(I) व्यक्तिगत कारक (Individual Factors)
(II) शिक्षक संबंधी कारक (Teachers related Factor)
(9) व्यवसाय के प्रति निष्ठा (Loyalty to Profession)- यदि शिक्षक में अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठा का भाव है तो वह विषय वस्तु को रूचि व उत्साह पूर्वक शिक्षार्थी के समक्ष प्रस्तुत करता है इसके फलस्वरूप शिक्षार्थी अधिक से अधिक लाभान्वित होता है।
(III) पाठ्यवस्तु से संबंधित कारक (Content related Factors)
(2) पाठ् की लम्बाई (Length) - पाठ की लंबाई जितनी अधिक होगी तो शिक्षार्थी की रूचि उस विषय में कम होने लगती है जिससे अधिगम प्रभावित होता है।
(3) पाठ्यवस्तु का जीवन से सम्बन्ध (Relation with Life)- पाठ्यवस्तु का शिक्षार्थी के वर्तमान अथवा भविष्य के जीवन से सम्बन्ध और उसकी उपयोगिता का स्तर भी शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। जिस पाठ्यवस्तु की जीवन में जितनी अधिक उपयोगिता होती है उसे बच्चे उतनी ही अधिक शीघ्रता से सीखते हैं।
(4) पाठ्यवस्तु का कठिनाई स्तर (Difficulty Level)— पाठ्यवस्तु यदि शिक्षार्थी की दृष्टि से सरल होती है तो शिक्षण-अधिगम प्रभावशाली होता है और यदि कठिन होती है तो उसका शिक्षण-अधिगम प्रभावी नहीं होता। कठिनाई स्तर का निर्धारण शिक्षार्थी की आयु, परिपक्वता और तत्सम्बन्धी पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है। यदि पाठ्यवस्तु का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है तो शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होती है।
(5) भाषा (Language) — अधिगम की प्रक्रिया को भाषा भी प्रभावित करती है। यदि शिक्षण में सरल व संक्षिप्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो अधिगम में सहायता मिलती है जबकि भाषा के वाक्य बड़े और कठिन शब्दों से युक्त होते है तो अधिगम की शिक्षा के प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते है।
(IV) शिक्षण विधि से संबंधित कारक (Teaching Methods related Factors)-
(1) शिक्षण विधि की उपयुक्तता (Suitability)- मनोवैज्ञानिकों ने शिशु, बाल और किशोर मनोविज्ञान तथा शिक्षण एवं सीखने सम्बन्धी जो तथ्य उजागर किए हैं उनके आधार पर भिन्न आयु वर्ग के बच्चों को भिन्न-भिन्न विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं में कौशल विकसित करने की भिन्न-भिन्न विधियों का विकास किया गया है। किसी विषय के ज्ञान अथवा कौशल में दक्षता के का अंग विकास के लिए जितनी अधिक उपयुक्त शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाता है शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है।
(2) अभ्यास एवं उपयोग (Practice and Use)— अभ्यास एवं उपयोग ये दोनों भी बड़े प्रभावी कारक हैं। शिक्षक शिक्षण करते समय सिखाए जाने वाले ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक अभ्यास कराता है और शिक्षार्थी उस सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक प्रयोग करते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है और सीखना उतना अधिक स्थायी होता है।
(3) करके सीखना (Learning by doing) — जिस कार्य को विद्यार्थी स्वयं करके सीखता है उसके स्मृति में बने रहने की संभावना अधिक होती है। अतः अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों को स्वयं करके सीखने के लिए प्रोत्साहित करें।
(4) मन में दोहराना (Recitation)- अधिगम की गयी सामग्री को मन ही मन दोहराकर सीखने की जाँच करने से अधिगम अधिक प्रभावी तथा स्थाई होता है।
(5) शिक्षण साधनों एवं तकनीकी का प्रयोग (Use of Teaching Aids and Technology)- शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि शिक्षण साधनों के प्रयोग से शिक्षण अधिगम को सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है। वर्तमान में तो हार्डवेयर शैक्षिक तकनीकी (ओवरहेड प्रोजेक्टर, रेडियो, टेलीविजन एवं कम्प्यूटर आदि) के प्रयोग से शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया को और भी अधिक रोचक, सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है।


