Wednesday, August 19, 2020

तुलनात्मक शिक्षा के प्रभावकारी कारक (FACTORS INFLUENCING COMPARATIVE EDUCATION)

 तुलनात्मक शिक्षा के प्रभावकारी कारक 
(FACTORS INFLUENCING COMPARATIVE EDUCATION)

तुलनात्मक शिक्षा का विकास इस अवधारणा से हुआ कि दो अथवा दो से  अधिक  राष्ट्रों की शिक्षा प्रणालियों में भिन्नता होती है। जिससे तार्किक, निरीक्षण एवं अनुभव के आधार पर कारकों की पहचान की गई तथा सामान्य तुलनात्मक विधि से उन  कारकों की  पुष्टि भी की गई। शिक्षा एक सामाजिक एवं मानवीय प्रक्रिया है जिसका लक्ष्य व्यक्ति में मानवीय गुणों का विकास करना है। आज के सन्दर्भ में योग्य नागरिकों का निर्माण करना शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है।

निकोलस हंस ने प्रभावकारी कारकों को तीन भागों में बाँटा है.

(1) संरचनात्मक कारक (Structural Factors) - संरचनात्मक कारक उन कारकों को कहा जाता है, जो शिक्षा प्रणाली के स्वरूप को प्रभावित करते हैं या शिक्षा के सैद्धान्तिक प्रारूप को प्रस्तुत करते हैं।

(2) कार्यपरक कारक (Functional Factors)शिक्षा प्रक्रिया व्यावहारिक तथा कार्यपरक अधिक है। इसके अन्तर्गत तीन क्रियाएँ शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण का सम्पादन किया जाता है जिसे शिक्षण शास्त्र भी कहा जाता है। शिक्षा प्रणाली को कार्य-परक बनाने में शिक्षा तकनीकी, मनोविज्ञान, अनुदेशन तकनीकी तथा शिक्षणशास्त्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह समस्त वैज्ञानिक कारक शिक्षा प्रणाली को कार्यपरक बनाते हैं।

(3) मिश्रित कारक (Mixed Factors)-  शिक्षा प्रणाली में कुछ ऐसे कारक भी होते हैं जो शिक्षा प्रणाली की संरचना तथा कार्य-परक पक्ष दोनों को ही प्रभावित करते हैं। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक पक्ष शिक्षा प्रणाली के दोनों पक्षों को प्रभावित करते हैं।

वर्नन मैलिन्सन रॉबर्ट ने एक पुस्तक 'तुलनात्मक शिक्षा की भूमिका' (An Introduction in the Study of Comparative Education) का प्रकाशन  1957 में किया। इस पुस्तक में शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन राष्ट्रीय चरित्र के सन्दर्भ में किया। इनका विश्वास था कि राष्ट्रीय चरित्र को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। इन्होंने मुख्य कारकों का उल्लेख किया, वे इस प्रकार हैं-भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा तकनीकी कारक।


 

(1) भौगोलिक कारक  (Geographical Factors)

किसी देश की भौगोलिक परिस्थिति मानव जीवन के अतिरिक्त सभ्यता एवं संस्कृति तथा शिक्षा प्रणाली को भी प्रभावित करती है। विकसित राष्ट्रों की जलवायु उस देश के निवासियों की कार्यक्षमता के अधिक उपयोग के अनुकूल होती है। इन राष्ट्रों के व्यक्ति बारह से चौदह घंटे दिन में कार्य कर सकते हैं। इन देशों की जलवायु सामान्य या ठण्डी होती है। अधिक गर्म जलवायु वाले देशों के व्यक्ति सात से आठ घण्टे ही दिन में काम कर पाते हैं क्योंकि गर्म जलवायु उन्हें क्रियाशील तथा आलसी  बनाती है। ठण्डे देशों तथा गर्म देशों के मानवीय भूगोल में भी सार्थक अन्तर होता है। देश की जलवायु से भाषाओं की संरचना तथा उच्चारण प्रत्यक्ष रूप में प्रभावित होते हैं। भौगोलिक कारक  शिक्षा प्रणाली की संरचना को भी प्रभावित करता है। किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति तथा शिक्षा प्रणाली पर उस देश की भौगोलिक स्थिति का काफी प्रभाव पड़ता है। विश्व के विभिन्न देशों की भौगोलिक स्थिति अलग-अलग है अतएव वहाँ के निवासियों के रहन-सहन, सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा प्रणाली में भेद पाया जाता है। ठण्डे देश की जलवायु गर्म  देश की जलवायु से भिन्न होती है। फलस्वरूप ठंड और गर्म देश के रहन-सहन तथा सामाजिक गर्म व्यवस्था आदि में विभिन्नता होती है। शिक्षा प्रणाली सामाजिक व्यवस्था एवं रहन-सहन से सदैव प्रभावित होती है। जो देश कृषि प्रधान होता है  वहाँ की शिक्षा प्रणाली में कृषि की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। जिस देश में विविध औद्योगिक केन्द्र होते हैं और जहाँ की आय का प्रधान स्रोत विभिन्न उद्योग ही होते हैं। इस प्रकार शिक्षा को भौगोलिक कारक प्रभावित करते हैं । 

(2) दार्शनिक कारक (Philosophical Factors)

किसी देश का जीवन दर्शन उस देश की शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है अत: शिक्षा पर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। रॉस ने शिक्षा की व्याख्या एक सिक्के के दो पहलू के रूप में की है। उनके अनुसार एक पहलू सैद्धान्तिक तथा दूसरा गतिशील होता है। सैद्धान्तिक पक्ष को शिक्षा दर्शन कहा जाता है। गतिशील पक्ष को शिक्षा मनोविज्ञान तथा शिक्षा तकनीकी कहा जाता है। देश के जीवन दर्शन में तत्त्व-विचार, प्रमाण विचार, मूल्य मीमांसा तथा आचार संहिता उस देश की शिक्षा प्रणाली के नियमों, सिद्धांतों, शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम के प्रारूप, शिक्षण विधियों तथा प्रविधियों, अनुशासन, शिक्षक-छात्र सम्बन्ध तथा उनकी भूमिका के स्वरूप को प्रदान करते हैं।  योजना विधि का शिक्षण में उपयोग किया जाता है तथा सामूहिक क्रियाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है। शिक्षा का जीवन में उपयोग होना चाहिए। शिक्षा का जीवन से घनिष्ठ एवं सार्थक सम्बन्ध होता है।

भारत के जीवन-दर्शन में वैदिक दर्शन को अपनाया गया है इसलिए शिक्षा में चारित्रिक विकास तथा नैतिक मूल्यों के विकास को प्राथमिकता दी जाती है। शिक्षा में प्रवचन एवं प्रश्नोत्तर विधियों का अधिक उपयोग किया गया है। शिक्षक छात्रों के लिए आदर्श प्रस्तुत करता है। अध्यापक को गुरू का स्थान दिया जाता है। भारत में गुरुकुल प्रणाली का विकास किया गया जो वैदिक दर्शन पर आधारित है।

दर्शन जीवन को प्रभावित करता है। अतः शिक्षा पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। प्राचीन यूनान का उदाहरण हमारे समक्ष है। वहाँ के सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तू ने एक विशिष्ट दर्शन पर देश की शिक्षा व्यवस्था को आधारित किया तथा देश के सम्पूर्ण शासन को दार्शनिकों के हाथ में सौंपने की बात कही।  प्राचीन भारत में वैदिक दर्शन के आधार पर गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया था। इसके पश्चात् बौद्ध दर्शन पर विहार और मठो की शिक्षा पद्धति का विकास किया गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रतिपादित गुरुकुल के प्रमुख तत्त्वों को सम्मिलित करते हुए एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की स्थापन पर जोर दिया गया जो आधुनिक युग के जीवन के अनुरूप हो। इसी प्रकार श्री अरविन्द दर्शन पर आधारित कुछ शिक्षा संस्थाएँ भारत में खोली गयी। अत: तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में इस घटक पर  समुचित ध्यान देना आवश्यक है।

(3) ऐतिहासिक कारक (Historical Factors)


किसी देश की शिक्षा प्रणाली को समझने के लिए यह जरूरी है कि उसके अंतर्गत  अतीत को समझा जाए। वर्तमान को समझने में अतीत के इतिहास की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि वर्तमान में अतीत निहित होता है। शिक्षा प्रणाली पर अतीत के सामाजिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों का प्रभाव रहता है। विश्व के अधिकतर देशों में राजनैतिक तथा सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं जिससे वहाँ की शिक्षा प्रणालियाँ भी प्रभावित होती रहती है।\भारत की शिक्षा प्रणाली की ऐतिहासिक समीक्षा से ज्ञात होता है कि शिक्षा प्रणालियों का इतिहास युगों में विभाजन किया गया है वैदिक शिक्षा, बौद्ध शिक्षा, जैन शिक्षा, मुस्लिम शिक्षा, ब्रिटिश शिक्षा 1947 तक उसके पाश्चात्य आधुनिक शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ है। स्वतन्त्रता के पश्चात् तीन राष्ट्रीय शिक्षा आयोगों का गठन हुआ सन् 1968. सन् 1979 तथा 1986 क्योंकि इस अवधि में सत्ता के राजनैतिक दल परिवर्तित होते रहे और राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का स्वरूप भी बदलता रहा। प्रत्येक राजनैतिक दल के लक्ष्य तथा उद्देश्य अपने होते हैं वे उसी के अनुरूप शिक्षा प्रणाली को बोलने का प्रयत्न करते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व प्रत्येक देश अपनी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के प्रारूप को अपने धार्मिक, राजनैतिक एवं राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित कर राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करता था। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के दुष्परिणाम से सभी राष्ट्र बचना चाहते थे इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) तथा यूनेस्को (UNESCO) को स्थापना की गई और शिक्षा प्रणालियों के उद्देश्यों में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना एवं विश्वबन्धुत्व की भावना तथा विश्व नागरिकता को शामिल किया गया। इस प्रकार ऐतिहासिक तथा राजनैतिक कारक देशों तथा विश्व की शिक्षा प्रणालियों को प्रभावित करते रहे हैं और शिक्षा के उद्देश्यों में बदलाव हुआ। 

(4) भाषायी कारक (Linguistic Factors)


किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली में भाषा का विशेष स्थान होता है। शिक्षा प्रणाली में अन्य विषयों की भाँति एक विषय के रूप में भाषा को स्थान दिया जाता है। इसके अतिरिक्त भाषा शिक्षा एक माध्यम तथा आधारभूत सम्प्रेषण का साधन है। बिना भाषा के शिक्षा प्रणाली का सम्पादन सम्भव नहीं हो सकता। भाषा शिक्षा प्रणाली का महत्त्वपूर्ण प्रभावकारी कारक है। जिस देश की शिक्षा प्रणाली का माध्यम मातृभाषा होती है, वहाँ का राष्ट्रीय चरित्र उन्नत तथा प्रबल होता है। जिस देश की शिक्षा का माध्यम कोई विदेशी भाषा होती है, उस देश का राष्ट्रीय चरित्र प्रबल नहीं होता है। यद्यपि राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में कई अन्य कारक प्रभावित करते हैं। भाषा की राष्ट्रीयता की भावना के विकास में अहम् भूमिका होती है। किसी देश की सभ्यता तथा संस्कृति आदि अनेक अर्थों में उस देश की भाषा से सम्बन्धित होती है। भाषा का साहित्य पक्ष उस समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य सामाजिक गतिविधियों एवं उसके स्वरूप का चित्रण करता है। 
भाषा विचार विनिमय का सर्वोत्तम साधन माना जाता इसलिये यह शिक्षा प्रदान करने का भी सर्वोत्तम साधन है। अतएव यह अन्य विषयों की भाँति एक विषय मात्र ही नहीं है, वरन् यह एक आधारभूत माध्यम है, जिसके अध्ययन एवं अध्यापन पर सम्पूर्ण शिक्षा आधारित है। " इसी सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने (1905) ने कहा था, "जब तक मातृ-भाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जायेगा, तब तक पाठ्य-पुस्तकें कैसे लिखी जायेंगी, नई शब्दावली कैसे बनेगी, भाषा का विकास उसके उपयोग से होता है।"


(5) वैज्ञानिक कारक (Scientific Factors)


वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास ने विश्व में देशों की भौतिक दूरी को कम कर दिया है अर्थात् वैज्ञानिक आविष्कारों ने संसार को छोटा कर दिया है। सम्प्रेषण उपकरणों तथा माध्यमों के विकास ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अधिक निकटता ला दी है। किसी राष्ट्र के वैज्ञानिक प्रयोगों का प्रभाव पड़ोसी देशों पर पड़ता है। वायुयानों की अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों ने भी विश्व के देशों की सद्भावनाओं को विकसित किया है। वैज्ञानिक आविष्कारों एवं माध्यमों के विकास ने शिक्षा प्रणाली को भी प्रभावित किया है। माध्यमों के उपयोग ने वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली का विकास किया है, जिसे दूरवर्ती शिक्षा (Distance Education) कहते हैं। दूरवर्ती शिक्षा के लिये विश्व के देशों में मुक्त विश्वविद्यालयों (Open Universities) की स्थापना की गई है। प्रजातान्त्रिक राष्ट्रों के संविधानों में शिक्षा के समान अवसरों का प्रावधान किया गया है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा दूरवर्ती शिक्षा की व्यवस्था से इस प्रावधान की पूर्ति की जाती है। दूरवर्ती शिक्षा में बहुमाध्यमों का उपयोग किया जाता है। मुद्रित तथा अमुद्रित माध्यमों का उपयोग किया जाता है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा दूरवर्ती शिक्षा की व्यवस्था औपचारिक शिक्षा प्रणाली से अधिक मितव्ययी है। सर्वप्रथम इस प्रणाली का विकास ब्रिटेन तथा फ्रांस में हुआ तत्पश्चात् अन्य राष्ट्रों ने इस प्रणाली को अपनाया गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना 1985 में नई दिल्ली में की गई। यह प्रणाली मितव्ययी तथा प्रभावशाली होने के कारण भारत के राज्यों में भी मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की जाने लगी। वैज्ञानिक आविष्कारों में मोबाइल, कम्प्यूटर पर अधिक शीघ्रता से मितव्ययी रूप में अन्य राष्ट्रों से सम्पर्क किया जाने लगा है।



(6) सामाजिक कारक (Social Factors)


आज हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर समाजवाद का प्रभाव दिखलाई पड़ रहा है। सामाजिक कारक शिक्षा प्रणालियों को सबसे अधिक प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करते हैं। विद्वानों का कथन है—समाज शिक्षा को जन्म देता है और शिक्षा समाज का निर्माण करती है। इस कथन का आशय है कि समाज शिक्षा को प्रभावित करती है और शिक्षा समाज को प्रभावित करती है। समाज जनता को शिक्षित करने के लिए शिक्षा की व्यवस्था करता है जिससे शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती है जो समाज के भावी विकास में समुचित योगदान कर सकें।  शिक्षा का लक्ष्य भावी समाज का निर्माण करना है। शिक्षा को भविष्य का विज्ञान भी कहा जाता है। शिक्षा भावी जीवन के लिए तैयार करती है। प्राचीनकाल में सामाजिक परिवर्तन युद्धों, महायुद्धों तथा विश्व युद्धों से होते थे परन्तु आधुनिक समय में शिक्षा के द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् महापुरुषों ने विचार किया कि युद्ध की प्रवृत्ति मानव कल्याण के लिए अहितकारी है। अतः इसको कैसे बदला जाए इसके लिए यूनेस्को की स्थापना की गई जिसने शिक्षा के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना एवं विश्वबन्धुत्व की भावना के विकास को महत्त्व दिया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसमें महत्त्वपूर्ण सहयोग किया। शिक्षा के नवीन परावर्तन द्वारा समाज में समस्या भी उत्पन्न होती हैं और शिक्षा उनके समाधान में योगदान करती है। शिक्षा के द्वारा सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक समस्याओं का समाधान किया जाता है।
समाजवादी कारक का शिक्षा के स्वरूप पर  गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में इस कारक पर ध्यान देना होगा कि तभी तुलनात्मक अध्ययन सार्थक होगा।


(7) धार्मिक कारक(Religious Factors) 

व्यक्ति के जीवन में धर्म का विशेष स्थान होता है। किसी देश की दार्शनिक विचारधारा को उस देश की शिक्षा एवं धर्म से आचरण में लाया जाता है। शिक्षा एवं धर्म आचरण का साधन है और उसका सैद्धान्तिक पक्ष होता है। सामाजिक एवं परिस्थितिको कारकों में धार्मिक कारक भी निहित होते हैं। धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के मूल्यों, आस्था तथा विश्वास से अधिक होता है। इसलिए व्यक्ति के जीवन में धर्म का विशेष महत्त्व होता है। धर्म के नाम पर व्यक्ति अपना सब कुछ कर देता है। धर्म सामाजिक आचरण के मानक निर्धारित करता है।
भारत तथा यूरोप के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने धर्म के लिए अपने आपको हँसते-हँसते बलिदान किया। धर्म प्रधान देश रूढ़िवादी होते हैं। प्राचीन परम्पराओं में परिवर्तन का विरोध करते हैं। महात्मा गांधी ने छुआ-छूत की रूढ़िवादी परम्पराओं में परिवर्तन के काफी प्रयास किये परन्तु सफलता नहीं मिली, लेकिन अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा तथा विद्यालय में सभी छात्रों के लिए एक ही ड्रेस ने इस बुराई को छात्रों के लिए समाज से समाप्त कर दिया। शिक्षा धर्म को प्रभावित करती है और धर्म शिक्षा को प्रभावित करता है। धर्म में सुधार तथा विकास शिक्षा द्वारा लाया जा सकता है। परन्तु समाज शिक्षा संस्थाओं की स्थापना अपने धर्म एवं मूल्यों की रक्षा के लिए करता है। वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्योगिक विकास एवं माध्यमों के विकास ने प्राचीन परम्पराओं और नैतिक रूढ़ियों को प्रभावित किया है। इस दिशा में शिक्षा ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में धार्मिक रूढ़िवादिता अधिक है। परन्तु शिक्षा द्वारा कृषि विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा ने धीरे-धीरे इन रूढ़ियों को समाप्त किया है। शिक्षा ने भारत की कृषि के स्वरूप को बदल दिया है। शिक्षा में धार्मिक तथा नैतिक मूल्यों का आदर करना आवश्यक होता है। धार्मिक आस्थाओं एवं विश्वासों के आधार विभिन्न देशों की शिक्षा प्रणालियाँ प्रभावित हुई हैं। भारत को स्वतन्त्रता के बाद से धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया गया है। 


(8) आर्थिक कारक (Economic Factors)

किसी देश की शिक्षा प्रणाली का वहाँ की आर्थिक दशा से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा को आर्थिक स्थिति प्रभावित करती है और आर्थिक स्थिति को शिक्षा प्रभावित करती है। यदि किसी देश की साक्षरता दर अधिक हो तो उस देश की प्रति व्यक्ति आय दर में भी वृद्धि हो जाती है। शिक्षा को एक उत्तम विनियोग (Investment) माना जाता है। शिक्षा पर लागत का लाभांश सबसे अधिक होता है परन्तु किसी देश की शिक्षा प्रणाली को विकसित करने के लिए उसके आर्थिक संसाधनों पर ध्यान दिया जाता है। शिक्षा प्रणाली किसी देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर होती है। देश की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम तथा शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की जाती है। वित्तीय व्यवस्था के सम्बन्ध में राष्ट्र अथवा सत्ता का जैसा विश्वास तथा धारणा होती है उसे शिक्षा द्वारा बालकों में विकसित करने का प्रयोग किया जाता है।

समाजवादी आर्थिक व्यवस्था में समस्त सम्पत्ति राज्य (State) की होती है। इस प्रकार छात्रों में प्राथमिक स्तर से ही ऐसी भावना विकसित की जाती है कि सम्पूर्ण सम्पत्ति राज्य की है और सभी को उसकी रक्षा करनी है तथा उसमें वृद्धि करनी है। भारत में प्रजातान्त्रिक सत्ता है यहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सम्पत्ति का संवैधानिक अधिकार है और सम्पत्ति निजी मानी जाती है और प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना मौलिक अधिकार माना जाता है। कुछ देशों में आज भी शिक्षा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता नहीं है। प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में शिक्षा की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है राज्य और समाज का उत्तरदायित्व शिक्षा प्रदान करना है। शिक्षा का सभी को समान अवसर दिया जाये। आज उच्च शिक्षा तकनीकी शिक्षा एवं मेडीकल शिक्षा अधिक महंगी है इसलिए आज विश्व के देशों में मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाने लगी है। मुक्त शिक्षा तथा दूरवर्ती शिक्षा अपेक्षाकृत मितव्ययी वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली है। इसे सेवारत व्यक्तियों के प्रोन्नत हेतु आवश्यक माना जाता है। शिक्षा प्रणालियों की स्थापना तथा शिक्षा को विकसित करने में आर्थिक कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में इसका विशेष महत्त्व होता है।


(9 ) जातीय  कारक (Racial Factors)


विश्व के विभिन्न देशों में कई प्रकार की जातियाँ पाई जाती हैं जिनका उस देश की शिक्षा-व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। इन जातियों में कुछ जातियाँ ऐसी होती हैं जो अपने आपको दूसरों से अधिक श्रेष्ठ समझती हैं और इस कारण वे दूसरों पर शासन करने का प्रयास करती हैं। यदि वे अपने इस कार्य में सफल हो जाती हैं तो सामाजिक व्यवस्था पर उनका नियन्त्रण अधिक सुदृढ़ हो जाता है और उसी के अनुरूप फिर शिक्षा प्रणाली का विकास किया जाता है। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के लोगों ने अफ्रीका में अपना उपनिवेश इसलिए स्थापित किया क्योंकि वे गोरे होने के कारण काले अफ्रीकियों से खुद को अधिक श्रेष्ठ समझते थे और फिर उन्होंने अफ्रीका के अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी उपनिवेशों हेतु विशेष प्रकार की शिक्षा प्रणाली का विकास किया। इस कारण इन क्षेत्रों की शिक्षा प्रणाली में जातीय घटक की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। हमारे देश का भी यहाँ पर उदाहरण देना आप्रासंगिक नहीं है। भारत में ब्रिट्रिश उपनिवेश की स्थापना के बाद वहाँ के लोगों ने यहाँ पर अंग्रेजी भाषा का विकास किया और जन-साधारण को यह सन्देश दिया कि अंग्रेजी ही विकास की भाषा है और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति से अंग्रेजी सभ्यता अधिक श्रेष्ठ है। उसके पश्चात् उन्होंने उसी आधार पर पाठ्यक्रम तथा शिक्षा प्रणाली का विकास किया जिसका फल यह हुआ कि भारत की निरन्तर अवनति होती गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि जातीय कारक का शिक्षा प्रणाली के विकास में विशेष रूप से महत्त्व होता है। अतः तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में जातीय कारक की उपेक्षा नहीं जा सकती है।


संदर्भ ग्रंथ सूची
  • यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन।
  • शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
  • चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।


Monday, August 17, 2020

Role of UNESCO in Education

  यूनेस्को (UNESCO)


 यूनेस्को (UNESCO) 'संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (United Nations Educational Scientific and Cultural Organization)' का लघुरूप है।
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) संयुक्त राष्ट्र का एक घटक निकाय है। इसका कार्य शिक्षा, प्रकृति तथा समाज विज्ञान, संस्कृति तथा संचार के माध्यम से अंतराष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र की इस विशेष संस्था का गठन 16 नवम्बर 1945 को हुआ था। इसका उद्देश्य शिक्षा एवं संस्कृति के अंतरराष्ट्रीय सहयोग से शांति एवं सुरक्षा की स्थापना करना है, ताकि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में वर्णित न्याय, कानून का राज, मानवाधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रता हेतु वैश्विक सहमति बने|

यूनेस्को के 193 सदस्य देश हैं और 11 सहयोगी सदस्य देश और दो पर्यवेक्षक सदस्य देश हैं। इसके कुछ सदस्य स्वतंत्र देश भी हैं। इसका मुख्यालय पेरिस (फ्रांस) में है। इसके ज्यादार क्षेत्रीय कार्यालय क्लस्टर के रूप में है, जिसके अंतर्गत तीन-चार देश आते हैं, इसके अलावा इसके राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं। यूनेस्को के 27 क्लस्टर कार्यालय और 21 राष्ट्रीय कार्यालय हैं।

यूनेस्को मुख्यतः शिक्षा, प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक एवं मानव विज्ञान, संस्कृति एवं सूचना व संचार के जरिये अपनी गतिविधियां संचालित करता है। वह साक्षरता बढ़ानेवाले कार्यक्रमों को प्रायोजित करता है और वैश्विक धरोहर की इमारतों और पार्कों के संरक्षण में भी सहयोग करता है। यूनेस्को की विरासत सूची में हमारे देश के कई ऐतिहासिक इमारत और पार्क शामिल हैं। दुनिया भर के 332 अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठनों के साथ यूनेस्को के संबंध हैं। भारत 1946 से यूनेस्को का सदस्य देश है।

यूनेस्को की भूमिका में लिखा है- "चूंकि युद्ध मनुष्यों के मस्तिष्कों में आरम्भ होते है, इसलिये शान्ति की रक्षा के साधन भी मनुष्य के मस्तिष्क से ही निर्मित किये जाने  चाहिये। न्याय तथा शान्ति बनाये रखने के लिये मानवता की शिक्षा तथा संस्कृति का व्यापक  प्रसार मानव की महत्ता के लिये आवश्यक है। यह एक ऐसा पवित्र कर्तव्य है, जो प्रत्येक राष्ट्र के आपसी सहयोग की भावना के आधार पर पूरा करना चाहिये। केवल सरकार के राजनीतिक तथा आर्थिक समझौतों तथा बन्धनों द्वारा स्थापित की हुई शान्ति को ऐसी शान्ति नहीं कहा जा सकता, जिसे संसार के सभी लोग एकमत होकर स्वीकार कर ले इस दृष्टि से यदि शान्ति को कभी असफल नहीं होना है तो उसे मानव जाति की बौद्धिक तथा नैतिक मूल्यों पर आधारित होना चाहिए।"


यूनेस्को के कार्य
(Functions of UNESCO)


अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये यूनेस्को निम्नलिखित कार्य कर रहा है-

1. यूनेस्को इस बात का प्रयास कर रहा है कि विभिन्न राष्ट्रों के बीच फैला हुआ भय, स्नेह तथा अविश्वास दूर हो जाये, जिससे उनके आपसी सम्बन्ध अच्छे बन सकें।

2. यह संघ इस बात के लिये विशेष प्रयास कर रहा है कि संसार के सभी पिछड़े हुये देशों से निरक्षरता तथा अज्ञानता समाप्त हो जाये। 

3. यह संस्था प्रत्येक राष्ट्र के साहित्य, विज्ञान, संस्कृति तथा कला को अन्य राष्ट्रों के निकट पहुँचाने का प्रयास करती है, जिससे संसार के प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों के बौद्धिक विकास का ज्ञान हो जाये। 

4. यूनेस्को शोधकर्ताओं को आर्थिक सहायता देता है, जिससे अधिक से अधिक शोध कार्य हो सके।

5. यह संस्था शिक्षकों, विचारकों तथा वैज्ञानिकों को इस बात के अवसर प्रदान करती है कि वे परस्पर विचार-विमर्श कर सकें, जिससे रचनात्मक कलाओं का सृजन होता रहे।

6. यह विभाग पिछड़े हुये राष्ट्रों के स्कूलों को आर्थिक सहायता देता है। 

7. यूनेस्को विभिन्न राष्ट्रों की पाठ्यपुस्तकों में शोध तथा पाठ्यक्रमों के निर्माण हेतु परामर्श देता है एवं महत्त्वपूर्ण साहित्यिक ग्रन्थों का अनुवाद भी करता है।

8. यह विभाग अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य की प्रदर्शनियों का आयोजन करता है, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना विकसित हो जाये।

यूनेस्को की शिक्षा में भूमिका 


यूनेस्को के कार्य शिक्षा, विज्ञान एवं संस्कृति तथा जन-संचार के विविध एवं विस्तृत क्षेत्रों से सम्बन्धित होते हैं। यूनेस्को के माध्यम से लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिक तथा अन्य बुद्धिजीवियों के बीच राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का विकास होता है। शिक्षा का विकास, विज्ञान का मानव कल्याण के लिये प्रयोग तथा मानव-जाति की संस्कृति के संरक्षण आदि की व्यवस्था यूनेस्को के प्रयासों से सम्भव है। यूनेस्को ज्ञान को संचय करता है, उसकी अभिवृद्धि करता है तथा उसका प्रसार करता है। प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्रों में सचिवालय ने समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान आदि की वार्षिक ग्रन्थ-सूचियाँ प्रकाशित की हैं। ये ग्रन्थ-सूचियाँ विशेष अध्ययन एवं शोध के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं।


1- सभी तीन फोकस क्षेत्रों – पहुंच, गुणवत्‍ता एवं अंतर्वस्‍तु पर शिक्षा में भारत सरकार और यूनेस्‍को के बीच घनिष्‍ट एवं सतत सहयोग का इतिहास रहा है। भारत सबके लिए शिक्षा (ई.एफ.ए.) के लक्ष्‍यों, 2015 पश्‍चात वैश्विक शिक्षा एजेंडा तथा संयुक्‍त राष्‍ट्र महासचिव की वैश्विक शिक्षा प्रथम पहल (जी.ई.एफ.आई.) की दिशा में यूनेस्‍को के प्रयासों का हिस्‍सा रहा है, जिसकी यूनेस्‍को अग्रणी कार्यान्‍वयन एजेंसी है। प्रारंभिक बाल्‍यावस्‍था देखरेख एवं शिक्षा, माध्‍यमिक शिक्षा, तकनीकी एवं व्‍यावसायिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण, उच्‍च शिक्षा आदि में भारत सरकार को नीतिगत एवं कार्यक्रम संबंधी सहायता के माध्‍यम से भारत में यूनेस्‍को द्वारा ई एफ ए के लक्ष्‍यों की प्राप्ति में सहयोग किया जाता है। इस समय भारत शिक्षकों पर ई एफ ए कार्य बल का अध्‍यक्ष है। यूनेस्‍को अपनी पीठ के कार्यक्रम के माध्‍यम से अनुसंधान की क्षमता बढ़ाने के लिए काम कर रहा है।

2- भारत में शिक्षा पर यूनेस्‍को के हाल के महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलनों में कौशल एवं शिक्षा पर एशियाई शिखर बैठक शामिल है जिसमें संपूर्ण एशियाई क्षेत्र से शिक्षाविदों, मंत्रियों और नीतिनिर्माताओं ने भाग लिया। अफगानिस्‍तान इस्‍लामिक गणराज्‍य के माननीय शिक्षा मंत्री डा. फारूक वारडक ने शिखर बैठक का उद्घाटन किया। सार्क के शिक्षा मंत्रियों की दूसरी बैठक नई दिल्‍ली में 30-31 अक्‍टूबर, 2014 को हुई जिसमें सार्क शिक्षा विकास के लक्ष्‍यों पर प्रगति की समीक्षा की गई

3- संस्‍कृति और विरासत भारत में यूनेस्‍को की सबसे प्रमुख गतिविधियों में से एक है तथा इसमें यूनेस्‍को की विश्‍व विरासत सूची में शामिल भारत की सांस्‍कृतिक एवं सभ्‍यतागत विरासत की रक्षा करना शामिल है। वास्‍तव में, 1972 का विश्‍व विरासत अभिसमय और प्रख्‍यात भारतीय श्री किशोर राव की अध्‍यक्षता में विश्‍व विरासत केंद्र के माध्‍यम से इसका कार्यान्‍वयन यूनेस्‍को का एक फ्लैगशिप कार्यक्रम है तथा यह संस्‍कृति मंत्रालय तथा भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण के निकट सहयोग से काम करता है। संयुक्‍त राष्‍ट्र विश्‍व विरासत समिति के सदस्‍य के रूप में भारत इस समय अनेक सांस्‍कृतिक एवं प्राकृतिक परियोजनाओं के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय मान्‍यता प्राप्‍त करने का प्रयास कर रहा है।

4- संस्‍कृति एवं सूचना प्रौद्योगिकी के तहत, यूनेस्‍को डिजिटल सशक्तीकरण प्रतिष्‍ठान के साथ साझेदारी कर रहा है। ग्रामीण भारत के कारीगरों एवं कलाकारों के लिए ‘आई सी टी का प्रयोग’ पर हाल के सम्‍मेलन में कलाकार एवं ग्रामीण कारीगर, शिल्‍पी संगठन, ऑन लाइन शिल्‍प रिटेलर तथा कला एवं संस्‍कृति के क्षेत्र में आई सी टी का प्रयोग करके नवाचारी कार्य करने वाले संगठन एकत्र हुए। डिजिटल अर्काइव, ग्रामीण क्षेत्रों से लोक कंसल्‍ट का लाइव वेब कास्‍ट, विरासत का समुदाय आधारित प्रलेखन तथा परफार्मर का कापीराइट सहित विविध पहलों पर प्रस्‍तुतियां दी गई।

5- भारत में 25 मिलियन श्रोताओं के साथ विश्‍व रेडियो दिवस मनाने में यूनेस्‍को ‘सामुदायिक रेडियो एवं सामाजिक समावेशन’ पर एक राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के लिए सहायता प्रदान कर रहा है। इसके तहत यूनेस्‍को द्वारा स्‍थापित ''सामुदायिक मीडिया पर दक्षिण एशिया नेटवर्क’’ के उद्घाटन तथा ''आंतरिक पलायन – सामुदायिक रेडियो के लिए मैनुअल’’ नामक यूनेस्‍को के प्रशिक्षण मैनुअल के समर्पण के साथ एक उद्घाटन सत्र शामिल होगा।

6- यह रेखांकित करना जरूरी है कि यूनेस्‍को में विज्ञान के लिए ‘एस’ को उस समय विशेष स्‍थान दिया गया जब संगठन स्‍थापित किया गया। द्वितीय विश्‍व युद्ध की समाप्ति के शीघ्र बाद संक्षेपाक्षर यूनेस्‍को में से विज्ञान के लिए ‘एस’ गायब हो गया। सर जूलियन, हक्‍सले के नेतृत्‍व में यूनाइटेड किंगडम के वैज्ञानिक समूह ने सुनिश्चित किया कि नवंबर, 1945 में ‘एस’ जोड़ा गया जिससे इसके बाद संयुक्‍त राष्‍ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्‍कृतिक संगठन (यूनेस्‍को) का सृजन हुआ। पहली बार, किसी अंतर्सरकारी संगठन को विज्ञान में अंतर्राष्‍ट्रीय संबंधों के विकास की महती जिम्‍मेदारी सौंपी गई थी। इस क्षेत्र की गतिविधियों में निम्‍नलिखित शामिल हैं :


· विज्ञान में क्षमता का सुदृढ़ीकरण;
· विज्ञान नीति से संबंधित गतिविधियां;
· विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के लिए सूचना प्रणालियां; और
· विज्ञान, समाज एवं विकास।

7- प्रमुख विशेषताओं में भारत के प्राकृतिक बायोस्फियर भंडार, महासागरीय संसाधन तथा जल शामिल हैं, जो प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत - यूनेस्‍को सहयोग के फोकस क्षेत्र हैं। भारत 2015 में आई आई ओ ई की 50वीं वर्षगांठ मनाने के लिए दूसरे अंतर्राष्‍ट्रीय हिंद महासागर अन्‍वेषण (आई आई ओ ई – 2) के लिए अंतर्सरकारी महासागर आयोग का समर्थन करने की योजना बना रहा है। भारत इस आयोग की कार्यपालक परिषद का सदस्‍य है। मानव एवं बायोस्फियर कार्यक्रम वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्‍यम से मानव जाति एवं उनके पर्यावरण के बीच संबंध को संवारने की दिशा में काम कर रहा है तथा भारत के नौ बायोस्फियर भंडार यूनेस्‍को के बायोस्फियर भंडार के विश्‍व नेटवर्क में शामिल हैं।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 


१-https://mea.gov.in/in-focus-article-hi.htm?25040/India+and+UNESCO+The+dynamics+of+a+historic+and+time+tested+friendship

२- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8B

३- शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।

Saturday, August 15, 2020

पंचायती राज संस्थाएं (Panchayati Raj Institutions, PRIs)


 पंचायती राज  संस्थाएं  

(Panchayati Raj Institutions, PRIs)

पृष्ठभूमि -

भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक ‘लाॅर्ड रिपन’ को माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन संबंधी प्रस्ताव दिया जिसे स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का ‘मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है। वर्ष 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषय सूची में रखा गया। वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के तहत इसे और व्यापक व सुदृढ़ बनाया गया।स्वंत्रता के पश्चात् वर्ष 1957 में योजना आयोग (जिसका स्थान अब नीति आयोग ने ले लिया है) द्वारा ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ और ‘राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम’ के अध्ययन के लिये ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था- ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं ज़िला स्तर लागू करने का सुझाव दिया।

पंचायती  राज व्यवस्था में ग्राम, तालुका और जिला आते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था आस्तित्व में रही हैं। आधुनिक भारत में प्रथम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। 

जनता सरकार ने 1977 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं के मूल्यांकन और  इसके पूर्व में किये गए कार्यों के मूल्यांकन के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई। कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया  कि पंचायती राज संस्थाएँ समाज के कमजोर वर्ग को प्रजातन्त्र के लाभ पहुँचाने में असमर्थ रही हैं क्योंकि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति के दबाव में रहता है।

इसके पश्चात् प्रधानमंत्री राजवी गाँधी के शासन काल में प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण को शक्ति और गति मिली  क्योंकि इस सरकार ने पंचायती राज और नगरपालिका बिल संसद में प्रस्तुत किया। लेकिन यह बिल सभा में पास नहीं हो सका। इसके पश्चात् प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की सरकार के कार्यकाल में दिसम्बर, 1992 में यह बिल दोनों सदनों में पास हो गया और सरकार के आदेशानुसार अप्रैल 1993 में यह कानून लागू हो गया। इस प्रकार संविधान में 73 वॉँ संशोधन, दिसम्बर 1992 में किया गया और अप्रैल 1993 में लागू किया गया। इसका उद्देश्य था देश की करीब ढाई लाख पंचायतों को अधिक अधिकार प्रदान कर उन्हें सशक्त बनाना और उम्मीद थी कि ग्राम पंचायतें स्थानीय ज़रुरतों के अनुसार योजनाएँ बनाएंगी और उन्हें लागू करेंगी।

पंचायती राज संस्थाओं के विकास में यह 73वाँ संविधान संशोधन ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि इस संशोधन ने इनके विकास को गति प्रदान की और इनमें सुधार के कार्य सम्भव बनाये। 



                                      पंचायती राज व्यवस्था की त्रि-स्तरीय संरचना

शिक्षा का विकेन्द्रीकरण और पंचायती राज संस्थाएँ 
 (Decentralization of Education and Panchayati Raj Institutions, PRIs ) 

शैक्षिक  दृष्टि से पंचायती राज संस्थाओं का विशेष महत्त्व है। ये संस्थाएँ स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ -साथ उनका विकास भी करती हैं। स्वतन्त्रता के बाद भारत में लोकतन्त्रीय प्रणाली प्रारम्भ हुई जिसके फलस्वरूप विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को स्वीकार कर शैक्षिक विकास को गति प्रदान की गई है। अब इन संस्थाओं को प्राप्त अधिकार दिए गए हैं, शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और उत्तरदायित्त्व सौंपे गए हैं। भारत में  अधिकतर राज्यों में प्राथमिक शिक्षा के लिए इन संस्थाओं को पूर्णत: उत्तरदायी स्वीकार किया गया है। राज्य सरकार का इन संस्थाओं पर नियन्त्रण होता है और ये संस्थाएँ संविधान के अनुसार राज्य विधान सभा द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार ही कार्य करती हैं। स्वतन्त्रता के बाद इन संस्थाओं के तीन स्तर हैं-

(1) ग्रामीण (2) ब्लॉक स्तर (3) जिला स्तर। 

\इन संस्थाओं ने प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनका राष्ट्र के शैक्षिक विकास में विशेष योगदान रहा है। शैक्षिक प्रबंधन का विकेन्द्रीकरण करके ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जिला परिषद या जिला बोर्ड की स्थापना  की गई है। ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था को इनके अधीन ब्लॉक या पंचायत समितियों को प्रदान की गई है और शिक्षा  सम्बन्धी सभी कार्यक्रमों को सुचारू रूप से संचालन के लिए प्रत्येक परिषद या बोर्ड में एक शिक्षा समिति का गठन किया गया है  

इस समिति में जिलाधिकारी पदेन सदस्य के रूप में, जिला प्रमुख (पदेन निर्वाचित) सदस्य के रूप में , पंचायत समितियों से निर्वाचित एक प्रतिनिधि और शिक्षा विभाग का प्रतिनिधि (उपविद्यालय निरीक्षक) के रूप में कार्य करते हैं। इन संस्थाओं को शैक्षिक दृष्टि से निम्नलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-

१.  जिला परिषद/जिला बोर्ड (District Council) -  ग्रामीण क्षेत्र के शिक्षा प्रबन्धन की दृष्टि से जिला परिषद स्वोच्च स्तर है। यह प्राथमिक शिक्षा के लिए उत्तरदायी है। जिला परिषद के अन्तर्गत कई समितियाँ होती हैं। इनमें शिक्षा समिति भी होती है जो प्राथमिक शिक्षा और कुछ सीमा तक माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था करती है। शिक्षा जिले की शिक्षा के लिए नीति निर्धारित करती है। अध्यापक तथा अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति करती हैं, सेवा की दशाएँ निर्धारित करती है, वित्तीय सहायता और निरीक्षण करती है। जिला परिषद की सहायता के लिए  एक-एक तहसील को एक-एक क्षेत्र (ब्लॉक, Block) में बाँटा गया है। कुछ राज्यों में प्रत्येक क्षेत्र के एक पंचायत समिति बनाई गई है, जिसके अध्यक्ष को प्रधान कहा जाता है और प्रशासनिक अधिकारी को क्षेत्र विकास अधिकारी (B.D.O) कहा जाता है। ये पंचायत समितियां जिला परिषद् के लिए कार्य करती है और  अपने क्षेत्र में शिक्षा प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करते हैं। जिला  परिषद् के प्रधान को चेयरमैन कहा जाता है जो जिले की ग्रामीण शिक्षा का सर्वोच्च अधिकारी होता है। 

२. ब्लॉक/पंचायत समिति (Block/ Panchayat Committee)-     इस स्तर पर तीन अधिकृत्तियाँ हैं -  (1) पंचायत समिति (2) ब्लॉक  अधिकारी   (3) सहायक उप शिक्षा अधिकारी (शिक्षा विभाग से प्रतिनियुक्ति होता है) । प्रधान पंचायत समिति के  विकास के लिए उत्तरदायी होता है। ब्लॉक अधिकारी राजकीय सेवा का सदस्य होता है। यह राज्य की नीतियों व  नियमों के अनुरूप समिति का विकास करने में सहायता करता है। शिक्षा विभाग में सहायक उपशिक्षा अधिकारी  समिति के शैक्षिक विकास, शिक्षा के विस्तार और पर्यवेक्षण का कार्य करता है।

पंचायत समिति के कार्य -   समिति के कार्यों को हम निम्नलिखित रूप से स्पष्ट कर सकते हैं-

(i)  नये विद्यालयों की स्थापना एवं भवनों का निर्माण करना।

(ii)  प्राथमिक शिक्षा के विकास और अन्य क्रियाओं में जिला बोर्ड की शिक्षा समितियों की सहायता करना।

(iii) विद्यालयों के रखरखाव व सजावट (साज-सज्जा), उपकरण आदि प्रदान करना।

(iv) शिक्षा समिति के आदेशानुसार प्रारम्भिक विद्यालयों का निरीक्षण करना। 
(v)  ग्राम पंचायतों के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों का निरीक्षण करना।

३. ग्राम पंचायत स्तर (Gram Panchayat Level)-    ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा प्रबन्धन की दृष्टि से ग्राम पंचायतें महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ हैं। ये  प्राथमिक शिक्षा के विकास, प्रचार और प्रसार के लिए प्रयासरत हैं। कई राज्यों में तो कानून बनाकर प्राथमिक शिक्षा का दायित्व ग्राम पंचायतों को सौंप दिया गया है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्तर पर शिक्षा-प्रशासन में विद्यालय निरीक्षक, बेसिक शिक्षा अधिकारी, विद्यालय उपनिरीक्षक, सहायक विद्यालय उपनिरीक्षक और निरीक्षिका होते हैं। आज ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का विकास ग्राम पंचायतों पर निर्भर करता है। 




सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 


1. तोमर, गजेन्द्र सिंह (२०१७), विद्यालय  संगठन एवं प्रबंधन , मेरठ, आर० लाल० बुक डिपो 

2. . https://hi.wikipedia.org/wiki/

3. https://www.drishtiias.com/hindi/loksabha-rajyasabha-discussions/how-effective-panchayats-are#:~:text=

Thursday, August 6, 2020

तुलनात्मक शिक्षा का विकास (Development of Comparative Education)

               तुलनात्मक शिक्षा का विकास      (Development of Comparative Education)



आधुनिक युग को अंतरिक्ष का युग कहते हैं , वैज्ञानिक आविष्कारों तथा माध्यमों के विकास ने विश्व के देशों की दूरी को कम कर दिया जाता है । विश्व के देशों में परस्पर निर्भरता अधिक हो गई है। कोई देश आत्म-निर्भर नहीं है। एक देश की क्रियायें तथा गतिविधियाँ पड़ोसी तथा अन्य देशों को प्रभावित करती हैं। यदि विश्व के किसी देश में युद्ध आरम्भ होते हैं, तब उसका प्रभाव विश्व के सभी देशों पर पड़ता  है। मनुष्य ने  दो विश्व युद्धों के परिणामों को देखा तथा अनुभव किया है, जिससे सभी देश युद्ध की विभीषिकाओं से भयभीत हुए और सभी देश विश्व शान्ति चाहने लगे और इस दिशा में प्रयास किये गए । कभी - कभी अकाल, भूकंप, महामारी, सूखा, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप एक देश में होता है तो उसका प्रभाव पड़ोसी देशों पर भी पड़ता है। आज विश्व के देश परस्पर एक दूसरे से बंधे  हुये हैं। एक देश की शैक्षिक प्रणाली या शैक्षिक विचारधारा अन्य देशों की शिक्षा को प्रभावित करती है। इसलिये आज की यह  आवश्यकता हो गई है कि अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन तथा विश्लेषण किया जाये और उनकी विशेषताओं को अपनी शिक्षा प्रणाली में सम्मिलित किया जाये। इस प्रकार के अध्ययन से विदित होता है कि किसी देश की शिक्षा प्रणाली को कुछ विशिष्ट कारक प्रभावित करते हैं, जो अन्य देशों के कारकों से भिन्न होते हैं। इन आवश्यकताओं के फलस्वरूप ही तुलनात्मक शिक्षा का आर्विभाव हुआ। शिक्षा की प्रवृत्तियों में परिवर्तन होता रहता है, इसी कारण तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन तथा विश्लेषण में भी परिवर्तन होता है।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास-क्रम को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है-

प्रथम अवस्था (First Stage )


तुलनात्मक शिक्षा के विकास का प्रथम अवस्था 1817 से अन्तोइजन जुलियन के विचारों से प्रारम्भ हुआ। यह अवस्था 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक मानी जा सकती है। 19वीं शताब्दी में यह धारणा को बल मिला  कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को दूसरा देश अपने शिक्षा-संगठन में अपना सकता है। इस धारणा के फलस्वरूप विभिन्न देशों के शिक्षा प्रणाली सम्बन्धी आँकड़े एकत्रित करने का प्रयास किया गया। इन आंकड़ों को तालिकाबद्ध करके उनसे कुछ सामान्य सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया गया। फलतः इस  धारणा बल मिला  कि सिद्धान्तों के अनुसार किसी भी देश की शिक्षा संगठित की जा सकती है। इस अवस्था में आँकड़ों को एकत्रित करने के क्रम में सम्बद्ध देश की उस समय की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दशाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था, जबकि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली पर इन दशाओं का बड़ा प्रभाव पड़ता है। फलतः इस बात पर विचार नहीं किया जाता था कि जिस देश की शिक्षा-प्रणाली की विशेषताओं को अपनाने के लिये कहा जा रहा है, वे अपनाने वाले देश की सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हैं। या नहीं। इस प्रकार तुलनात्मक शिक्षा के विकास की इस प्रथम अवस्था को 'अनुकरण की अवस्था' में फ्रांस के विक्टर काज़िन, इंग्लैण्ड के मैथ्यू अरनॉल्ड, अमेरिका के होरेस मैन और हेनरी बर्ग, रूस के टाल्सटाय और शींसकी  तथा अजेंन्टाइना के डोमिंगो सारमीण्टो के नाम विशेष उल्लेखनीय है। 
प्राचीन काल में एक देश के व्यापारी, शोधकर्ता तथा यात्री दूसरे देश को खोजने का प्रयास करते थे और उन देशों को देखने के बाद उनका विवरण अन्य देशों को भेजते थे। उनके विवरणों में उस देश की शासन व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, विद्यालयों का वर्णन आदि दिया जाता था और छात्रों के विकास के उपायों का उल्लेख किया जाता था। इन लोगों के द्वारा यात्रा वर्णन काफी रोचक ढंग से किया जाता था जिससे पाठक उन आलेखों  में रुचि लेते थे। 
इस अवस्था में व्यवस्थित व्याख्या एवं विश्वसनीय निरीक्षण का अभाव रहा। यात्रियों ने अन्य देशों का विवरण व्यक्तिगत ढंग से रोचक बनाने की दृष्टि से किया गया। यह विवरण अव्यवस्थित तथा निरीक्षण अविश्वसनीय अधिक थे। इन आलेखों की शुद्धता तथा विश्वसनीयता ज्ञात करना कठिन था।

द्वितीय अवस्था (Second Stage)


 तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन के विकास की द्वितीय अवस्था में सामाजिक, आर्थिक  एवं  शिक्षा को प्रभावित करने वाले अन्य घटकों  पर ध्यान दिया जाने लगा अर्थात् अब यह विचार किया जाने लगा कि शिक्षा प्रणाली में पाई जाने वाली विशेषता को यदि किसी दूसरे देश में अपनाया जाये तो वह वहाँ की परिस्थिति के अनुरूप होगी या नहीं। साथ ही, विशेषता की भावनाओं पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। इस प्रकार अन्धानुकरण (Blind Imitation) की प्रवृत्ति को त्याग दिया गया।
तुलनात्मक शिक्षा के विकास की द्वितीय अवस्था के प्रवर्तक सर माइकेल सैडलर (Sir Michael Sadler) माने जाते हैं। उन्होंने सन् 1907 में तुलनात्मक शिक्षा पर एक निबन्ध लिखा। उस निबन्ध में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश के सामाजिक वातावरण से सम्बन्धित होनी चाहिए। उनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय सामाजिक परिस्थिति तथा सामाजिक घटकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सेडलर की इस अवधारणा की पुष्टि अन्य कई शिक्षाशास्त्रियों ने भी की है। इनमें से जर्मनी के फ्रेडरिक सनाइडर (Friedrich Schneider), अमेरिका के आइजक कैण्डल (Isaac Kandel) तथा इंग्लैण्ड के रॉबर्ट उलिक (Robert Ulich), जोजेफ लारीज (Jojeph Lauwerys) तथा निकोलस हन्स (Nicholas Hans) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन समस्त शिक्षाशास्त्रियों ने तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली तथा उस देश की सामाजिक परिस्थिति के परस्पर सम्बन्ध पर बल दिया है और कहा है कि किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करते समय उस देश की सामाजिक परिस्थितियों को समझना बहुत आवश्यक है।
द्वितीय अवस्था का मूल्यांकन इन सभी विद्वानों ने पाश्चात्य देशों  का भ्रमण करके तथ्यों एवं निरीक्षण के आधार पर तुलनात्मक कार्यों को प्रोत्साहित किया एवं  बढ़ावा दिया। इस दिशा में अधिकतर विद्वानों ने व्यवस्थित आयाम का अनुसरण नहीं किया। मोरस मन ने कोई व्यवस्थित प्रविधि का उपयोग नहीं किया और न ही अपने अनुभवों के आधार पर कोई निर्देशन दे सका। मार्क जुलियन ने एक व्यवस्थित अध्ययन पर अधिक बल दिया था। हेनरी बर्नार्ड ने अपनी रिपोर्ट में उन्हीं तथ्यों को शामिल किया, जो उन्हें उपलब्ध हो सके। मार्क जुलियन ने अपनी प्रश्नावली में अन्य देशों की सांस्कृतिक तथा दार्शनिक विचारधारा पर आधारित प्रश्नों को सम्मिलित किया जबकि दर्शन एवं संस्कृति किसी देश की शिक्षा का सैद्धान्तिक आधार होती है। इन पक्षों पर प्रश्नों को सम्मिलित करने पर ही विश्वसनीय तथा वस्तुनिष्ठ सूचनाएँ उपलब्ध हो सकती हैं। इस अवस्था के शिक्षाशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा की समस्याओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया। अन्तोइन जुलियन का विश्वास था कि उसकी निरीक्षण सम्बन्धी तुलनात्मक तालिका की सहायता से सापेक्ष मूल्यों एवं विद्यालयों की शैक्षिक व्यवस्था तथा कार्य प्रणाली से विकास की प्रवृत्ति का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। मैथ्यू अरनोल्ड का विचार था कि दूसरे देशों की शिक्षा प्रणालियों का विश्लेषण उसी देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के सन्दर्भ में करना चाहिए। 
इस अवस्था को विकास की प्रक्रिया की अवधारणा माना जाता है। इसमें पर्याप्त सूचनाएँ सरलता से उपलब्ध हैं। यदि किसी देश के व्यक्ति, दूसरे देश की शिक्षा प्रणाली तथा व्यावहारिक पक्ष को अपनाने के इच्छुक हैं तो यह आवश्यक है कि वे अपने देश की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के सन्दर्भ में विदेशी शिक्षा की उपयुक्तता का आकलन भी करें। शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं की वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता तथा उपादेयता भी होनी चाहिए।


 तृतीय अवस्था (Third Stage)

इस अवस्था को जार्ज, जेड. एफ. बियरडे (George, Z. F. Berde) ने 'विश्लेषण का काल' कहा है। यह अवस्था 1950 ई. से प्रारम्भ होती है। इस समय विज्ञान की प्रगति के कारण समस्त वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में विश्लेषण करने पर बल देना स्वाभाविक हो चला था। फलस्वरूप तुलनात्मक शिक्षा में भी विश्लेषण अध्ययन पर विशेष बल दिया गया। इस पद्धति में किसी देश की शिक्षा प्रणाली की विशेषताओं को स्वीकार करने से पूर्व दोनों देशों  की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का विश्लेषणात्मक चिन्तन करके उस प्रणाली की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के विषय में निष्कर्ष निकाला जाता है। इस प्रकार शिक्षा के सम्बन्धित कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि कि अब तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में शिक्षा के घटकों की समानता और विषमता का ही केवल अध्ययन नहीं किया जाता, बल्कि समानता और क्षमता का तुलनात्मक विवेचन के साथ-साथ देश की सम्बन्धित सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में किसी शिक्षण प्रणाली की विशिष्टता की अनुरूपता अथवा प्रतिकूलता के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तुलनात्मक शिक्षा के विकास की द्वितीय तथा तृतीय अवस्था में केवल प्रारूप का ही अन्तर है। 

इस अवस्था में चार महत्त्वपूर्ण विचारों को प्राथमिकता दी गई- 

1. अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1993-1996 में।
2. अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं का संकलन करने के लिये प्रश्नावली का निर्माण किया, जिसके आधार पर संस्तुतियाँ  दीं गईं। 
3. ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई, जिनमें आधुनिक शिक्षण विधियों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा।
4. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुभाषी पत्रिका का प्रकाशन किया, जिससे शिक्षा सम्बन्धी सूचनाओं का प्रसारण किया जा सके।


तुलनात्मक शिक्षा के विकास की अवस्था पर चार प्रकार के कार्यों को चिन्हित किया गया है। ये  कार्य हैं -

१- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं का अध्ययन किया जाये और मानवता के आधार पर उन्हें प्रोत्साहित किया जाये।
२- विश्व के विद्यालयों की शिक्षा प्रणालियों के विविध पक्षों सम्बन्धी प्रदत्तों के लिए सांख्यिकी तालिका तैयार  करना।
३- इस कार्य में इस प्रकार के 5 प्रदत्तों को प्रस्तुत किया जाता है जिससे शिक्षा सम्बन्धी विश्वव्यापी शिक्षा आन्दोलनों की दिशा तथा प्रवृत्ति का ज्ञान हो सके तथा व्यापक सामाजिक और आर्थिक शक्तियों के अभाव का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। विश्व के समस्त देशों की सहमति बिन्दुओं को खोज सके। इसके आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण तथा सार्थक निर्णय लिये जा सकें। 
४-  अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनुष्य तथा धन का शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करना ।


चतुर्थ अवस्था (Fourth  Stage) 



19वीं शताब्दी के अन्त तक सामाजिक विज्ञानों का विकास हुआ और शिक्षा को समाज का दर्पण कहा जाने लगा। विद्यालय समाज का लघु रूप माना जाने लगा है। जैसा समाज होगा, वैसी शिक्षा होगी तथा विद्यालय उसका व्यावहारिक रूप होगा। शिक्षा समाज का निर्माण करती है। इस प्रकार समाज तथा शिक्षा में अन्तःक्रिया (Interaction) होती रहती है। इस तथ्य का बोध शिक्षा एवं समाज के ऐतिहासिक विश्लेषण से किया जा सकता है और परिवर्तन के कारकों को भी पहचान सकते हैं। आज शिक्षा प्रणाली के अध्ययन से देश के राष्ट्रीय चरित्र का बोध होता है। शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय चरित्र का प्रतीक माना जाता है। कारण एवं प्रभाव की समस्या देश के राष्ट्रीय चरित्र की ओर ध्यान आकर्षित करती है, क्योंकि शिक्षा प्रणाली एक कारण और राष्ट्रीय चरित्र का प्रभाव है। इसके विपरीत राष्ट्रीय चरित्र शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है। विद्यालय समाज का अभिन्न अंग संस्कृति के सन्दर्भ में है।
तुलनात्मक शिक्षा की चतुर्थ विकास की अवस्था में अनेक विद्वानों ने योगदान किया है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. माइकिल सैडलर, 2. आई० एल० कैन्डाल, 3.निकोलस हंस तथा 4. वर्मन मेलिनसन रोबर्ट इनके योगदान का विवरण यहाँ पर दिया गया है 

1. माइकिल सैडलर (Michael Sadler)- इन्होंने सन् 1900 में एक निबन्ध प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने वर्णन किया था कि विदेशी शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से किन-किन मूल्यों को सीख सकते हैं। इन्होंने तुलनात्मक शिक्षा को अध्ययन हेतु नवीन आयाम को दिया, जो अधिक व्यापक तथा विश्लेषणात्मक थी। इस आयाम से व्याख्या करने की शक्ति भी अधिक थी। यह प्रथम तथा द्वितीय अवस्थाओं से भिन्न प्रकार की थी। इस आयाम का ब्रिटेन के मैथ्यू अर्नाल्ड ने अपने लेखों में 19वीं शताब्दी में प्रयुक्त किया। इसके अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमेरिका के हैरिसने, जर्मनी के डिल्थे, फ्रांस के पी० ई० लिवर ने इस सूत्र पर योगदान किया। यह सूत्र देशों के इतिहास की आवश्यकताओं के लिये उपयुक्त था। राष्ट्रीय चरित्र के प्रत्यय के लिये शैक्षिक सूचनाये तथा प्रदत्त आधार थे !
तुलनात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचारों को एक कथन द्वारा प्रस्तुत किया था-"विदेश की शिक्षा प्रणालियों के अध्ययन से हम व्यावहारिक मूल्यों को सीखते है।"

सैडलर ने तुलनात्मक अध्ययन में सांख्यिकी की वैधता तथा शुद्धता के सम्बन्ध में सहमत नहीं हैं। विद्यालयों की शिक्षा प्रणाली से राष्ट्रीय शिक्षा का विकास नहीं किया जा सकता है। सैडलर व्यावहारिक मूल्यों को अधिक महत्त्व देता है। यह मूल्य विद्यालय तथा समाज दोनों के अध्ययन से ज्ञात किये जा सकते हैं। विद्यालय में मूल्यों से अवगत कराया जाता है और समाज में छात्र उसका कितना अनुपालन करते हैं। यह उनके व्यावहारिक मूल्य होते हैं।

2. आई० एल० कैनडाल (I.L. Kandel)- 20वीं शताब्दी के प्रथम आधे युग में तुलनात्मक शिक्षा में अन्य लेखकों तथा विद्वानों ने माइकिल सैडलर के अध्ययन आयाम का अनुसरण किया था। इन्होंने सैडलर के आयाम को ही विस्तृत करके उसका उपयोग किया। कैनडाल ने 1933 में तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में राजनैतिक प्रणाली तथा विद्यालय की प्रणाली में निकट का सम्बन्ध ज्ञात किया था। इन्होंने तुलनात्मक शिक्षा के इन दोनों पक्षों को महत्व दिया और इसका अभिन्न अंग माना।
तुलनात्मक शिक्षा के सम्बन्ध में इनका विचार था कि शिक्षा प्रणालियों  की विषमतायें शिक्षा के सैद्धान्तिक आधार की अपेक्षा शिक्षा की व्यावहारिकता पर आधारित होती है। कैनडाल का कथन है कि विश्व का अधिकांश भाग शिक्षा की समस्याओं के समाधान का प्रयास कर रहे थे। इस समय मुख्य समस्या विश्व शान्ति एवं सहयोग की थी। इन्होंने विश्व को शिक्षा की प्रयोगशाला की उपमा दी थी। शिक्षा में सामान्य स्तर की समस्याओं के लिये शिक्षाविदों ने अनेक प्रकार के समाधान देने का प्रयास किया था। इन्होंने राष्ट्रीयता के लिये अनेक कारकों की पहचान की थी, जिनकी व्याख्या ऐतिहासिक तथा राजनैतिक विचारधारा की थी।
आई० एल० कैनडाल के महत्त्वपूर्ण योगदान के कारण उन्हें तुलनात्मक शिक्षा का पिता कहा जाता है। इन्होंने प्रदत्तों के संकलन में उनकी शुद्धता पर अधिक बल दिया था। इन्होंने विद्यालय एवं समाज के सम्बन्धों हेतु सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, जिसके आधार पर विशिष्ट संस्कृति में शिक्षा प्रणाली का विकास किया जाता है। इनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली के महत्त्व की व्याख्या उसको समझने के लिये की जाये एवं इसी पर अधिक बल दिया जाये।

3. निकोलस हंस (Nicholas Hans) - इन्हें कैनडाल का उत्तराधिकारी कहते हैं। इन्होंने भी तुलनात्मक शिक्षा पर अधिक कार्य किया था इनका एक अध्ययन "शिक्षा के कारक एवं परम्परायें" (Educational Factors and Tradition 1949) पर किया था। इस अध्ययन से इन्होंने शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करने वाले विशिष्ट कारकों की पहचान की थी। विभिन्न देशों तथा संस्कृतियों को अपने अध्ययन में सम्मिलित किया था। इन्होंने कैण्डाल और सैडलर की विचारधारा का विस्तार किया था। इन्होंने समिति के कारकों का गहनता से तथा विस्तार रूप में अध्ययन किया था। इन्होंने कारकों का वर्गीकरण तीन समूहों में किया था।

(i) प्राकृतिक कारक-  प्रजातियाँ, भाषा, भौगोलिक एवं आर्थिक कारक। 
(ii) धार्मिक कारक-  ईसाई धर्म में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट पुरलियन परम्परायें, एग्लैकिन परम्परायें आदि। 
(iii) राजनैतिक कारक- साम्यवाद, राष्ट्रवाद, मानववाद एवं प्रजातन्त्र आदि। 

निकोल्सहंस का विश्वास था कि अन्य देशों की शिक्षा प्रणालियों तथा सांस्कृतिक उद्भव में अधिक समानता पाई जाती है। इसलिये इन देशों की शिक्षा की समस्या भी समान होती हैं। इस तथ्य की पुष्टि तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन से होती है। इस सन्दर्भ में उन्होंने लिखा-"इन कारकों का तुलनात्मक विश्लेषण, ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से करना और समस्याओं के समाधान की तुलना करना ही तुलनात्मक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है।"
निकोल्सहंस का आयात ऐतिहासिक प्रवृत्ति का अधिक है। परन्तु वह शिक्षा प्रणाली को अतीत तक ही सीमित नहीं रखना चाहता, अपितु कारकों के प्रभावों का अध्ययन एवं विश्लेषण करता है। अतीत के कारकों के अतिरिक्त तत्वकाल में अन्य कारक भी शिक्षा को प्रभावित करते हैं। इनका विश्वास था कि भविष्य के सुधार के लिये इन कारकों की सहायता लेनी चाहिये। इन्होंने अतीत और वर्तमान के सांख्यिकी प्रदत्तों का विश्लेषण करने का भी सुझाव दिया, क्योंकि इस प्रकार के निष्कर्ष सुधार हेतु वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किये जाते हैं। परन्तु निकोल्सन सांख्यिकी आधार से सहमत नही हैं, क्योंकि तुलना का यह आधार वैध नहीं हो सकता है। सांख्यिकी विश्लेषण के निष्कर्षों में शुद्धता नहीं। 

 पंचम्  अवस्था (Fifth Stage)


तुलनात्मक शिक्षा का आरम्भ गुणात्मक सर्वेक्षण से हुआ और धार-घार संख्यात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति की वृद्धि हो गई। इस पंचम अवस्था को आधुनिक अवस्था भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संख्यात्मक अध्ययनों को उपयोग किया जाने लगा है। इस प्रकार के अध्ययनों में निम्नांकित पक्षों को प्राथमिकता दी जाती है-

1. संख्यात्मक प्रदत्त (Quantitative Data) - 20वीं शताब्दी के मध्य से सामाजिक विज्ञानों में व्यावहारिक या अनुभवजन्य कार्यों को अधिक बढ़ावा दिया जाने लगा। इसलिये, अनुभवजन्य संख्यात्मक विधियों के उपयोग में सामाजिक विज्ञानों, शिक्षा, मनोविज्ञान आदि में किया जाने लगा और इस प्रवृत्ति में वृद्धि भी हुई। अनुभवजन्य एवं संख्यात्मक प्रदत्त का विशेष महत्व दिया गया। ऐसे उपकरणों, परीक्षणों का विकास सामाजिक विषयों में किया गया, जिससे संख्यात्मक प्रदत्त उपलब्ध होने लगे। सामाजिक विज्ञान के शोध कार्यों के साथ तुलनात्मक शिक्षा के क्षेत्र में भी अनुभवजन्य संख्यात्मक कार्यों का आरम्भ हुआ।

2. विधियों की समस्या (Problem of Methodology)— समस्या के समाधान में विधियों तथा प्रदत्तों के उपकरणों तथा परीक्षण के चयन में कठिनाई रहती है। तुलनात्मक शिक्षा के विद्वानों में विधियों के सम्बन्ध में सहमति नहीं होती है। जाँर्ज ब्रेडे ने संकेत किया कि-तुलनात्मक शिक्षा में वाद-विवाद विधि अधिक उपयोग तथा व्यावहारिक होती है। तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन में भी वाद-विवाद विधि अधिक उपयुक्त मानी जाती है। 

3. परिकल्पनाओं का प्रतिपादन (Formulation of Hypothesis) - बियरडे का कहना है कि यथास्थिति परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जाता है, जो समस्याओं के समाधानों की ओर संकेत करती हैं या सम्भावित समाधान होते हैं। इन परिकल्पना के उपलब्ध प्रदत्तों के आधार पर पुष्टि की जाती है और तुलना की जाती है। जब परिकल्पनाओं के प्रतिपादन के अध्ययन आरम्भ करके सार्थक प्रदत्तों का संकलन करना कठिन कार्य होता है। बिना परिकल्पना सूचनाओं और प्रदत्तों का संकलन करना, समय, शक्ति एवं धन का अपव्यय ही होता है। ब्रेडे का सुझाव है कि प्रदत्तों के संकलन के लिये छात्रों को विशिष्ट प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाये, जिससे वे सार्थक एवं शुद्ध प्रदत्तों का संकलन कर सकें। इन प्रदत्तों को सामाजिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भ में संजोया जा सके। यथास्थिति का उपयोग परिकल्पनाओं के प्रतिपादन में किया जा सके। इन क्रियाओं की सहायता से तुलनात्मक कार्य किया जा सकता है। यह सब विवाद का प्रकरण है कि इन जटिल क्रियाओं का उपयोग तुलनात्मक शिक्षा में करना सम्भव है।
4. शिक्षा एवं समाज में सम्बन्ध (Relationship of Education & Society) -  आज के समय अधिक समस्याओं के अध्ययन में शिक्षा और समाज सम्बन्धों की खोज की जाती है इस सन्दर्भ में दो प्रकार के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है-
(i) प्रथम प्रकार के सम्बन्ध को शिक्षा और धन उत्पादन में, 
(ii) द्वितीय प्रकार के सम्बन्ध को शिक्षा और सामाजिक पक्ष व राजनैतिक परिवर्तन में।

5. विकास में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in Development) -  अनेक व्यक्तियों ने विकास की प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन किया मेरी जीन बोमेन तथा अरनोल्ड एण्डरसन ने इस प्रकार के अध्ययन कई प्रकार से किये और शिक्षा एवं विकास के विशिष्ट घटकों को लेकर अध्ययन किया। इन्होंने राष्ट्रीय उत्पादन तथा नामांकन अनुपात के सम्बन्ध में निकट का सम्बन्ध पाया गया। इससे विदित हुआ कि विकास में शिक्षा की अहम् भूमिका है।

6. विशाल स्तर पर शोध कार्य (Large Scale Research) - विशाल स्तर पर शोध कार्य अन्तर्राष्ट्रीय शोध कार्यों द्वारा किये जाते हैं। इन शोध कार्यों द्वारा शैक्षिक उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाता है,  इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आंकलन (International Educational Assessment-IEA) में सम्मिलित किया जाता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम प्रयास था, जब विभिन्न देशों के विद्यालयों की उपलब्धियों के विषयों के अनुसार इंटर का मूल्यांकन किया गया, विषयों के अनुसार अन्तर का अध्यापन वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं से किया गया। अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आकलन (IEA) संस्थान ने 12 देशों के गणित के तुलनात्मक अध्ययन का प्रकाशन किया। यह तुलनात्मक शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावशाली अध्ययन माना गया। 

इन सभी अध्ययनों के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक मूल्यांकन (IEA) ने सामाजिक विज्ञानों ने तुलनात्मक शिक्षा के विकास में योगदान किया। इस संस्थान (IEA) के प्रयासों में शिक्षाशास्त्रियों तथा साइकोमेट्रीसिन ने विशेष योगदान किया। इन्होंने सामाजिक विज्ञान विशेषज्ञों के अनुभवजन्य कौशलों का उपयोग किया। परिकल्पनाओं के प्रतिपादन को महत्त्व दिया और शोधकर्ताओं ने नियन्त्रित परिस्थिति में पुष्टि की, और संख्यात्मक व्याख्या की थी। तुलनात्मक शिक्षा का इतना विकास हुआ है, इसका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर एक स्वतन्त्र अध्ययन का स्थान बना लिया है।


संदर्भ ग्रंथ सूची
  • यादव, सुकेश एवं सक्सेना, सविता (2010), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, साहित्य प्रकाशन।
  • शर्मा, आर0ए0 (2011), तुलनात्मक शिक्षा, मेरठ, आर0लाल बुक डिपो।
  • चौबे, सरयू प्रसाद (2007), तुलनात्मक शिक्षा, आगरा, अग्रवाल पब्लिकेशन।

Monday, August 3, 2020

सर्व शिक्षा अभियान (SSA)-2002


सर्व शिक्षा अभियान (SSA)-2002


समवेशी शिक्षा के सन्दर्भ में सर्व शिक्षा अभियान की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। सर्व शिक्षा अभियान एक ऐसा ऐतिहासिक प्रयास है जिसका उद्देश्य राज्यों की भागीदारी से समयबद्ध समेकित प्रयास द्वारा प्राथमिक शिक्षा को जन -जन तक पहुँचाने के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करना है यह एक ऐसा अभियान है जिससे देश के प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की अपेक्षा की गयी है सर्व शिक्षा अभियान (SSA) भारत सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जिसकी शुरूआत 2001-02 में श्री अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा एक निश्चित समयावधि में सही तरीके से प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्त करने के उद्देश्य से की गयी थी। जैसा भारत के संविधान के 86वें संशोधन द्वारा निर्देशित किया गया है कि 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान को उनका मौलिक अधिकार घोषित किया गया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य संतोषजनक गुणवत्ता वाली प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्तकरना है। यह आधारभूत शिक्षा  माध्यम से समानता व सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक प्रयास है  सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया है जिसका उद्देश्य 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के सभी  बच्चों के लिए 2010 तक 8 वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा देना है। इन बच्चों में विकलांग बच्चे भी आते है। निशक्त बच्चों को सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत, कई शिक्षा विकल्प, शिक्षण साधन और उपकरण, आवागमन सहायता, अन्य सहायता सेवाएँ इत्यादि भी उपलब्ध कराई जा रही है। इससे मुक्त शिक्षा पद्धति और ओपन स्कूल, वैकल्पिक स्कूली शिक्षा, दूरवर्ती शिक्षा, विशेष स्कूल जहाँ आवश्यक है वहाँ गृह आधारित शिक्षा, अपचारी शिक्षा, अंशकालीन कक्षाएं, समुदाय आधारित पुनर्वास और व्यावसायिक शिक्षा शामिल है।

भारत में सर्व शिक्षा अभियान पर एक शिखर सम्मेलन दिसम्बर, 2002 को हुआ जिसमें विश्व के 9 अधिक जनसंख्या वाले देश - चीन, भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, इजिप्ट, नाइजीरिया मेक्सिको तथा पाकिस्तान ने भाग लिया। यूनेस्को के अनुसार इन देशों में विश्व की 70 प्रतिशत जनसंख्या जिसमें 50 प्रतिशत स्कूल न जाने वाले बच्चे तथा 2/3 भाग असाक्षर थे। भारत में विश्व के 1/3 भाग साक्षर तथा 20 प्रतिशत स्कूल न जाने वाले बच्चे थे। इस सम्मेलन का  मुख्य उद्देश्य सभी के लिये शिक्षा अवसर प्रदान करता था।

सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्य (Objective of SSA)


सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. वर्ष 2003 तक सभी सामान्य व बाधित बच्चों के लिये स्कूल शिक्षा गारण्टी केन्द्र, वैकल्पिक

स्कूल तथा बैक टू स्कूल शिविर की उपलब्धता

2. वर्ष 2007 में सभी सामान्य व बाधित बच्चे पाँच वर्ष की प्राथमिक शिक्षा देना।

3. वर्ष 2010 तक सभी सामान्य व बाधित बच्चे को आठ वर्ष की स्कूली शिक्षा पूरी कराना।

4. वर्ष 2010 तक सभी पढ़ने योग्य बच्चों को विद्यालय पहुँचाना।

5. सामाजिक न्याय व समानता के संवैधानिक लक्ष्य प्राप्त करना।

6. जीवनपयोगी व गुणात्मक प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का अवसर प्रदान करना।

सर्व शिक्षा अभियान के कार्य (Functions of SSA)


1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान के लिये सर्वेक्षण करना।

2. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का कार्यात्मक तथा अनौपचारिक आंकलन करना।

3. उनकी क्षमतानुसार उचित शैक्षिक व्यवस्था करना।

4. वैयक्तिक के आधार पर शैक्षिक योजना की योजना बनाना।

5. अशक्तों को सहायक उपकरण प्रदान करना।

6. समेकित शिक्षा के लिये शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।

7. संसाधन अध्यापकों की नियुक्ति करना।

8 समावेशी शिक्षा की योजना बनाना तथा प्रबंधन करना।

9 अभिभावकों को प्रशिक्षण एवं समुदाय को इस कार्य के लिये सक्रिय  करना।

10. संसाधन केन्द्र के रूप में नियमित विद्यालयों की आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिये विशेष विद्यालयों को सुविधा सम्पन्न बनाना।

11. विद्यालयों में बाधारहित प्रवेश की सुविधा प्रदान करना।

12 समेकित शिक्षा की प्रकृति पर नियंत्रण एवं मूल्यांकन करना।

13. अनेक राज्यों में अक्षम छात्रों की शिक्षा व्यवस्था घर पर की जा रही है तथा इस गृह आधारित शिक्षा के लिये स्वयं सेवकों का प्रयोग हो रहा है।

13. कुछ राज्यों में इन छात्रों के समायोजन व शिक्षा का कार्य शिक्षा गारण्टी योजना द्वारा किया जा  रहा है।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 

  • ठाकुर , यतीन्द्र (2019 ), समावेशी शिक्षा , अग्रवाल पब्लिकेशन , आगरा 
  • सिंह , मदन, समावेशी शिक्षा , आर० लाल ०  पब्लिकेशन , मेरठ 
  • नारंग , एम ० के ० (2016 ) समावेशी शिक्षा , अग्रवाल पब्लिकेशन , आगरा 

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