ञान का अनेक जगह उपयोग कर सकते हैं। ऐसी शिक्षण अधिगम की विधियों का प्रयोग किया जाए जिनमें पूर्व में सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल के आधार पर नए ज्ञान एवं कौशल का विकास हो ताकि सीखने वाले अपनी समस्याओं का स्वयं समाधान करें।






Wednesday, April 28, 2021

स्किनर का क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त (Skinner's Operant Conditioning Theory)

 स्किनर का क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त 

(Skinner's Operant Conditioning Theory)


अमेरिकी मनोवैज्ञानिक स्किनर (B. F. Skinner) ने सीखने की प्रक्रिया के स्वरूप को समझने के लिए सर्वप्रथम अन्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए प्रयोगों के निष्कर्षों और सिद्धान्तों का अध्ययन किया और पावलोव के प्रत्यावर्तन (Reflex Action) और पुनर्बलन (Reinforcement) सम्प्रत्ययों को समझा। उसके बाद उन्होंने स्वतन्त्र रूप से प्रयोग किए। इस सन्दर्भ में उनके दो प्रयोगों का बड़ा महत्त्व है—एक चूहे पर किए गए प्रयोग का और दूसरा कबूतर पर किए गए प्रयोग का। 
यह सिद्धान्त पुनर्बलन पर विशेष बल देता है। इसलिये पुनर्बलन को जानना भी आवश्यक है। जब किसी प्राणी को किसी अनुक्रिया से सुखद परिणाम प्राप्त होते हैं तो उस अनुक्रिया को बार-बार करता है , इस बार-बार दोहराने की इच्छा  उत्पन्न होने को पुनर्बलन (Reinforcement) कहते हैं।
पुनर्बलन को मनोवैज्ञानिकों ने दो रूपों में विभाजित किया है-
1. धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement)-  धनात्मक पुनर्बलन में वे उद्दीपक (Stimulus) होते है जिनकी उपस्थिति में अनुक्रिया करने की शक्ति में बढ़ोतरी होती है। 
जैसे- भूखे व्यक्ति के लिए भोजन धनात्मक पुनर्बलन है।
2. ऋणात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement)- इसमे वे उद्दीपक होते हैं जिनकी अनुपस्थिति में अनुक्रिया शक्ति में बढ़ोतरी होती है। शोर, पीड़ा, दंड, अपमान आदि ऋणात्मक पुनर्बलन में आते हैं।
जैसे- किसी शिक्षक से डरने वाले बालक की अनुक्रियाओं में उस शिक्षक की अनुपस्थिति में वृद्धि होना।

इस सिद्धांत को सक्रिय अनुकूलन सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है। स्किनर के अनुसार अनुकूलन अधिगम की एक पद्धति है। उनके अधिगम संबंधी विचारों का प्रसार 1932 में हुआ था। उनकी दो पुस्तकें The Behaviour of Organism  तथा Beyond freedom of Dignity प्रसिद्ध है। व्यावहारवादियों की श्रेणी में स्किनर का नाम प्रमुख रूप से जाना जाता है। स्किनर ने दो प्रकार के व्यवहारों का वर्णन किया है- 
1. प्रकियात्मक व्यवहार (Respondent),   
2. सक्रिय व्यवहार (Operant Behaviour)

1. प्रकियात्मक व्यवहार (Respondent)- इस प्रकार का व्यवहार उद्दीपक के नियंत्रण में रहता है । जैसे- प्रकाश पड़ने पर आंखों का बन्द होना, हाथ पर पिन चुभने से हाथ का हट जाना।

2. सक्रिय व्यवहार (Operant Behaviour)- इस प्रकार का व्यवहार प्रकियात्मक व्यवहार से कुछ अलग होता है। यह व्यवहार उद्दीपक के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नही रहता है। इसमें व्यक्ति की स्वयं की इच्छा निहित  होती है। जैसे-  भोजन करना, हाथ पैर हिलाना।

क्रियाप्रसूत अनुबन्धन सिद्धांत के अन्य नाम-

अनुक्रिया उद्दीपन सिद्धांत (Response Stimulation Theory), सक्रिय अनुबंधन सिद्धांत (Operant Conditioning Theory), नैमित्तिक अनुक्रिया का सिद्धांत (Theory of Instrumental response),  पुनर्बलन का सिद्धांत (Theory of Reinforcement), कार्यात्मक अनुबंधन का सिद्धांत (Theory of functional commitment). 


प्रयोग-1 : स्किनर का चूहे पर प्रयोग


स्किनर बॉक्स

स्किनर ने चूहे को बंद करने के लिए एक पिंजड़ा बनवाया। इस पिंजड़े में चूहे को अंदर करने के लिए एक दरवाजा लगाया गया था। जिसमे अंदर एक स्थान पर लीवर लगा हुआ था। इस लीवर को दबाने से भोजन की नली का रास्ता खुल जाता था और ऊपर रखा भोजन पिंजड़े में रखी प्लेट में गिर जाता था। इस पिंजड़े को स्किनर बॉक्स कहते है।  स्किनर ने इस बॉक्स में भूखे चूहे को अंदर कर दिया था उसने देखा कि चूहे ने अंदर जाते ही उछल कूद करना शुरू कर दिया। इस उछल कूद में उसका पंजा लीवर पर पड़ गया और भोजन उसकी प्लेट में आ गया। उसने भोजन प्राप्त किया और अपनी भूख मिटा ली।  इससे उसे बड़ा संतोष मिला । उसकी फिर से कुछ खाने की इच्छा हुई तो उसने फिर से उछल कूद करना शुरू कर दिया। इस उछल कूद में लीवर फिर से दब गया और उसने भोजन प्राप्त किया । 
स्किनर ने यह देखा कि भोजन मिलने से चूहे की क्रिया को पुनर्बलन (Reinforcement)  मिला। स्किनर ने चूहे पर यह प्रयोग कई बार दोहराया और देखा कि एक स्थिति ऐसी आयी कि भूखे चूहे ने पिंजड़े में पहुंचते ही लीवर दबाकर भोजन प्राप्त किया अथवा भोजन प्राप्त करना सीख लिया ।
अनुक्रिया (Response) → पुनर्बलन (Reinforcement)→ पुनरावृति (Repetition)  साधन अनुबंध (Instrumental Conditioning)

प्रयोग-2  :स्किनर का कबूतर पर प्रयोग

स्किनर ने यह प्रयोग एक कबूतर पर दोहराया।  उन्होंने इस प्रयोग के लिए एक विशेष प्रकार का बॉक्स बनवाया। इस बॉक्स में एक ऐसी ऊंचाई पर जहां कबूतर की चोंच जा सकती थी एक प्रकाशपूर्ण  की (Key) लगाई गई इस की (Key) के दबाने से कबूतर को खाने के लिए दाने मिल सकते थे साथ ही इसमें छह प्रकार की प्रकाश की ऐसी व्यवस्था की गई थी कि अलग -अलग  बटन दबाने से अलग-अलग प्रकाश होता था। इस बॉक्स को कबूतर बॉक्स (pigeon box) कहते हैं।

कबूतर बॉक्स (Pigeon Box)
कबूतर बॉक्स (Pigeon Box)


स्किनर ने इस बॉक्स में एक भूखे कबूतर को बंद कर दिया। इसके बाद की (Key) में सबसे हल्के रंग का प्रकाश पहुँचाया गया। इसकी चमक से कबूतर उसकी ओर आकर्षित हुआ और उसने इसके इधर उधर चोंच मारना शुरू कर दिया। एक बार उसकी चोंच प्रकशित की (Key)  के ऊपर लग गयी, उसके दबते ही उसे खाने के लिए दाने मिल गए। उस कबूतर पर यह प्रयोग 6 प्रकार के प्रकाश पर किया गया। स्किनर ने देखा कि प्रकाश में परिवर्तन करने से कबूतर की अनुक्रिया में थोड़ा परिवर्तन हुआ परन्तु भोजन मिलने से उसके सही जगह चोंच मारने की क्रिया को पुनर्बलन बराबर मिला और एक स्थिति ऐसी आयी जब भी इस कबूतर को भूखा रखने के बाद इस बॉक्स में बंद किया गया तो वह उस की (Key) को दबाकर भोजन प्राप्त करने लगा। दूसरे शब्दों में उसने की (Key) दबाकर भोजन प्राप्त करना सीख लिया।




स्किनर के प्रयोगों के निष्कर्ष-

 1. क्रिया करने के लिए किसी उद्दीपक (Stimulus) का होना जरूरी नहीं होता जैसा कि थॉर्नडाइक एवं पावलोव ने समझा था। क्रिया प्राणी की जैविक रचना (Organism) का एक अंग है, जब उसे कोई जैविक अथवा पर्यावरणीय आवश्यकता  (जिसे मनोवैज्ञानिक भाषा में प्रेरक (Drive) एवं अभिप्रेरक (Motive) कहते हैं) होती है, तो  वह स्वतः क्रियाशील हो जाता है; जैसे कि कबूतर ने बॉक्स के अन्दर प्रवेश करते ही भूख (Drive) के कारण क्रिया करनी शुरू कर दी थी।

2. क्रिया के परिणामस्वरूप प्राप्त सफलता से सीखने वाले को पुनर्बलन (Reinforcement) मिलता है; जैसा कि कबूतर को भोजन प्राप्त करने से मिला । स्किनर के अनुसार यह महत्वपूर्ण नहीं है कि की (Key) किस प्रकार दबी, महत्वपूर्ण यह है कि 'की (Key)' दबने से कबूतर को भोजन मिला, उसकी भूख शान्त हुई।  

3. पुनर्बलन से सीखने की क्रिया तीव्र होती है और सीखने वाला शीघ्र सीख जाता है; जैसे कि कबूतर भोजन प्राप्त होने से ‘की (Key)’ दबाना सीख गया। कबूतर द्वारा स्वतः की (Key) दबाना सीखने की अनुक्रिया को उन्होंने क्रियाप्रसूत अनुक्रिया (Emitted Response) कहा और इस प्रकार सीखने की क्रिया को क्रिया प्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) कहा। इस प्रक्रिया में सीखे जाने वाले व्यवहार को स्किनर ने क्रिया प्रसूत व्यवहार (Operant behaviour) कहा। यह व्यवहार स्वतः (Spontaneous) उत्पन्न होता है । 

4. क्रिया और पुनर्बलन के परिणामस्वरूप होने वाला अनुबन्धन ही क्रियाप्रसूत अथवा सक्रिय अनुबन्धन (Operant Conditioning) है क्योंकि यह उद्दीपक के द्वारा नहीं, क्रिया के द्वारा होता है; जैसा कि कबूतर की क्रिया और भोजन प्राप्ति में हुआ।

5. सभी प्राणी प्रायः सक्रिय अनुबन्धन द्वारा ही सीखते हैं, इस प्रकार के सीखने को सक्रिय अनुबन्धन सीखना अथवा अधिगम (Operant Conditioned Learning) कहते हैं ।

यह सिद्धांत पुनर्बलन (Reinforcement) पर विशेष बल देता है।  जब किसी प्राणी को किसी अनुक्रिया से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं तो वह उस अनुक्रिया को बार-बार दोहराता है । इस बार-बार दोहराने की इच्छा उत्पन्न होने को ही पुनर्बलन(Reinforcement) कहते हैं।
जैसे- कबूतर को की(Key)  दबाने से हुआ । इस सिद्धांत में पुनर्बलन पर अधिक बल दिया गया इसलिये इसे पुनर्बलन का सिद्धांत (Theory of Reinforcement) भी कहते हैं। 



सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की विशेषताएँ 


  1. यह सिद्धान्त क्रियाप्रसूत अनुबन्धन पर बल देता है। क्रियाप्रसूत अनुबन्धन में अनुक्रियाएँ मस्तिष्क से संचालित होती हैं, इसलिए इस प्रकार सीखना अधिक स्थायी होता है। 
  2. यह सिद्धान्त क्रिया से अधिक क्रिया के परिणाम को महत्त्व देता है और सकारात्मक परिणाम से मिलने वाले पुनर्बलन पर बल देता है जो सीखने वाले की क्रिया को गति देता है। 
  3. यह सिद्धान्त सीखने की क्रिया में सफलता पर विशेष बल देता है, सफलता से पुनर्बलन मिलता है। 
  4. यह सिद्धान्त सीखने की क्रिया में अभ्यास पर बल देता है, अभ्यास से सीखना स्थायी होता है।
  5. सक्रिय अनुबन्धन द्वारा कम बुद्धि के बच्चों को भी सिखाया जा सकता है।

सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Operant Conditioning Theory)

  1. यह सिद्धान्त पशु-पक्षियों पर प्रयोग करके प्रतिपादित किया गया है, यह उनके प्रशिक्षण के लिए अधिक उपयोगी है, यह मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया की सही व्याख्या नहीं करता। 
  2. यह सिद्धान्त बुद्धिहीन अथवा कम बुद्धि वाले प्राणियों पर लागू होता है, बुद्धि, चिन्तन एवं विवेक से पूर्ण प्राणी पर लागू नहीं होता।
  3. स्किनर ने पुनर्बलन को अधिक महत्व दिया है जबकि मनुष्य के सीखने में उद्देश्य प्राप्ति के लिए लगन/परिश्रम महत्वपूर्ण होता है। 
  4. इस सिद्धान्त के अनुसार पुनर्बलन का प्रयोग सतत् होना आवश्यक होता है, इसके अभाव में सीखने की प्रक्रिया मन्द होती जाती है जबकि मनुष्य के सीखने में लक्ष्य प्राप्ति आवश्यक होती हैं । 
  5. इस सिद्धान्त के अनुसार सीखना यान्त्रिक होता है, इसमें अधिक बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती जबकि मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया में बुद्धि, चिन्तन, तर्क एवं विवेक की आवश्यकता होती है।
  6. यह सिद्धान्त अधिगम की निम्न स्तर की क्रियाओं में प्रयुक्त किया जा सकता है लेकिन उच्च स्तरीय क्रियाओं जैसे कल्पना करना, चिन्तन करना तथा समस्या समाधान के लिए उपयोगी नहीं है



शिक्षा में  स्किनर के क्रियाप्रसूत सिद्धान्त का उपयोग-


1. पुनर्बलन का शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्व है। अधिगम की प्रक्रिया को सरल  बनाने हेतु पुनर्बलन का प्रयोग शिक्षक को करना चाहिए।

2. शिक्षक को, छात्रों के समक्ष विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि इससे छात्र अत्यन्त शीघ्र एवं सरलता से सीख सकता है । 

3. शिक्षक इस सिद्धान्त के द्वारा अधिगम में सक्रियता पर बल दे सकता है। 
4. इस सिद्धान्त के आधार पर अध्यापक वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान कर सकता है। 

5. पाठयक्रम, शिक्षण पद्धतियों व विषय-वस्तु को छात्रों की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाकर शिक्षक शिक्षण प्रदान कर छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है।

6. छात्रों ने कितना सीख लिया है? इसकी जानकारी छात्रों को प्रदान करनी चाहिए क्योंकि परिणाम की जानकारी अधिगम में सहायक सिद्ध होती है । 

7. बालकों को जटिल कार्य सिखाने हेतु इस सम्बन्ध का प्रयोग किया जा सकता है शिक्षक को, छात्रों को वर्तनी सिखाने हेतु अपेक्षित अनुक्रियाओं का संयोजन करना चाहिए जिससे बालक शब्दों का शुद्ध उच्चारण करने के साथ ही उसे लिखना भी सीख सके ।

8. इस सिद्धान्त के द्वारा मानसिक रूप से अस्वस्थ बालकों को भी प्रशिक्षित किया जा सकता है।
















Tuesday, April 27, 2021

पॉवलव का शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धांत (Pavlov's Classical Conditioning Theory)

पॉवलव का शास्त्रीय अनुबन्धन  सिद्धांत

(Pavlov's Classical Conditioning Theory)

 

आई0पी
 पॉवलव ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1904 में किया था। पॉ
वलव रूस के निवासी और प्रसिद्ध शरीर वैज्ञानिक (Physiologists) थे। यह सिद्धांत शरीर विज्ञान से संबंधित है और इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक व्यवहारवादी (Behaviourist) है। पॉवलव को 1904 में पाचन प्रक्रिया पर किए गए कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। 
पावलोव के इस सिद्धांत को शिक्षा के क्षेत्र में लाने का श्रेय लेस्टर एंडरसन को जाता है । 

इस सिद्धांत के अनुसार जब कोई अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) कई बार स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) के साथ आता है तो व्यक्ति अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) के प्रति भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया (Natural Response) करने   लग जाता है। अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया करने के सम्बंध को अनुबन्धन / प्रत्यावर्तन (Conditioning)   कहते हैं।

पॉवलव के सिद्धांत के अन्य नाम-

अनुबंधित प्रत्यावर्तन सिद्धांत (Conditioned Reflex Theory), अनुबंधित  या अनुकूलित अनुक्रिया  (Conditioned Response Theory), अनुबन्धन सिद्धान्त (Conditioning Theory), अधिगम का प्राचीन सिद्धांत (The Oldest theory of Learning), प्रतिबद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त (Committed Response Theory)।

पॉवलव का प्रयोग (Experiment of Pavlov's)

पॉवलव द्वारा कुत्ते पर प्रयोग

पावलोव कुत्तों की पाचन क्रिया में लार के स्राव का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने उस अध्ययन में देखा कि भोजन देखकर ही कुत्ते के लार स्राव में वृद्धि हो जाती है। कुछ दिन बाद उन्होंने देखा कि भोजन लाने वाले की पैरों की आवाज सुनते ही उसमें लार स्रावित होना शुरू हो जाता है और भोजन देखकर और अधिक होने लगता है। कुत्तों की भोजन (उद्दीपक, Stimulus) के प्रति इस अनुक्रिया (Response-R) ने उन्हें मनोवैज्ञानिक अध्ययन की ओर मोड़ दिया।

पावलोव ने लकड़ी का एक उपकरण तैयार किया। इसमें बीच में लकड़ी का एक तख्ता लगा था और इस तख्ते में एक खिड़की लगी थी जिसके द्वारा कुत्ते के सामने भोजन आता है। इस उपकरण में एक स्थान पर एक घण्टी (Bell) लगी थी। पावलोव ने इस उपकरण में कुछ ऐसा प्रबन्ध किया था कि घण्टी का बटन दबाने से घण्टी बजने लगती थी और भोजन का बटन दबाते ही कुत्ते के सामने भोजन की प्लेट आ जाती थी। इस उपकरण में कुत्ते की लार एकत्रित करने के लिए एक स्थान पर बीकर की व्यवस्था थी। 
पावलोव ने यह प्रयोग एक ध्वनि बाधित (Sound Proof) कमरे में किया। उन्होंने इस उपकरण को इस कमरे में रखा और उसके एक ओर भूखे कुत्ते को बाँध दिया। इस कुत्ते की लार ग्रन्थि में ऑपरेशन द्वारा एक नली लगायी हुई थी। इस नली के दूसरे छोर को उन्होंने लार एकत्रित करने वाले बीकर में डाल दिया। उन्होंने भोजन का बटन दबाया, भोजन का बटन दबाते ही कुत्ते के सामने भोजन की प्लेट आ गयी। भोजन देखकर ही कुत्ते का लार स्राव होने लगा। पावलोव की दृष्टि से भोजन कुत्ते के लिए स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) था और भोजन देखते ही उसके मुंह से लार आना सहज अनुक्रिया (Reflex Action) थी। दूसरे दिन पावलोव ने घण्टी का बटन दबाया। घण्टी की ध्वनि सुनते ही कुत्ते के कान खड़े हो गए, पावलव ने भोजन के स्थान पर घण्टी की ध्वनि से लार स्राव अनुक्रिया के लिए अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) था । इसलिए अनुक्रिया में कान खड़े हुए। ध्वनि की प्रतिक्रिया स्वरूप कान खड़े होने में अपने में सहज क्रिया (Reflex action) है। तीसरे दिन पावलोव ने पहले घण्टी बजाई, घण्टी सुनते ही कुत्ते के कान खड़े हो गए। उन्होंने घण्टी के बटन के दो सेकण्ड बाद भोजन का बटन दबा दिया, भोजन देखते ही कुत्ते की लार ग्रन्थि से लार स्राव होने लगा। पावलोव ने यह प्रयोग कई दिनों तक किया और कुछ दिन बाद देखा कि घण्टी की ध्वनि सुनते ही कुत्ते का लार स्राव शुरू हो जाता था जो भोजन देखकर और अधिक होने का लगता था। पावलोव ने अनुबन्धित उद्दीपक (Conditioned Stimulus- CS) घण्टी की ध्वनि के साथ स्वाभाविक उद्दीपक (Unconditioned Stimulus) भोजन से स्राव में वृद्धि होने को पुनर्बलन (Reinforcement) कहा है। कुछ दिन यह प्रयोग करने के बाद पावलोव ने केवल घण्टी का बटन दबाया। उन्होंने देखा कि घण्टी की ध्वनि सुनते ही कुत्ते की लार ग्रन्थि से उतनी ही मात्रा में लार स्राव हुआ जैसा कि घण्टी की ध्वनि और भोजन से होता था। इसका कारण यह था कि वह घण्टी की ध्वनि से भोजन प्राप्त करने के लिए अनुबन्धित (Conditioned) हो गया था। पावलोव ने इस स्थिति में घण्टी की ध्वनि को अनुबन्धित उद्दीपक (Conditioned Stimulus) कहा।  पॉवलव ने स्वाभाविक उद्दीपक (US)  के स्थान पर अस्वाभाविक उद्दीपक (Conditioned Stimulus- CS) के प्रति स्वाभाविक अनुक्रिया  करने को सीखने की संज्ञा।  इस प्रकार से सीखने को पावलोव ने अनुबन्धित सहज क्रिया (Conditioned Reflex Action) कहा। आज के मनोवैज्ञानिक यह शास्त्रीय अनुबंधन (Classical Conditioning) कहते है।




पॉवलव के प्रयोग के निष्कर्ष

1. किसी स्वाभाविक उद्दीपक (Unconditioned Stimulus, US) के लिए स्वाभाविक अनुक्रिया (Unconditioned Response, UR) होती है जिसे मनोविज्ञान की भाषा में सहज क्रिया (Reflex Action) कहते हैं जैसे कि प्रयोग में भोजन (US) के प्रति लार आना (UR)। 
 US      ➡️    UR

2. किसी भी अस्वाभाविक उद्दीपक (CS) और स्वाभाविक उद्दीपक (US) को एक साथ प्रस्तुत करने से स्वाभाविक अनुक्रिया (UR) होती है जैसे  प्रयोग में घंटी + भोजन में लार स्राव होना ।

CS + US     ➡️   UR

3. स्वाभाविक उद्दीपक (Unconditioned Stimulus, US) को अनुबन्धित उद्दीपक (Conditioned Stimulus, CS) से प्रतिस्थापित (Replace) किया जा सकता है, जैसे कि प्रयोग में भोजन को घंटी की ध्वनि से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। यहाँ CS की प्रतिक्रिया UR को उन्होंने CR कहा।  
CS          ➡️     UR   or  CR

पावलोव ने CS तथा CR के बीच सम्बन्ध स्थापित होने को अनुबन्धित प्रत्यावर्तन (Conditioned Reflex) की संज्ञा दी। वर्तमान में मनोवैज्ञानिक इसे शास्त्रीय अनुबन्धन (Classical Conditioning) कहते हैं। 

4.अनुबन्धित उद्दीपक (CS) कुछ ही समय तक प्रभावित रहता है जैसा कि प्रयोग में कुछ दिनों बाद केवल घण्टी की ध्वनि (CS) से लार स्राव (CR) का बन्द होना ।

सिद्धान्त से सम्बन्धित नियम (Theory related rules)


1. समय सिद्धान्त (Time Principle) इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने में उद्दीपनों  के मध्य समय का अन्तराल एक महत्त्वपूर्ण कारक है। दोनों उद्दीपनों के मध्य समय अन्तराल जितना अधिक होगा उद्दीपनों का प्रभाव भी उतना ही कम होगा। 

2. तीव्रता का सिद्धान्त (Principle of Intensity ) इस सिद्धान्त के अनुसार यदि हम यह चाहते हैं कि कृत्रिम उद्दीपक अपना स्थायी प्रभाव बनाये रखें तो इसके लिये उसका प्राकृतिक उद्दीपक की तुलना में अधिक सशक्त होना एक अनिवार्य शर्त है, अन्यथा प्राकृतिक उद्दीपक के सशक्त होने पर सीखने वाला कृत्रिम उद्दीपक अर्थात् नये उद्दीपक पर कोई ध्यान नहीं देगा। 

3. एकरूपता का सिद्धान्त (Principle of Consistency) एकरूपता के इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुबन्धन की प्रक्रिया उसी स्थिति में सुदृढ़ होती है जब एक ही प्रयोग प्रक्रिया को बार-बार बहुत दिनों तक ठीक उसी प्रकार दोहराया जाये जैसा कि प्रयोग को उसके प्रारम्भिक चरण में क्रियान्वित किया गया था। 

4. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Repetition)-  इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि किसी क्रिया के बार-बार करने पर वह स्वभाव में आ जाती है और हमारे व्यक्तित्व का एक स्थायी अंग बन जाती है। अतः सीखने के लिये यह आवश्यक है कि दोनों उद्दीपक साथ-साथ बहुत बार प्रस्तुत किये जायें। एक-दो बार की पुनरावृत्ति से अनुकूलन सम्भव नहीं होता। यही कारण है कि पॉवलाव के प्रयोग में कई बार घण्टी बजाने के बाद ही कुत्ते को भोजन दिया जाता था। 

5. व्यवधान का सिद्धान्त (Principle of Inhibition) इस नियम के अनुसार अनुबन्धन स्थापना के लिये यह आवश्यक है कि उस कक्ष का वातावरण जहाँ प्रयोग किया जा रहा है, शान्त एवं नियंत्रित  होना चाहिये । इसीलिये दो उद्दीपनों के अतिरिक्त अन्य कोई उद्दीपन चाहे वह ध्यान आकर्षित करने वाला है अथवा ध्यान बाँटने वाला, नहीं होना चाहिये। पॉवलाव ने इसी कारण अपना प्रयोग एक बन्द कमरे में किए जहाँ कोई आवाज भी नहीं पहुँच पाती थी। 


गुण या विशेषताएँ (Merits or Characteristics)

1. यह सिद्धान्त, सीखने की स्वाभाविक विधि बताता है। अतः यह बालकों को शिक्षा देने में सहायता देता है। 
2. यह सिद्धान्त, बालकों की अनेक क्रियाओं और असामान्य व्यवहार की व्याख्या करता है।
3. यह सिद्धान्त, बालकों के समाजीकरण और वातावरण से उनका सामंजस्य स्थापित करने में सहायता देता है।
4. इस सिद्धान्त का प्रयोग करके बालकों के भय-सम्बन्धी रोगों का उपचार किया जा सकता है।
5. समाज-मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार, इस सिद्धान्त का समूह के निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। 
6. इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे व्यवहार और उत्तम अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है

शास्त्रीय अनुबन्धन का शिक्षा में प्रयोग 

(Use of Classical Conditioning in Education)


1. यह सिद्धान्त सीखने में क्रिया (Activity), अनुबन्धन (Conditioning) और पुनर्बलन (Reinforcement) पर बल देता है। शिक्षकों को बच्चों को कुछ भी पढ़ाते-सिखाते समय इनका प्रयोग करना चाहिए। इससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होती है । 
2. यह सिद्धान्त विषयों के शिक्षण में शिक्षण साधनों (Teaching Aids) के प्रयोग और अनुशासन स्थापित करने में पुरस्कार एवं दण्ड के प्रयोग पर बल देता है। शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रयोग लाभकर सिद्ध हुआ। 
3. इस विधि से ऐसे विषयों को सरलता से पढ़ाया जा सकता है जिनमें बुद्धि, चिन्तन एवं तर्क की आवश्यकता नहीं होती;  जैसे शिशुओं को अक्षरों का पढ़ना-लिखना सिखाना।
4. शास्त्रीय अनुबन्धन द्वारा बच्चों की बुरी आदतों को अच्छी आदतों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है एवं भय आदि मानसिक रोगों को दूर किया जा सकता है। अवांछित आदतों को जड़ से समाप्त करने के लिए विलोपन
की प्रक्रिया का अनुप्रयोग सतर्कता के साथ करना चाहिए।
5. शास्त्रीय अनुबन्धन द्वारा बच्चों का समाजीकरण सरलता से किया जा सकता है।
6. प्रत्येक अधिगम सामग्री की अपनी अलग प्रकृति होती है अतः उनके लिए सामान्यीकरण तथा विभेदन के लिए उचित क्षेत्रों की पहचान करना आवश्यक है। 
7. यह सिद्धान्त छात्रों में शिक्षक, विद्यालय तथा अधिगम के प्रति सकारात्मक अथवा नकारात्मक अभिवृत्ति विकसित करने में प्रयोग किया जा सकता है । 
8. सर्कस आदि में पशुओं के प्रशिक्षक इसी सिद्धान्त के आधार पर अनेक प्रकार की क्रियाएँ सिखाने में सफल हो पाते हैं।

शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Classical Conditioning Theory)


  1. यह सिद्धांत मनुष्य को एक मशीन या यंत्र मानता है
  2. यह सिद्धांत मनुष्य के विवेक , तर्क , चिंतन आदि की अवहेलना करता है।
  3. यह सिद्धांत सीखने की प्रक्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं करता है यह केवल उन्ही परिस्थितियों का वर्णन करता है जिनमे सीखने की प्रक्रिया होती है ।
  4. यह सिद्धांत केवल सरल विषय वस्तु अधिगम तक सीमित है ।
  5. इस सिद्धांत द्वारा सीखा हुआ ज्ञान अस्थायी होता है ।
  6. यह सिद्धांत उच्च स्तरीय विषय तथा विचारों  को समझाने में अनुपयोगी है 

 


Saturday, April 24, 2021

अधिगम का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Learning)

अधिगम  का अर्थ  (Meaning of Learning)

मनोविज्ञान में सीखने (अधिगम) शब्द का प्रयोग दो रूपों में होता है-
1. प्रक्रिया (Process) के रूप में । 
2. परिणाम (Product) के रूप में। 
प्रक्रिया रूप में सीखने का अर्थ उस प्रक्रिया से होता है जिसके द्वारा मनुष्य नए-नए तथ्यों को ग्रहण करता है और नई-नई क्रियाओं को करना सीखता है।   
परिणाम के रूप में सीखने का अर्थ मनुष्य के उस व्यवहार परिवर्तन से होता है जो नए-नए तथ्यों की जानकारी और नई-नई क्रियाओं में प्रशिक्षण के फलस्वरूप होता है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से सीखने का तब तक कोई अर्थ नहीं होता जब तक कि उससे मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन न हो ।

  • व्यवहार में वांछित एवं स्थायी परिवर्तन होना अधिग कहलाता है । (Desired and permanent change in behaviour is called Learning.) 

मनुष्य कुछ कार्य तो स्वाभाविक रूप से करता है; जैसे—सांस लेना, पलक झपकना, देखना, सुनना, हाथ-पैर हिलाना, उठना-बैठना, चलना-फिरना और मुँह से ध्वनि निकालना। इनके अतिरिक्त कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें वह अपने शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ स्वयं करने लगता है; जैसे प्राण रक्षा के लिए भागना और भूख लगने पर भोजन की तलाश करना। इन सब कार्यों को मनोवैज्ञानिक मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार (Instinctive Behaviour) कहते हैं। इन सब कार्यों को मनुष्य को सीखना नहीं पड़ता, इसलिए इन्हें अनर्जित कार्य (Unlearned Actions) कहते हैं। संवेगों की अनायास अभिव्यक्ति; जैसे—रोना और हँसना आदि भी अनर्जित कार्यों की कोटि में आते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य अपने प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण के आधार पर ग्रहण करता है, जैसे पेड़ पर चढ़ना, पानी में तैरना और भाषा विशेष का बोलना आदि। इन कार्यों को मनोवैज्ञानिक अर्जित कार्य (Learned Actions) कहते हैं और इन कार्यों को ग्रहण करने की प्रक्रिया को सीखना अथवा अधिगम (Learning) कहते हैं। 


अधिगम की परिभाषायें  (Definition of Learning) 


1. वुडवर्थ (Woodworth)  के अनुसार -       नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है । (The process of acquiring new knowledge and new responses is the process of Learning.)

2. को एवं क्रो (Crow & Crow)  के अनुसार -    सीखना आदतों, ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन है। (Learning is the acquisition of habits, knowledge and attitudes.)

3. गेट्स तथा अन्य के  अनुसार -  सीखना अनुभव और प्रशिक्षण के द्वारा व्यवहार में होने वाला सुधारात्मक परिवर्तन है। (Learning is the modification of behaviour through experience and training.) 
4. चार्ल्स सी० ई० स्किनर (C.E. Skiner) के अनुसार -  सीखना वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य प्रगतिशील व्यवहार को स्वीकार करता है। (Learning is a process of progressive behaviour adaptation.) 
5. हिलगार्ड (Hilgard) के अनुसार  सीखना वह प्रक्रिया है जिसमें अभ्यास अथवा प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में परिवर्तन होता है। (Learning is the process by which behaviour is changed through practice or training.)

उपरोक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर -
     अधिगम वह प्रक्रिया है जिसमें अनुभव, अभ्यास, प्रशिक्षण तथा अध्ययन आदि से व्यक्ति का कोई व्यवहार उदभव होता  है अथवा उसके व्यवहार में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थाई होता है। अधिगम के अन्तर्गत वे परिवर्तन सम्मिलित नहीं किये जाते हैं जो व्यक्ति में परिपक्वता, थकान, नशीले पदार्थों के सेवन अथवा चोट आदि अन्य अधिगम न होने  वाले  कारकों के कारण होते हैं।
                         

अधिगम की प्रकृति एवं विशेषताएं (Nature and Characteristics of Learning)

  1. सीखना मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है। 
  2. सीखना प्रक्रिया एवं परिणाम दोनों हैं ।
  3. सीखना उद्देश्यपूर्ण होता है ।
  4. सीखने की प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है ।
  5. सीखने की प्रक्रिया के तीन तत्व होते हैं - (i ) नए ज्ञान अथवा कौशल को सीखना , (ii) ज्ञान एवं कौशल को बहुत दिनों तक धारण करना तथा  (iii) आवश्यकता पड़ने पर इस ज्ञान या कौशल का प्रयोग करना। 
  6. सीखना वंशानुक्रम एवं पर्यावरण पर निर्भर करता है ।
  7. सीखने की प्रक्रिया में पूर्व अनुभवों का महत्व  होता है ।
  8. सीखने में अभिप्रेरणा का बड़ा महत्व है ।
  9. सीखना एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है ।
  10. सीखने का एक परिस्थिति से दूसरी  में स्थान्तरण होता है ।
  11. सीखना व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यताओं पर निर्भर करता है ।
  12. सीखना ज्ञानात्मक , भावात्मक तथा क्रियात्मक किसी भी प्रकार का हो सकता है ।


Saturday, April 17, 2021

अधिगम के सिद्धांत- थार्नडाइक का उद्दीपक- अनुक्रिया सिद्धान्त (Theories of Learning-Thorndike's Stimulus - Response Theory)

 अधिगम के सिद्धांत (Theories of Learning)

 अधिगम (Learning) एक प्रक्रिया है । जब हम किसी कार्य को करते हैं तो हमे एक निश्चित क्रम से गुजरना पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम(learning) की प्रकृति को समझने  तथा प्रक्रिया की स्पष्ट रूप से व्याख्या करने के लिए अनेक प्रयोग किये जिसके आधार पर उन्होंने सीखने के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। 
Hergenhann के अनुसार अधिगम के सिद्धांतों में तीन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया जाता है-
1. व्यक्ति क्यों सीखता है? (Why does individual learn?)
2. व्यक्ति कैसे सीखता है? (How does individual learn?)
3. व्यक्ति क्या सीखता है? (What does individual learn?)




थार्नडाइक का उद्दीपक- अनुक्रिया सिद्धान्त

(Thorndike's Stimulus - Response Theory)



 एडवर्ड एल. थार्नडाईक (Edward L. Thorndike) ने अपनी पुस्तक 'एनीमल इन्टेलीजेन्स’ (Animal Intelligence), 1898 में प्रसिद्ध 'सम्बन्धवाद' (Connectionism) का प्रतिपादन किया। अधिगम मनोविज्ञान के क्षेत्र में 'सम्बन्धवाद' का तात्पर्य है उद्दीपक के साथ अनुक्रिया का सम्बन्ध बनाना। सम्बन्धवाद में उद्दीपक तथा अनुक्रिया के मध्य सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। अतः इसे 'उद्दीपक-अनुक्रिया सिद्धान्त'(Stimulus-Response Theory) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त में व्यक्ति के जन्मजात कारकों के साथ-साथ उद्दीपक अनुक्रिया के बाहरी तथा आन्तरिक (Internal and external) उद्दीपकों के मध्य व्यवहार रहता है। ‘उद्दीपक-अनुक्रिया सिद्धान्त' अधिगम मनोविज्ञान में एक व्यापक सिद्धान्त है । इसमे थार्नडाईक, वुडवर्थ, पॉवलव, वॉटसन, गुथरी, टॉलमैन तथा हल आदि मनोवैज्ञानिकों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन   मनोवैज्ञानिकों के विचार से प्रत्येक क्रिया के पीछे एक उद्दीपक होता है जिसका प्रभाव व्यक्ति पर पड़ता है और वह उसी के अनुरूप अनुक्रिया करता है। इस प्रकार उद्दीपक अनुक्रिया से सम्बन्धित होते हैं। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक थार्नडाईक ने उद्दीपक तथा अनुक्रिया के बीच अनुबंध (Bond) स्थापित करने पर जोर दिया है। इसी कारण इस  को  अनुबन्ध सिद्धांत  (Bond Theory)  कहते हैं।
 इस सिद्धांत के अन्य नाम - सम्बन्धवाद  का सिद्धान्त (Theory of Connectionism), प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत (Trial and Error Theory) , अधिगम संबंधों का सिद्धांत (Bond theory of Learning),  हर्ष व दुःख का सिद्धांत (Theory of Joy and Sorrow) परिश्रम एवं धैर्य का सिद्धांत, S-R Theory।

थार्नडाइक का प्रयोग (Experiment of Thorndike)




थॉर्नडाइक ने सीखने की प्रक्रिया का स्वरूप जानने  के लिए कुत्ते, बिल्ली एवं बंदर आदि जानवरों  पर सीखने से संबंधित अनेक प्रयोग किये । उनका बिल्ली पर किया गया एक प्रयोग बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने बिल्ली को बंद करने के लिए एक पिंजड़ा बनवाया। इस पिंजड़े का दरवाजा  लीवर के दबने से खुल जाता था। इस पिंजड़े को इन्होंने पहेली पेटी (Puzzle Box) नाम दिया ।

थॉर्नडाइक ने एक दिन इस पिंजड़े में एक भूखी बिल्ली को बन्द कर दिया। उसे पिंजड़े में बन्द करने के बाद  बाहर एक प्लेट में मछली रख दी। मछली देखते ही भूखी बिल्ली ने पिंजड़े से बाहर आने का प्रयत्न शुरू कर दिया । उसने बाहर आने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न किए, कभी इधर-उधर कूदी और कभी इधर-उधर पंजे मारे। इस प्रयत्न एक बार उसका पंजा अचानक उस लीवर पर पड़ गया जिसके दबने से पिंजड़े का दरवाजा खुलता था। परिणामस्वरूप दरवाजा खुल गया और बिल्ली ने पिंजड़े से बाहर निकलकर मछली खाई और अपनी भूख शान्त की। थॉर्नडाइक ने बिल्ली पर यह प्रयोग कई बार (10 दिन तक) दोहराया और यह देखा कि बिल्ली ने धीरे-धीरे लीवर दबाने की स्थिति तक पहुँचने में  कम भूलें कीं और अन्त में एक स्थिति ऐसी आई कि वह बिना कोई भूल किए पहले ही प्रयास में लीवर दबाकर पिंजड़े से बाहर आ गई। दूसरे शब्दों में उसने पिंजड़ा खोलना सीख लिया।

 थॉर्नडाइक के  प्रयोग से  निकले निष्कर्ष (Conclusion)


१. सीखने के लिए सबसे पहली आवश्यकता उद्देश्य होता है; जैसे ऊपर के प्रयोग में भोजन प्राप्त करना।  
२.उद्देश्य के पीछे कोई प्रेरक (Drive) अथवा अभिप्रेरक (Motive) होता है; जैसे ऊपर के प्रयोग में 'भूख'।  
३. उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कोई उद्दीपक (Stimulus)  का होना आवश्यक होता है; जैसे कि ऊपर के प्रयोग में मछली (भोजन) ।
४. उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुक्रिया (Response) आवश्यक होती है,  जैसे कि ऊपर के प्रयोग में बिल्ली का पिंजड़े से बाहर आने के लिए प्रयत्न करना ।
५. जो अनुक्रियाएँ उद्देश्य प्राप्ति में सहायक होती हैं, उन्हें सीखने वाला अपनाता चलता है और जो क्रियाएँ निरर्थक होती हैं, उन्हें छोड़ता चलता है; जैसे ऊपर के प्रयोग में बिल्ली ने किया।


विशेषतायें(Characteristics)

.यह सिद्धान्त सम्बन्धवाद (Connectionism) का समर्थक है, सीखने की प्रक्रिया में तो पूर्व अनुभवों का  नए अनुभवों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता  है।

२. इस सिद्धान्त के अनुसार सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग कर सकना ही सीखना है। जब तक सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग नहीं होता, उसे सीखना नहीं कह सकते।

३. यह सिद्धान्त सीखने के लिए उद्देश्य का होना आवश्यक मानता है और उद्देश्य के पीछे किसी प्रेरक (Drive) अथवा अभिप्रेरक (Motive) का होना आवश्यक मानता है और साथ ही उद्देश्य प्राप्ति में सहायक उद्दीपक (Stimulus) का होना भी आवश्यक मानता है। 

४. यह सिद्धान्त उद्देश्य प्राप्ति के लिए सीखने वाले के प्रयत्न को आवश्यक मानता है। इसके अनुसार प्रयत्न एवं भूल (Trial & Error) के द्वारा ही सीखने वाला सही अनुक्रिया करना सीखता है। 

५. इस सिद्धान्त के आधार पर थॉर्नडाइक ने सीखने के कुछ नियम प्रतिपादित किए हैं जिनके प्रयोग से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

थॉर्नडाइक  के सीखने के सिद्धांत का शिक्षा में प्रयोग 
(Application of Thorndike's Theory of Learning in  Education)

1. समस्या -समाधान के क्षेत्र में इस सिद्धांत का सफल प्रयोग किया जा सकता है।

2. यह सिद्धांत प्रयत्न पर बहुत अधिक बल देता है और इस बात पर बल देता है कि छात्रों द्वारा सही अनुक्रिया करने पर उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। उनके असफल होने पर उन्हें बार-बार प्रयत्न करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

3. यह सिद्धांत बच्चों में स्वयं के प्रयत्न से सीखने के अवसर प्रदान करता है। स्वयं के प्रयास से सीखा हुआ ज्ञान एवं कौशल अधिक स्थाई होता है।

4. यह सिद्धांत इस बात पर बल देता  है कि अनुकरण सीखने की स्वाभाविक विधि है और इस विधि में बच्चे प्रायः प्रयत्न एवं भूल द्वारा ही सीखते हैं । इसलिये बच्चों को प्रयत्न एवं भूल से सीखने के अवसर देने चाहिए। इस विधि का प्रयोग मंदबुद्धि बालकों की शिक्षा में बड़ा उपयोगी होता है।
5. इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों को सिखाते समय उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
6. यह सिद्धांत निरंतर प्रयास पर बल देता है।
7. यह सिद्धांत प्रेरणा पर बहुत अधिक बल देता है । अतः बालकों को कुछ भी सिखाने से पहले उन्हें भली प्रकार से अभिप्रेरित कर लेना चाहिये।


मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

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