पंचायती राज संस्थाएं
(Panchayati Raj Institutions, PRIs)
पृष्ठभूमि -
भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक ‘लाॅर्ड रिपन’ को माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन संबंधी प्रस्ताव दिया जिसे स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का ‘मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है। वर्ष 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषय सूची में रखा गया। वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के तहत इसे और व्यापक व सुदृढ़ बनाया गया।स्वंत्रता के पश्चात् वर्ष 1957 में योजना आयोग (जिसका स्थान अब नीति आयोग ने ले लिया है) द्वारा ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ और ‘राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम’ के अध्ययन के लिये ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था- ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं ज़िला स्तर लागू करने का सुझाव दिया।
पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम, तालुका और जिला आते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था आस्तित्व में रही हैं। आधुनिक भारत में प्रथम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई।
जनता सरकार ने 1977 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं के मूल्यांकन और इसके पूर्व में किये गए कार्यों के मूल्यांकन के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई। कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया कि पंचायती राज संस्थाएँ समाज के कमजोर वर्ग को प्रजातन्त्र के लाभ पहुँचाने में असमर्थ रही हैं क्योंकि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति के दबाव में रहता है।
इसके पश्चात् प्रधानमंत्री राजवी गाँधी के शासन काल में प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण को शक्ति और गति मिली क्योंकि इस सरकार ने पंचायती राज और नगरपालिका बिल संसद में प्रस्तुत किया। लेकिन यह बिल सभा में पास नहीं हो सका। इसके पश्चात् प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार के कार्यकाल में दिसम्बर, 1992 में यह बिल दोनों सदनों में पास हो गया और सरकार के आदेशानुसार अप्रैल 1993 में यह कानून लागू हो गया। इस प्रकार संविधान में 73 वॉँ संशोधन, दिसम्बर 1992 में किया गया और अप्रैल 1993 में लागू किया गया। इसका उद्देश्य था देश की करीब ढाई लाख पंचायतों को अधिक अधिकार प्रदान कर उन्हें सशक्त बनाना और उम्मीद थी कि ग्राम पंचायतें स्थानीय ज़रुरतों के अनुसार योजनाएँ बनाएंगी और उन्हें लागू करेंगी।
पंचायती राज संस्थाओं के विकास में यह 73वाँ संविधान संशोधन ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि इस संशोधन ने इनके विकास को गति प्रदान की और इनमें सुधार के कार्य सम्भव बनाये।
शिक्षा का विकेन्द्रीकरण और पंचायती राज संस्थाएँ
(Decentralization of Education and Panchayati Raj Institutions, PRIs )
शैक्षिक दृष्टि से पंचायती राज संस्थाओं का विशेष महत्त्व है। ये संस्थाएँ स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ -साथ उनका विकास भी करती हैं। स्वतन्त्रता के बाद भारत में लोकतन्त्रीय प्रणाली प्रारम्भ हुई जिसके फलस्वरूप विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को स्वीकार कर शैक्षिक विकास को गति प्रदान की गई है। अब इन संस्थाओं को प्राप्त अधिकार दिए गए हैं, शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और उत्तरदायित्त्व सौंपे गए हैं। भारत में अधिकतर राज्यों में प्राथमिक शिक्षा के लिए इन संस्थाओं को पूर्णत: उत्तरदायी स्वीकार किया गया है। राज्य सरकार का इन संस्थाओं पर नियन्त्रण होता है और ये संस्थाएँ संविधान के अनुसार राज्य विधान सभा द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार ही कार्य करती हैं। स्वतन्त्रता के बाद इन संस्थाओं के तीन स्तर हैं-
(1) ग्रामीण (2) ब्लॉक स्तर (3) जिला स्तर।
\इन संस्थाओं ने प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनका राष्ट्र के शैक्षिक विकास में विशेष योगदान रहा है। शैक्षिक प्रबंधन का विकेन्द्रीकरण करके ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जिला परिषद या जिला बोर्ड की स्थापना की गई है। ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था को इनके अधीन ब्लॉक या पंचायत समितियों को प्रदान की गई है और शिक्षा सम्बन्धी सभी कार्यक्रमों को सुचारू रूप से संचालन के लिए प्रत्येक परिषद या बोर्ड में एक शिक्षा समिति का गठन किया गया है।
इस समिति में जिलाधिकारी पदेन सदस्य के रूप में, जिला प्रमुख (पदेन निर्वाचित) सदस्य के रूप में , पंचायत समितियों से निर्वाचित एक प्रतिनिधि और शिक्षा विभाग का प्रतिनिधि (उपविद्यालय निरीक्षक) के रूप में कार्य करते हैं। इन संस्थाओं को शैक्षिक दृष्टि से निम्नलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-
१. जिला परिषद/जिला बोर्ड (District Council) - ग्रामीण क्षेत्र के शिक्षा प्रबन्धन की दृष्टि से जिला परिषद स्वोच्च स्तर है। यह प्राथमिक शिक्षा के लिए उत्तरदायी है। जिला परिषद के अन्तर्गत कई समितियाँ होती हैं। इनमें शिक्षा समिति भी होती है जो प्राथमिक शिक्षा और कुछ सीमा तक माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था करती है। शिक्षा जिले की शिक्षा के लिए नीति निर्धारित करती है। अध्यापक तथा अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति करती हैं, सेवा की दशाएँ निर्धारित करती है, वित्तीय सहायता और निरीक्षण करती है। जिला परिषद की सहायता के लिए एक-एक तहसील को एक-एक क्षेत्र (ब्लॉक, Block) में बाँटा गया है। कुछ राज्यों में प्रत्येक क्षेत्र के एक पंचायत समिति बनाई गई है, जिसके अध्यक्ष को प्रधान कहा जाता है और प्रशासनिक अधिकारी को क्षेत्र विकास अधिकारी (B.D.O) कहा जाता है। ये पंचायत समितियां जिला परिषद् के लिए कार्य करती है और अपने क्षेत्र में शिक्षा प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करते हैं। जिला परिषद् के प्रधान को चेयरमैन कहा जाता है जो जिले की ग्रामीण शिक्षा का सर्वोच्च अधिकारी होता है।
२. ब्लॉक/पंचायत समिति (Block/ Panchayat Committee)- इस स्तर पर तीन अधिकृत्तियाँ हैं - (1) पंचायत समिति (2) ब्लॉक अधिकारी (3) सहायक उप शिक्षा अधिकारी (शिक्षा विभाग से प्रतिनियुक्ति होता है) । प्रधान पंचायत समिति के विकास के लिए उत्तरदायी होता है। ब्लॉक अधिकारी राजकीय सेवा का सदस्य होता है। यह राज्य की नीतियों व नियमों के अनुरूप समिति का विकास करने में सहायता करता है। शिक्षा विभाग में सहायक उपशिक्षा अधिकारी समिति के शैक्षिक विकास, शिक्षा के विस्तार और पर्यवेक्षण का कार्य करता है।
पंचायत समिति के कार्य - समिति के कार्यों को हम निम्नलिखित रूप से स्पष्ट कर सकते हैं-
(i) नये विद्यालयों की स्थापना एवं भवनों का निर्माण करना।
(ii) प्राथमिक शिक्षा के विकास और अन्य क्रियाओं में जिला बोर्ड की शिक्षा समितियों की सहायता करना।
(iii) विद्यालयों के रखरखाव व सजावट (साज-सज्जा), उपकरण आदि प्रदान करना।
३. ग्राम पंचायत स्तर (Gram Panchayat Level)- ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा प्रबन्धन की दृष्टि से ग्राम पंचायतें महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ हैं। ये प्राथमिक शिक्षा के विकास, प्रचार और प्रसार के लिए प्रयासरत हैं। कई राज्यों में तो कानून बनाकर प्राथमिक शिक्षा का दायित्व ग्राम पंचायतों को सौंप दिया गया है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्तर पर शिक्षा-प्रशासन में विद्यालय निरीक्षक, बेसिक शिक्षा अधिकारी, विद्यालय उपनिरीक्षक, सहायक विद्यालय उपनिरीक्षक और निरीक्षिका होते हैं। आज ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का विकास ग्राम पंचायतों पर निर्भर करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. तोमर, गजेन्द्र सिंह (२०१७), विद्यालय संगठन एवं प्रबंधन , मेरठ, आर० लाल० बुक डिपो
