Wednesday, December 3, 2025

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)


मनोविज्ञान के सम्प्रदाय से अभिप्राय उन विचारधाराओं से है जिनके अनुसार मनोवैज्ञानिक मन, व्यवहार और अनुभव का अध्ययन संगठित तरीके से करते हैं। इतिहास में कई प्रमुख सम्प्रदाय उभरे हैं जिनके अपने-अपने विषय, पद्धति और प्रतिनिधि हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत एवं बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मनोविज्ञान के दर्शनशास्त्र से अलग होने की प्रक्रिया में मनोविज्ञान के कई सम्प्रदाय (Schools) अथवा प्रणाली (Systems) अथवा वाद (views) सामने आए। मनोविज्ञान के किसी सम्प्रदाय (School of Psychology) से तात्पर्य मनोवैज्ञानिकों के किसी ऐसे समूह से है जो मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए एक समान विचारधारा तथा विधियों का अनुसरण करते हैं।  19 वीं शताब्दी के अन्त तथा 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मनोवैज्ञानिकों के बीच मनोविज्ञान के दृष्टिकोण, विषय वस्तु तथा अध्ययन विधियों के सम्बन्ध में अनेक मतभेद हो गये एवं वे अनेक समूहों में विभक्त होकर अपनी-अपनी विचारधारा तथा चिन्तन प्रणाली के साथ मनोविज्ञान के अध्ययन सम्बन्धी कार्य में लग गये थे। संरचनावाद, कार्यवाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्टवाद तथा मनोविश्लेषणवाद कुछ ऐसे ही प्रमुख मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय थे। 

Tuesday, December 2, 2025

अधिगम का ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त (Cognitive Field Theory of Learning)

 अधिगम का ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त (Cognitive Field Theory of Learning)


अधिगम का ज्ञानात्मक क्षेत्रीय सिद्धान्त मुख्यतः मनोवैज्ञानिक कर्ट लेविन (Kurt Lewin) द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इस सिद्धान्त को अधिगम का क्षेत्रीय सिद्धान्त (Field Theory of Learning) या अधिगम का तलरूप सिद्धान्त (Topological Theory of Learning) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक कर्ट लेविन (Kurt Lewin) हैं, जिन्होंने वर्दीमर, कोहलर, कोफ्का आदि समग्राकृति सिद्धान्तवादियों के साथ बर्लिन में कार्य किया। यह सिद्धांत गेस्टाल्ट मनोविज्ञान से प्रेरित है और 1940 के दशक में विकसित हुआ, जो व्यक्ति के संपूर्ण जीवन क्षेत्र को ध्यान में रखता है । लेविन के अनुसार, किसी भी व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तिगत गुणों (Person) और उसके वातावरण (Environment) के आपसी प्रभाव का परिणाम होता है, जिसे सूत्र के रूप में इस प्रकार लिखा जाता है: 

B = f (P, E)

B = f (P, E) अर्थात व्यवहार व्यक्ति और वातावरण का फलन है ।

कर्ट लेविन (Kurt Lewin) ने  मनोविज्ञान को एक ऐसे विज्ञान के रूप में माना जिसका सम्बन्ध नित्य के जीवन से है। उसकी रुचि शिक्षण अधिगम से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करने में अधिक थी। उसके मनोविज्ञान का मुख्य केन्द्र व्यक्ति, वातावरण, परिस्थितियों (Person, Environment, Situations) की अभिप्रेरित दशायें थी। इसके अतिरिक्त वह समस्याओं के समाधान में रुचि रखता था।


इस सिद्धान्त के 4 प्रमुख तत्त्व हैं-

  • जीवन-स्थल (Life-Space):-  
यह किसी व्यक्ति का वह संपूर्ण मनोवैज्ञानिक परिवेश होता है, जिसमें उसकी इच्छाएँ, लक्ष्य, अनुभव, संज्ञानात्मक संरचना और बाधाएँ शामिल होती हैं—अर्थात् वह वातावरण और आंतरिक मनोदशा जिसमें व्यक्ति किसी समय विशेष पर कार्य करता तथा निर्णय लेता है ।  वास्तव में जीवन स्थल का अर्थ है "व्यक्तित्त्व और वातावरण में पारस्परिक सम्बन्ध"। 

  1. यह व्यक्ति के चेतन अनुभव से जुड़ा होता है—यानि जिन घटनाओं, अनुभवों या उद्देश्यों के प्रति व्यक्ति सचेत रूप से प्रतिक्रियाशील होता है, वे उसके जीवन क्षेत्र का हिस्सा होते हैं ।​​
  2. इसमें व्यक्ति (Person) तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण (Environment) शामिल होता है, जिनके बीच की क्रिया-प्रतिक्रिया व्यवहार को निर्धारित करती है।
  3. जीवन क्षेत्र सीमित नहीं होता—यह समय, परिस्थिति और अनुभव अनुसार बदलता रहता है, जैसे-जैसे व्यक्ति नया ज्ञान अर्जित करता है या नई चुनौतियों का सामना करता है ।​​ जो चीज़ें व्यक्ति के सीधे अनुभव में नहीं आईं, वे उसके जीवन क्षेत्र से बाहर मानी जाती हैं।
जीवन क्षेत्र की यह अवधारणा दर्शाती है कि व्यवहार केवल बाहरी घटनाओं से प्रभावित नहीं होता, बल्कि व्यक्ति की आंतरिक संज्ञानात्मक स्थिति और उसके द्वारा अनुभूत वातावरण का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है ।​​


  • मनोवैज्ञानिक क्षेत्र (Psychological Field) : 
कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत का व्यापक ढाँचा है, जिसके भीतर जीवन क्षेत्र (Life Space), व्यक्ति और उसका वातावरण, सभी शक्ति-प्रभाव और संबंध शामिल होते हैं। सरल शब्दों में, यह वह पूरा “मानसिक-सामाजिक परिदृश्य” है जिसमें किसी समय विशेष पर व्यक्ति सोचता, महसूस करता और व्यवहार करता है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र उस संपूर्ण मनोवैज्ञानिक जगत को कहते हैं जिसमें व्यक्ति और उससे संबंधित सभी आंतरिक (इच्छाएँ, भावनाएँ, धारणाएँ, लक्ष्य) तथा बाह्य (परिवार, साथियों, सामाजिक परिस्थितियाँ, कार्य–परिस्थिति आदि) कारक एक साथ मौजूद होते हैं और आपस में क्रिया–प्रतिक्रिया करते हैं।

  1. मनोवैज्ञानिक क्षेत्र हमेशा “समग्र” (holistic) माना जाता है; किसी एक तत्व को अलग करके पूरी तरह नहीं समझा जा सकता, क्योंकि हर भाग अन्य भागों से जुड़ा होता है।
  2. यह समयानुसार बदलता रहता है; नई जानकारी, अनुभव, सफलता–असफलता, सामाजिक परिवर्तन आदि के साथ क्षेत्र की संरचना और उसमें मौजूद वेक्टर (शक्तियाँ) और कर्षण (आकर्षण/विकर्षण) भी बदलते हैं।
  3. इसमें जीवन क्षेत्र के भीतर की चीजें (जिनसे व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से जुड़ा है) और जीवन क्षेत्र के बाहर की चीजें (जो अभी उसके अनुभव का हिस्सा नहीं हैं और उसके व्यवहार पर प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं डालतीं) – दोनों के बीच स्पष्ट सीमा (boundary) मानी जाती है।
  4. जब किसी नई समस्या, संघर्ष या लक्ष्य के कारण मनोवैज्ञानिक क्षेत्र की संरचना बदलती है (जैसे नई राहें खुलना, पुरानी बाधाओं का हटना, नए लक्ष्यों का बनना), तब उसे अधिगम और अनुकूलन (adjustment) का संकेत माना जाता है।

  • वेक्टर (Vectors): - 
कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत में “वेक्टर” (Vectors) को मनोवैज्ञानिक बल या प्रेरक शक्ति माना जाता है, जो व्यक्ति के व्यवहार की दिशा और तीव्रता को निर्धारित करती है। ये वे शक्तियाँ हैं जो व्यक्ति को किसी लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने या उससे दूर हटने के लिए प्रेरित करती हैं ।​  वेक्टर वह मनोवैज्ञानिक बल है जो जीवन क्षेत्र में व्यक्ति की “गति” (movement) को किसी दिशा में मोड़ता है, अर्थात किस दिशा में, कितनी शक्ति और किस प्रकार से व्यक्ति कार्य करेगा, यह वेक्टर से निर्धारित होता है ।​  यदि केवल एक वेक्टर कार्य कर रहा हो, तो व्यक्ति उसी दिशा में अग्रसर होता है; यदि दो या अधिक विपरीत वेक्टर हों, तो संघर्ष (conflict) या संतुलन (equilibrium) की स्थिति बन सकती है ।​
  1. दिशा (Direction) व्यक्ति को किस ओर ले जा रहा है – लक्ष्य की ओर या उससे दूर।
  2. बल कितना प्रबल या कमजोर है, इससे व्यवहार की तीव्रता पता चलती है।
  3. यह बल व्यक्ति के भीतर से (जैसे इच्छा, अभिप्रेरणा) या बाह्य परिस्थितियों से (जैसे सामाजिक दबाव, पुरस्कार, दंड) उत्पन्न हो सकता है ।​
  4. सकारात्मक कर्षण होने पर वेक्टर व्यक्ति को लक्ष्य की ओर खींचता है (Approach tendency) और नकारात्मक कर्षण होने पर वेक्टर व्यक्ति को उस वस्तु या लक्ष्य से दूर ले जाता है (Avoidance tendency) ।​

  • कर्षण (Valence):

कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत में “कर्षण” (Valence) किसी वस्तु, लक्ष्य, व्यक्ति या स्थिति की वह मनोवैज्ञानिक आकर्षण‑या‑विकर्षण शक्ति है, जो उस ओर जाने या उससे दूर रहने की प्रवृत्ति पैदा करती है। यह बताता है कि जीवन क्षेत्र में कौन‑सी चीज़ व्यक्ति के लिए “पसंदीदा/लुभावनी” है और कौन‑सी “अप्रिय/टालने योग्य” महसूस होती है ।​
कर्षण वह गुण है जिसके कारण कोई वस्तु या स्थिति व्यक्ति के लिए सकारात्मक (positive valence) या नकारात्मक (negative valence) बन जाती है। सकारात्मक कर्षण होने पर व्यक्ति की ओर जाने वाली प्रवृत्ति (approach) और नकारात्मक कर्षण होने पर दूर जाने वाली प्रवृत्ति (avoidance) उत्पन्न होती है ।​

  1. जो चीज़ें आवश्यकता की पूर्ति, आनंद, सफलता या सुरक्षा का अनुभव कराएँ, उनका कर्षण सकारात्मक होता है, जैसे पुरस्कार, प्रशंसा, वांछित लक्ष्य आदि। 
  2. जो चीज़ें भय, दर्द, विफलता, दंड या असुरक्षा से जुड़ी हों, उनका कर्षण नकारात्मक माना जाता है, जैसे कड़ी फटकार, अप्रिय कार्य, शर्मिंदा करने वाली स्थिति आदि ।​
  3. यदि किसी छात्र के लिए “अच्छे अंक और शिक्षक की प्रशंसा” का कर्षण सकारात्मक है, तो पढ़ाई की दिशा में मजबूत वेक्टर बनेगा (अधिक अध्ययन, नियमित उपस्थिति)।
  4. यदि “कक्षा में प्रश्न पूछना” शर्म, उपहास या घबराहट से जुड़ा हो और उसका कर्षण नकारात्मक लगे, तो छात्र प्रश्न पूछने से बचेगा, भले ही उसे शंका हो ।​

  • बाधाएँ, लक्ष्य और खतरे (Barriers, Goals, Threats):
लेविन के क्षेत्र सिद्धांत में “बाधाएँ, लक्ष्य और खतरे” जीवन क्षेत्र के ऐसे मुख्य घटक हैं जो वेक्टरों और कर्षण के माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार और अधिगम की दिशा तय करते हैं। संक्षेप में, लक्ष्य आकर्षण पैदा करते हैं, बाधाएँ उस लक्ष्य तक पहुँचने की राह रोकती हैं, और खतरे भय या तनाव उत्पन्न करके व्यवहार को प्रभावित करते हैं ।​

लक्ष्य (Goals): लक्ष्य वह वांछित अवस्था, वस्तु या उपलब्धि है, जिसकी ओर व्यक्ति के जीवन क्षेत्र में सकारात्मक कर्षण (positive valence) और अग्रसर वेक्टर (approach vectors) काम करते हैं, जैसे परीक्षा में उत्तीर्ण होना, नौकरी पाना, किसी कौशल में दक्ष होना ।​

बाधाएँ (Barriers): बाधा वह गतिशील अवरोध है जो व्यक्ति और उसके लक्ष्य के बीच स्थित होता है और लक्ष्य की ओर गति (locomotion) को रोकता या धीमा करता है; यह शारीरिक भी हो सकती है (संसाधनों की कमी, दूरी) और मनोवैज्ञानिक भी (भय, हीनभावना, नकारात्मक अपेक्षाएँ) ।​

खतरे (Threats):  खतरा वह स्थिति या संकेत है जो व्यक्ति के लिए संभावित हानि, विफलता, अपमान, दंड या हानि की आशंका पैदा करता है, और इस कारण जीवन क्षेत्र में नकारात्मक कर्षण तथा परिहार वेक्टर (avoidance vectors) उत्पन्न करता है ।​

जब खतरा बहुत प्रबल महसूस होता है, तो व्यक्ति अक्सर लक्ष्य से दूर भागता, बचावात्मक व्यवहार करता या वैकल्पिक, अपेक्षाकृत सुरक्षित लक्ष्यों की ओर मुड़ जाता है, जिससे अधिगम और सकारात्मक प्रयास बाधित हो सकते हैं ।​


लेविन के अनुसार अधिगम की स्थिति में प्रायः यह पैटर्न मिलता है: 
  1. व्यक्ति के पास कोई लक्ष्य होता है → लक्ष्य की ओर सकारात्मक कर्षण और अग्रसर वेक्टर बनते हैं।
  2. लक्ष्य तक पहुँचने के रास्ते में बाधा आती है → यही बाधा, यदि पार न हो सके, तो “खतरे” की अनुभूति (विफलता, दंड, हानि का डर) को जन्म दे सकती है ।
  3. यदि शिक्षक या वातावरण बाधाओं को कम करें (सहयोग, संसाधन, मार्गदर्शन देकर) और खतरे‑भावना को घटाएँ (समर्थनकारी वातावरण, त्रुटि को सीखने का अवसर मानना), तो अधिगम के लिए सकारात्मक कर्षण और प्रभावी वेक्टर मज़बूत हो जाते हैं ।


Monday, December 1, 2025

ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त (Bruner's Theory of Cognitive Learning)

 ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त 
(Bruner's Theory of Cognitive Learning)


जीरोम ब्रुनर (Jerome Bruner, 1960) के द्वारा प्रतिपादित अधिगम सिद्धान्त को आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Modern Cognitive Theory) कहा जाता है।  ब्रुनर ने बालकों को संज्ञानात्मक व्यवहार का विस्तृत अवलोकन करके संज्ञानात्मक विकास को उसकी विशेषताओं के आधार पर तीन स्तरों- क्रियात्मक, प्रतिबिम्बात्मक तथा संकेतात्मक (functional, reflective and symbolic)  में विभक्त करके स्पष्ट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। शिक्षा के क्षेत्र में इस सिद्धान्त को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। संज्ञानात्मक विकास को विस्तृत करते हुए तथा कक्षा में छात्रों के द्वारा सीखने से सम्बन्धित किये जाने वाले व्यवहारों को ध्यान में रखकर उसने सीखने के संज्ञानात्मक सिद्धान्त की अवधारणा प्रस्तुत की है। ब्रुनर के सीखने के सिद्धान्त को निम्न भागों में विभक्त करके प्रस्तुत किया जा सकता है-


मूल धारणाएँ (Main Concept):

  • अधिगम एक सक्रिय, उद्देश्यपूर्ण तथा समस्या–समाधान की प्रक्रिया है; बच्चा पर्यावरण से जानकारी लेकर उसे वर्गीकृत व संगठित करके संप्रत्यय (concepts) बनाता है।​

  • अर्थपूर्ण अधिगम तब होता है जब बालक स्वयं चीज़ों की खोज करता है (अन्वेषण/डिस्कवरी लर्निंग) और विषय की “संरचना” (basic concepts, principles) को समझ लेता है।​
  • नया ज्ञान हमेशा पूर्व ज्ञान से जोड़ा जाता है; इसलिए अधिगम प्रगतिशील पुनर्गठन (reorganization) की प्रक्रिया है।
ब्रूनर ने बताया कि बच्चा अनुभवों को मानसिक रूप से तीन तरीकों से प्रस्तुत करता है:

  • सक्रियता विधि (Enactive mode) : 

यह वह स्थिति है जिसमें बच्चा या कोई भी व्यक्ति करके (action) के माध्यम से सीखता है, यानी ज्ञान शारीरिक क्रिया या “मसल मेमोरी” के रूप में संग्रहीत रहता है। उदाहरण: बच्चा खिलौना पकड़ना सीखता है, या किसी चीज़ को छूकर, मोड़कर समझता है – उसके लिए अनुभव करना सीखने का सबसे बड़ा तरीका है।
  1. जन्म से 3 वर्ष तक। 
  2. बालक गामक क्रिया/शारीरिक क्रिया द्वारा सीखता है। जैसे- वस्तुु को पकड़ना, चलना आदि।
  3. इस अवस्था में शिशु अपनी अनुभूतियों को शब्दविहीन क्रियाओं द्वारा व्यक्त करता है। उदा0- भूख लगने पर रोना, हाथ-पैर हिलाना आदि। इन क्रियाओं द्वारा बालक बाह्य वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करता है। 
  4. इस अवस्था में भाषा का महत्व न के बराबर होता है, यदि कोई मानसिक क्रिया का महत्व है तो वह भी नगण्य है।
  5. किसी वस्तु को समझने के लिये बालक उसे पकड़ता है, मोड़ता है, काटता है।
  6. इस अवस्था में शिशु प्रत्यक्ष अनुभव एवं कार्य स्वयं करके ही सीखता है। इस अवस्था के बालकों में बोध विकसित करने हेतु क्रिया को सबसे प्रमुख साधन माना गया है। अतः बालकों को विषय-वस्तु को क्रिया के माध्यम से सीखाना चाहिए।
  7. किसी वस्तु या क्रिया को उसके भौतिक रूप में बार-बार जोड़-तोड़ करके सीखने में मदद करता है।

  • दृश्य–प्रतिमा विधि (Iconic mode):
बच्चा चित्रों, आकृतियों, मानसिक प्रतिमाओं के रूप में अनुभवों का प्रतिनिधित्व करता; प्रत्यक्षीकरण द्वारा सीखना प्रमुख रहता है।​
  1. 4 से 8 वर्ष तक।
  2. इस अवस्था में बालक अपनी अनुभूति को अपने मन में कुछ दृश्य प्रतिमाएं प्रकट करता है और प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से सीखता है।
  3. इसमें सूचनाएं प्रतिबिंबों की सहायता से बालक तक पहुंचती है और बालक किसी चमक एवं शोर से प्रभावित होता है। 
  4. यह वास्तविकता का चरण होता है।
  5. प्रत्यक्षीकरण, स्वयं करके सीखना एवं दृश्य स्मृति का विकास इस अवस्था की मुख्य विशेषता है।
  6. यह बोधात्मक क्षेत्र की प्रतिमाओं का चरण है।
  7. इस अवस्था में बालक अपनी स्वयं की मानसिक छवि बनाने और उस आधार पर स्वयं को अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं।
  8. बालकों में बौद्धिक क्षमता इतनी विकसित हो जाती है कि मूर्त रूप से सोचने एवं समझने लगता है। अतः बालकों में बोध को विकसित करने हेतु चित्रों, मॉडलों, चार्ट, मूर्तियों आदि का प्रयोग किया जा सकता है। इसे छायात्मक अवस्था भी कहते हैं।

  • सांकेतिक विधि (Symbolic mode):

भाषा, चिन्ह, प्रतीकों के माध्यम से सोच व अधिगम; शब्दों और सूत्रों से जटिल संकल्पनाओं को व्यक्त करता है।​
  1. 8 से 13 वर्ष तक।
  2. इस अवस्था में बालक अपने अनुभवों को शब्दों में व्यक्त करता है।
  3. इस अवस्था में बालक गणित तथा तर्क का उपयोग करना सीखते हैं। 
  4. बौद्धिक विकास की यह सर्वोच्च अवस्था है। इसे शब्द चरण भी कहते हैं। 
  5. प्राप्त अनुभवों को शब्दों के माध्यम से प्रकट करना, अमूर्त चिन्तन करना, उच्च-स्तरीय विमर्शी चिन्तन करना सांकेतिक अवस्था की विशेषता है।
  6. भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से अनुभवों के संसार का संप्रेषण किया जा सकता है।
  7. अन्वेषण विधि का प्रयोग किया जाता है।
  8. इस अवस्था में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।



शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implication)



  • ब्रुनर ने कक्षा शिक्षण को अर्थपूर्ण बनाने पर बल दिया है।
  • विषय के तात्कालिक ज्ञान पर बल दिया है। तत्परता और शिक्षार्थी द्वारा स्वयं कार्य करने को महत्व दिया।
  • अन्वेषणात्मक विधि पर बल दिया।
  • सीखने में सामाजिक एवं व्यक्तिगत संबद्धता पर बल दिया।
  • आगमनात्मक विधि पर बल दिया।
  • शिक्षा का उद्देश्य स्वायत्त शिक्षार्थी (सीखने के लिए सीखना) होना चाहिए। जिसे बाद में कई स्थितियों में स्थानांतरित किया जा सकता है। विशेष रूप से शिक्षा से बच्चों में प्रतीकात्मक सोच भी विकसित होनी चाहिए।
  • ब्रूनर के मानसिक अवस्थाओं के चरणों के अनुसार शिक्षण में योग्यता व प्रविधियों का प्रयोग करना चाहिए।
  • इस सिद्धान्त के माध्यम से छात्रों द्वारा समस्या समाधान की क्षमता का विकास किया जा सकता है।
  • ब्रूनर ने सम्प्रत्यय को समझने पर बल दिया। जिससे शिक्षक वर्तमान संचार को पूर्व ज्ञान एवं अनुभवों से जोड़ सकता है। इससे छात्रों के ज्ञान को समृद्ध बनाया जा सकता है।
  • शिक्षाविदों, शिक्षकों और माता-पिता को बालक के विचारों को बुनर द्वारा दिये तीनों चरणों के माध्यम से जानकर उसकी क्षमता का विकास करना चाहिये।


Sunday, November 30, 2025

टॉलमैन का अधिगम सिद्धान्त (Tolman's Theory of Learning)

 टॉलमैन का अधिगम सिद्धान्त (Tolman's Theory of Learning)

टॉलमैन का अधिगम सिद्धान्त “चिन्ह–पूर्णाकार (Sign–Gestalt / Sign Learning)” या “प्रयोजनवादी व्यवहारवाद (Purposive Behaviorism)” के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्य विचार यह है कि अधिगम केवल यांत्रिक आदत बनाना नहीं, बल्कि उद्देश्यपूर्ण (purposeful), संज्ञानात्मक (cognitive) और अर्थपूर्ण (meaningful) प्रक्रिया है।

व्यवहार  को उद्दीपक से उत्पन्न होने वाला स्वीकार करने, व्यवहार का मापन करने के लिए वस्तुनिष्ठ विधियों पर जोर देने तथा व्यवहार के परिमार्जन पर बल देने से स्पष्ट है कि टॉलमैन का सिद्धांत व्यवहारवादी दृष्टिकोण रखता है परन्तु  टॉलमैन ने व्यवहारवादियों के सामान व्यवहार यंत्रवत मानने का विरोध किया। 


टॉलमैन के सिद्धान्त का मूल विचार


  • टॉलमैन के अनुसार प्राणी (मानव–पशु) का व्यवहार उद्देश्यपूर्ण होता है; वह किसी लक्ष्य (goal) की ओर निर्देशित होता है, केवल उद्दीपन–प्रतिक्रिया की जंजीर नहीं होता।

  • अधिगम में व्यक्ति अपने वातावरण के बारे में “संज्ञानात्मक मानचित्र (Cognitive map)बनाता है; अर्थात् विभिन्न रास्तों, संकेतों, स्थानों व परिणामों का मानसिक नक्शा तैयार करता है, केवल प्रतिक्रियाओं का क्रम याद नहीं करता।
  • टॉलमैन के अनुसार अधिगम का तत्त्व “चिन्ह” है, अर्थात ऐसे संकेत या प्रतीक जिनके आधार पर व्यक्ति यह “अपेक्षा” करता है कि यदि वह ऐसा करेगा तो ऐसा परिणाम मिलेगा।
  • अधिगम का अर्थ है विभिन्न उद्दीपनों व परिस्थितियों के बीच संबंधों को समझना और उनके आधार पर भविष्य के परिणामों की भविष्यवाणी करना; इसलिए यह “अपेक्षाओं का अधिगम” है, न कि केवल मांसपेशीय प्रतिक्रियाओं का।

प्रमुख अवधारणाएँ (Main Concept):

  • प्रयोजन (Purpose): हर सीखी गई क्रिया के पीछे कोई न कोई उद्देश्य, जरूरत या लक्ष्य होता है; यदि लक्ष्य न हो तो व्यवहार स्थिर नहीं रहता।
  • मध्यवर्ती चरों (Intervening Variables): उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच प्रेरणा, लक्ष्य, पूर्व-अनुभव, जैविक दशा, व्यक्तित्व आदि ऐसे छिपे हुए तत्त्व हैं जो व्यवहार को प्रभावित करते हैं; इन्हीं को टॉलमैन ने मध्यवर्ती चर कहा।
  • अव्यक्त अधिगम (Latent Learning): प्राणी बिना तात्कालिक पुरस्कार के भी वातावरण का नक्शा सीख लेता है; जब बाद में पुरस्कार मिलता है तभी वह सीखा हुआ ज्ञान व्यवहार में प्रकट होता है।


टालमैन द्वारा प्रस्तुत सैद्धान्तिक सम्प्रत्यय
(Tolman's Theoritical Concepts)


सीखने की प्रक्रिया को समझने के लिए विभिन्न प्रकार की भूल-भूलैयों में किये गये अपने प्रयोगों के आधार पर टालमैन ने सीखने के निम्न सैद्धान्तिक संप्रत्ययों को प्रस्तुत किया-


  • चिन्ह (Sign) या संकेत: अधिगम में व्यक्ति अपने वातावरण के संकेतों (जैसे रास्ता, चिन्ह, संकेत-चिह्न, प्रतीक) के बीच संबंध को पहचानता है, न कि सिर्फ क्रमबद्ध प्रतिक्रियाओं को।

  • संज्ञानात्मक मानचित्र (Cognitive Map): अधिगम के दौरान व्यक्ति दिमाग़ में खुद-ब-खुद एक मानसिक नक्शा या संरचना बनाता है, जिससे स्थान, रास्ते और संभावित परिणामों का ज्ञान होता है।​

  • उद्देश्यपूर्ण व्यवहार (Purposive Behaviour): हर व्यवहार और अधिगम के पीछे कोई-न-कोई लक्ष्य/उद्देश्य होता है — अनायास की गई प्रतिक्रियाएँ नहीं होतीं।​​

  • अपेक्षा (Expectancy): व्यक्ति ‘अपेक्षा’ बना लेता है कि किसी विशेष संकेत के बाद कौन सा परिणाम आएगा; यानी वह अनुभव के आधार पर अपने व्यवहार की योजना बनाता है।​

  • मध्यवर्ती चर (Intervening Variables): उद्दीपन और प्रतिक्रिया के बीच कुछ छिपे कारक जैसे प्रेरणा, उद्देश्य, भूख आदि अभिनय करते हैं, जो अधिगम को प्रभावित करते हैं।​​

  • अव्यक्त अधिगम (Latent Learning): बिना प्रत्यक्ष इनाम के भी अधिगम संभव है; अनुभव बाद में व्यवहार में दिख सकता है। टालमैन ने अधिगम के एक ऐसे प्रकार की चर्चा भी की है जो व्यवहार  के रूप में परिलक्षित होने से पूर्व काफी समय तक सुप्तावस्था (Dormant) में रहता है। परन्तु प्राणी को उपयुक्त परिस्थिति अथवा अभिप्रेरणा मिलने पर वह इस प्रकार के लुप्त अधिगम प्रदर्शन करने में सक्षम रहता है। टालमैन के लुप्त अधिगम संप्रत्यय के अनुसार कभी-कभी अधिगम तो होता है परन्तु पुरस्कार अथवा पुनर्बलन में मिलने के कारण ऐसा अधिगम निष्पादन के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। वस्तुतः लुप्त अधिगम का संप्रत्यय इंगित करता है कि सीखने के लिए पुरस्कार / पुनर्बलन का होना अपरिहार्य (Indispensable) नहीं है। 


1930 में टालमैन तथा  उनके सहयोगी ने लुप्त अधिगम (Latent Learning) के सन्दर्भ में किये गए एक प्रयोग में देखा गया कि भोजन (पुरस्कार/पुनर्बलन) पाये बिना भी चूहों ने भुलभुलैया में सही मार्ग सीख लिया। 17  दिन तक चल रहे इस प्रयोग में चूहों को तीन समूहों में विभक्त करके तीन समरूप भूलभुलैया (Identical Maze) में दौड़ने का प्रशिक्षण दिया गया।  एक समूह को लक्ष्य पर पहुंचने पर सदैव ही पुनर्बलन दिया गया, दुसरे समूह को लक्ष्य पर पहुंचने पर कभी-भी पुनर्बलन नहीं दिया गया एवं तीसरे समूह को दस दिन तक कोई पुनर्बलन नहीं दिया गया परन्तु  ग्यारहवें दिन से लक्ष्य पर पहुँचने पर पुनर्बलन दिया गया। देखा गया कि- 

  • लगातार पुनर्बलन पाने वाले समूह के निष्पादन में धीरे-धीरे पर्याप्त उन्नति हुई । 
  • पुनर्बलन न पाने वाले समूह में निष्पादन में बहुत थोड़ी उन्नति हुए। 
  • ग्यारहवें दिन से पुनर्बलन पाने वाले समूह के निष्पादन में बारहवें दिन से अप्रत्याशित वृद्धि हुई एवं इस समूह के निष्पादन का स्तर शीघ्र ही लगातार पुनर्बलन पाने वाले समूह के निष्पादन के बराबर हो गया।

टालमैन के अनुसार तीसरे समूह ने प्रथम दस दिनों में भूलभुलैया सीख ली थी, परन्तु  इसकी अभिव्यक्ति (Expression)नहीं हो रही थी। जब ग्यारहवें दिन से उन्हें पुनर्बलन दिया गया तो अधिगम की अभिव्यक्ति (Expression) हो गयी। यही कारण था कि पुनर्बलन पाने के बाद इस समूह के निष्पादन में अचानक वृद्धि हो गयी। दूसरे शब्दों में अधिगम विद्यमान होते हुए भी लुप्त था जो अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न होने पर प्रत्यक्षतः हो गया।



मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology) मनोविज्ञान के सम्प्रदाय से अभिप्राय उन विचारधाराओं से है जिनके अनुसार मनोवैज्ञानिक मन, व्यवह...