व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-analytical Theory of Personality)
प्रतिपादक - सिगमंड फ्रायड
व्यक्तित्व का अध्ययन करने का सबसे प्रथम सिद्धान्त मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त है। फ्रायड ने व्यक्ति के व्यवहार को समझने तथा मानसिक विकारों से पीड़ित व्यक्तियों की चिकित्सा करने में मनोविश्लेषण विधि का अधिक प्रयोग किया जिससे उसको काफी प्रसिद्धि प्राप्त हुई। फ्रायड ने मूल प्रवृत्तियों को मानव व्यवहार का निर्धारक तत्व माना है। फ्रायड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त में मूल प्रवृत्तियों की अवधारणा व्यक्तित्व की गतिशीलता को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। मूल-प्रवृत्तियों का उल्लेख व्यक्ति की जन्म-जात समस्त मनःऊर्जा (Psychic ) के रूप में किया जाता है। इन्होंने दो मूल प्रवृत्तियों की ओर ध्यान आकर्षित किया।
(1) जीवन मूल-प्रवृत्ति या यौन-प्रेम (Life instinct or Eros ) : -
जीवन मूल प्रवृत्ति व्यक्ति को जीवित रहने के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य करती है। जीवन मूल-प्रवृत्ति से सम्बन्धित सभी मूल-प्रवृत्तियों में निहित सम्पूर्ण मानसिक शक्ति को फ्रायड ने काम-शक्ति (Libido) का नाम दिया है। जीवन मूल-प्रवृत्ति के सभी कार्य इस काम शक्ति के द्वारा ही संचालित होते हैं। काम -शक्ति में अनेक जीवन मूल प्रवृत्तियों की शक्तियाँ सम्मिलित रहती हैं, जिनमें काम-वासना, भूख तथा प्यास मुख्य हैं। जीवन मूल-प्रवृत्तियों के सम्पूर्ण समूह को संगठित रूप में फ्रायड ने यौन-प्रेम (Eros) का नाम दिया है।
(2) मृत्यु मूल -प्रवृत्ति या मूमुर्षा (Death instinct or Thanatos) :
मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की सभी प्रकार की जैविक आवश्यकताओं का अन्त हो जाता है। अर्थात् मृत्यु वह कारक है जो सभी मानवीय क्रियाओं के अन्त का कारण सिद्ध होता है। इसके बाद प्राणी को जैविक आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। मृत्यु मूल-प्रवृत्ति में मृत्यु प्राप्त करने की अचेतन भावना निहित रहती है। फ्रायड के अनुसार प्राणी के जीवन का उद्देश्य मृत्यु है।
व्यक्तित्व की सरंचना (Structure of Personality)
व्यक्तित्व का स्थलाकृतिक पहलू (Topographical Aspect of Personality)
व्यक्ति की स्थालाकृतिक संरचना में फ्रायड ने मन के तीन स्तरों का वर्णन किया है-चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन ।
(i) चेतन (Conscious) :- चेतन मन का वह भाग है जिसमें वे अनुभूतियाँ (experiences) निहित रहती हैं, जिनके बारे में व्यक्ति पूर्णतः अवगत रहता है। यह उन विचारों, भावनाओं, तथा सूचनाओं का भण्डार होता है जिनका व्यक्ति आसानी से तुरन्त स्मरण कर सकता है।
(ii) अर्धचेतन अथवा अवचेतन (Subconscious or Preconscious) : - व्यक्ति के अर्ध-चेतन मन में वे अनुभूतियाँ निहित रहती हैं जिनकी उसे वर्तमान में पूर्णतः जानकारी नहीं रहती है लेकिन थोड़ा प्रयास करने पर उनसे अवगत हुआ जा सकता है अर्थात् यह व्यक्ति के मन का वह भाग है जिसमें संचित अनुभूतियों को वह थोड़ा प्रयास करने पर स्मृति पटल पर वापिस ला सकता है।
(iii) अचेतन (Unconscious): फ्रायड का मानना था कि व्यक्ति का व्यवहार उसके चेतन मन की अपेक्षा अचेतन मन अधिक प्रभावित करता है। व्यक्ति का अचेतन मन उन इच्छाओं तथा प्रवृत्तियों का भण्डार होता है जिनकी पूर्ति वह वास्तविक जीवन (real life) में नहीं कर पाता है। ये अतृप्त इच्छाए तथा प्रवृत्तियाँ व्यक्ति के चेतन मन से हटकर दमन की प्रक्रिया के द्वारा उसके अचेतन में संगृहीत होती जाती हैं। आगे चलकर ये दमित इच्छाएँ व्यक्ति के व्यवहार को अनेक प्रकार से प्रभावित करती हैं। फ्रायड ने व्यक्तित्व की तुलना आइसवर्ग से की है जिसका 1/10 हिस्सा पानी से ऊपर रहता है। तथा 9/10 हिस्सा पानी में डूबा रहता है। अतः हमारे व्यक्तित्व का अधिकांश भाग अचेतन के रूप में हिमखण्ड की तरह से अदृश्य रहता है। अचेतन में दमित इच्छाओं को व्यक्ति संघर्ष के बाद ही चेतन स्तर पर ला पाता है।
जैसे- स्वप्न में दमित इच्छाओं की पूर्ति होते हुए दिखाई देना, किसी चीज का अचानक याद आ जाना, सम्मोहन की अवस्था में प्रश्नों का उत्तर देना, अनायास मुँह से अवांछित शब्दों का निकलना, लिखते समय असंभावित त्रुटियाँ होना तथा सोते समय समस्याओं का समाधान होना आदि क्रियाएँ अचेतन के अस्तित्व (existence) को दर्शाती हैं।
व्यक्तित्व का गत्यात्मक पहलू (Dynamic Aspect of Personality)
व्यक्तित्व के गत्यात्मक पहलू से फ्रायड का तात्पर्य उस उपक्रम (System) से है जिसके द्वारा व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों से उत्पन्न होने वाले संघर्षों का समाधान करने का प्रयास किया जाता है। ये तीन प्रकार के हैं -
(i) Id (इदम् ) :- यह व्यक्तित्व का वह मूल तन्त्र (System) है जो व्यक्ति की जन्मजात मनःशक्तियों का भण्डार होता। है। इसकी प्रकृति मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर करती है। यह अहम् तथा पराहम् के संचालन के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। यह आनन्द प्राप्ति के सिद्धान्त पर कार्य करता है। अतः यह तनाव कम करने के लिए आनन्द पथ का अनुसरण करता है, चाहे वह पथ अच्छा हो अथवा बुरा हो अर्थात् इसका यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। यह सहज् क्रियाओं (Reflex actions) तथा प्राथमिक प्रक्रिया (Primary process) को नियन्त्रित करता है। सहज् क्रियाएँ जन्मजात तथा स्वतः संचालित (automatic) क्रियाएँ होती हैं जैसे - छींकना, पलकें झपकना आदि। ये क्रियाएँ तनाव को तुरन्त दूर करती हैं। प्राथमिक प्रक्रियाओं से प्रतिमाओं के द्वारा तनाव को कम करने का प्रयास किया जाता है जैसे भूख लगने पर अच्छे भोजन की प्रतिमाओं को स्मृति में लाना। लेकिन खाने की प्रतिमाओं द्वारा भूख से उत्पन्न तनाव वास्तविक (Realistic) रूप में दूर नहीं हो पाता है। इदम् यौन प्रवृत्ति तथा आक्रामकता पर आधारित होता है और यह पूर्णतः अचेतन होता है। यह व्यक्तित्व का जैविक पहलू है|
(ii) अहम् (Ego): यह इदम् तथा बाह्य जगत् दोनों के सम्पर्क में रहता है तथा इदम् की इच्छाओं को सामाजिक परिवेश के दायरे में सन्तुष्ट करने के उपाय जुटाता है। इसकी प्रकृति तार्किक होती है तथा यह इदम् तथा पराहम् के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करता है। अहम् द्वितीय प्रक्रिया द्वारा संचालित होता है इसकी गतिविधियाँ वास्तविक चिन्तन (realistic thinking) पर आधारित होती हैं। जिस व्यक्ति का अहम् सशक्त (strong) होता है वह इदम् पर नियन्त्रण करके वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने में सफल रहता। है। अहम् यर्थायता के सिद्धान्त पर कार्य करता है। अहम् का विकास माता-पिता तथा बालक के सम्पर्क में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा होता है। अहम् को व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक पहलू माना जाता है ।
(iii) पराहम् (Super ego) :- पराहम् नैतिकता के सिद्धान्त पर कार्य करता है यह पूर्णतः चेतन होता है। यह मन का वह भाग है जिसे हम अन्तरात्मा (Conscience) कहते हैं । यह अहम् को उन्हीं कार्यों को करने की स्वीकृति देता है जो नैतिक मूल्यों (Moral values) के दायरे में आते हैं। पराहम् हमेशा इद्म के सम्पर्क में रहता है तथा उसकी अवांछित इच्छा पर नियन्त्रण करने की हर कोशिश करता है। यह अहं को भी नियन्त्रित करता है। इसका विकास माता-पिता तथा अध्यापक द्वारा दिए संस्कारों और अपनाये गए आदर्शों द्वारा होता है । पराह्म व्यक्तित्व का सामाजिक पहलु माना जाता है ।
फ्रॉयड ने आगे स्पष्ट किया कि अहम् (Ego) सदैव इदम् (Id) और पराहम् (Super Ego) के बीच साम॑ज॒स्य॒ स्थापित करने का प्रयास करता है; जिन व्यक्तियों में यह सामंजस्य हो जाता है वे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों क्षेत्रों में समायोजन करने में समर्थ होते हैं और उन्हें सुसमायोजित व्यक्तित्व (Well Adjusted Personality) कहा जाता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों में इदम् अहम् और पराहम के बीच संघर्ष बना रहता है वे व्यक्ति व्यक्तिगत अथवा सामाजिक किसी भी क्षेत्र में समायोजन नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्तियों को कुसमायोजित व्यक्तित्व (Mal- Adjusted Personality) का कहा जाता है।
व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)
फ्रॉयड ने मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाएं बताई हैं -
(1) मुखावस्था (Oral Stage) : यह अवस्था जन्म से एक वर्ष की उम्र तक चलती है, जिसमें बालक मुख की क्रियाओं द्वारा लैंगिक सुख प्राप्त करता है। स्तनपान करना, अंगूठा चूसना तथा अन्य चीजों को मुँह में डालना आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं।
(2) गुदा अवस्था (Anal Stage): यह अवस्था तीन वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था में बच्चा मल-मूत्र को त्यागने तथा कभी-कभी रोकने में लैंगिक सुख की प्राप्ति करता है। मल त्यागते समय वे काफी देर तक बैठे रहते हैं।
(3) लिंग प्रधान अवस्था (Phallic Stage): यह अवस्था तीन वर्ष से पाँच वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में बच्चे अपने हाथों से जननेन्द्रियों को स्पर्श करके लैंगिक सुख की प्राप्ति करते हैं। इस में दो प्रकार की ग्रंथियों का निर्माण होता है -
1. Oedipus Complex- मातृ-मनोग्रंथि -
- लड़कों में पायी जाती है ।
- माँ के प्रति प्रेम ।
2. Electra Complex- पितृ -ग्रंथि
- लड़कियों में पायी जाती है ।
- पिता के प्रति प्रेम ।
(4) अव्यक्त अवस्था (Latency Stage): यह अवस्था 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था में बच्चे सामाजिक दबाव में आकर लैंगिक इच्छाओं को अनैतिक मानकर उनका दमन करते हैं।
(5) जननेन्द्रिय अवस्था (Genital Stage) : यह अवस्या 13 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में किशोर पहले समलिगियों तथा बाद में विषमलिगियों (Opposite sex) के साथ सम्बन्ध बनाने में आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं ।



