तुलनात्मक शिक्षा का विकास (Development of Comparative Education)
आधुनिक युग को अंतरिक्ष का युग कहते हैं , वैज्ञानिक आविष्कारों तथा माध्यमों के विकास ने विश्व के देशों की दूरी को कम कर दिया जाता है । विश्व के देशों में परस्पर निर्भरता अधिक हो गई है। कोई देश आत्म-निर्भर नहीं है। एक देश की क्रियायें तथा गतिविधियाँ पड़ोसी तथा अन्य देशों को प्रभावित करती हैं। यदि विश्व के किसी देश में युद्ध आरम्भ होते हैं, तब उसका प्रभाव विश्व के सभी देशों पर पड़ता है। मनुष्य ने दो विश्व युद्धों के परिणामों को देखा तथा अनुभव किया है, जिससे सभी देश युद्ध की विभीषिकाओं से भयभीत हुए और सभी देश विश्व शान्ति चाहने लगे और इस दिशा में प्रयास किये गए । कभी - कभी अकाल, भूकंप, महामारी, सूखा, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप एक देश में होता है तो उसका प्रभाव पड़ोसी देशों पर भी पड़ता है। आज विश्व के देश परस्पर एक दूसरे से बंधे हुये हैं। एक देश की शैक्षिक प्रणाली या शैक्षिक विचारधारा अन्य देशों की शिक्षा को प्रभावित करती है। इसलिये आज की यह आवश्यकता हो गई है कि अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन तथा विश्लेषण किया जाये और उनकी विशेषताओं को अपनी शिक्षा प्रणाली में सम्मिलित किया जाये। इस प्रकार के अध्ययन से विदित होता है कि किसी देश की शिक्षा प्रणाली को कुछ विशिष्ट कारक प्रभावित करते हैं, जो अन्य देशों के कारकों से भिन्न होते हैं। इन आवश्यकताओं के फलस्वरूप ही तुलनात्मक शिक्षा का आर्विभाव हुआ। शिक्षा की प्रवृत्तियों में परिवर्तन होता रहता है, इसी कारण तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन तथा विश्लेषण में भी परिवर्तन होता है।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास-क्रम को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है-
प्रथम अवस्था (First Stage )
तुलनात्मक शिक्षा के विकास का प्रथम अवस्था 1817 से अन्तोइजन जुलियन के विचारों से प्रारम्भ हुआ। यह अवस्था 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक मानी जा सकती है। 19वीं शताब्दी में यह धारणा को बल मिला कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को दूसरा देश अपने शिक्षा-संगठन में अपना सकता है। इस धारणा के फलस्वरूप विभिन्न देशों के शिक्षा प्रणाली सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करने का प्रयास किया गया। इन आंकड़ों को तालिकाबद्ध करके उनसे कुछ सामान्य सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया गया। फलतः इस धारणा बल मिला कि सिद्धान्तों के अनुसार किसी भी देश की शिक्षा संगठित की जा सकती है। इस अवस्था में आँकड़ों को एकत्रित करने के क्रम में सम्बद्ध देश की उस समय की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दशाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था, जबकि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली पर इन दशाओं का बड़ा प्रभाव पड़ता है। फलतः इस बात पर विचार नहीं किया जाता था कि जिस देश की शिक्षा-प्रणाली की विशेषताओं को अपनाने के लिये कहा जा रहा है, वे अपनाने वाले देश की सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हैं। या नहीं। इस प्रकार तुलनात्मक शिक्षा के विकास की इस प्रथम अवस्था को 'अनुकरण की अवस्था' में फ्रांस के विक्टर काज़िन, इंग्लैण्ड के मैथ्यू अरनॉल्ड, अमेरिका के होरेस मैन और हेनरी बर्ग, रूस के टाल्सटाय और शींसकी तथा अजेंन्टाइना के डोमिंगो सारमीण्टो के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
प्राचीन काल में एक देश के व्यापारी, शोधकर्ता तथा यात्री दूसरे देश को खोजने का प्रयास करते थे और उन देशों को देखने के बाद उनका विवरण अन्य देशों को भेजते थे। उनके विवरणों में उस देश की शासन व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, विद्यालयों का वर्णन आदि दिया जाता था और छात्रों के विकास के उपायों का उल्लेख किया जाता था। इन लोगों के द्वारा यात्रा वर्णन काफी रोचक ढंग से किया जाता था जिससे पाठक उन आलेखों में रुचि लेते थे।
इस अवस्था में व्यवस्थित व्याख्या एवं विश्वसनीय निरीक्षण का अभाव रहा। यात्रियों ने अन्य देशों का विवरण व्यक्तिगत ढंग से रोचक बनाने की दृष्टि से किया गया। यह विवरण अव्यवस्थित तथा निरीक्षण अविश्वसनीय अधिक थे। इन आलेखों की शुद्धता तथा विश्वसनीयता ज्ञात करना कठिन था।
द्वितीय अवस्था (Second Stage)
तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन के विकास की द्वितीय अवस्था में सामाजिक, आर्थिक एवं शिक्षा को प्रभावित करने वाले अन्य घटकों पर ध्यान दिया जाने लगा अर्थात् अब यह विचार किया जाने लगा कि शिक्षा प्रणाली में पाई जाने वाली विशेषता को यदि किसी दूसरे देश में अपनाया जाये तो वह वहाँ की परिस्थिति के अनुरूप होगी या नहीं। साथ ही, विशेषता की भावनाओं पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। इस प्रकार अन्धानुकरण (Blind Imitation) की प्रवृत्ति को त्याग दिया गया।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास की द्वितीय अवस्था के प्रवर्तक सर माइकेल सैडलर (Sir Michael Sadler) माने जाते हैं। उन्होंने सन् 1907 में तुलनात्मक शिक्षा पर एक निबन्ध लिखा। उस निबन्ध में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश के सामाजिक वातावरण से सम्बन्धित होनी चाहिए। उनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय सामाजिक परिस्थिति तथा सामाजिक घटकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सेडलर की इस अवधारणा की पुष्टि अन्य कई शिक्षाशास्त्रियों ने भी की है। इनमें से जर्मनी के फ्रेडरिक सनाइडर (Friedrich Schneider), अमेरिका के आइजक कैण्डल (Isaac Kandel) तथा इंग्लैण्ड के रॉबर्ट उलिक (Robert Ulich), जोजेफ लारीज (Jojeph Lauwerys) तथा निकोलस हन्स (Nicholas Hans) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन समस्त शिक्षाशास्त्रियों ने तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली तथा उस देश की सामाजिक परिस्थिति के परस्पर सम्बन्ध पर बल दिया है और कहा है कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय उस देश की सामाजिक परिस्थितियों को समझना बहुत आवश्यक है।
द्वितीय अवस्था का मूल्यांकन इन सभी विद्वानों ने पाश्चात्य देशों का भ्रमण करके तथ्यों एवं निरीक्षण के आधार पर तुलनात्मक कार्यों को प्रोत्साहित किया एवं बढ़ावा दिया। इस दिशा में अधिकतर विद्वानों ने व्यवस्थित आयाम का अनुसरण नहीं किया। मोरस मन ने कोई व्यवस्थित प्रविधि का उपयोग नहीं किया और न ही अपने अनुभवों के आधार पर कोई निर्देशन दे सका। मार्क जुलियन ने एक व्यवस्थित अध्ययन पर अधिक बल दिया था। हेनरी बर्नार्ड ने अपनी रिपोर्ट में उन्हीं तथ्यों को शामिल किया, जो उन्हें उपलब्ध हो सके। मार्क जुलियन ने अपनी प्रश्नावली में अन्य देशों की सांस्कृतिक तथा दार्शनिक विचारधारा पर आधारित प्रश्नों को सम्मिलित किया जबकि दर्शन एवं संस्कृति किसी देश की शिक्षा का सैद्धान्तिक आधार होती है। इन पक्षों पर प्रश्नों को सम्मिलित करने पर ही विश्वसनीय तथा वस्तुनिष्ठ सूचनाएँ उपलब्ध हो सकती हैं। इस अवस्था के शिक्षाशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा की समस्याओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया। अन्तोइन जुलियन का विश्वास था कि उसकी निरीक्षण सम्बन्धी तुलनात्मक तालिका की सहायता से सापेक्ष मूल्यों एवं विद्यालयों की शैक्षिक व्यवस्था तथा कार्य प्रणाली से विकास की प्रवृत्ति का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। मैथ्यू अरनोल्ड का विचार था कि दूसरे देशों की शिक्षा प्रणालियों का विश्लेषण उसी देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के सन्दर्भ में करना चाहिए।
इस अवस्था को विकास की प्रक्रिया की अवधारणा माना जाता है। इसमें पर्याप्त सूचनाएँ सरलता से उपलब्ध हैं। यदि किसी देश के व्यक्ति, दूसरे देश की शिक्षा प्रणाली तथा व्यावहारिक पक्ष को अपनाने के इच्छुक हैं तो यह आवश्यक है कि वे अपने देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के सन्दर्भ में विदेशी शिक्षा की उपयुक्तता का आकलन भी करें। शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं की वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता तथा उपादेयता भी होनी चाहिए।
तृतीय अवस्था (Third Stage)
इस अवस्था को जार्ज, जेड. एफ. बियरडे (George, Z. F. Berde) ने 'विश्लेषण का काल' कहा है। यह अवस्था 1950 ई. से प्रारम्भ होती है। इस समय विज्ञान की प्रगति के कारण समस्त वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में विश्लेषण करने पर बल देना स्वाभाविक हो चला था। फलस्वरूप तुलनात्मक शिक्षा में भी विश्लेषण अध्ययन पर विशेष बल दिया गया। इस पद्धति में किसी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को स्वीकार करने से पूर्व दोनों देशों की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का विश्लेषणात्मक चिन्तन करके उस प्रणाली की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के विषय में निष्कर्ष निकाला जाता है। इस प्रकार शिक्षा के सम्बन्धित कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि कि अब तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में शिक्षा के घटकों की समानता और विषमता का ही केवल अध्ययन नहीं किया जाता, बल्कि समानता और क्षमता का तुलनात्मक विवेचन के साथ-साथ देश की सम्बन्धित सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में किसी शिक्षण प्रणाली की विशिष्टता की अनुरूपता अथवा प्रतिकूलता के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तुलनात्मक शिक्षा के विकास की द्वितीय तथा तृतीय अवस्था में केवल प्रारूप का ही अन्तर है।
इस अवस्था में चार महत्त्वपूर्ण विचारों को प्राथमिकता दी गई-
1. अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1993-1996 में।
2. अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं का संकलन करने के लिये प्रश्नावली का निर्माण किया, जिसके आधार पर संस्तुतियाँ दीं गईं।
3. ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई, जिनमें आधुनिक शिक्षण विधियों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा।
4. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुभाषी पत्रिका का प्रकाशन किया, जिससे शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं का प्रसारण किया जा सके।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास की अवस्था पर चार प्रकार के कार्यों को चिन्हित किया गया है। ये कार्य हैं -
१- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं का अध्ययन किया जाये और मानवता के आधार पर उन्हें प्रोत्साहित किया जाये।
२- विश्व के विद्यालयों की शिक्षा प्रणालियों के विविध पक्षों सम्बन्धी प्रदत्तों के लिए सांख्यिकी तालिका तैयार करना।
३- इस कार्य में इस प्रकार के 5 प्रदत्तों को प्रस्तुत किया जाता है जिससे शिक्षा सम्बन्धी विश्वव्यापी शिक्षा आन्दोलनों की दिशा तथा प्रवृत्ति का ज्ञान हो सके तथा व्यापक सामाजिक और आर्थिक शक्तियों के अभाव का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। विश्व के समस्त देशों की सहमति बिन्दुओं को खोज सके। इसके आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण तथा सार्थक निर्णय लिये जा सकें।
४- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनुष्य तथा धन का शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करना ।
चतुर्थ अवस्था (Fourth Stage)
19वीं शताब्दी के अन्त तक सामाजिक विज्ञानों का विकास हुआ और शिक्षा को समाज का दर्पण कहा जाने लगा। विद्यालय समाज का लघु रूप माना जाने लगा है। जैसा समाज होगा, वैसी शिक्षा होगी तथा विद्यालय उसका व्यावहारिक रूप होगा। शिक्षा समाज का निर्माण करती है। इस प्रकार समाज तथा शिक्षा में अन्तःक्रिया (Interaction) होती रहती है। इस तथ्य का बोध शिक्षा एवं समाज के ऐतिहासिक विश्लेषण से किया जा सकता है और परिवर्तन के कारकों को भी पहचान सकते हैं। आज शिक्षा प्रणाली के अध्ययन से देश के राष्ट्रीय चरित्र का बोध होता है। शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय चरित्र का प्रतीक माना जाता है। कारण एवं प्रभाव की समस्या देश के राष्ट्रीय चरित्र की ओर ध्यान आकर्षित करती है, क्योंकि शिक्षा प्रणाली एक कारण और राष्ट्रीय चरित्र का प्रभाव है। इसके विपरीत राष्ट्रीय चरित्र शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है। विद्यालय समाज का अभिन्न अंग संस्कृति के सन्दर्भ में है।
तुलनात्मक शिक्षा की चतुर्थ विकास की अवस्था में अनेक विद्वानों ने योगदान किया है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. माइकिल सैडलर, 2. आई० एल० कैन्डाल, 3.निकोलस हंस तथा 4. वर्मन मेलिनसन रोबर्ट इनके योगदान का विवरण यहाँ पर दिया गया है
1. माइकिल सैडलर (Michael Sadler)- इन्होंने सन् 1900 में एक निबन्ध प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने वर्णन किया था कि विदेशी शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से किन-किन मूल्यों को सीख सकते हैं। इन्होंने तुलनात्मक शिक्षा को अध्ययन हेतु नवीन आयाम को दिया, जो अधिक व्यापक तथा विश्लेषणात्मक थी। इस आयाम से व्याख्या करने की शक्ति भी अधिक थी। यह प्रथम तथा द्वितीय अवस्थाओं से भिन्न प्रकार की थी। इस आयाम का ब्रिटेन के मैथ्यू अर्नाल्ड ने अपने लेखों में 19वीं शताब्दी में प्रयुक्त किया। इसके अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमेरिका के हैरिसने, जर्मनी के डिल्थे, फ्रांस के पी० ई० लिवर ने इस सूत्र पर योगदान किया। यह सूत्र देशों के इतिहास की आवश्यकताओं के लिये उपयुक्त था। राष्ट्रीय चरित्र के प्रत्यय के लिये शैक्षिक सूचनाये तथा प्रदत्त आधार थे !
तुलनात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचारों को एक कथन द्वारा प्रस्तुत किया था-"विदेश की शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से हम व्यावहारिक मूल्यों को सीखते है।"
सैडलर ने तुलनात्मक अध्ययन में सांख्यिकी की वैधता तथा शुद्धता के सम्बन्ध में सहमत नहीं हैं। विद्यालयों की शिक्षा प्रणाली से राष्ट्रीय शिक्षा का विकास नहीं किया जा सकता है। सैडलर व्यावहारिक मूल्यों को अधिक महत्त्व देता है। यह मूल्य विद्यालय तथा समाज दोनों के अध्ययन से ज्ञात किये जा सकते हैं। विद्यालय में मूल्यों से अवगत कराया जाता है और समाज में छात्र उसका कितना अनुपालन करते हैं। यह उनके व्यावहारिक मूल्य होते हैं।
2. आई० एल० कैनडाल (I.L. Kandel)- 20वीं शताब्दी के प्रथम आधे युग में तुलनात्मक शिक्षा में अन्य लेखकों तथा विद्वानों ने माइकिल सैडलर के अध्ययन आयाम का अनुसरण किया था। इन्होंने सैडलर के आयाम को ही विस्तृत करके उसका उपयोग किया। कैनडाल ने 1933 में तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में राजनैतिक प्रणाली तथा विद्यालय की प्रणाली में निकट का सम्बन्ध ज्ञात किया था। इन्होंने तुलनात्मक शिक्षा के इन दोनों पक्षों को महत्व दिया और इसका अभिन्न अंग माना।
तुलनात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में इनका विचार था कि शिक्षा प्रणालियों की विषमतायें शिक्षा के सैद्धान्तिक आधार की अपेक्षा शिक्षा की व्यावहारिकता पर आधारित होती है। कैनडाल का कथन है कि विश्व का अधिकांश भाग शिक्षा की समस्याओं के समाधान का प्रयास कर रहे थे। इस समय मुख्य समस्या विश्व शान्ति एवं सहयोग की थी। इन्होंने विश्व को शिक्षा की प्रयोगशाला की उपमा दी थी। शिक्षा में सामान्य स्तर की समस्याओं के लिये शिक्षाविदों ने अनेक प्रकार के समाधान देने का प्रयास किया था। इन्होंने राष्ट्रीयता के लिये अनेक कारकों की पहचान की थी, जिनकी व्याख्या ऐतिहासिक तथा राजनैतिक विचारधारा की थी।
आई० एल० कैनडाल के महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण उन्हें तुलनात्मक शिक्षा का पिता कहा जाता है। इन्होंने प्रदत्तों के संकलन में उनकी शुद्धता पर अधिक बल दिया था। इन्होंने विद्यालय एवं समाज के सम्बन्धों हेतु सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, जिसके आधार पर विशिष्ट संस्कृति में शिक्षा प्रणाली का विकास किया जाता है। इनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली के महत्त्व की व्याख्या उसको समझने के लिये की जाये एवं इसी पर अधिक बल दिया जाये।
3. निकोलस हंस (Nicholas Hans) - इन्हें कैनडाल का उत्तराधिकारी कहते हैं। इन्होंने भी तुलनात्मक शिक्षा पर अधिक कार्य किया था इनका एक अध्ययन "शिक्षा के कारक एवं परम्परायें" (Educational Factors and Tradition 1949) पर किया था। इस अध्ययन से इन्होंने शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करने वाले विशिष्ट कारकों की पहचान की थी। विभिन्न देशों तथा संस्कृतियों को अपने अध्ययन में सम्मिलित किया था। इन्होंने कैण्डाल और सैडलर की विचारधारा का विस्तार किया था। इन्होंने समिति के कारकों का गहनता से तथा विस्तार रूप में अध्ययन किया था। इन्होंने कारकों का वर्गीकरण तीन समूहों में किया था।
(i) प्राकृतिक कारक- प्रजातियाँ, भाषा, भौगोलिक एवं आर्थिक कारक।
(ii) धार्मिक कारक- ईसाई धर्म में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट पुरलियन परम्परायें, एग्लैकिन परम्परायें आदि।
(iii) राजनैतिक कारक- साम्यवाद, राष्ट्रवाद, मानववाद एवं प्रजातन्त्र आदि।
निकोल्सहंस का विश्वास था कि अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों तथा सांस्कृतिक उद्भव में अधिक समानता पाई जाती है। इसलिये इन देशों की शिक्षा की समस्या भी समान होती हैं। इस तथ्य की पुष्टि तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन से होती है। इस सन्दर्भ में उन्होंने लिखा-"इन कारकों का तुलनात्मक विश्लेषण, ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से करना और समस्याओं के समाधान की तुलना करना ही तुलनात्मक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है।"
निकोल्सहंस का आयात ऐतिहासिक प्रवृत्ति का अधिक है। परन्तु वह शिक्षा प्रणाली को अतीत तक ही सीमित नहीं रखना चाहता, अपितु कारकों के प्रभावों का अध्ययन एवं विश्लेषण करता है। अतीत के कारकों के अतिरिक्त तत्वकाल में अन्य कारक भी शिक्षा को प्रभावित करते हैं। इनका विश्वास था कि भविष्य के सुधार के लिये इन कारकों की सहायता लेनी चाहिये। इन्होंने अतीत और वर्तमान के सांख्यिकी प्रदत्तों का विश्लेषण करने का भी सुझाव दिया, क्योंकि इस प्रकार के निष्कर्ष सुधार हेतु वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किये जाते हैं। परन्तु निकोल्सन सांख्यिकी आधार से सहमत नही हैं, क्योंकि तुलना का यह आधार वैध नहीं हो सकता है। सांख्यिकी विश्लेषण के निष्कर्षों में शुद्धता नहीं।
पंचम् अवस्था (Fifth Stage)
तुलनात्मक शिक्षा का आरम्भ गुणात्मक सर्वेक्षण से हुआ और धार-घार संख्यात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति की वृद्धि हो गई। इस पंचम अवस्था को आधुनिक अवस्था भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संख्यात्मक अध्ययनों को उपयोग किया जाने लगा है। इस प्रकार के अध्ययनों में निम्नांकित पक्षों को प्राथमिकता दी जाती है-
1. संख्यात्मक प्रदत्त (Quantitative Data) - 20वीं शताब्दी के मध्य से सामाजिक विज्ञानों में व्यावहारिक या अनुभवजन्य कार्यों को अधिक बढ़ावा दिया जाने लगा। इसलिये, अनुभवजन्य संख्यात्मक विधियों के उपयोग में सामाजिक विज्ञानों, शिक्षा, मनोविज्ञान आदि में किया जाने लगा और इस प्रवृत्ति में वृद्धि भी हुई। अनुभवजन्य एवं संख्यात्मक प्रदत्त का विशेष महत्व दिया गया। ऐसे उपकरणों, परीक्षणों का विकास सामाजिक विषयों में किया गया, जिससे संख्यात्मक प्रदत्त उपलब्ध होने लगे। सामाजिक विज्ञान के शोध कार्यों के साथ तुलनात्मक शिक्षा के क्षेत्र में भी अनुभवजन्य संख्यात्मक कार्यों का आरम्भ हुआ।
2. विधियों की समस्या (Problem of Methodology)— समस्या के समाधान में विधियों तथा प्रदत्तों के उपकरणों तथा परीक्षण के चयन में कठिनाई रहती है। तुलनात्मक शिक्षा के विद्वानों में विधियों के सम्बन्ध में सहमति नहीं होती है। जाँर्ज ब्रेडे ने संकेत किया कि-तुलनात्मक शिक्षा में वाद-विवाद विधि अधिक उपयोग तथा व्यावहारिक होती है। तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में भी वाद-विवाद विधि अधिक उपयुक्त मानी जाती है।
3. परिकल्पनाओं का प्रतिपादन (Formulation of Hypothesis) - बियरडे का कहना है कि यथास्थिति परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जाता है, जो समस्याओं के समाधानों की ओर संकेत करती हैं या सम्भावित समाधान होते हैं। इन परिकल्पना के उपलब्ध प्रदत्तों के आधार पर पुष्टि की जाती है और तुलना की जाती है। जब परिकल्पनाओं के प्रतिपादन के अध्ययन आरम्भ करके सार्थक प्रदत्तों का संकलन करना कठिन कार्य होता है। बिना परिकल्पना सूचनाओं और प्रदत्तों का संकलन करना, समय, शक्ति एवं धन का अपव्यय ही होता है। ब्रेडे का सुझाव है कि प्रदत्तों के संकलन के लिये छात्रों को विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाये, जिससे वे सार्थक एवं शुद्ध प्रदत्तों का संकलन कर सकें। इन प्रदत्तों को सामाजिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भ में संजोया जा सके। यथास्थिति का उपयोग परिकल्पनाओं के प्रतिपादन में किया जा सके। इन क्रियाओं की सहायता से तुलनात्मक कार्य किया जा सकता है। यह सब विवाद का प्रकरण है कि इन जटिल क्रियाओं का उपयोग तुलनात्मक शिक्षा में करना सम्भव है।
4. शिक्षा एवं समाज में सम्बन्ध (Relationship of Education & Society) - आज के समय अधिक समस्याओं के अध्ययन में शिक्षा और समाज सम्बन्धों की खोज की जाती है इस सन्दर्भ में दो प्रकार के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है-
(i) प्रथम प्रकार के सम्बन्ध को शिक्षा और धन उत्पादन में,
(ii) द्वितीय प्रकार के सम्बन्ध को शिक्षा और सामाजिक पक्ष व राजनैतिक परिवर्तन में।
5. विकास में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in Development) - अनेक व्यक्तियों ने विकास की प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन किया मेरी जीन बोमेन तथा अरनोल्ड एण्डरसन ने इस प्रकार के अध्ययन कई प्रकार से किये और शिक्षा एवं विकास के विशिष्ट घटकों को लेकर अध्ययन किया। इन्होंने राष्ट्रीय उत्पादन तथा नामांकन अनुपात के सम्बन्ध में निकट का सम्बन्ध पाया गया। इससे विदित हुआ कि विकास में शिक्षा की अहम् भूमिका है।
6. विशाल स्तर पर शोध कार्य (Large Scale Research) - विशाल स्तर पर शोध कार्य अन्तर्राष्ट्रीय शोध कार्यों द्वारा किये जाते हैं। इन शोध कार्यों द्वारा शैक्षिक उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाता है, इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आंकलन (International Educational Assessment-IEA) में सम्मिलित किया जाता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम प्रयास था, जब विभिन्न देशों के विद्यालयों की उपलब्धियों के विषयों के अनुसार इंटर का मूल्यांकन किया गया, विषयों के अनुसार अन्तर का अध्यापन वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं से किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आकलन (IEA) संस्थान ने 12 देशों के गणित के तुलनात्मक अध्ययन का प्रकाशन किया। यह तुलनात्मक शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावशाली अध्ययन माना गया।
इन सभी अध्ययनों के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक मूल्यांकन (IEA) ने सामाजिक विज्ञानों ने तुलनात्मक शिक्षा के विकास में योगदान किया। इस संस्थान (IEA) के प्रयासों में शिक्षाशास्त्रियों तथा साइकोमेट्रीसिन ने विशेष योगदान किया। इन्होंने सामाजिक विज्ञान विशेषज्ञों के अनुभवजन्य कौशलों का उपयोग किया। परिकल्पनाओं के प्रतिपादन को महत्त्व दिया और शोधकर्ताओं ने नियन्त्रित परिस्थिति में पुष्टि की, और संख्यात्मक व्याख्या की थी। तुलनात्मक शिक्षा का इतना विकास हुआ है, इसका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर एक स्वतन्त्र अध्ययन का स्थान बना लिया है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन।
- शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
- चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।


