तुलनात्मक शिक्षा के प्रभावकारी कारक
(FACTORS INFLUENCING COMPARATIVE EDUCATION)
तुलनात्मक शिक्षा का विकास इस अवधारणा से हुआ कि दो अथवा दो से अधिक राष्ट्रों की शिक्षा प्रणालियों में भिन्नता होती है। जिससे तार्किक, निरीक्षण एवं अनुभव के आधार पर कारकों की पहचान की गई तथा सामान्य तुलनात्मक विधि से उन कारकों की पुष्टि भी की गई। शिक्षा एक सामाजिक एवं मानवीय प्रक्रिया है जिसका लक्ष्य व्यक्ति में मानवीय गुणों का विकास करना है। आज के सन्दर्भ में योग्य नागरिकों का निर्माण करना शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है।
निकोलस हंस ने प्रभावकारी कारकों को तीन भागों में बाँटा है.
(1) संरचनात्मक कारक (Structural Factors) - संरचनात्मक कारक उन कारकों को कहा जाता है, जो शिक्षा प्रणाली के स्वरूप को प्रभावित करते हैं या शिक्षा के सैद्धान्तिक प्रारूप को प्रस्तुत करते हैं।
(2) कार्यपरक कारक (Functional Factors) - शिक्षा प्रक्रिया व्यावहारिक तथा कार्यपरक अधिक है। इसके अन्तर्गत तीन क्रियाएँ शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण का सम्पादन किया जाता है जिसे शिक्षण शास्त्र भी कहा जाता है। शिक्षा प्रणाली को कार्य-परक बनाने में शिक्षा तकनीकी, मनोविज्ञान, अनुदेशन तकनीकी तथा शिक्षणशास्त्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह समस्त वैज्ञानिक कारक शिक्षा प्रणाली को कार्यपरक बनाते हैं।
(3) मिश्रित कारक (Mixed Factors)- शिक्षा प्रणाली में कुछ ऐसे कारक भी होते हैं जो शिक्षा प्रणाली की संरचना तथा कार्य-परक पक्ष दोनों को ही प्रभावित करते हैं। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक पक्ष शिक्षा प्रणाली के दोनों पक्षों को प्रभावित करते हैं।
वर्नन मैलिन्सन रॉबर्ट ने एक पुस्तक 'तुलनात्मक शिक्षा की भूमिका' (An Introduction in the Study of Comparative Education) का प्रकाशन 1957 में किया। इस पुस्तक में शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन राष्ट्रीय चरित्र के सन्दर्भ में किया। इनका विश्वास था कि राष्ट्रीय चरित्र को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। इन्होंने मुख्य कारकों का उल्लेख किया, वे इस प्रकार हैं-भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा तकनीकी कारक।
(1) भौगोलिक कारक (Geographical Factors)
किसी देश की भौगोलिक परिस्थिति मानव जीवन के अतिरिक्त सभ्यता एवं संस्कृति तथा शिक्षा प्रणाली को भी प्रभावित करती है। विकसित राष्ट्रों की जलवायु उस देश के निवासियों की कार्यक्षमता के अधिक उपयोग के अनुकूल होती है। इन राष्ट्रों के व्यक्ति बारह से चौदह घंटे दिन में कार्य कर सकते हैं। इन देशों की जलवायु सामान्य या ठण्डी होती है। अधिक गर्म जलवायु वाले देशों के व्यक्ति सात से आठ घण्टे ही दिन में काम कर पाते हैं क्योंकि गर्म जलवायु उन्हें क्रियाशील तथा आलसी बनाती है। ठण्डे देशों तथा गर्म देशों के मानवीय भूगोल में भी सार्थक अन्तर होता है। देश की जलवायु से भाषाओं की संरचना तथा उच्चारण प्रत्यक्ष रूप में प्रभावित होते हैं। भौगोलिक कारक शिक्षा प्रणाली की संरचना को भी प्रभावित करता है। किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति तथा शिक्षा प्रणाली पर उस देश की भौगोलिक स्थिति का काफी प्रभाव पड़ता है। विश्व के विभिन्न देशों की भौगोलिक स्थिति अलग-अलग है अतएव वहाँ के निवासियों के रहन-सहन, सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा प्रणाली में भेद पाया जाता है। ठण्डे देश की जलवायु गर्म देश की जलवायु से भिन्न होती है। फलस्वरूप ठंड और गर्म देश के रहन-सहन तथा सामाजिक गर्म व्यवस्था आदि में विभिन्नता होती है। शिक्षा प्रणाली सामाजिक व्यवस्था एवं रहन-सहन से सदैव प्रभावित होती है। जो देश कृषि प्रधान होता है वहाँ की शिक्षा प्रणाली में कृषि की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। जिस देश में विविध औद्योगिक केन्द्र होते हैं और जहाँ की आय का प्रधान स्रोत विभिन्न उद्योग ही होते हैं। इस प्रकार शिक्षा को भौगोलिक कारक प्रभावित करते हैं ।
(2) दार्शनिक कारक (Philosophical Factors)
किसी देश का जीवन दर्शन उस देश की शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है अत: शिक्षा पर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। रॉस ने शिक्षा की व्याख्या एक सिक्के के दो पहलू के रूप में की है। उनके अनुसार एक पहलू सैद्धान्तिक तथा दूसरा गतिशील होता है। सैद्धान्तिक पक्ष को शिक्षा दर्शन कहा जाता है। गतिशील पक्ष को शिक्षा मनोविज्ञान तथा शिक्षा तकनीकी कहा जाता है। देश के जीवन दर्शन में तत्त्व-विचार, प्रमाण विचार, मूल्य मीमांसा तथा आचार संहिता उस देश की शिक्षा प्रणाली के नियमों, सिद्धांतों, शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम के प्रारूप, शिक्षण विधियों तथा प्रविधियों, अनुशासन, शिक्षक-छात्र सम्बन्ध तथा उनकी भूमिका के स्वरूप को प्रदान करते हैं। योजना विधि का शिक्षण में उपयोग किया जाता है तथा सामूहिक क्रियाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है। शिक्षा का जीवन में उपयोग होना चाहिए। शिक्षा का जीवन से घनिष्ठ एवं सार्थक सम्बन्ध होता है।
भारत के जीवन-दर्शन में वैदिक दर्शन को अपनाया गया है इसलिए शिक्षा में चारित्रिक विकास तथा नैतिक मूल्यों के विकास को प्राथमिकता दी जाती है। शिक्षा में प्रवचन एवं प्रश्नोत्तर विधियों का अधिक उपयोग किया गया है। शिक्षक छात्रों के लिए आदर्श प्रस्तुत करता है। अध्यापक को गुरू का स्थान दिया जाता है। भारत में गुरुकुल प्रणाली का विकास किया गया जो वैदिक दर्शन पर आधारित है।
दर्शन जीवन को प्रभावित करता है। अतः शिक्षा पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। प्राचीन यूनान का उदाहरण हमारे समक्ष है। वहाँ के सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तू ने एक विशिष्ट दर्शन पर देश की शिक्षा व्यवस्था को आधारित किया तथा देश के सम्पूर्ण शासन को दार्शनिकों के हाथ में सौंपने की बात कही। प्राचीन भारत में वैदिक दर्शन के आधार पर गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया था। इसके पश्चात् बौद्ध दर्शन पर विहार और मठो की शिक्षा पद्धति का विकास किया गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रतिपादित गुरुकुल के प्रमुख तत्त्वों को सम्मिलित करते हुए एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की स्थापन पर जोर दिया गया जो आधुनिक युग के जीवन के अनुरूप हो। इसी प्रकार श्री अरविन्द दर्शन पर आधारित कुछ शिक्षा संस्थाएँ भारत में खोली गयी। अत: तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में इस घटक पर समुचित ध्यान देना आवश्यक है।
(3) ऐतिहासिक कारक (Historical Factors)
किसी देश की शिक्षा प्रणाली को समझने के लिए यह जरूरी है कि उसके अंतर्गत अतीत को समझा जाए। वर्तमान को समझने में अतीत के इतिहास की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि वर्तमान में अतीत निहित होता है। शिक्षा प्रणाली पर अतीत के सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों का प्रभाव रहता है। विश्व के अधिकतर देशों में राजनैतिक तथा सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं जिससे वहाँ की शिक्षा प्रणालियाँ भी प्रभावित होती रहती है।\भारत की शिक्षा प्रणाली की ऐतिहासिक समीक्षा से ज्ञात होता है कि शिक्षा प्रणालियों का इतिहास युगों में विभाजन किया गया है वैदिक शिक्षा, बौद्ध शिक्षा, जैन शिक्षा, मुस्लिम शिक्षा, ब्रिटिश शिक्षा 1947 तक उसके पाश्चात्य आधुनिक शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ है। स्वतन्त्रता के पश्चात् तीन राष्ट्रीय शिक्षा आयोगों का गठन हुआ सन् 1968. सन् 1979 तथा 1986 क्योंकि इस अवधि में सत्ता के राजनैतिक दल परिवर्तित होते रहे और राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का स्वरूप भी बदलता रहा। प्रत्येक राजनैतिक दल के लक्ष्य तथा उद्देश्य अपने होते हैं वे उसी के अनुरूप शिक्षा प्रणाली को बोलने का प्रयत्न करते हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व प्रत्येक देश अपनी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के प्रारूप को अपने धार्मिक, राजनैतिक एवं राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित कर राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करता था। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के दुष्परिणाम से सभी राष्ट्र बचना चाहते थे इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) तथा यूनेस्को (UNESCO) को स्थापना की गई और शिक्षा प्रणालियों के उद्देश्यों में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना एवं विश्वबन्धुत्व की भावना तथा विश्व नागरिकता को शामिल किया गया। इस प्रकार ऐतिहासिक तथा राजनैतिक कारक देशों तथा विश्व की शिक्षा प्रणालियों को प्रभावित करते रहे हैं और शिक्षा के उद्देश्यों में बदलाव हुआ।
(4) भाषायी कारक (Linguistic Factors)
किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली में भाषा का विशेष स्थान होता है। शिक्षा प्रणाली में अन्य विषयों की भाँति एक विषय के रूप में भाषा को स्थान दिया जाता है। इसके अतिरिक्त भाषा शिक्षा एक माध्यम तथा आधारभूत सम्प्रेषण का साधन है। बिना भाषा के शिक्षा प्रणाली का सम्पादन सम्भव नहीं हो सकता। भाषा शिक्षा प्रणाली का महत्त्वपूर्ण प्रभावकारी कारक है। जिस देश की शिक्षा प्रणाली का माध्यम मातृभाषा होती है, वहाँ का राष्ट्रीय चरित्र उन्नत तथा प्रबल होता है। जिस देश की शिक्षा का माध्यम कोई विदेशी भाषा होती है, उस देश का राष्ट्रीय चरित्र प्रबल नहीं होता है। यद्यपि राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में कई अन्य कारक प्रभावित करते हैं। भाषा की राष्ट्रीयता की भावना के विकास में अहम् भूमिका होती है। किसी देश की सभ्यता तथा संस्कृति आदि अनेक अर्थों में उस देश की भाषा से सम्बन्धित होती है। भाषा का साहित्य पक्ष उस समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य सामाजिक गतिविधियों एवं उसके स्वरूप का चित्रण करता है।
भाषा विचार विनिमय का सर्वोत्तम साधन माना जाता इसलिये यह शिक्षा प्रदान करने का भी सर्वोत्तम साधन है। अतएव यह अन्य विषयों की भाँति एक विषय मात्र ही नहीं है, वरन् यह एक आधारभूत माध्यम है, जिसके अध्ययन एवं अध्यापन पर सम्पूर्ण शिक्षा आधारित है। " इसी सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने (1905) ने कहा था, "जब तक मातृ-भाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जायेगा, तब तक पाठ्य-पुस्तकें कैसे लिखी जायेंगी, नई शब्दावली कैसे बनेगी, भाषा का विकास उसके उपयोग से होता है।"
(5) वैज्ञानिक कारक (Scientific Factors)
वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास ने विश्व में देशों की भौतिक दूरी को कम कर दिया है अर्थात् वैज्ञानिक आविष्कारों ने संसार को छोटा कर दिया है। सम्प्रेषण उपकरणों तथा माध्यमों के विकास ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अधिक निकटता ला दी है। किसी राष्ट्र के वैज्ञानिक प्रयोगों का प्रभाव पड़ोसी देशों पर पड़ता है। वायुयानों की अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों ने भी विश्व के देशों की सद्भावनाओं को विकसित किया है। वैज्ञानिक आविष्कारों एवं माध्यमों के विकास ने शिक्षा प्रणाली को भी प्रभावित किया है। माध्यमों के उपयोग ने वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली का विकास किया है, जिसे दूरवर्ती शिक्षा (Distance Education) कहते हैं। दूरवर्ती शिक्षा के लिये विश्व के देशों में मुक्त विश्वविद्यालयों (Open Universities) की स्थापना की गई है। प्रजातान्त्रिक राष्ट्रों के संविधानों में शिक्षा के समान अवसरों का प्रावधान किया गया है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा दूरवर्ती शिक्षा की व्यवस्था से इस प्रावधान की पूर्ति की जाती है। दूरवर्ती शिक्षा में बहुमाध्यमों का उपयोग किया जाता है। मुद्रित तथा अमुद्रित माध्यमों का उपयोग किया जाता है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा दूरवर्ती शिक्षा की व्यवस्था औपचारिक शिक्षा प्रणाली से अधिक मितव्ययी है। सर्वप्रथम इस प्रणाली का विकास ब्रिटेन तथा फ्रांस में हुआ तत्पश्चात् अन्य राष्ट्रों ने इस प्रणाली को अपनाया गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना 1985 में नई दिल्ली में की गई। यह प्रणाली मितव्ययी तथा प्रभावशाली होने के कारण भारत के राज्यों में भी मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की जाने लगी। वैज्ञानिक आविष्कारों में मोबाइल, कम्प्यूटर पर अधिक शीघ्रता से मितव्ययी रूप में अन्य राष्ट्रों से सम्पर्क किया जाने लगा है।
(6) सामाजिक कारक (Social Factors)
आज हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर समाजवाद का प्रभाव दिखलाई पड़ रहा है। सामाजिक कारक शिक्षा प्रणालियों को सबसे अधिक प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करते हैं। विद्वानों का कथन है—समाज शिक्षा को जन्म देता है और शिक्षा समाज का निर्माण करती है। इस कथन का आशय है कि समाज शिक्षा को प्रभावित करती है और शिक्षा समाज को प्रभावित करती है। समाज जनता को शिक्षित करने के लिए शिक्षा की व्यवस्था करता है जिससे शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती है जो समाज के भावी विकास में समुचित योगदान कर सकें। शिक्षा का लक्ष्य भावी समाज का निर्माण करना है। शिक्षा को भविष्य का विज्ञान भी कहा जाता है। शिक्षा भावी जीवन के लिए तैयार करती है। प्राचीनकाल में सामाजिक परिवर्तन युद्धों, महायुद्धों तथा विश्व युद्धों से होते थे परन्तु आधुनिक समय में शिक्षा के द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् महापुरुषों ने विचार किया कि युद्ध की प्रवृत्ति मानव कल्याण के लिए अहितकारी है। अतः इसको कैसे बदला जाए इसके लिए यूनेस्को की स्थापना की गई जिसने शिक्षा के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना एवं विश्वबन्धुत्व की भावना के विकास को महत्त्व दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसमें महत्त्वपूर्ण सहयोग किया। शिक्षा के नवीन परावर्तन द्वारा समाज में समस्या भी उत्पन्न होती हैं और शिक्षा उनके समाधान में योगदान करती है। शिक्षा के द्वारा सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक समस्याओं का समाधान किया जाता है।
समाजवादी कारक का शिक्षा के स्वरूप पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में इस कारक पर ध्यान देना होगा कि तभी तुलनात्मक अध्ययन सार्थक होगा।
(7) धार्मिक कारक(Religious Factors)
व्यक्ति के जीवन में धर्म का विशेष स्थान होता है। किसी देश की दार्शनिक विचारधारा को उस देश की शिक्षा एवं धर्म से आचरण में लाया जाता है। शिक्षा एवं धर्म आचरण का साधन है और उसका सैद्धान्तिक पक्ष होता है। सामाजिक एवं परिस्थितिको कारकों में धार्मिक कारक भी निहित होते हैं। धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के मूल्यों, आस्था तथा विश्वास से अधिक होता है। इसलिए व्यक्ति के जीवन में धर्म का विशेष महत्त्व होता है। धर्म के नाम पर व्यक्ति अपना सब कुछ कर देता है। धर्म सामाजिक आचरण के मानक निर्धारित करता है।
भारत तथा यूरोप के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने धर्म के लिए अपने आपको हँसते-हँसते बलिदान किया। धर्म प्रधान देश रूढ़िवादी होते हैं। प्राचीन परम्पराओं में परिवर्तन का विरोध करते हैं। महात्मा गांधी ने छुआ-छूत की रूढ़िवादी परम्पराओं में परिवर्तन के काफी प्रयास किये परन्तु सफलता नहीं मिली, लेकिन अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा तथा विद्यालय में सभी छात्रों के लिए एक ही ड्रेस ने इस बुराई को छात्रों के लिए समाज से समाप्त कर दिया। शिक्षा धर्म को प्रभावित करती है और धर्म शिक्षा को प्रभावित करता है। धर्म में सुधार तथा विकास शिक्षा द्वारा लाया जा सकता है। परन्तु समाज शिक्षा संस्थाओं की स्थापना अपने धर्म एवं मूल्यों की रक्षा के लिए करता है। वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्योगिक विकास एवं माध्यमों के विकास ने प्राचीन परम्पराओं और नैतिक रूढ़ियों को प्रभावित किया है। इस दिशा में शिक्षा ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में धार्मिक रूढ़िवादिता अधिक है। परन्तु शिक्षा द्वारा कृषि विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा ने धीरे-धीरे इन रूढ़ियों को समाप्त किया है। शिक्षा ने भारत की कृषि के स्वरूप को बदल दिया है। शिक्षा में धार्मिक तथा नैतिक मूल्यों का आदर करना आवश्यक होता है। धार्मिक आस्थाओं एवं विश्वासों के आधार विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियाँ प्रभावित हुई हैं। भारत को स्वतन्त्रता के बाद से धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया गया है।
(8) आर्थिक कारक (Economic Factors)
किसी देश की शिक्षा प्रणाली का वहाँ की आर्थिक दशा से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा को आर्थिक स्थिति प्रभावित करती है और आर्थिक स्थिति को शिक्षा प्रभावित करती है। यदि किसी देश की साक्षरता दर अधिक हो तो उस देश की प्रति व्यक्ति आय दर में भी वृद्धि हो जाती है। शिक्षा को एक उत्तम विनियोग (Investment) माना जाता है। शिक्षा पर लागत का लाभांश सबसे अधिक होता है परन्तु किसी देश की शिक्षा प्रणाली को विकसित करने के लिए उसके आर्थिक संसाधनों पर ध्यान दिया जाता है। शिक्षा प्रणाली किसी देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर होती है। देश की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम तथा शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की जाती है। वित्तीय व्यवस्था के सम्बन्ध में राष्ट्र अथवा सत्ता का जैसा विश्वास तथा धारणा होती है उसे शिक्षा द्वारा बालकों में विकसित करने का प्रयोग किया जाता है।
समाजवादी आर्थिक व्यवस्था में समस्त सम्पत्ति राज्य (State) की होती है। इस प्रकार छात्रों में प्राथमिक स्तर से ही ऐसी भावना विकसित की जाती है कि सम्पूर्ण सम्पत्ति राज्य की है और सभी को उसकी रक्षा करनी है तथा उसमें वृद्धि करनी है। भारत में प्रजातान्त्रिक सत्ता है यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सम्पत्ति का संवैधानिक अधिकार है और सम्पत्ति निजी मानी जाती है और प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना मौलिक अधिकार माना जाता है। कुछ देशों में आज भी शिक्षा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता नहीं है। प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में शिक्षा की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है राज्य और समाज का उत्तरदायित्व शिक्षा प्रदान करना है। शिक्षा का सभी को समान अवसर दिया जाये। आज उच्च शिक्षा तकनीकी शिक्षा एवं मेडीकल शिक्षा अधिक महंगी है इसलिए आज विश्व के देशों में मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाने लगी है। मुक्त शिक्षा तथा दूरवर्ती शिक्षा अपेक्षाकृत मितव्ययी वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली है। इसे सेवारत व्यक्तियों के प्रोन्नत हेतु आवश्यक माना जाता है। शिक्षा प्रणालियों की स्थापना तथा शिक्षा को विकसित करने में आर्थिक कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में इसका विशेष महत्त्व होता है।
(9 ) जातीय कारक (Racial Factors)
विश्व के विभिन्न देशों में कई प्रकार की जातियाँ पाई जाती हैं जिनका उस देश की शिक्षा-व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। इन जातियों में कुछ जातियाँ ऐसी होती हैं जो अपने आपको दूसरों से अधिक श्रेष्ठ समझती हैं और इस कारण वे दूसरों पर शासन करने का प्रयास करती हैं। यदि वे अपने इस कार्य में सफल हो जाती हैं तो सामाजिक व्यवस्था पर उनका नियन्त्रण अधिक सुदृढ़ हो जाता है और उसी के अनुरूप फिर शिक्षा प्रणाली का विकास किया जाता है। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के लोगों ने अफ्रीका में अपना उपनिवेश इसलिए स्थापित किया क्योंकि वे गोरे होने के कारण काले अफ्रीकियों से खुद को अधिक श्रेष्ठ समझते थे और फिर उन्होंने अफ्रीका के अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी उपनिवेशों हेतु विशेष प्रकार की शिक्षा प्रणाली का विकास किया। इस कारण इन क्षेत्रों की शिक्षा प्रणाली में जातीय घटक की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। हमारे देश का भी यहाँ पर उदाहरण देना आप्रासंगिक नहीं है। भारत में ब्रिट्रिश उपनिवेश की स्थापना के बाद वहाँ के लोगों ने यहाँ पर अंग्रेजी भाषा का विकास किया और जन-साधारण को यह सन्देश दिया कि अंग्रेजी ही विकास की भाषा है और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति से अंग्रेजी सभ्यता अधिक श्रेष्ठ है। उसके पश्चात् उन्होंने उसी आधार पर पाठ्यक्रम तथा शिक्षा प्रणाली का विकास किया जिसका फल यह हुआ कि भारत की निरन्तर अवनति होती गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि जातीय कारक का शिक्षा प्रणाली के विकास में विशेष रूप से महत्त्व होता है। अतः तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में जातीय कारक की उपेक्षा नहीं जा सकती है।
- यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन।
- शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
- चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।

