Thursday, August 6, 2020

तुलनात्मक शिक्षा का विकास (Development of Comparative Education)

               तुलनात्मक शिक्षा का विकास      (Development of Comparative Education)



आधुनिक युग को अंतरिक्ष का युग कहते हैं , वैज्ञानिक आविष्कारों तथा माध्यमों के विकास ने विश्व के देशों की दूरी को कम कर दिया जाता है । विश्व के देशों में परस्पर निर्भरता अधिक हो गई है। कोई देश आत्म-निर्भर नहीं है। एक देश की क्रियायें तथा गतिविधियाँ पड़ोसी तथा अन्य देशों को प्रभावित करती हैं। यदि विश्व के किसी देश में युद्ध आरम्भ होते हैं, तब उसका प्रभाव विश्व के सभी देशों पर पड़ता  है। मनुष्य ने  दो विश्व युद्धों के परिणामों को देखा तथा अनुभव किया है, जिससे सभी देश युद्ध की विभीषिकाओं से भयभीत हुए और सभी देश विश्व शान्ति चाहने लगे और इस दिशा में प्रयास किये गए । कभी - कभी अकाल, भूकंप, महामारी, सूखा, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप एक देश में होता है तो उसका प्रभाव पड़ोसी देशों पर भी पड़ता है। आज विश्व के देश परस्पर एक दूसरे से बंधे  हुये हैं। एक देश की शैक्षिक प्रणाली या शैक्षिक विचारधारा अन्य देशों की शिक्षा को प्रभावित करती है। इसलिये आज की यह  आवश्यकता हो गई है कि अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन तथा विश्लेषण किया जाये और उनकी विशेषताओं को अपनी शिक्षा प्रणाली में सम्मिलित किया जाये। इस प्रकार के अध्ययन से विदित होता है कि किसी देश की शिक्षा प्रणाली को कुछ विशिष्ट कारक प्रभावित करते हैं, जो अन्य देशों के कारकों से भिन्न होते हैं। इन आवश्यकताओं के फलस्वरूप ही तुलनात्मक शिक्षा का आर्विभाव हुआ। शिक्षा की प्रवृत्तियों में परिवर्तन होता रहता है, इसी कारण तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन तथा विश्लेषण में भी परिवर्तन होता है।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास-क्रम को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है-

प्रथम अवस्था (First Stage )


तुलनात्मक शिक्षा के विकास का प्रथम अवस्था 1817 से अन्तोइजन जुलियन के विचारों से प्रारम्भ हुआ। यह अवस्था 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक मानी जा सकती है। 19वीं शताब्दी में यह धारणा को बल मिला  कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को दूसरा देश अपने शिक्षा-संगठन में अपना सकता है। इस धारणा के फलस्वरूप विभिन्न देशों के शिक्षा प्रणाली सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करने का प्रयास किया गया। इन आंकड़ों को तालिकाबद्ध करके उनसे कुछ सामान्य सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया गया। फलतः इस  धारणा बल मिला  कि सिद्धान्तों के अनुसार किसी भी देश की शिक्षा संगठित की जा सकती है। इस अवस्था में आँकड़ों को एकत्रित करने के क्रम में सम्बद्ध देश की उस समय की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दशाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था, जबकि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली पर इन दशाओं का बड़ा प्रभाव पड़ता है। फलतः इस बात पर विचार नहीं किया जाता था कि जिस देश की शिक्षा-प्रणाली की विशेषताओं को अपनाने के लिये कहा जा रहा है, वे अपनाने वाले देश की सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हैं। या नहीं। इस प्रकार तुलनात्मक शिक्षा के विकास की इस प्रथम अवस्था को 'अनुकरण की अवस्था' में फ्रांस के विक्टर काज़िन, इंग्लैण्ड के मैथ्यू अरनॉल्ड, अमेरिका के होरेस मैन और हेनरी बर्ग, रूस के टाल्सटाय और शींसकी  तथा अजेंन्टाइना के डोमिंगो सारमीण्टो के नाम विशेष उल्लेखनीय है। 
प्राचीन काल में एक देश के व्यापारी, शोधकर्ता तथा यात्री दूसरे देश को खोजने का प्रयास करते थे और उन देशों को देखने के बाद उनका विवरण अन्य देशों को भेजते थे। उनके विवरणों में उस देश की शासन व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, विद्यालयों का वर्णन आदि दिया जाता था और छात्रों के विकास के उपायों का उल्लेख किया जाता था। इन लोगों के द्वारा यात्रा वर्णन काफी रोचक ढंग से किया जाता था जिससे पाठक उन आलेखों  में रुचि लेते थे। 
इस अवस्था में व्यवस्थित व्याख्या एवं विश्वसनीय निरीक्षण का अभाव रहा। यात्रियों ने अन्य देशों का विवरण व्यक्तिगत ढंग से रोचक बनाने की दृष्टि से किया गया। यह विवरण अव्यवस्थित तथा निरीक्षण अविश्वसनीय अधिक थे। इन आलेखों की शुद्धता तथा विश्वसनीयता ज्ञात करना कठिन था।

द्वितीय अवस्था (Second Stage)


 तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन के विकास की द्वितीय अवस्था में सामाजिक, आर्थिक  एवं  शिक्षा को प्रभावित करने वाले अन्य घटकों  पर ध्यान दिया जाने लगा अर्थात् अब यह विचार किया जाने लगा कि शिक्षा प्रणाली में पाई जाने वाली विशेषता को यदि किसी दूसरे देश में अपनाया जाये तो वह वहाँ की परिस्थिति के अनुरूप होगी या नहीं। साथ ही, विशेषता की भावनाओं पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। इस प्रकार अन्धानुकरण (Blind Imitation) की प्रवृत्ति को त्याग दिया गया।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास की द्वितीय अवस्था के प्रवर्तक सर माइकेल सैडलर (Sir Michael Sadler) माने जाते हैं। उन्होंने सन् 1907 में तुलनात्मक शिक्षा पर एक निबन्ध लिखा। उस निबन्ध में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश के सामाजिक वातावरण से सम्बन्धित होनी चाहिए। उनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय सामाजिक परिस्थिति तथा सामाजिक घटकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सेडलर की इस अवधारणा की पुष्टि अन्य कई शिक्षाशास्त्रियों ने भी की है। इनमें से जर्मनी के फ्रेडरिक सनाइडर (Friedrich Schneider), अमेरिका के आइजक कैण्डल (Isaac Kandel) तथा इंग्लैण्ड के रॉबर्ट उलिक (Robert Ulich), जोजेफ लारीज (Jojeph Lauwerys) तथा निकोलस हन्स (Nicholas Hans) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन समस्त शिक्षाशास्त्रियों ने तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली तथा उस देश की सामाजिक परिस्थिति के परस्पर सम्बन्ध पर बल दिया है और कहा है कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय उस देश की सामाजिक परिस्थितियों को समझना बहुत आवश्यक है।
द्वितीय अवस्था का मूल्यांकन इन सभी विद्वानों ने पाश्चात्य देशों  का भ्रमण करके तथ्यों एवं निरीक्षण के आधार पर तुलनात्मक कार्यों को प्रोत्साहित किया एवं  बढ़ावा दिया। इस दिशा में अधिकतर विद्वानों ने व्यवस्थित आयाम का अनुसरण नहीं किया। मोरस मन ने कोई व्यवस्थित प्रविधि का उपयोग नहीं किया और न ही अपने अनुभवों के आधार पर कोई निर्देशन दे सका। मार्क जुलियन ने एक व्यवस्थित अध्ययन पर अधिक बल दिया था। हेनरी बर्नार्ड ने अपनी रिपोर्ट में उन्हीं तथ्यों को शामिल किया, जो उन्हें उपलब्ध हो सके। मार्क जुलियन ने अपनी प्रश्नावली में अन्य देशों की सांस्कृतिक तथा दार्शनिक विचारधारा पर आधारित प्रश्नों को सम्मिलित किया जबकि दर्शन एवं संस्कृति किसी देश की शिक्षा का सैद्धान्तिक आधार होती है। इन पक्षों पर प्रश्नों को सम्मिलित करने पर ही विश्वसनीय तथा वस्तुनिष्ठ सूचनाएँ उपलब्ध हो सकती हैं। इस अवस्था के शिक्षाशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा की समस्याओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया। अन्तोइन जुलियन का विश्वास था कि उसकी निरीक्षण सम्बन्धी तुलनात्मक तालिका की सहायता से सापेक्ष मूल्यों एवं विद्यालयों की शैक्षिक व्यवस्था तथा कार्य प्रणाली से विकास की प्रवृत्ति का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। मैथ्यू अरनोल्ड का विचार था कि दूसरे देशों की शिक्षा प्रणालियों का विश्लेषण उसी देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के सन्दर्भ में करना चाहिए। 
इस अवस्था को विकास की प्रक्रिया की अवधारणा माना जाता है। इसमें पर्याप्त सूचनाएँ सरलता से उपलब्ध हैं। यदि किसी देश के व्यक्ति, दूसरे देश की शिक्षा प्रणाली तथा व्यावहारिक पक्ष को अपनाने के इच्छुक हैं तो यह आवश्यक है कि वे अपने देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के सन्दर्भ में विदेशी शिक्षा की उपयुक्तता का आकलन भी करें। शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं की वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता तथा उपादेयता भी होनी चाहिए।


 तृतीय अवस्था (Third Stage)

इस अवस्था को जार्ज, जेड. एफ. बियरडे (George, Z. F. Berde) ने 'विश्लेषण का काल' कहा है। यह अवस्था 1950 ई. से प्रारम्भ होती है। इस समय विज्ञान की प्रगति के कारण समस्त वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में विश्लेषण करने पर बल देना स्वाभाविक हो चला था। फलस्वरूप तुलनात्मक शिक्षा में भी विश्लेषण अध्ययन पर विशेष बल दिया गया। इस पद्धति में किसी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को स्वीकार करने से पूर्व दोनों देशों  की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का विश्लेषणात्मक चिन्तन करके उस प्रणाली की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के विषय में निष्कर्ष निकाला जाता है। इस प्रकार शिक्षा के सम्बन्धित कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि कि अब तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में शिक्षा के घटकों की समानता और विषमता का ही केवल अध्ययन नहीं किया जाता, बल्कि समानता और क्षमता का तुलनात्मक विवेचन के साथ-साथ देश की सम्बन्धित सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में किसी शिक्षण प्रणाली की विशिष्टता की अनुरूपता अथवा प्रतिकूलता के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तुलनात्मक शिक्षा के विकास की द्वितीय तथा तृतीय अवस्था में केवल प्रारूप का ही अन्तर है। 

इस अवस्था में चार महत्त्वपूर्ण विचारों को प्राथमिकता दी गई- 

1. अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1993-1996 में।
2. अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं का संकलन करने के लिये प्रश्नावली का निर्माण किया, जिसके आधार पर संस्तुतियाँ  दीं गईं। 
3. ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई, जिनमें आधुनिक शिक्षण विधियों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा।
4. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुभाषी पत्रिका का प्रकाशन किया, जिससे शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं का प्रसारण किया जा सके।


तुलनात्मक शिक्षा के विकास की अवस्था पर चार प्रकार के कार्यों को चिन्हित किया गया है। ये  कार्य हैं -

१- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं का अध्ययन किया जाये और मानवता के आधार पर उन्हें प्रोत्साहित किया जाये।
२- विश्व के विद्यालयों की शिक्षा प्रणालियों के विविध पक्षों सम्बन्धी प्रदत्तों के लिए सांख्यिकी तालिका तैयार  करना।
३- इस कार्य में इस प्रकार के 5 प्रदत्तों को प्रस्तुत किया जाता है जिससे शिक्षा सम्बन्धी विश्वव्यापी शिक्षा आन्दोलनों की दिशा तथा प्रवृत्ति का ज्ञान हो सके तथा व्यापक सामाजिक और आर्थिक शक्तियों के अभाव का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। विश्व के समस्त देशों की सहमति बिन्दुओं को खोज सके। इसके आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण तथा सार्थक निर्णय लिये जा सकें। 
४-  अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनुष्य तथा धन का शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करना ।


चतुर्थ अवस्था (Fourth  Stage) 



19वीं शताब्दी के अन्त तक सामाजिक विज्ञानों का विकास हुआ और शिक्षा को समाज का दर्पण कहा जाने लगा। विद्यालय समाज का लघु रूप माना जाने लगा है। जैसा समाज होगा, वैसी शिक्षा होगी तथा विद्यालय उसका व्यावहारिक रूप होगा। शिक्षा समाज का निर्माण करती है। इस प्रकार समाज तथा शिक्षा में अन्तःक्रिया (Interaction) होती रहती है। इस तथ्य का बोध शिक्षा एवं समाज के ऐतिहासिक विश्लेषण से किया जा सकता है और परिवर्तन के कारकों को भी पहचान सकते हैं। आज शिक्षा प्रणाली के अध्ययन से देश के राष्ट्रीय चरित्र का बोध होता है। शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय चरित्र का प्रतीक माना जाता है। कारण एवं प्रभाव की समस्या देश के राष्ट्रीय चरित्र की ओर ध्यान आकर्षित करती है, क्योंकि शिक्षा प्रणाली एक कारण और राष्ट्रीय चरित्र का प्रभाव है। इसके विपरीत राष्ट्रीय चरित्र शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है। विद्यालय समाज का अभिन्न अंग संस्कृति के सन्दर्भ में है।
तुलनात्मक शिक्षा की चतुर्थ विकास की अवस्था में अनेक विद्वानों ने योगदान किया है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. माइकिल सैडलर, 2. आई० एल० कैन्डाल, 3.निकोलस हंस तथा 4. वर्मन मेलिनसन रोबर्ट इनके योगदान का विवरण यहाँ पर दिया गया है 

1. माइकिल सैडलर (Michael Sadler)- इन्होंने सन् 1900 में एक निबन्ध प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने वर्णन किया था कि विदेशी शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से किन-किन मूल्यों को सीख सकते हैं। इन्होंने तुलनात्मक शिक्षा को अध्ययन हेतु नवीन आयाम को दिया, जो अधिक व्यापक तथा विश्लेषणात्मक थी। इस आयाम से व्याख्या करने की शक्ति भी अधिक थी। यह प्रथम तथा द्वितीय अवस्थाओं से भिन्न प्रकार की थी। इस आयाम का ब्रिटेन के मैथ्यू अर्नाल्ड ने अपने लेखों में 19वीं शताब्दी में प्रयुक्त किया। इसके अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमेरिका के हैरिसने, जर्मनी के डिल्थे, फ्रांस के पी० ई० लिवर ने इस सूत्र पर योगदान किया। यह सूत्र देशों के इतिहास की आवश्यकताओं के लिये उपयुक्त था। राष्ट्रीय चरित्र के प्रत्यय के लिये शैक्षिक सूचनाये तथा प्रदत्त आधार थे !
तुलनात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचारों को एक कथन द्वारा प्रस्तुत किया था-"विदेश की शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से हम व्यावहारिक मूल्यों को सीखते है।"

सैडलर ने तुलनात्मक अध्ययन में सांख्यिकी की वैधता तथा शुद्धता के सम्बन्ध में सहमत नहीं हैं। विद्यालयों की शिक्षा प्रणाली से राष्ट्रीय शिक्षा का विकास नहीं किया जा सकता है। सैडलर व्यावहारिक मूल्यों को अधिक महत्त्व देता है। यह मूल्य विद्यालय तथा समाज दोनों के अध्ययन से ज्ञात किये जा सकते हैं। विद्यालय में मूल्यों से अवगत कराया जाता है और समाज में छात्र उसका कितना अनुपालन करते हैं। यह उनके व्यावहारिक मूल्य होते हैं।

2. आई० एल० कैनडाल (I.L. Kandel)- 20वीं शताब्दी के प्रथम आधे युग में तुलनात्मक शिक्षा में अन्य लेखकों तथा विद्वानों ने माइकिल सैडलर के अध्ययन आयाम का अनुसरण किया था। इन्होंने सैडलर के आयाम को ही विस्तृत करके उसका उपयोग किया। कैनडाल ने 1933 में तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में राजनैतिक प्रणाली तथा विद्यालय की प्रणाली में निकट का सम्बन्ध ज्ञात किया था। इन्होंने तुलनात्मक शिक्षा के इन दोनों पक्षों को महत्व दिया और इसका अभिन्न अंग माना।
तुलनात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में इनका विचार था कि शिक्षा प्रणालियों  की विषमतायें शिक्षा के सैद्धान्तिक आधार की अपेक्षा शिक्षा की व्यावहारिकता पर आधारित होती है। कैनडाल का कथन है कि विश्व का अधिकांश भाग शिक्षा की समस्याओं के समाधान का प्रयास कर रहे थे। इस समय मुख्य समस्या विश्व शान्ति एवं सहयोग की थी। इन्होंने विश्व को शिक्षा की प्रयोगशाला की उपमा दी थी। शिक्षा में सामान्य स्तर की समस्याओं के लिये शिक्षाविदों ने अनेक प्रकार के समाधान देने का प्रयास किया था। इन्होंने राष्ट्रीयता के लिये अनेक कारकों की पहचान की थी, जिनकी व्याख्या ऐतिहासिक तथा राजनैतिक विचारधारा की थी।
आई० एल० कैनडाल के महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण उन्हें तुलनात्मक शिक्षा का पिता कहा जाता है। इन्होंने प्रदत्तों के संकलन में उनकी शुद्धता पर अधिक बल दिया था। इन्होंने विद्यालय एवं समाज के सम्बन्धों हेतु सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, जिसके आधार पर विशिष्ट संस्कृति में शिक्षा प्रणाली का विकास किया जाता है। इनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली के महत्त्व की व्याख्या उसको समझने के लिये की जाये एवं इसी पर अधिक बल दिया जाये।

3. निकोलस हंस (Nicholas Hans) - इन्हें कैनडाल का उत्तराधिकारी कहते हैं। इन्होंने भी तुलनात्मक शिक्षा पर अधिक कार्य किया था इनका एक अध्ययन "शिक्षा के कारक एवं परम्परायें" (Educational Factors and Tradition 1949) पर किया था। इस अध्ययन से इन्होंने शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करने वाले विशिष्ट कारकों की पहचान की थी। विभिन्न देशों तथा संस्कृतियों को अपने अध्ययन में सम्मिलित किया था। इन्होंने कैण्डाल और सैडलर की विचारधारा का विस्तार किया था। इन्होंने समिति के कारकों का गहनता से तथा विस्तार रूप में अध्ययन किया था। इन्होंने कारकों का वर्गीकरण तीन समूहों में किया था।

(i) प्राकृतिक कारक-  प्रजातियाँ, भाषा, भौगोलिक एवं आर्थिक कारक। 
(ii) धार्मिक कारक-  ईसाई धर्म में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट पुरलियन परम्परायें, एग्लैकिन परम्परायें आदि। 
(iii) राजनैतिक कारक- साम्यवाद, राष्ट्रवाद, मानववाद एवं प्रजातन्त्र आदि। 

निकोल्सहंस का विश्वास था कि अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों तथा सांस्कृतिक उद्भव में अधिक समानता पाई जाती है। इसलिये इन देशों की शिक्षा की समस्या भी समान होती हैं। इस तथ्य की पुष्टि तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन से होती है। इस सन्दर्भ में उन्होंने लिखा-"इन कारकों का तुलनात्मक विश्लेषण, ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से करना और समस्याओं के समाधान की तुलना करना ही तुलनात्मक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है।"
निकोल्सहंस का आयात ऐतिहासिक प्रवृत्ति का अधिक है। परन्तु वह शिक्षा प्रणाली को अतीत तक ही सीमित नहीं रखना चाहता, अपितु कारकों के प्रभावों का अध्ययन एवं विश्लेषण करता है। अतीत के कारकों के अतिरिक्त तत्वकाल में अन्य कारक भी शिक्षा को प्रभावित करते हैं। इनका विश्वास था कि भविष्य के सुधार के लिये इन कारकों की सहायता लेनी चाहिये। इन्होंने अतीत और वर्तमान के सांख्यिकी प्रदत्तों का विश्लेषण करने का भी सुझाव दिया, क्योंकि इस प्रकार के निष्कर्ष सुधार हेतु वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किये जाते हैं। परन्तु निकोल्सन सांख्यिकी आधार से सहमत नही हैं, क्योंकि तुलना का यह आधार वैध नहीं हो सकता है। सांख्यिकी विश्लेषण के निष्कर्षों में शुद्धता नहीं। 

 पंचम्  अवस्था (Fifth Stage)


तुलनात्मक शिक्षा का आरम्भ गुणात्मक सर्वेक्षण से हुआ और धार-घार संख्यात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति की वृद्धि हो गई। इस पंचम अवस्था को आधुनिक अवस्था भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संख्यात्मक अध्ययनों को उपयोग किया जाने लगा है। इस प्रकार के अध्ययनों में निम्नांकित पक्षों को प्राथमिकता दी जाती है-

1. संख्यात्मक प्रदत्त (Quantitative Data) - 20वीं शताब्दी के मध्य से सामाजिक विज्ञानों में व्यावहारिक या अनुभवजन्य कार्यों को अधिक बढ़ावा दिया जाने लगा। इसलिये, अनुभवजन्य संख्यात्मक विधियों के उपयोग में सामाजिक विज्ञानों, शिक्षा, मनोविज्ञान आदि में किया जाने लगा और इस प्रवृत्ति में वृद्धि भी हुई। अनुभवजन्य एवं संख्यात्मक प्रदत्त का विशेष महत्व दिया गया। ऐसे उपकरणों, परीक्षणों का विकास सामाजिक विषयों में किया गया, जिससे संख्यात्मक प्रदत्त उपलब्ध होने लगे। सामाजिक विज्ञान के शोध कार्यों के साथ तुलनात्मक शिक्षा के क्षेत्र में भी अनुभवजन्य संख्यात्मक कार्यों का आरम्भ हुआ।

2. विधियों की समस्या (Problem of Methodology)— समस्या के समाधान में विधियों तथा प्रदत्तों के उपकरणों तथा परीक्षण के चयन में कठिनाई रहती है। तुलनात्मक शिक्षा के विद्वानों में विधियों के सम्बन्ध में सहमति नहीं होती है। जाँर्ज ब्रेडे ने संकेत किया कि-तुलनात्मक शिक्षा में वाद-विवाद विधि अधिक उपयोग तथा व्यावहारिक होती है। तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में भी वाद-विवाद विधि अधिक उपयुक्त मानी जाती है। 

3. परिकल्पनाओं का प्रतिपादन (Formulation of Hypothesis) - बियरडे का कहना है कि यथास्थिति परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जाता है, जो समस्याओं के समाधानों की ओर संकेत करती हैं या सम्भावित समाधान होते हैं। इन परिकल्पना के उपलब्ध प्रदत्तों के आधार पर पुष्टि की जाती है और तुलना की जाती है। जब परिकल्पनाओं के प्रतिपादन के अध्ययन आरम्भ करके सार्थक प्रदत्तों का संकलन करना कठिन कार्य होता है। बिना परिकल्पना सूचनाओं और प्रदत्तों का संकलन करना, समय, शक्ति एवं धन का अपव्यय ही होता है। ब्रेडे का सुझाव है कि प्रदत्तों के संकलन के लिये छात्रों को विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाये, जिससे वे सार्थक एवं शुद्ध प्रदत्तों का संकलन कर सकें। इन प्रदत्तों को सामाजिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भ में संजोया जा सके। यथास्थिति का उपयोग परिकल्पनाओं के प्रतिपादन में किया जा सके। इन क्रियाओं की सहायता से तुलनात्मक कार्य किया जा सकता है। यह सब विवाद का प्रकरण है कि इन जटिल क्रियाओं का उपयोग तुलनात्मक शिक्षा में करना सम्भव है।
4. शिक्षा एवं समाज में सम्बन्ध (Relationship of Education & Society) -  आज के समय अधिक समस्याओं के अध्ययन में शिक्षा और समाज सम्बन्धों की खोज की जाती है इस सन्दर्भ में दो प्रकार के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है-
(i) प्रथम प्रकार के सम्बन्ध को शिक्षा और धन उत्पादन में, 
(ii) द्वितीय प्रकार के सम्बन्ध को शिक्षा और सामाजिक पक्ष व राजनैतिक परिवर्तन में।

5. विकास में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in Development) -  अनेक व्यक्तियों ने विकास की प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन किया मेरी जीन बोमेन तथा अरनोल्ड एण्डरसन ने इस प्रकार के अध्ययन कई प्रकार से किये और शिक्षा एवं विकास के विशिष्ट घटकों को लेकर अध्ययन किया। इन्होंने राष्ट्रीय उत्पादन तथा नामांकन अनुपात के सम्बन्ध में निकट का सम्बन्ध पाया गया। इससे विदित हुआ कि विकास में शिक्षा की अहम् भूमिका है।

6. विशाल स्तर पर शोध कार्य (Large Scale Research) - विशाल स्तर पर शोध कार्य अन्तर्राष्ट्रीय शोध कार्यों द्वारा किये जाते हैं। इन शोध कार्यों द्वारा शैक्षिक उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाता है,  इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आंकलन (International Educational Assessment-IEA) में सम्मिलित किया जाता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम प्रयास था, जब विभिन्न देशों के विद्यालयों की उपलब्धियों के विषयों के अनुसार इंटर का मूल्यांकन किया गया, विषयों के अनुसार अन्तर का अध्यापन वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं से किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आकलन (IEA) संस्थान ने 12 देशों के गणित के तुलनात्मक अध्ययन का प्रकाशन किया। यह तुलनात्मक शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावशाली अध्ययन माना गया। 

इन सभी अध्ययनों के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक मूल्यांकन (IEA) ने सामाजिक विज्ञानों ने तुलनात्मक शिक्षा के विकास में योगदान किया। इस संस्थान (IEA) के प्रयासों में शिक्षाशास्त्रियों तथा साइकोमेट्रीसिन ने विशेष योगदान किया। इन्होंने सामाजिक विज्ञान विशेषज्ञों के अनुभवजन्य कौशलों का उपयोग किया। परिकल्पनाओं के प्रतिपादन को महत्त्व दिया और शोधकर्ताओं ने नियन्त्रित परिस्थिति में पुष्टि की, और संख्यात्मक व्याख्या की थी। तुलनात्मक शिक्षा का इतना विकास हुआ है, इसका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर एक स्वतन्त्र अध्ययन का स्थान बना लिया है।


संदर्भ ग्रंथ सूची
  • यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन।
  • शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
  • चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।

Monday, August 3, 2020

सर्व शिक्षा अभियान (SSA)-2002


सर्व शिक्षा अभियान (SSA)-2002


समवेशी शिक्षा के सन्दर्भ में सर्व शिक्षा अभियान की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। सर्व शिक्षा अभियान एक ऐसा ऐतिहासिक प्रयास है जिसका उद्देश्य राज्यों की भागीदारी से समयबद्ध समेकित प्रयास द्वारा प्राथमिक शिक्षा को जन -जन तक पहुँचाने के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करना है यह एक ऐसा अभियान है जिससे देश के प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की अपेक्षा की गयी है सर्व शिक्षा अभियान (SSA) भारत सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जिसकी शुरूआत 2001-02 में श्री अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा एक निश्चित समयावधि में सही तरीके से प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्त करने के उद्देश्य से की गयी थी। जैसा भारत के संविधान के 86वें संशोधन द्वारा निर्देशित किया गया है कि 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान को उनका मौलिक अधिकार घोषित किया गया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य संतोषजनक गुणवत्ता वाली प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्तकरना है। यह आधारभूत शिक्षा  माध्यम से समानता व सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक प्रयास है  सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया है जिसका उद्देश्य 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के सभी  बच्चों के लिए 2010 तक 8 वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा देना है। इन बच्चों में विकलांग बच्चे भी आते है। निशक्त बच्चों को सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत, कई शिक्षा विकल्प, शिक्षण साधन और उपकरण, आवागमन सहायता, अन्य सहायता सेवाएँ इत्यादि भी उपलब्ध कराई जा रही है। इससे मुक्त शिक्षा पद्धति और ओपन स्कूल, वैकल्पिक स्कूली शिक्षा, दूरवर्ती शिक्षा, विशेष स्कूल जहाँ आवश्यक है वहाँ गृह आधारित शिक्षा, अपचारी शिक्षा, अंशकालीन कक्षाएं, समुदाय आधारित पुनर्वास और व्यावसायिक शिक्षा शामिल है।

भारत में सर्व शिक्षा अभियान पर एक शिखर सम्मेलन दिसम्बर, 2002 को हुआ जिसमें विश्व के 9 अधिक जनसंख्या वाले देश - चीन, भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, इजिप्ट, नाइजीरिया मेक्सिको तथा पाकिस्तान ने भाग लिया। यूनेस्को के अनुसार इन देशों में विश्व की 70 प्रतिशत जनसंख्या जिसमें 50 प्रतिशत स्कूल न जाने वाले बच्चे तथा 2/3 भाग असाक्षर थे। भारत में विश्व के 1/3 भाग साक्षर तथा 20 प्रतिशत स्कूल न जाने वाले बच्चे थे। इस सम्मेलन का  मुख्य उद्देश्य सभी के लिये शिक्षा अवसर प्रदान करता था।

सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्य (Objective of SSA)


सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. वर्ष 2003 तक सभी सामान्य व बाधित बच्चों के लिये स्कूल शिक्षा गारण्टी केन्द्र, वैकल्पिक

स्कूल तथा बैक टू स्कूल शिविर की उपलब्धता

2. वर्ष 2007 में सभी सामान्य व बाधित बच्चे पाँच वर्ष की प्राथमिक शिक्षा देना।

3. वर्ष 2010 तक सभी सामान्य व बाधित बच्चे को आठ वर्ष की स्कूली शिक्षा पूरी कराना।

4. वर्ष 2010 तक सभी पढ़ने योग्य बच्चों को विद्यालय पहुँचाना।

5. सामाजिक न्याय व समानता के संवैधानिक लक्ष्य प्राप्त करना।

6. जीवनपयोगी व गुणात्मक प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का अवसर प्रदान करना।

सर्व शिक्षा अभियान के कार्य (Functions of SSA)


1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान के लिये सर्वेक्षण करना।

2. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का कार्यात्मक तथा अनौपचारिक आंकलन करना।

3. उनकी क्षमतानुसार उचित शैक्षिक व्यवस्था करना।

4. वैयक्तिक के आधार पर शैक्षिक योजना की योजना बनाना।

5. अशक्तों को सहायक उपकरण प्रदान करना।

6. समेकित शिक्षा के लिये शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।

7. संसाधन अध्यापकों की नियुक्ति करना।

8 समावेशी शिक्षा की योजना बनाना तथा प्रबंधन करना।

9 अभिभावकों को प्रशिक्षण एवं समुदाय को इस कार्य के लिये सक्रिय  करना।

10. संसाधन केन्द्र के रूप में नियमित विद्यालयों की आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिये विशेष विद्यालयों को सुविधा सम्पन्न बनाना।

11. विद्यालयों में बाधारहित प्रवेश की सुविधा प्रदान करना।

12 समेकित शिक्षा की प्रकृति पर नियंत्रण एवं मूल्यांकन करना।

13. अनेक राज्यों में अक्षम छात्रों की शिक्षा व्यवस्था घर पर की जा रही है तथा इस गृह आधारित शिक्षा के लिये स्वयं सेवकों का प्रयोग हो रहा है।

13. कुछ राज्यों में इन छात्रों के समायोजन व शिक्षा का कार्य शिक्षा गारण्टी योजना द्वारा किया जा  रहा है।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 

  • ठाकुर , यतीन्द्र (2019 ), समावेशी शिक्षा , अग्रवाल पब्लिकेशन , आगरा 
  • सिंह , मदन, समावेशी शिक्षा , आर० लाल ०  पब्लिकेशन , मेरठ 
  • नारंग , एम ० के ० (2016 ) समावेशी शिक्षा , अग्रवाल पब्लिकेशन , आगरा 

Sunday, August 2, 2020

समावेशी शिक्षा में समुदाय की भूमिका (Role of Community in Inclusive Education)

समावेशी शिक्षा में समुदाय की भूमिका (Role of Community in Inclusive Education)


समुदाय का अर्थ – समुदाय को आंग्ल भाषा में कम्युनिटी कहते हैं जो “काम” तथा “म्युनिस” दो शब्दों से मिलकर बनता है।com का अर्थ है – एक साथ तथा “Munis” का अर्थ है “सेवा करना”।इस प्रकार कम्युनिटी अथवा समुदाय का अर्थ व्यक्तिओं के उस पड़ौस से हैं जिसमें वे रहते हैं अथवा समुदाय दो या दो व्यक्तिओं का ऐसा समूह है जो एकता अथवा समदुयिक भावना के जागृत हो जाने से किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में सामान्य जीवन की सामान्य नियमों द्वारा व्यतीत करने के लिए स्वत: ही विकसित हो जाती है।इस प्रकार समुदाय के निर्माण एवं स्थायित्व की दृष्टि से दो या दो से अधिक व्यक्ति, निश्चित भौगोलिक क्षेत्र समुदायिक भावना सामान्य जीवन तथा नियमों आदि तत्वों का होना परम आवश्यक है।समुदाय का क्षेत्र छोटा से छोटा भी हो सकता है और बड़े से बड़ा भी।सामान्यता: समुदाय का क्षेत्र उसके समुदायों की आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनितिक समानताओं पर निर्भर करता है।अत: एक गाँव, नगर, अथवा राष्ट्र में दो या दो से अधिक जिनते भी व्यक्ति एकता के सूत्र में बढ़कर सामान्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सामान्य जीवन व्यतीत करते हो, सभी मिलकर एक समुदाय का निर्माण करते हैं |

समुदाय विद्यालय को अच्छा वातावरण प्रदान करके बालकों के विकास में सहायता कर सकता है जिसमें अक्षम बालकों के पास विद्यालय में जीवन के सभी पहलुओं में सहकर्मियों के साथ भाग लेने और प्राप्त करने के अवसर हैं। एक समावेशी प्रणाली में विशेष शिक्षक, विशिष्ट अनुदेष्णात्मक सहायताकर्मी, सामान्य शिक्षक एवं अन्य शिक्षा कर्मी अक्षम बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मिलकर काम करते हैं। समुदाय संगठन बालक की विकलांगता, विशेष शिक्षा प्रणाली एवं आई0इ0पी0 प्रक्रिया, कानून व अधिकारों से उनके जिम्मदारियों को समझने के लिए परिवारों एवं अभिभावकों की व्यक्तिगत सहायता कर रहा है।
विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों की आवश्यकता के लिए समुदाय निम्न प्रकार की भूमिका निभाते हैं-

1. शारीरिक विकास (Physical Development)-  

बच्चे परिवार तथा समुदाय की नकल करके रहन -सहन के तरीके सीखते है। स्वास्थ्य रहने के लिए आदतों का निर्माण परिवार व समुदाय के सदस्यों का अनुकरण करके ही सीखा जाता है। समुदाय के  सदस्य जगह-जगह पर व्यायाम शाखायें, अखाड़े, खेल के मैदान और पार्क आदि की व्यवस्था करते हैं। समुदाय विद्यालय का निर्माण करके बच्चों के शारीरिक विकास की व्यवस्था करते हैं। जिससे बच्चों का शारीरिक विकास ठीक ढंग से होती है।


2. मानसिक विकास (Mental Development)-


समुदाय में बच्चे अपनी मूल शक्तियों के लिये पूरा-पूरा अवसर प्राप्त करते हैं, विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से मिलते हैं, विभिन्न परिस्थितियों में से होकर गुजरते हैं, विभिन्न विषयों पर तर्क-वितर्क करते हैं। परिणाम स्वरूप उनका बौद्धिक एवं मानसिक विकास होता है। समुदाय द्वारा आयोजित विभिन्न समारोह, नाटक , सिनेमा आदि की सहायता से भी बच्चों  का मानसिक विकास होता है।

3. चारित्रिक एवं नैतिक विकास (Character and Moral Development)- 


बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास में परिवार के बाद समुदाय कही  प्रभाव डालता है। जो बच्चे ऐसे समुदाय में रहते हैं जहाँ अनुशासन का आदर किया जाता है तो ऐसे समुदाय के बच्चे अनुशासित होते हैं। उदार विचार वाले समुदाय के बच्चों में उदारता का विकास होता है  एवं उग्र विचार वाले समुदाय के बच्चों में उग्रता का विकास होता है। समुदाय का उच्च धार्मिक पर्यावरण सहिष्णुता को जन्म देता है  और उससे बच्चों में अनेक चारित्रिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है।


4. सामाजिक विकास (Social Development)-


समुदाय एक ऐसा सामाजिक समूह होता है जिसके सदस्यों के बीच 'हम' की भावना होती है। इसके सदस्य आपस मे मिल जुलकर रहते हैं और अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति एक-दूसरे के सहयोग से करते हैं। ऐसे समूहों के बीच बच्चों में प्रेम और सहानुभूति की भावना बढ़ती है।  उसमें दया, त्याग, क्षमा और परोपकार आदि गुणों का विकास होता है।


5. सांस्कृतिक विकास (Cultural Development)-


बच्चे जिस समुदाय में रहते हैं उसी के तौर तरीके सीखते हैं। रीति रिवाज मूल्यों और मान्यताओं की शिक्षा भी बच्चे समुदाय से ही प्राप्त करते हैं। उन सबके प्रति उनमें एक भावात्मक संगठन होता है और वह उनकी संस्कृति कहलाती है । समुदाय विभिन्न औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा संस्थानों का निर्माण कर संस्कृति का सरंक्षण करते है।


6. आध्यात्मिक विकास (Spiritual Development)-


बच्चे के आध्यात्मिक विकास में भी समुदाय का महत्वपूर्ण योगदान है। यदि समुदाय धर्मप्रधान होता है तो बच्चों में धार्मिक भावनाओं का विकास होता है। वे आत्मा व परमात्मा के बारे में सोचते हैं। यदि समुदाय में धर्म का  स्थान नही होता तो परिवार में पड़े धार्मिक संस्कार भी धुंधले पड़ने लगते हैं। हमारा देश धर्म प्रधान देश है कोई भी समुदाय धर्म विहीन नही है। हम धार्मिक उदारता के समर्थक हैं । इसकी शिक्षा भी बच्चे समुदाय में रहकर सीखते हैं।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 







Saturday, August 1, 2020

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA)

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA)


राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान माध्यमिक शिक्षा के लिये सार्वभौमिक पहुंच तथा सुधार हेतु  मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) भारत सरकार की एक केंद्र प्रायोजित योजना है। देश मे शिक्षा की उच्चतम नीति निर्मात्री तथा परामर्शदात्री संस्था "केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE)  के साथ सभी राज्य के शिक्षा मंत्रियों तथा प्रसिद्ध शिक्षाविद इसके सदस्य के रूप में 2004 तथा 2005 में माध्यमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने का निर्णय किया। इसके पश्चात राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) अस्तित्व में आया।यह योजना मार्च, 2009 माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच बढ़ाने और उसकी गुणवत्ता में सुधार करने के लिए की गई थी। योजना का कार्यान्वयन 2009-10 से सभी को प्रभावी वृद्धि विकास तथा समता की परिस्थिति प्रदान करने हेतु प्रारंभ किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य किसी भी निवास स्थान से उचित दूरी के भीतर एक माध्यमिक विद्यालय प्रदान करके योजना के कार्यान्वयन के माध्यमिक चरण में 2005-06 में 52.26% से 75% की नामांकन दर प्राप्त करने की परिकल्पना की गई है। इसका लक्ष्य 15-16 वर्ष के आयु समूह के सभी बच्चों को सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान करना है।
राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA)  के क्रियान्वयन की रूपरेखा में उल्लेखित माध्यमिक शिक्षा के दृष्टिकोण के अनुसार 14-18 वर्ष के आयु समूहों के सभी युवाओं को उत्तम गुणवत्ता की सुलभ तथा सुगम शिक्षा उपलब्ध कराना है। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) अतिरिक्त शिक्षकों की नियुक्ति, शिक्षकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण, ICT आधारित शिक्षा, पाठ्यचर्या तथा शिक्षण अधिगम सुधार आदि के माध्यम से माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का भी लक्ष्य रखता है।

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) के उद्देश्य


1. किसी भी निवास स्थान से उचित दूरी के भीतर एक माध्यमिक विद्यालय प्रदान करना। यह माध्यमिक विद्यालयों के लिए 5 KM तक , उच्च माध्यमिक विद्यालयों के लिये 7-10 KM होना चाहिए।

2. 2017 तक माध्यमिक स्तर की शिक्षा के लिए सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करना। (बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक।)

3. सभी माध्यमिक विद्यालयों को निर्धारित मानदंडों के अनुरूप बनाने के माध्यम से माध्यमिक स्तर पर प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना।

4. लिंग, सामाजिक-आर्थिक और विकलांगता बाधाओं को दूर करना।

5. 2020 तक विद्यालयों में सार्वभौमिक ठाहराव।

6. समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों, शैक्षिक रूप से पिछड़े, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली लड़कियों एवं निर्योग्य बच्चों तथा अन्य सीमांतक वर्गों जैसे-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक के विशेष सन्दर्भ में माध्यमिक शिक्षा के लिए पहुंच प्रदान करना।

7. सभी विद्यार्थियों को मानकों के अनुसार निकटतम स्थिति के माध्यम से (5 KM के अंदर माध्यमिक विद्यालय, 7-10 KM  के अंदर उच्च माध्यमिक विद्यालय)/  प्रभावी एवं सुरक्षित परिवहन व्यवस्था/ आवसीय सुविधा तथा मुक्त विद्यालय सहित स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर माध्यमिक शिक्षा की पहुंच प्रदान करना।

8. बौद्धिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिगम की वृद्धि के परिणाम के रूप में माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना।







सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 


Tuesday, May 12, 2020

Modern trends of World Education

आधुनिक विश्व शिक्षा की प्रवृतियाँ (राष्ट्रीयकरण एवं भूमण्डलीकरण)
Modern trends of World Education (Nationalization and Globalization)

विश्व मे किन्हीं दो देशों की शिक्षा प्रणालियां समान नही होती हैं। विश्व के प्रत्येक देश की शिक्षा प्रणाली का अपना प्रारूप है और अन्य देशों से अलग है। किसी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश की संस्कृति पर निर्भर करती है। भारत जैसे देश में शिक्षा की व्यवस्था का उत्तदायित्व राज्यों का होता है। प्रत्येक राज्य की शिक्षा प्रणाली में  स्थानीय आवश्यकताओं को महत्व दिया जाता है । आज शिक्षा की राष्ट्रीयकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाने लगा है।
आधुनिक समय मे राष्ट्रीयकरण को संकुचित विचारधारा से प्रभावित मानते है, क्योंकि आज कोई भी देश आत्म निर्भर नही हैं तथा एक देश की समस्याएं एवं गतिविधियां पड़ोसी देशों को प्रभावित करती है।  आज विश्व के सभी देश विश्व युद्ध की विभीषिकाओं से बचना चाहते हैं। इसका शिक्षा ही एक मात्र शसक्त उपाय है  जो मानव को विश्व युद्धों से बचा सकती है।

राष्ट्रीयकरण(Nationalization)

"किसी सरकार द्वारा निजी सामित्व वाली वस्तु को सार्वजनिक वस्तु में बदलना या रूप प्रदान करना राष्ट्रीयकरण कहलाता है।"
उदाहरण के लिए किसी निजी बैंक को राष्ट्रीकृत कर के सभी जनता के लिए सार्वजनिक बनाया जाता है। राष्ट्रीकरण में यह भी आता है जिसमे सरकार किसी निचले स्तर की संपत्ति को ऊपरी स्तर तक ले जाया जाए। जैसे- नगरपालिका को प्रदेश की संपत्ति घोषित करना।
राष्ट्रीयकरण के विपरीत निजीकरण को समझा जाता है। शिक्षा में राष्ट्रीयकरण की प्रणाली को शिक्षा के राष्ट्रीयकरण से समझा जा सकता है।
शिक्षा को एक सस्त्र के रूप में माना जाता है। इसलिए शिक्षा का सार्वजनिक प्रसार होना आवश्यक है। शिक्षा का अधिकार 2010 एक ऐसी पहल है जिसमें शिक्षा को 6-14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क किया गया एवं सभी तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया।
शिक्षा का राष्ट्रीयकरण संविधान के आधार पर विश्वभर में शिक्षा का सार्वजनीकरण किया गया। हमारे संविधान निर्माता संविधान निर्माण की कठिन चुनौती को स्वीकार करते हुए एक ऐसे जीवंत दस्तावेज तैयार करने में सफल रहे जिसमें वे सभी तत्त्व शामिल हैं जो कि एक देश के कुशल प्रशासन तथा एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की  स्थापना के लिए आवश्यक थे। यह दस्तावेज प्रत्येक भारतीय के अधिकारों, कर्तव्यों एवं अन्य नागरिकों के साथ तथा सरकार के साथ अटूट सम्बधों का वर्णन करता है।

राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता (Need of Nationalization) 

1. शिक्षा में राष्ट्रीयकरण द्वारा एक पूर्ण राष्ट्र में शिक्षा का पाठ्यक्रम, कार्यक्रम तथा विषयवार शिक्षा व्यवस्था का  प्रबंधन किया जाता है, जो राष्ट्र को समानता तथा एकता में बांधे रखती है।
2. राष्ट्रीयकरण द्वारा छात्रों के लिए पाठ्य पुस्तकों के राष्ट्रीयकरणबाकी बात को समय- समय पर गठित आयोगों ने सही बताया है तथा 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की गई है।
3. राष्ट्र की आर्थिक तथा विश्व मे राष्ट्र की साक्षरता दर को बनाये रखने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
4. राष्ट्रीयकरण द्वारा विश्वभर में प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के द्वार खुल जाते हैं।
5. राष्ट्रीयकरण द्वारा समाज के उस वर्ग को शिक्षित किया जा सकता है जो शिक्षा नही कर पाया है । इसके द्वारा सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलो अभियान और ऐसे ही बहुत कार्यक्रम समय-समय पर चलाये जाते हैं।
6. राष्ट्रीयकरण के द्वारा वैश्वीकरण की राह भी सफल होती है। शिक्षा का राष्ट्रीयकरण होगा तो शिक्षा का वैश्वीकरण होगा तथा यह आज के दौर में आवश्यक हो गया है।

राष्ट्रवाद एवं शिक्षा (Nationalism and Education)

राष्ट्रवाद एवं शिक्षा के सम्बंध के विषय मे निम्न बिंदुओं से समझा जा सकता है-
  • राष्ट्रवाद द्वारा देश विदेशों में अपनी संस्कृति का प्रचार प्रसार किया जाता है।
  • शिक्षा में राष्ट्रवाद द्वारा देश की एकता एवं अखण्डता को बनाये रखने में सहायता प्राप्त की जाती है।
  • शिक्षा में राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है क्योंकि यह एक देश के विभाजन को तथा अंतर्राष्ट्रीय ख़तरों से बचाए रखती है।
  • देश प्रेम की भावना, शिक्षा को डिजिटल रूप प्रदान कर देश विदेशों में अपनी पहचान बनाना एवं तकनीकी के प्रयोग से देश मे बाहरी व आंतरिक खतरों से निपटना।

वैश्वीकरण (Globalization)



वैश्वीकरण विभिन्न देशों के लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच बातचीत और एकीकरण की प्रक्रिया है। वैश्वीकरण में सम्पूर्ण विश्व को एक  बाजार का  रूप प्रदान  किया जाता है।  वैश्वीकरण से  आशय विश्व अर्थव्यवस्था में आये खुलेपन, बढ़ती हुई अन्तनिर्भरता तथा आर्थिक एकीकरण के फैलाव से है।
इसके अंतर्गत विश्व बाजारों के मध्य पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है तथा व्यवसाय देश की सीमाओं को पार करके विश्वव्यापी रूप धारण कर लेता है । वैश्वीकरण के द्वारा ऐसे प्रयास किये जाते है कि विश्व के सभी देश व्यवसाय एवं उद्योग के क्षेत्र में एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं समन्वय स्थापित करें।
नाईट के अनुसार- वैश्वीकरण के अर्थ तकनीकी, वित्त, व्यापार, ज्ञान, मूल्यों एवं विचारों के सीमा पार बढ़ते प्रवाह से है।
दुनिया के सभी देशों का सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक आदि के आधार पर एक-दूसरे से जुड़ने की प्रक्रिया वैश्वीकरण का मोटे तैर पर अर्थ है। डेविड हेल्ड इसका परिभाषा परस्पर निर्भरता के रूप में करते हैं,क्योंकि सामाजिक और आर्थिक संबंधों ने दुनिया को बाँध दिया है। आज विश्व में वैश्वीकरण के प्रति कई दृष्टिकोण हैं,जो इसके स्वरुप,परिणाम और प्रभाव का विशद् विवेचना करते हैं। इन परिप्रेक्ष्यों के माध्यम से हम वैश्वीकरण के अर्थ को सही मायने में जान पाएंगे। इनमें से एक दृष्टिकोण के. ओहमी जैसे अति भूमण्डलवादी विचारकों का है। जिनके अनुसार बहुराष्ट्रीय निगम और अंतर्राष्ट्रीय बाजार शक्तिशाली हो चुके हैं तथा अव्यक्तिक ताकतें विश्व को नियंत्रित करते हैं।
परन्तु संशयवादी भूमंडलीकरण को एक मिथक मानते हैं। इनका कहना है कि 19वीं सदी में व्यापार में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हुयी,श्रमिकों का संख्या तेजी से बढ़ा और अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के रूप में राज्यों के एकीकरण का अपेक्षाकृत उच्च स्तर पर आर्थिक अंतर-निर्भरता बढ़ी। साथ ही एडम स्मिथ के तुलनात्मक लाभ के सिद्धांत का प्रचार हुआ,आज हम जो अनुभव कर रहे हैं,वह इन प्रक्रियाओं का बढ़ता हुआ स्तर है। अति भूमण्डलवादी के विपरीत संशयवादी आर्थिक शक्ति के बजाय राजनीतिक शक्ति को ज्यादा महत्त्व देते हैं। इनका मानना है कि बाजार शासन नहीं करता है बल्कि राज्य सभी आर्थिक कार्यकलापों का नियमन करता है।
तीसरा और सबसे संतुलित दृष्टिकोण परिवर्तनवादियों द्वारा दिया जाता है,जिनका विश्वास है कि भूमंडलीकरण दुनिया में परिवर्तन ला रहा है अर्थात सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों को लाने में यह एक प्रमुख शक्ति है।
वैश्वीकरण के युग ने देश-विदेश की सीमाओं को परे रख कर लोगों को एक दूसरे से जुड़ने का बड़ा मौका दिया है। सूचना और संचार तकनीक के क्षेत्र में जिस तेजी से बढ़ोतरी हो रही है उसने दुनिया भर के लोगों के बीच संपर्क को औऱ बढ़ा दिया है। खासकर विश्वविद्यालयों को किस तरह उच्चस्तरीय शिक्षा प्रदान करनी चाहिए, इस पर भी गौर किया है।
''हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा यह नहीं है कि हमारा लक्ष्य ऊंचा है और हम उस तक नहीं पहुंच पाते, बल्कि यह है कि वह इतना नीचा है कि हम आसानी से पहुंच जाते हैं।'' सर माइकल एंजेलो के ये शब्द जीएलए यूनिवर्सिटी के लिए प्रेरणादायक बन चुके हैं
विश्वभर में भी वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है । शिक्षा के क्षेत्र में भी वैश्वीकरण द्वारा Come to teach की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। जिससे शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जा रहा है। भारत मे वैश्वीकरण के क्या प्रभाव पड़ता है यह देखना भी आवश्यक है।

विश्व में शिक्षा का वैश्वीकरण -





Globalization of Education in World





भारत मे शिक्षा का वैश्वीकरण


शिक्षा में वैश्वीकरण से तात्पर्य केवल संसार के विभिन्न देशों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार देश -विदेशों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने से ही नही बल्कि एक दूसरे देश मे अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने से भी है। वर्तमान में हमारे देश मे ऐसे कई संस्थान हैं जो विदेशी विश्वविद्यालयों द्वारा मान्यता प्राप्त हैं या सम्बद्ध हैं। इसी प्रकार विदेशों में भी हमारे देश के शिक्षण संस्थान एवं संस्थायें चल रही हैं जो वहाँ मान्य हैं। जैसे IGNOU कई देशों में स्थापित है।




















वैश्वीकरण में शिक्षा की भूमिका

1. शिक्षा की नीति में पर्याप्त रूप से विविधता होनी चाहिए। शिक्षा का प्रारूप इस प्रकार विकसित किया जाए जिससे सामाजिक मतभेद उत्पन्न न हो बल्कि परस्पर सदभावना का विकास हो।
2. छात्रों के सामाजीकरण में व्यक्तिगत विकास के सम्बंध में कोई द्वंद्व उत्पन्न न हो । यह आवश्यक रूप में एक प्रणाली का ही अनुसरण किया जाए और विविध प्रकार के मूल्यों को विकसित किया जाए।
3. शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जिससे अपनी सामाजिक समस्याओं का समाधान किया जा सके । बल्कि अन्य देशों को साथ लेकर भी चल सके और उनकी सहायता एवं सहयोग कर सकें।
4. विद्यालय की सफलता अपने कार्यों को सम्पन्न करने तक ही सीमित नही होनी चाहिए , अपितु उन्हें विकास एवं एकीकरण में अपना योगदान देना चाहिए।
5. शिक्षा की यह भी भूमिका है कि यह उसे बच्चों और युवाओं को सांस्कृतिक आधार प्रदान करें और समाज व राष्ट्र स्तर पर हो रहे परिवर्तन की जानकारी प्रदान करें। जो घटनायें हो रही हैं उनकी अतीत के संदर्भ में व्याख्या भी कर सके।





संदर्भ ग्रन्थ सूची






मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology) मनोविज्ञान के सम्प्रदाय से अभिप्राय उन विचारधाराओं से है जिनके अनुसार मनोवैज्ञानिक मन, व्यवह...