Thursday, May 12, 2022

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Learning)

 



(I) व्यक्तिगत कारक (Individual Factors)


(1) अभिप्रेरणा स्तर एवं सीखने की इच्छा शक्ति (Level of Motivation and Will to learn)-
जब तक किसी विद्यार्थी में किसी तथ्य को जानने अथवा क्रिया को सीखने के लिए आंतरिक इच्छा (अभिप्रेरणा) नहीं होती है तब तक उसे कुछ भी पढ़ना लिखना कठिन लगता है। अभिप्रेरणा के साथ सीखने की इच्छा का प्रबल होना भी आवश्यक होता है जिससे बच्चे में सीखने के लिए जिस स्तर एवं सीखने की इच्छा होती है वह उतनी ही जल्दी  सीखता है।

(2) शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and Mental Health)- अरस्तु कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। प्रायः यह देखा गया है कि शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ बच्चे सीखने में रुचि लेते हैं और उन्हें थकान भी कम होती है इसलिए वे शीघ्र सीखते हैं।

(3) आयु एवं परिपक्वता (Age and Maturity)- आयु के बढ़ने के साथ-साथ बालक का  शारीरिक एवं मानसिक विकास भी होते जाते हैं लगभग 16 वर्ष की आयु तक पूर्ण हो जाते हैं। जीवन के प्रथम चरण में सीखने की गति तीव्र होती है जबकि अधिक उम्र के व्यक्तियों की नवीन विषयों को सीखने की गति धीमी होती है।

(4) बुद्धि,  रुचि, अवधान, अभिक्षमता एवं अभिवृत्ति (Intelligence, Interest, Attention, Aptitude and Attitude)- जिस व्यक्ति की बुद्धि जितनी अधिक होती है वह उतना ही जल्दी सीखता है परंतु यदि बुद्धि अधिक होने के बाद भी उसकी सीखे जाने की जाने वाली सामग्री में रुचि नहीं होती तो उसका अवधान नहीं होता,  इसलिए उसमें अभिक्षमता नहीं होती और अभिवृत्ति नहीं होती जिससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं हो पाती है।

(II) शिक्षक संबंधी कारक (Teachers related Factor)


(1) शिक्षक का व्यक्तित्व (Personality) व व्यवहार (Behaviour) - व्यक्तित्व एक बहुआयामी संप्रत्य है शिक्षक के व्यक्तित्व में शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थ, शारीरिक गठन एवं सौंदर्य, वाणी, ज्ञान एवं कौशल, शिक्षण एवं विद्यार्थियों के साथ व्यवहार  आदि सम्मिलित होते है। शिक्षक का शिक्षार्थियों के प्रति जितना अधिक आत्मभाव होता है, वह उनके प्रति जितना अधिक प्रेम, सहानुभूति एवं सहयोग पूर्ण व्यवहार करता है, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है।

(2) शिक्षक का ज्ञान एवं कौशल (Knowledge and Skills)- शिक्षक को अपने विषय का जितना अधिक स्पष्ट ज्ञान होता है और वह सिखाए जाने वाले कौशल में जितना अधिक कुशल होते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है।

(3) शिक्षण  विधि एवं कौशल (Teaching Methods and Skills)- शिक्षक जितना अधिक विधियों एवं कौशल में कुशल होता है वह शिक्षण एवं  सीखने की प्रक्रिया में उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है।

(4) मनोविज्ञान का ज्ञान (Knowledge of Psychology) अधिगम एक मनोवैज्ञानिक संप्रत्यय है। अधिगम की प्रक्रिया में बालक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि अधिगम की प्रक्रिया अधिगमी के लिए ही आयोजित की जाती है। अतः शिक्षक को प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को संचालित करने हेतु मनोविज्ञान का ज्ञान  आवश्यक होता है। शिक्षक को छात्र की प्रकृति, वंश- परम्परा, वातावरण, विकास की क्रियाओं के अवस्थाएँ, बुद्धि, व्यक्तित्व, स्मृति, शिक्षण, अधिगम, अभिप्रेरणा आदि का ज्ञान होना चाहिए तभी वह प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया को संचालित कर सकता है। 

(5) बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल (Emphasis on child centred-Education) वर्तमान समय में शिक्षा बाल-केन्द्रित मानी गयी है जिसके फलस्वरूप शिक्षा का केन्द्र बालक होता है। अतः शिक्षक को बालक की रूचि, रुझान, योग्यता, बुद्धि  आदि को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य सम्पादित करना चाहिए जिससे कि बालक अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करें।

(6) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन (organization of co-curricular activities) – शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। इस सर्वांगीण विकास लिए पाठ्यक्रम में पाठचर्या के साथ पाठ्य सहगामी क्रियाओं को भी स्थान दिया गया है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं का शिक्षण में महत्वपूर्ण स्थान है। अतः शिक्षक को पाठ्य सहगामी क्रियाओं के ज्ञान के साथ-साथ उसके आयोजन का भी उचित ज्ञान होना चाहिए।

(7) वातावरण का ज्ञान (Knowledge of Environment) – अध्यापक प्रभावशाली शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को संचालित करने हेतु वातावरण का ज्ञान होना आवश्यक है। यह वातावरण भौतिक, सामाजिक तथा शैक्षिक कुछ भी हो सकता है । यदि शिक्षक को सम्पूर्ण वातावरण का ज्ञान  होता है तो तभी वह अपने शिक्षण में सफल बना पाता है। 

(8) पढ़ाने की इच्छा (Will to teach) — यदि शिक्षक विषय वस्तु को पढ़ाने में इच्छुक है तो उसका शिक्षण कार्य प्रभावशाली होता है और शिक्षार्थी भी प्रस्तुत विषय वस्तु को रुचिपूर्वक सीखने के लिए अग्रसर होता है।

(9) व्यवसाय के प्रति निष्ठा (Loyalty to Profession)- यदि शिक्षक में अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठा का भाव है तो वह विषय वस्तु को रूचि व उत्साह पूर्वक शिक्षार्थी के समक्ष प्रस्तुत करता है इसके फलस्वरूप शिक्षार्थी अधिक से अधिक लाभान्वित होता है।


(III) पाठ्यवस्तु से संबंधित कारक (Content related Factors)



(1) पाठ्यवस्तु की प्रकृति (Nature)- कोई विषय सामग्री एक स्तर के बच्चों के लिए प्रत्यक्ष एवं औपचारिक हो सकती है और दूसरे स्तर की बच्चों के लिए अप्रत्यक्ष एवं अनौपचारिक हो सकती हैं ।  कोई पाठ्यवस्तु किसी स्तर के बच्चों के लिए जितनी प्रत्यक्ष एवं औपचारिक होती है उसका शिक्षण अधिगम उतना ही अधिक प्रभावी होता है।

(2) पाठ् की लम्बाई (Length) - पाठ की लंबाई जितनी अधिक होगी तो शिक्षार्थी की रूचि उस विषय में कम होने लगती है जिससे अधिगम प्रभावित होता है।

(3) पाठ्यवस्तु का जीवन से सम्बन्ध (Relation with Life)- पाठ्यवस्तु का शिक्षार्थी के वर्तमान अथवा भविष्य के जीवन से सम्बन्ध और उसकी उपयोगिता का स्तर भी शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। जिस पाठ्यवस्तु की जीवन में जितनी अधिक उपयोगिता होती है उसे बच्चे उतनी ही अधिक शीघ्रता से सीखते हैं।

(4) पाठ्यवस्तु का कठिनाई स्तर (Difficulty Level)पाठ्यवस्तु यदि शिक्षार्थी की दृष्टि से सरल होती है तो शिक्षण-अधिगम प्रभावशाली होता है और यदि कठिन होती है तो उसका शिक्षण-अधिगम प्रभावी नहीं होता। कठिनाई स्तर का निर्धारण शिक्षार्थी की आयु, परिपक्वता और तत्सम्बन्धी पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है। यदि पाठ्यवस्तु का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है तो शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होती है।

(5) भाषा (Language) अधिगम की प्रक्रिया को भाषा भी प्रभावित करती है। यदि शिक्षण में सरल व संक्षिप्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो अधिगम में सहायता मिलती है जबकि भाषा के वाक्य बड़े और कठिन शब्दों से युक्त होते है तो अधिगम की शिक्षा के प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते है।

(IV) शिक्षण विधि से संबंधित कारक (Teaching Methods related Factors)-  


(1) शिक्षण विधि की उपयुक्तता (Suitability)-  मनोवैज्ञानिकों ने शिशु, बाल और किशोर मनोविज्ञान तथा शिक्षण एवं सीखने सम्बन्धी जो तथ्य उजागर किए हैं उनके आधार पर भिन्न आयु वर्ग के बच्चों को भिन्न-भिन्न विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं में कौशल विकसित करने की भिन्न-भिन्न विधियों का विकास किया गया है। किसी विषय के ज्ञान अथवा कौशल में दक्षता के का अंग विकास के लिए जितनी अधिक उपयुक्त शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाता है शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक  प्रभावशाली होती है। 


(2) अभ्यास एवं उपयोग (Practice and Use)— अभ्यास एवं उपयोग ये दोनों भी बड़े प्रभावी कारक हैं। शिक्षक शिक्षण करते समय सिखाए जाने वाले ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक अभ्यास कराता है और शिक्षार्थी उस सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक प्रयोग करते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है और सीखना उतना अधिक स्थायी होता है।


(3) करके सीखना (Learning by doing) — जिस कार्य को विद्यार्थी स्वयं करके सीखता है उसके स्मृति में बने रहने की संभावना अधिक होती है। अतः अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों को स्वयं करके सीखने के लिए प्रोत्साहित करें।


(4) मन में दोहराना (Recitation)- अधिगम की गयी सामग्री को मन ही मन दोहराकर सीखने की जाँच करने से अधिगम अधिक प्रभावी तथा स्थाई होता है।


(5) शिक्षण साधनों एवं तकनीकी का प्रयोग (Use of Teaching Aids and Technology)- शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि शिक्षण साधनों के प्रयोग से शिक्षण अधिगम को सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है। वर्तमान में तो हार्डवेयर शैक्षिक तकनीकी (ओवरहेड प्रोजेक्टर, रेडियो, टेलीविजन एवं कम्प्यूटर आदि) के प्रयोग से शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया को और भी अधिक रोचक, सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है।


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