Sunday, September 11, 2022

परीक्षण (Test): अर्थ, परिभाषायें एवं प्रकार (Meaning, definitions and Types)


अर्थ (Meaning):-

मूल्यांकन की प्रविधियों के निर्माण के लिए मनोवैज्ञानिक आधार की आवश्यकता होती है इसलिए इन्हें मनोवैज्ञानिक परीक्षण कहा जाता है। इन परीक्षणों के निर्माण में कुछ विशेष बातों पर ध्यान दिया जाता है ताकि व्यक्ति की विभिन्न योग्यताओं का मापन बिल्कुल सही ढंग से हो और उस पर विश्वास किया जा सके।
 "परीक्षण एक व्यक्ति या समूह के कौशल, ज्ञान, क्षमताओं या प्रवृति का मूल्यांकन करने का साधन है।" 

परीक्षण की परिभाषाएं :-

"मनोवैज्ञानिक परीक्षण मानकीकृत एवं नियंत्रित स्थितियों का वह विन्यास है जो व्यक्ति से अनुक्रिया प्राप्त करने हेतु उसके सम्मुख पेश किया जाता है जिससे वह पर्यावरण की माँगों के अनुकूल प्रतिनिधित्व व्यवहार का चयन कर सके आज हम बहुधा उन सभी परिस्थितियों एवं अवसरों के विन्यास को मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के अन्तर्गत सम्मिलित कर लेते हैं जो किसी भी प्रकार की क्रिया चाहे उसका सम्बन्ध कार्य या निष्पादन से हो या नहीं करने की विशेष पद्धति का प्रतिपादन करती है ।"

क्रोनबेक के अनुसार, "दों या अधिक व्यक्तियों के व्यवहार का तुलनात्मक अध्ययन करने की व्यवस्थित प्रक्रिया को परीक्षण कहते हैं।"

फ्रीमेन के शब्दों में, "मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह मानकीकृत यन्त्र है जो समस्त व्यक्तित्व के एक पक्ष या अधिक पहलुओं का मापन शाब्दिक या अशाब्दिक अनुक्रियाओं या अन्य किसी प्रकार के व्यवहार के माध्यम से करता है।"

ऐनेस्टेसी की शब्दों में, "मनोवैज्ञानिक परीक्षण आवश्यक रूप से व्यवहार के प्रतिदर्श का एक वस्तुनिष्ठ एवं मानकीकृत मापन है।"

मन के शब्दों में, "परीक्षण वह परीक्षा है जो किसी समूह से सम्बन्धित व्यक्ति की बुद्धि, व्यक्तित्व, अभिक्षमता एवं उपलब्धि को व्यक्त करती है."

टाइलर के अनुसार, "परीक्षण वह मानकीकृत परिस्थिति है जिससे व्यक्ति का प्रतिदर्श व्यवहार निर्धारित होता है।"

परीक्षण के प्रकार (Types Of Test)



(I) प्रशासन के आधार पर (On the Basis of Administration):-

1. व्यक्तिगत परीक्षण (Individual Test):-

व्यक्तिगत परीक्षण में एक समय में केवल एक ही व्यक्ति का अध्ययन किया जाता है। इनमें परीक्षक को परीक्षार्थी के साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक होता है। अतः इसके लिये एक कुशल और प्रशिक्षित परीक्षक की आवश्यकता होती है। व्यक्तिगत परीक्षणों में शाब्दिक के साथ-साथ क्रियात्मक पद भी होते हैं, जैसे- भाटिया बैटरी बुद्धि परीक्षण। इन परीक्षणों से प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय होते हैं, क्योंकि परीक्षण की सम्पूर्ण परिस्थिति पर परीक्षक का पूरा नियन्त्रण होता है। बिने साइमन बुद्धि परीक्षण व्यक्तिगत परीक्षण का एक अच्छा उदाहरण है। 

2. सामूहिक परीक्षण (Group Test):-

सामूहिक परीक्षण उस परीक्षण को कहा जाता है जिसका प्रशासन एक समय में सामान्यतः एक से अधिक व्यक्तियों पर या व्यक्ति-समूह पर एक ही साथ किया जाता है। ऐसे परीक्षण के प्रशासन में परीक्षणकर्ता या परीक्षक का बहुत प्रशिक्षित या ज्ञानी होना आवश्यक नहीं है। कम प्रशिक्षित परीक्षक भी परीक्षण प्रशासन की अच्छी भूमिका निभा लेते हैं। बुद्धि मापन हेतु निर्मित श्याम स्वरूप जलोटा का मानसिक बुद्धि परीक्षण, एम0सी0 जोशी का मानसिक बुद्धि परीक्षण सामूहिक परीक्षण का अच्छा उदाहरण है।

(II) मानकीकरण के आधार पर (On the Basis of Standardization):-

1. मानकीकृत परीक्षण (Standardized Test):-

ऐसे परीक्षण जो शिक्षाशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, अनुसंधान संस्थाओं द्वारा अनेक विशेषज्ञों की सहायता से बनाए जाते हैं तथा एक विशाल समुह पर प्रशासित करके विश्वसनीयता, वैधता एवं मानको का निर्धारण किया जाता है, मानकीकृत परीक्षण कहलाते है। वास्तव में परीक्षण के मानकीकरण में केवल वैधता, विश्वसनीयता एवं मानकों को ज्ञात करना ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ-साथ परीक्षण प्रशासन की विधि तथा फलांकन प्रक्रिया को निश्चित करना भी आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में एनेस्टेसी ने लिखा है- "मानकीकरण का तात्पर्य परीक्षण की प्रशासन एवं फलांकन विधि में एकरूपता से है।

2. अध्यापक निर्मित परीक्षण (Teachers Made Test):-

अध्यापक निर्मित परीक्षण वे हैं जिन्हें अध्यापक अपने प्रयोग के लिये समय-समय पर बनाते हैं। इनका प्रयोग केवल स्कूल में ही किया जा सकता है, स्कूल के बाहर नहीं। कभी-कभी कुछ अध्यापक मिलकर भी इन परीक्षणों की रचना करते हैं। मानकीकृत परीक्षणों की भाँति इन परीक्षणों में भी वस्तुनिष्ठ पदों का प्रयोग किया जाता है। किसी विशेष परिस्थिति में इनका प्रकाशन भी किया जाता है, लेकिन फिर भी अध्यापक निर्मित परीक्षण मानकीकृत नहीं हो पाते, क्योंकि वे मानकीकृत परीक्षणों के समान वैध तथा विश्वसनीय नहीं होते। इसीलिये स्कूल के बाहर इनकी उपयोगिता नहीं होती। अध्यापक निर्मित परीक्षणों में निबन्धात्मक वस्तुनिष्ठ एवं निदानात्मक परीक्षणों को सम्मिलित किया जाता है।
अध्यापक निर्मित उपलब्धि परीक्षण तीन प्रकार के होते हैं -
  1. निबन्धात्मक परीक्षण
  2. वस्तुनिष्ठ परीक्षण
  3. निदानात्मक परीक्षण

1. निबन्धात्मक परीक्षण (Essay test):-

इस प्रकार के परीक्षण में परीक्षार्थी किसी प्रश्न का उत्तर एक निबन्ध के रूप में देता है जिसके द्वारा विद्यार्थी के विषय सम्बन्धी ज्ञान के साथ-साथ विचारों को व्यक्त करने की शक्ति, लेखन शैली, भाषा आदि का भी मूल्यांकन हो जाता है।

2. वस्तुनिष्ठ परीक्षण (Objective Test):-

अध्यापक निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में विषय से सम्बन्धित छोटे, सरल एवं स्पष्ट प्रश्न पूछे जाते हैं जिनका उत्तर निश्चित होता है। यह उत्तर विद्यार्थी को निश्चित प्रकार से संक्षेप में देना होता है। जैसे परिवार शिक्षा का अनौपचारिक साधन है- हाँ/नहीं। इस प्रकार के परीक्षण में फलांकन सरल एवं वस्तुनिष्ठ होता है। परीक्षक के निर्णय या राय का कोई प्रभाव विद्यार्थी के अंकों पर नहीं पड़ता तथा विभिन्न परीक्षकों द्वारा विभिन्न समय में उत्तर-पत्रक का मूल्यांकन करने पर एक-से ही अंक प्राप्त होते हैं।

3. निदानात्मक परीक्षण (Diagnostic Test):-

विभिन्न उपलब्धि परीक्षण एक या अधिक विषयों में विद्यार्थी द्वारा अर्जित ज्ञान का मापन करते हैं, परन्तु निदानात्मक परीक्षण उस ज्ञान प्राप्ति में आ रही बाधाओं को जानने का प्रयास करते हैं। निदानात्मक परीक्षण से प्राप्त सूचनाओं के विस्तृत विश्लेषण से छात्र की कमजोरियों का पता चल जाता है। इस आधार पर शिक्षक अपनी शिक्षण विधि में और विद्यार्थी की सीखने की प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन करके उपचारात्मक शिक्षण दे सकता है।

(III) फलांकन के आधार पर (On the Basis of Scoring) 

1. वस्तुनिष्ठ परीक्षण (Objective Test)- 
स्तुनिष्ठ परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिनके उत्तरों को अंक देने की विधि अर्थात् प्राप्तांक-लेखन विधि स्पष्ट होती है और वह परीक्षकों के आत्मगत निर्णय से बिल्कुल ही प्रभावित नहीं होती है। ऐसे परीक्षणों के एकांशों के उत्तर का अंकन में सभी परीक्षक एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। बहु विकल्पी एकांश, सही गलत एकांश तथा मिलान एकांश वाले परीक्षण वस्तुनिष्ठ परीक्षण होते हैं।
2. आत्मनिष्ठ परीक्षण (Subjective)-
 
आत्मनिष्ठ परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा है जिनके एकांशों के उत्तरों को अंक देने की विधि में काफी भिन्नता पाई जाती है। निबन्धात्मक परीक्षा जिसका प्रयोग शिक्षक कक्षा के उपलब्धियों की जाँच करने में अक्सर करते हैं आत्मनिष्ठ परीक्षण का अच्छा उदाहरण है।

(IV) रूप के आधार पर (One the Basis of Form):-

1. गति परीक्षण (Speed Test):-

गति परीक्षणों में प्रश्न सामान्यतः कम कठिनाई के होते हैं जिन्हें परीक्षार्थी को शीघ्रातिशीघ्र हल करना होता है। इनमें प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि कोई भी परीक्षार्थी किसी निश्चित अवधि में इन्हें हल नहीं कर सकता। इस प्रकार किसी निश्चित समय में उसने कितनी समस्याएँ हल कीं, इस आधार पर गति का मापन हो जाता है। ओझा द्वारा निर्मित लिपिक गति एवं परिशुद्धता परीक्षण एवं सिनेसोटा लिपिक अभियोग्यता परीक्षण गति परीक्षण का अच्छा उदाहरण है।

2. शक्ति परीक्षण (Power Test):-

इस प्रकार के परीक्षणों में प्रारम्भ कम कठिनाई स्तर के प्रश्नों से शुरू होकर क्रमानुसार अत्यन्त कठिनाई स्तर के प्रश्न रहते है अर्थात् प्रश्नों की कठिनाई आरोही क्रम में बढ़ती जाती है। कोई परीक्षार्थी सभी प्रश्नों को हल नहीं कर पाता। इस प्रकार शक्ति परीक्षण के माध्यम से परीक्षार्थी की किसी विषय या क्षेत्र में योग्यता की सीमा का मापन किया जाता है।  

व्यावहारिक दृष्टि से गति और शक्ति परीक्षणों में केवल अंशों का अन्तर होता है। अधिकांश परीक्षणों में शक्ति और गति दोनों को विभिन्न अनुपात में सम्बन्धित किया जाता है।


Wednesday, September 7, 2022

निष्पत्ति / उपलब्धि परीक्षण (Achievement Test)

 निष्पत्ति / उपलब्धि परीक्षण (Achievement Test)

 अर्थ (Meaning):-

विद्यालय में विभिन्न कक्षाओं में विद्यार्थी साल भर विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। कक्षा के सभी विद्यार्थियों का ज्ञान तथा ज्ञानार्जन करने की सीमा या प्रगति एक समान नहीं होती है। किसी कक्षा विशेष के विद्यार्थियों ने कितनी मात्रा में ज्ञानार्जन या प्रगति की है, इसकी जाँच करना आवश्यक होता है। विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों में अर्जित की गयी योग्यता जांच परीक्षा द्वारा की जाती है। उसे ज्ञानार्जन परीक्षण या निष्पत्ति परीक्षण कहते हैं। निष्पत्ति परीक्षण द्वारा विभिन्न पाठ्य विषयों में अर्जित ज्ञान, योग्यता और कार्यकुशलता का मापन होता है। इन परीक्षणों में उसी विषय सामग्री को रखा जाता है जिनका विशेष रूप से विद्यार्थी विद्यालय में अध्ययन करता है। ये परीक्षण कक्षा अनुसार, निर्दिष्ट पाठ्यक्रमों के अनुसार बनाये जाते हैं। 

दूसरे शब्दों में -  विद्यार्थी के विद्यालय में अध्ययन विषय सम्बन्धी प्रगति, प्राप्ति या उपलब्धि को मापने या जांचने के लिए उपलब्धि-परीक्षणों (Achievement Tests) का निर्माण किया गया है।

परिभाषायें (Definitions):-

गैरीसन व अन्य के अनुसार - "उपलब्धि परीक्षण, बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में, उसके ज्ञान की सीमा का मापन करती है।" ("The achievement test measures the present ability of the child or the extent of his knowledge in a specific content area." -Garrison & Others)

डॉ. माथुर के अनुसार-  “उपलब्धि- परीक्षण एक निश्चित कार्य क्षेत्र में जो ज्ञान अर्जित किया जाता है, उसकी माप करते हैं।" (“Achievement tests measure the knowledge acquired in a certain area of work.”)

थार्नडाइक के अनुसार- "जब हम उपलब्धि परीक्षणों का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात को निश्चित करने में रुचि रखते हैं कि एक विशेष प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के बाद व्यक्ति ने क्या सीखा है? (When we use an achievement test we are interested in determining what a person has learned to after he has been exposed to a specific kind of instruction." -Thorndike )

एबेल के अनुसार- उपलब्धि परीक्षण वह है जो किसी छात्र के द्वारा अर्जित ज्ञान या कौशलों में निपुणता का मापन के लिए बनाया जाता है। (An achievement test is one designed to measure a student's grasp of knowledge or his proficiency in certain skills. - Ebel)

छात्रों में विद्यालयी विषयों के अध्ययन द्वारा होने वाले ज्ञानात्मक, क्रियात्मक एवं भावात्मक वर्तनों को मापने के लिए जो परीक्षण तैयार किए जाते हैं, उन्हें उपलब्धि परीक्षण कहते हैं।


उपलब्धि- परीक्षणों का उद्देश्य एवं कार्य  (Aims  & Function of Achievement Test)

1. विद्यालय में विभिन्न कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाले विषयों में विद्यार्थियों ने कितनी योग्यता प्राप्त की है, इस बात की जांच  करना। 

2.  शिक्षकों के अध्यापन की सफलता का अनुमान लगाना।

3. विद्यार्थियों का वर्गीकरण करने में सहायता देना।

4. परीक्षाओं के परिणामों को जानकर विद्यार्थियों को अध्ययन करने की प्रेरणा प्रदान करना ।

5. विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर का अनुमान लगाना ।

6. परीक्षणों से जो आँकड़े प्राप्त होते हैं, उन्हें सामने रखकर पाठ्यक्रम में परिवर्तन करना । 

7. उपलब्धि परीक्षणों के आधार पर शिक्षण विधियों की उपयोगिता और कमियों का ज्ञान प्राप्त करना ।

8. शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता देना ।

9. कक्षोन्नति में सहायता लेना ।

10. परीक्षण के परिणाम के अनुसार, विद्यार्थियों की वैयक्तिक विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए योग्यता के अनुकूल श्रेणी बनाना तथा उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था करना ।

11. शैक्षिक दृष्टि से व्यवस्थापन सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करने में सहायता लेना ।


उपलब्धि - परीक्षणों के प्रकार (Types of Achievement Tests)


उपलब्धि-परीक्षणों का वर्गीकरण दो दृष्टिकोणों से किया जा सकता है 

(A) परीक्षण के उद्देश्य की दृष्टि से-  उपलब्धि परीक्षणों के निम्नांकित दो प्रकार हैं

(1) सामान्य निष्पत्ति-परीक्षण (General Achievement Tests)-  इसके द्वारा बालक या व्यक्ति के अर्जित  ज्ञान की परीक्षा की जाती है।

(2) निदानात्मक परीक्षण (Diagnostic Tests)- इन परीक्षणों द्वारा यह पता चलता है कि शिक्षक ने जो ज्ञान या शिक्षा बालक को प्रदान की है, उसमें वह कहाँ तक सफल हुआ है।

(B) परीक्षण विधि की दृष्टि से-  उपलब्धि परीक्षणों के निम्नलिखित चार प्रकार हैं-

(1) मौखिक परीक्षण (Oral Tests)-  इस परीक्षण में बालक से लिखित के स्थान पर मौखिक प्रश्न पूछे जाते हैं। इस प्रकार के परीक्षण का प्रमुख दोष यह है कि इससे बालक के विस्तृत ज्ञान की जाँच नहीं हो पाती और इसमें पक्षपात भी हो सकता है।

(2) क्रियात्मक परीक्षण (Performance Tests)- इस परीक्षण में लिखित प्रश्न करने के स्थान पर ज्ञान के परीक्षण के लिए चित्रों और लकड़ी के टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार के परीक्षणों का प्रयोग प्रायः व्यावसायिक कुशलता की जाँच करने के लिए किया जाता है। इनमें शाब्दिक योग्यता पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

(3) निबन्धात्मक परीक्षण (Essay Type Tests)-  इस प्रकार के परीक्षणों में विद्यार्थियों को निबन्ध के रूप में प्रश्नों का उत्तर देना होता है।

(4) वस्तुनिष्ठ परीक्षण (Objective Tests) - वर्तमान समय में इन परीक्षणों को बहुत महत्व दिया जाने लगा है। 

(C) परीक्षणों में प्रयुक्त सामग्री के आधार पर - परीक्षणों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जाता है

1. शाब्दिक परीक्षण (Verbal Tests) - इस वर्ग में वे परीक्षण आते हैं जिनमें शब्दों अर्थात् भाषा का प्रयोग किया जाता है, चाहे मौखिक रूप में और चाहे लिखित रूप में। शिक्षा के क्षेत्र में इसी प्रकार के परीक्षणों का अधिक प्रयोग होता है।

2. अशाब्दिक परीक्षण (Non-Verbal Tests) - इस वर्ग में वे परीक्षण आते हैं जिनमें शब्दों अर्थात भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता अपितु दृश्य, चिह्नों, संकेतों अथवा चित्रों आदि का प्रयोग किया जाता है। छोटे बच्चों और निरक्षर व्यक्तियों की मानसिक क्षमताओं का मापन करने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। शिक्षित और अशिक्षित किसी की भी बुद्धि और व्यक्तित्व के मापन में भी इस प्रकार के परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है।

(D) परीक्षणों की रचना के आधार पर - परीक्षणों को उनकी निर्माण प्रक्रिया और गुणों के आधार पर निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- 

1. शिक्षक निर्मित परीक्षण  (Teacher Made Test ) - इस वर्ग में वे परीक्षण आते हैं जिनका निर्माण सामान्यतः शिक्षक करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रयोग इन्हीं परीक्षणों का किया जाता है, छात्रों की साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक और वार्षिक परीक्षाओं सभी में इन्ही परीक्षणों  का प्रयोग किया जाता हैं  अब इस प्रकार के परीक्षणों को वैध, विश्वसनीय और वस्तुनिष्ठ बनाने का प्रयत्न किया जा रहा  है  सार्वजनिक परीक्षाओं के लिए पूर्णरूप से वैध, विश्वसनीय एवं वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का निर्माण नहीं किया जा सकता है  इसलिए इन परीक्षणों को ही अधिक-से-अधिक वैध, विश्वसनीय एवं वस्तुनिष्ठ बनाने पर बल दिया जाता है।

2. मानकीकृत परीक्षण (Standardized Tests) - इस वर्ग में वे परीक्षण आते हैं जिनका निर्माण विषय - विशेषज्ञों द्वारा किया जाता  हैं इस प्रकार  के परीक्षण  वैध, विश्वसनीय और वस्तुनिष्ठ माने  जाते  हैं। इसके लिए मानक तैयार किये जाते हैं 

(E) परीक्षणों के प्रशासन के आधार पर -

परीक्षणों के प्रशासन के आधार पर उन्हें निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जाता है 

1. व्यक्तिगत परीक्षण (Individual Tests) - वे परीक्षण  जिनका प्रशासन एक समय में एक ही छात्र पर किया जाता है। मौखिक परीक्षण प्रायः व्यक्तिगत रूप से ही प्रशासित किए जाते हैं। इन परीक्षणों का सबसे बड़ा गुण यह है कि मापनकर्ता का पूरा ध्यान छात्र विशेष पर ही रहता है। परन्तु साथ ही इनमें समय, शक्ति और धन अधिक लगता है।

2. सामूहिक परीक्षण (Group Tests)-  वे परीक्षण  जिनका प्रशासन एक समय और एक साथ छात्रों के बड़े-से-बड़े समूह पर किया जाता है। लिखित परीक्षण प्रायः सामूहिक रूप से ही प्रशासित किए जाते हैं। इन परीक्षणों का सबसे बड़ा गुण यह है कि इनके द्वारा एक समय में एक साथ छात्रों के बड़े-से-बड़े समूह की योग्यता का मापन किया जा सकता है. समय शक्ति और धन की बचत होती है। परन्तु साथ ही एक कमी भी है और वह यह कि इनके द्वारा छात्र विशेष की समस्या नहीं समझी जा सकती, उसके लिए व्यक्तिगत परीक्षणों का प्रयोग करना होता है।

(F) परीक्षणों के मापन स्वरूप के आधार पर -

अमरीकी मनोवैज्ञानिक ग्लेसर (Robert Glaser) ने मापन को दो वर्गों में विभाजित किया है-

1. मानक सन्दर्भित परीक्षण (Norm Referenced Tests)-  इस वर्ग में वे परीक्षण आते हैं जो केवल मानक सन्दर्भित मापन करते हैं अर्थात् केवल इतना मापन करते हैं कि किसी समूह में किसी छात्र की किसी विषय में योग्यता की दृष्टि से सापेक्षिक स्थिति क्या है। परम्परागत निबन्धात्मक परीक्षण जिनमें 10-12 प्रश्न पूछकर उनमें से 5-6 प्रश्नों का उत्तर देने को कहा जाता है, वे इसी वर्ग में आते हैं। इस प्रकार के परीक्षणों की मुख्य विशेषता यह है कि यदि इनके निर्माण में वैधता, विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखा जाए तो इनसे छात्रों के यथा विषय में ज्ञान के साथ-साथ उस विषय में उनकी सूझ-बूझ का मापन भी किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षणों का सम्पादन एवं मूल्यांकन करना भी सरल होता है। 

परन्तु  इनमें विषय से सम्बन्धित सम्पूर्ण सामग्री पर प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं इसलिए इनसे छात्रों के किसी भी विषय में सम्पूर्ण ज्ञान का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान में मानक संदर्भित  परीक्षणों में सुधार का प्रयत्न किया जा रहा  है।

2. निष्कर्ष  सन्दर्भित परीक्षण (Criterian Referenced Tests)-  इस वर्ग में वे परीक्षण आते हैं जो निष्कर्ष  सन्दर्भित मापन करते हैं अर्थात् किसी समूह में किसी छात्र की किसी विषय में योग्यता की वास्तविक स्थिति का मापन करते हैं।  परिणामतः विद्वान इसका अर्थ अपने-अपने तरीकों से लगाते हैं। कुछ विद्वान निष्कर्ष  का अर्थ पाठ्यवस्तु (Contents) से लगाते हैं। उनका तर्क है कि मानक सन्दर्भित परीक्षणों से छात्रों की योग्यता का सही  मापन नहीं होता, इसके लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पर प्रश्न पूछने चाहिए। इस वर्ग के विद्वान निष्कर्ष  सन्दर्भित परीक्षणों को पाठ्यवस्तु सन्दर्भित परीक्षण (Content Referenced Tests) अथवा योग्यता सन्दर्भित परीक्षण (Ability Referenced Tests) कहते हैं। 

Sunday, June 26, 2022

व्यक्तित्व का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-analytical Theory of Personality)

व्यक्तित्व का मनो-विश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-analytical Theory of Personality)

प्रतिपादक -  सिगमंड फ्रायड (1856-1939, Australian Neurologist, FieldsNeurology, Psychotherapy, Psychoanalysis)

व्यक्तित्व का अध्ययन करने का सबसे प्रथम सिद्धान्त मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (1896) है। फ्रायड ने व्यक्ति के व्यवहार को समझने तथा मानसिक विकारों से पीड़ित व्यक्तियों की चिकित्सा करने में मनोविश्लेषण विधि का अधिक प्रयोग किया जिससे उनको काफी प्रसिद्धि प्राप्त हुई। फ्रायड ने मूल प्रवृत्तियों को मानव व्यवहार का निर्धारक तत्व माना है। फ्रायड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त में मूल प्रवृत्तियों की अवधारणा व्यक्तित्व की गतिशीलता को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। मूल-प्रवृत्तियों का उल्लेख व्यक्ति की जन्म-जात समस्त मनःऊर्जा (Psychic) के रूप में किया जाता है।  इन्होंने दो मूल प्रवृत्तियों को माना।

(1) जीवन मूल-प्रवृत्ति या यौन-प्रेम (Life instinct or Eros ) : - काम-वासना, भूख तथा प्यास मुख्य हैं। जीवन मूल-प्रवृत्ति से सम्बन्धित सभी मूल-प्रवृत्तियों में निहित सम्पूर्ण मानसिक शक्ति को फ्रायड ने काम-शक्ति (Libido) का नाम दिया है।जीवन मूल-प्रवृत्ति के सभी कार्य इस काम शक्ति के द्वारा ही संचालित होते है।

(2) मृत्यु मूल -प्रवृत्ति या मूमुर्षा  (Death instinct or Thanatos) : -फ्रायड के अनुसार  प्राणी के जीवन का उद्देश्य मृत्यु है। मृत्यु मूल-प्रवृत्ति में मृत्यु प्राप्त करने की अचेतन भावना निहित रहती है।

व्यक्तित्व की सरंचना (Structure of Personality)



व्यक्तित्व का स्थलाकृतिक पहलू (Topographical Aspect of Personality)

(i) चेतन (Conscious) :-  चेतन मन का वह भाग है जिसमें वे अनुभूतियाँ (experiences) निहित रहती हैं, जिनके बारे में व्यक्ति पूर्णतः अवगत रहता है। यह उन विचारों, भावनाओं, तथा सूचनाओं का भण्डार होता है जिनका व्यक्ति आसानी से तुरन्त स्मरण कर सकता है।

(ii) अर्द्ध-चेतन अथवा अवचेतन (Subconscious or Preconscious) : - व्यक्ति के अर्द्ध-चेतन मन में वे अनुभूतियाँ निहित रहती हैं जिनकी उसे वर्तमान में पूर्णतः जानकारी नहीं रहती है लेकिन थोड़ा प्रयास करने पर उनसे अवगत हुआ जा सकता है ।

(iii) अचेतन (Unconscious):  फ्रायड का मानना  था  कि व्यक्ति का व्यवहार उसके चेतन मन  की अपेक्षा अचेतन मन  अधिक  प्रभावित करता  है।  व्यक्ति का अचेतन मन उन इच्छाओं तथा प्रवृत्तियों का भण्डार होता है जिनकी पूर्ति वह वास्तविक जीवन (real life) में नहीं कर पाता है। स्वप्न में दमित इच्छाओं की पूर्ति होते हुए दिखाई देना, किसी चीज का अचानक याद आ जाना, सम्मोहन की अवस्था में प्रश्नों का उत्तर देना, अनायास मुँह से अवांछित शब्दों का निकलना, लिखते समय असंभावित त्रुटियाँ होना तथा सोते समय समस्याओं का समाधान होना आदि क्रियाएँ अचेतन के अस्तित्व (existence) को दर्शाती हैं।


व्यक्तित्व का गत्यात्मक पहलू (Dynamic Aspect of Personality) 


(i) Id (इदम् ) :-  

  • जन्म के साथ।
  • व्यक्ति की जन्मजात मनःशक्तियों का भण्डार होता है। इसकी प्रकृति मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर करती है। 
  • यह आनन्द प्राप्ति के सिद्धान्त पर कार्य करता है। अतः यह तनाव कम करने के लिए आनन्द पथ का अनुसरण करता है, चाहे वह पथ अच्छा हो अथवा बुरा हो ।
  •  इदम् यौन प्रवृत्ति तथा आक्रामकता पर आधारित होता है और यह पूर्णतः अचेतन होता है। 
  • यह व्यक्तित्व का जैविक पहलू है| 

(ii) अहम् (Ego):- 

  • 1-2 वर्ष के विकास से प्रारम्भ।
  • यह इदम् तथा बाह्य जगत् दोनों के सम्पर्क में रहता है तथा इदम् की इच्छाओं को सामाजिक परिवेश के दायरे में सन्तुष्ट करने के उपाय जुटाता है। 
  • न तो पूर्णतया सुखवादी और न ही आदर्शवादी। इसकी प्रकृति तार्किक होती है तथा यह इदम् तथा पराहम् के बीच सम्बन्ध  स्थापित करने का प्रयास करता है। 
  • इसकी गतिविधियाँ वास्तविक चिन्तन (realistic thinking) पर आधारित होती हैं।  
  • अहम् का विकास माता-पिता तथा बालक के सम्पर्क में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा होता है। 
  • सपनों पर नियंत्रण।
  • सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेना।
  • अहम् को व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक पहलू माना जाता है ।

(iii) पराहम् (Super Ego) :- 

  • 3-4 वर्ष के विकास से प्रारम्भ।
  • पराहम् नैतिकता के सिद्धान्त पर कार्य करता है यह पूर्णतः चेतन होता है। यह मन का वह भाग है जिसे हम अन्तरात्मा (Conscience) कहते हैं। 
  • यह अहम् को उन्हीं कार्यों को करने की स्वीकृति देता है जो नैतिक मूल्यों (Moral values) के दायरे में आते हैं। 
  • पराहम् हमेशा इद्म के सम्पर्क में रहता है तथा उसकी अवांछित इच्छा पर नियन्त्रण करने की हर कोशिश करता है। यह अहं को भी नियन्त्रित करता है।
  • इसका विकास माता-पिता तथा अध्यापक द्वारा दिए  संस्कारों और अपनाये गए आदर्शों द्वारा होता है ।
  • पराह्म व्यक्तित्व का सामाजिक पहलु माना जाता है ।

 फ्रॉयड ने आगे स्पष्ट किया कि अहम् (Ego) सदैव इदम् (Id) और पराहम् (Super Ego) के बीच साम॑ज॒स्य॒ स्थापित करने का प्रयास करता है; जिन व्यक्तियों में यह सामंजस्य हो जाता है वे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों क्षेत्रों में समायोजन करने में समर्थ होते हैं और उन्हें सुसमायोजित व्यक्तित्व (Well Adjusted Personality) कहा जाता है। 

व्यक्तित्व का मनोलैंगिक विकास (Psychosexual Development of Personality)

 फ्रॉयड ने मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाएं   बताई हैं -

(1) मुखावस्था  (Oral Stage) : -

  • 0 -1 वर्ष  ।
  • बालक मुख की क्रियाओं द्वारा लैंगिक सुख  प्राप्त करता है। स्तनपान करना, अंगूठा चूसना तथा अन्य चीजों को मुँह में डालना आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं।

(2) गुदा अवस्था  (Anal Stage):  

  • 2- 3 वर्ष।
  • इस अवस्था में बच्चा मल-मूत्र को त्यागने तथा कभी-कभी रोकने में लैंगिक सुख की प्राप्ति करता है। मल त्यागते समय वे काफी देर तक बैठे रहते हैं। 

(3) लिंग प्रधान अवस्था (Phallic Stage): 

  • 3 - 5 वर्ष। 
  • इस अवस्था में बच्चे अपने हाथों से जननेन्द्रियों को स्पर्श करके लैंगिक सुख की प्राप्ति करते हैं। इस में दो प्रकार की ग्रंथियों का निर्माण होता है -

1. Oedipus Complex-  मातृ-मनोग्रंथि -

  • लड़कों में पायी जाती है ।
  • माँ के प्रति प्रेम ।

2. Electra Complex- पितृ -ग्रंथि 

  • लड़कियों में पायी जाती है ।
  • पिता के प्रति प्रेम ।

(4) अव्यक्त अवस्था  (Latency Stage): 

  • 6 - 12 वर्ष। 
  • इस अवस्था में बच्चे सामाजिक दबाव में आकर लैंगिक इच्छाओं को अनैतिक मानकर उनका दमन करते हैं।

(5) जननेन्द्रिय अवस्था (Genital Stage) : 

  • 13 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती है। 
  • इस अवस्था में किशोर पहले  समलिगियों तथा बाद में विषमलिगियों (Opposite sex) के साथ  सम्बन्ध बनाने में आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं ।










Thursday, May 19, 2022

सीखने के नियम (Laws of Learning)

 सीखने के नियम (Laws of Learning)



प्रतिपादक-  Edward Lee Thorndike (American Psychologist)

पुस्तक - शिक्षा मनोविज्ञान (1913)

थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर मानव अधिगम के तीन मुख्य नियमों (Primary Laws) एवं पांच गौण नियमों (Secondary Laws) का प्रतिपादन किया।


(A) सीखने के मुख्य नियम (Primary Laws of Learning)


(I) तत्परता का नियम (Law of Readiness)/मानसिक तैयारी का नियम (Law of mental preparation) -


सीखने के लिए यह आवश्यक है कि सीखने वाला (Learner) सीखने के लिए तैयार हो एवं तत्पर हो। जब सीखने वाले के सामने कोई समस्या होती है और वह उस समस्या को हल करने के लिए प्रयत्न करता है तो हम कहते हैं कि वह सीखने के लिए तत्पर है। जब तक मनुष्य सीखने के लिए तत्पर नहीं होते तब तक वह न तो  स्वयं सीख सकते हैं और न ही कोई दूसरा उन्हें सिखा सकता है। अतः आवश्यक है कि सर्वप्रथम शिक्षार्थियों को सीखने के लिए तत्पर किया जाए। तत्परता ध्यान केन्द्रित करने में सहायता देती है और शिक्षार्थी किसी भी कार्य को शीघ्र सीख लेते हैं, उन्हें सीखने में सन्तोष मिलता है। सीखने के लिए तत्पर नहीं होने पर उन्हें सीखने की क्रिया से असंतोष मिलता है।

जैसे- घोड़े को तालाब तक ले जाया जा सकता है लेकिन पानी पीने के लिए बाध्य नहीं की जा सकता है।


तत्परता के नियम के शैक्षिक उपयोग :-


  1. शिक्षकों को विषय-वस्तु प्रस्तुत करने से पहले छात्रों को उस विषय-वस्तु के प्रति सकारात्मक सोच विकसित करने के लिए अभिप्रेरित करना चाहिये ताकि वे उसे सीखने के लिए तत्पर हो जायें।

  2. अध्यापक को चाहिये कि वह विषय-वस्तु का परिचय इस तरह से प्रस्तुत करे कि छात्रों का रुझान (interest) तथा ध्यान (attention) विषय-वस्तु की ओर केन्द्रित हो जाये।

  3. छात्रों से ऐसे प्रश्न पूछे जायें ताकि उनमें विषय-वस्तु के अधिगम हेतु जिज्ञासा (curiosity) उत्पन्न हो जाये। 

  4. पढ़ाने से पहले अध्यापक को छात्रों की अभिवृत्तियों (attitudes), अभिक्षमताओं (abilities) तथा रुचियों का पता लगाना चाहिये और फिर उसके अनुकूल शिक्षण करें।


इस नियम का उपयोग बालक में रूचि उत्पन्न करने, तैयार करने, जिज्ञासा जागृत करने तथा ध्यान केन्द्रित करने में किया जाता है।

(II) अभ्यास का नियम (Law of exercise)


इस नियम को उपयोग और अनुप्रयोग का नियम (Law of Use and Disuse) भी कहते हैं। इस नियम के अनुसार यदि अन्य परिस्थितियाँ सामान्य रहें तो अभ्यास करने से सीखने की दक्षता में वृद्धि होती है और अभ्यास की कमी के कारण उद्दीपक तथा अनुक्रिया में सम्बन्ध कमजोर पड़ जाता है। अर्थात् सीखने की क्षमता में कमी जा जाती है। बार-बार अभ्यास करने से सीखी गई बातें अधिक समय तक याद रहती हैं और अभ्यास न करने से हम उनको भूल जाते हैं। अतः उपयोग और अभ्यास सीखने तथा याद करने में सहायक होता है तथा अनुप्रयोग तथा अभ्यास न करना सीखने तथा धारण करने में बाधा डालते हैं।

जो पाठ्य-सामग्री आवश्यकता से अधिक बार दोहरा ली जाती है वे हमारी स्मृति में स्थायी रूप संचित रहती हैं। जैसे- राष्ट्रगान, बचपन में सीखी गयी कविताएँ, पहाड़ें तथा प्रार्थना आदि। जिन शब्दों को हम प्रतिदिन प्रयोग में लाते हैं उन शब्दों को हम अधिक शुद्ध लिखते तथा बोलते हैं, जबकि कभी-कभी प्रयोग में आने वाले शब्दों के लिखने ने प्रायः अशुद्धियाँ हो जाती हैं। इस पंक्ति से समझा जा सकता है।


करत करत अभ्यास के जडमति होत सुजान
रसरी आवत जात ते, सिल पर होत निशान

अभ्यास के नियम के शैक्षिक उपयोग :-


  1. अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों में विषय-वस्तु को दोहराने की प्रकृत्ति विकसित करे ताकि वे सामग्री को अधिक समय तक धारण कर सकें।

  2. अध्यापकों को छात्रों को यह बताना चाहिए कि अभ्यास न करने की स्थिति में वे सीखी गयी सामग्री को भूल जायेगें।

  3. जीवन भर काम आने वाली बातों को तो अति अधिगम (Over learning) तक करा देनी चाहिये ताकि छात्रों को ये चीज आजीवन याद रहे; जैसे—राष्ट्रीय गान, पहाड़ें, दैनिक जीवन में काम आने वाले सूत्र आदि । 

  4. अभ्यास के द्वारा हस्तलेख (Handwriting) को सुधारा जा सकता है।

  5. अभ्यास के द्वारा संगीत, ड्राइंग, शार्टहैंड आदि में निपुणता प्राप्त की जा सकती है।


(III) प्रभाव का नियम (Law of Effect)/सन्तोष का नियम (Law of Satisfaction)/ परिणाम का नियम - 


इस नियम को सन्तोष या असन्तोष का नियम भी कहा जाता है जिस कार्य को करने से हमें संतोष या सुख प्राप्त होता है, उसे हम बार-बार करना चाहते हैं। शिक्षा में परस्कार और दण्ड देने का नियम इसी ओर संकेत करता है। जिस कार्य को करने से बालक को पुरस्कार मिलता है उसे वह बार-बार करना चाहता है और सीखी हुई विषय वस्तु को अधिक समय तक अपनी स्मृति में सुरक्षित रखता है। किन्तु जिस कार्य को करने के लिए उसे दण्ड मिलता है उसे वह दोबारा नहीं करना चाहता है। अतः उसे वह  सीखता नही है।

यदि किसी बच्चे के गणित के प्रश्न हल करते समय उत्तर ठीक-ठीक मिलते जाते हैं तो वह आगे के प्रश्न अधिक उत्साह के साथ हल करता रहता है परन्तु यदि प्रश्नों के उत्तर गलत आते हैं तो वह हताश होता है तथा झुंझला कर आगे के प्रश्न करने बन्द कर देता है। सन्तोषप्रद परिणाम व्यक्ति को कार्य करने अथवा सीखने के लिए प्रेरित करते हैं। जबकि कष्टकर अथवा असन्तोषप्रद परिणाम व्यक्ति को क्रिया करने में बाधा डालते हैं।


प्रभाव के नियम के शैक्षिक उपयोग :-


  1. अध्यापकों को यह प्रयत्न करना चाहिये कि छात्र उनके शिक्षण से सन्तुष्ट हो । 

  2. छात्रों को उनकी क्रियाओं के परिणाम की जानकारी तुरन्त प्रदान की जानी चाहिये ताकि उनको पृष्ठ-पोषण (feed-back) द्वारा उचित दिशा-निर्देश मिल सकें।

  3. छात्रों के समस्यात्मक व्यवहार (Problematic behaviour) को दण्ड से सम्बन्धित करके सुधारा जा सकता है।  

  4. इस नियम के द्वारा छात्रों की बुरी आदतों को दण्ड से सम्बन्धित करके छुड़ाया जा सकता है तथा अच्छी आदतों को पुरस्कार द्वारा प्रोत्साहित करके सुदृढ़ (Strong) किया जा सकता है।



(B) अधिगम के गौण नियम (Secondary Laws of Learning)


थॉर्नडाइक का प्रयोग करने का कार्य निरन्तर चलता रहा और बाद में उन्होंने अपने सीखने के नियमों में थोड़ा संशोधन किया तथा सीखने के अन्य पाँच गौण नियम बताये जो निम्नलिखित हैं-

(I) बहुअनुक्रिया का नियम (Law of Multiple Response):-

थार्नडाइक के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी नए कार्य या किसी नई समस्या का समाधान खोजता है तो वह उस समस्या का हल अनेक प्रकार से ढूंढने का प्रयास करता है। विभिन्न प्रयासों के आधार पर अंत में सफल हो जाता है और उपयुक्त विधि का चुनाव कर लेता है। प्रयत्न तथा भूल द्वारा सीखने का सिद्धांत इसी नियम पर ही प्रतिपादित हुआ है।

(II) मानसिक स्थिति अथवा मनोवृत्ति का नियम (Law of Mental Set or Attitude)-

अधिगम में मानसिक स्थिति अथवा मनोवृत्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यदि बालक किसी कार्य को करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होता या कार्य उसकी अभिवृति के अनुकूल नहीं होता है तो वह कार्य करने में बार-बार गलतियां करेगा और सफलता प्राप्त करने में अधिक समय लगेगा। इसके प्रतिकूल यदि कार्य उसके अभिवृति के अनुकूल होता है तो वह ध्यान केंद्रित करके कार्य को शीघ्रता से पूर्ण कर लेगा। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह विषय वस्तु को प्रस्तुत करने से पहले उसके प्रति छात्रों को मानसिक रूप से तैयार कर लें।

(III) आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)-

इस नियम के अनुसार कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभक्त करके पूर्ण किया जाता है। इस प्रकार अलग- अलग भागों में विभक्त करने से कार्य आसान एवं सुगम हो जाता है। ऐसा करने से समय व धन की बचत होती है। इसमें बालक समस्या के मुख्य तत्वों को छांट लेता है और उनको अपनी क्रिया का आधार बनाता है। भ्रांति उत्पन्न करने वाले तत्वों को छोड़ देता है। शिक्षण की "अंश से पूर्ण की ओर" विधि इसी नियम के आधार पर विकसित की गई है। यह नियम समस्या का हल खोजने में सीखने की विश्लेषण क्षमता एवं सूझ में वृद्धि करता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि विषय समग्री को कई भागों में विभक्त करके छात्रों के सामने प्रस्तुत करें और अंत में विषय वस्तु को एक साथ संकलित करके बच्चों को बताना चाहिए।

(IV) सादृश्यता द्वारा अनुक्रिया का नियम (Law of Response by Analogy)-

यह नियम पूर्व में सीखी गई विषय वस्तु को आत्मसात् करने पर आधारित है। अनुक्रिया दो परिस्थितियों की समानता अथवा सादृश्यता के आधार पर होती है। इसमें पूर्व-ज्ञान या पूर्व अनुभव का उपयोग नवीन अधिगम परिस्थितियों में कर लिया जाता है। यहाँ अन्तरण का सिद्धान्त कार्य करता है। जब किसी ज्ञान या अनुभव को अच्छी तरह से धारण कर लिया जाता है या उसका आत्मसात् (Assimilation) कर लिया जाता है तो किसी दूसरी या नवीन अधिगम परिस्थितियों में उसका सरलता से अन्तरण (Transfer) किया जा सकता है। इसीलिए इस नियम को आत्मीकरण का नियम (Law of Assimilation) भी कहते हैं। यह ज्ञान या अनुभव को सम्बद्ध करने की क्रिया है। बालक को यह समझना चाहिए कि जो कुछ उसे वर्तमान में सिखाया जा रहा है, यह उसके द्वारा भविष्य में प्राप्त किए जाने वाले ज्ञान की एक कड़ी है तथा वह नवीन ज्ञान के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानता है ऐसा अनुभव करेगा। इसके आधार पर शिक्षार्थी पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से संबंध स्थापित करके, प्राप्त ज्ञान को अपने ज्ञान कोष का स्थाई अंग बना लेता है।

(5) साहचर्य परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting)-

इस नियम से यह अभिप्राय है कि कोई भी अनुक्रिया जो एक सीखने वाले के करने योग्य है, किसी भी उद्दीपक से संबंधित की जा सकती है जिसके प्रति वह संवेदनशील है। यदि नवीन ज्ञान को प्रदान करते समय पूर्व ज्ञान से संबंधित परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो शिक्षार्थी पूर्वानुसार ही अनुकिया करता है। और पूर्व ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़कर संबंधित समस्या का समाधान किया जाता है।



Thursday, May 12, 2022

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Learning)

 



(I) व्यक्तिगत कारक (Individual Factors)


(1) अभिप्रेरणा स्तर एवं सीखने की इच्छा शक्ति (Level of Motivation and Will to learn)-
जब तक किसी विद्यार्थी में किसी तथ्य को जानने अथवा क्रिया को सीखने के लिए आंतरिक इच्छा (अभिप्रेरणा) नहीं होती है तब तक उसे कुछ भी पढ़ना लिखना कठिन लगता है। अभिप्रेरणा के साथ सीखने की इच्छा का प्रबल होना भी आवश्यक होता है जिससे बच्चे में सीखने के लिए जिस स्तर एवं सीखने की इच्छा होती है वह उतनी ही जल्दी  सीखता है।

(2) शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and Mental Health)- अरस्तु कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। प्रायः यह देखा गया है कि शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ बच्चे सीखने में रुचि लेते हैं और उन्हें थकान भी कम होती है इसलिए वे शीघ्र सीखते हैं।

(3) आयु एवं परिपक्वता (Age and Maturity)- आयु के बढ़ने के साथ-साथ बालक का  शारीरिक एवं मानसिक विकास भी होते जाते हैं लगभग 16 वर्ष की आयु तक पूर्ण हो जाते हैं। जीवन के प्रथम चरण में सीखने की गति तीव्र होती है जबकि अधिक उम्र के व्यक्तियों की नवीन विषयों को सीखने की गति धीमी होती है।

(4) बुद्धि,  रुचि, अवधान, अभिक्षमता एवं अभिवृत्ति (Intelligence, Interest, Attention, Aptitude and Attitude)- जिस व्यक्ति की बुद्धि जितनी अधिक होती है वह उतना ही जल्दी सीखता है परंतु यदि बुद्धि अधिक होने के बाद भी उसकी सीखे जाने की जाने वाली सामग्री में रुचि नहीं होती तो उसका अवधान नहीं होता,  इसलिए उसमें अभिक्षमता नहीं होती और अभिवृत्ति नहीं होती जिससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं हो पाती है।

(II) शिक्षक संबंधी कारक (Teachers related Factor)


(1) शिक्षक का व्यक्तित्व (Personality) व व्यवहार (Behaviour) - व्यक्तित्व एक बहुआयामी संप्रत्य है शिक्षक के व्यक्तित्व में शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थ, शारीरिक गठन एवं सौंदर्य, वाणी, ज्ञान एवं कौशल, शिक्षण एवं विद्यार्थियों के साथ व्यवहार  आदि सम्मिलित होते है। शिक्षक का शिक्षार्थियों के प्रति जितना अधिक आत्मभाव होता है, वह उनके प्रति जितना अधिक प्रेम, सहानुभूति एवं सहयोग पूर्ण व्यवहार करता है, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है।

(2) शिक्षक का ज्ञान एवं कौशल (Knowledge and Skills)- शिक्षक को अपने विषय का जितना अधिक स्पष्ट ज्ञान होता है और वह सिखाए जाने वाले कौशल में जितना अधिक कुशल होते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है।

(3) शिक्षण  विधि एवं कौशल (Teaching Methods and Skills)- शिक्षक जितना अधिक विधियों एवं कौशल में कुशल होता है वह शिक्षण एवं  सीखने की प्रक्रिया में उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है।

(4) मनोविज्ञान का ज्ञान (Knowledge of Psychology) अधिगम एक मनोवैज्ञानिक संप्रत्यय है। अधिगम की प्रक्रिया में बालक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि अधिगम की प्रक्रिया अधिगमी के लिए ही आयोजित की जाती है। अतः शिक्षक को प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को संचालित करने हेतु मनोविज्ञान का ज्ञान  आवश्यक होता है। शिक्षक को छात्र की प्रकृति, वंश- परम्परा, वातावरण, विकास की क्रियाओं के अवस्थाएँ, बुद्धि, व्यक्तित्व, स्मृति, शिक्षण, अधिगम, अभिप्रेरणा आदि का ज्ञान होना चाहिए तभी वह प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया को संचालित कर सकता है। 

(5) बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल (Emphasis on child centred-Education) वर्तमान समय में शिक्षा बाल-केन्द्रित मानी गयी है जिसके फलस्वरूप शिक्षा का केन्द्र बालक होता है। अतः शिक्षक को बालक की रूचि, रुझान, योग्यता, बुद्धि  आदि को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य सम्पादित करना चाहिए जिससे कि बालक अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करें।

(6) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन (organization of co-curricular activities) – शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। इस सर्वांगीण विकास लिए पाठ्यक्रम में पाठचर्या के साथ पाठ्य सहगामी क्रियाओं को भी स्थान दिया गया है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं का शिक्षण में महत्वपूर्ण स्थान है। अतः शिक्षक को पाठ्य सहगामी क्रियाओं के ज्ञान के साथ-साथ उसके आयोजन का भी उचित ज्ञान होना चाहिए।

(7) वातावरण का ज्ञान (Knowledge of Environment) – अध्यापक प्रभावशाली शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को संचालित करने हेतु वातावरण का ज्ञान होना आवश्यक है। यह वातावरण भौतिक, सामाजिक तथा शैक्षिक कुछ भी हो सकता है । यदि शिक्षक को सम्पूर्ण वातावरण का ज्ञान  होता है तो तभी वह अपने शिक्षण में सफल बना पाता है। 

(8) पढ़ाने की इच्छा (Will to teach) — यदि शिक्षक विषय वस्तु को पढ़ाने में इच्छुक है तो उसका शिक्षण कार्य प्रभावशाली होता है और शिक्षार्थी भी प्रस्तुत विषय वस्तु को रुचिपूर्वक सीखने के लिए अग्रसर होता है।

(9) व्यवसाय के प्रति निष्ठा (Loyalty to Profession)- यदि शिक्षक में अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठा का भाव है तो वह विषय वस्तु को रूचि व उत्साह पूर्वक शिक्षार्थी के समक्ष प्रस्तुत करता है इसके फलस्वरूप शिक्षार्थी अधिक से अधिक लाभान्वित होता है।


(III) पाठ्यवस्तु से संबंधित कारक (Content related Factors)



(1) पाठ्यवस्तु की प्रकृति (Nature)- कोई विषय सामग्री एक स्तर के बच्चों के लिए प्रत्यक्ष एवं औपचारिक हो सकती है और दूसरे स्तर की बच्चों के लिए अप्रत्यक्ष एवं अनौपचारिक हो सकती हैं ।  कोई पाठ्यवस्तु किसी स्तर के बच्चों के लिए जितनी प्रत्यक्ष एवं औपचारिक होती है उसका शिक्षण अधिगम उतना ही अधिक प्रभावी होता है।

(2) पाठ् की लम्बाई (Length) - पाठ की लंबाई जितनी अधिक होगी तो शिक्षार्थी की रूचि उस विषय में कम होने लगती है जिससे अधिगम प्रभावित होता है।

(3) पाठ्यवस्तु का जीवन से सम्बन्ध (Relation with Life)- पाठ्यवस्तु का शिक्षार्थी के वर्तमान अथवा भविष्य के जीवन से सम्बन्ध और उसकी उपयोगिता का स्तर भी शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। जिस पाठ्यवस्तु की जीवन में जितनी अधिक उपयोगिता होती है उसे बच्चे उतनी ही अधिक शीघ्रता से सीखते हैं।

(4) पाठ्यवस्तु का कठिनाई स्तर (Difficulty Level)पाठ्यवस्तु यदि शिक्षार्थी की दृष्टि से सरल होती है तो शिक्षण-अधिगम प्रभावशाली होता है और यदि कठिन होती है तो उसका शिक्षण-अधिगम प्रभावी नहीं होता। कठिनाई स्तर का निर्धारण शिक्षार्थी की आयु, परिपक्वता और तत्सम्बन्धी पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है। यदि पाठ्यवस्तु का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है तो शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होती है।

(5) भाषा (Language) अधिगम की प्रक्रिया को भाषा भी प्रभावित करती है। यदि शिक्षण में सरल व संक्षिप्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो अधिगम में सहायता मिलती है जबकि भाषा के वाक्य बड़े और कठिन शब्दों से युक्त होते है तो अधिगम की शिक्षा के प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते है।

(IV) शिक्षण विधि से संबंधित कारक (Teaching Methods related Factors)-  


(1) शिक्षण विधि की उपयुक्तता (Suitability)-  मनोवैज्ञानिकों ने शिशु, बाल और किशोर मनोविज्ञान तथा शिक्षण एवं सीखने सम्बन्धी जो तथ्य उजागर किए हैं उनके आधार पर भिन्न आयु वर्ग के बच्चों को भिन्न-भिन्न विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं में कौशल विकसित करने की भिन्न-भिन्न विधियों का विकास किया गया है। किसी विषय के ज्ञान अथवा कौशल में दक्षता के का अंग विकास के लिए जितनी अधिक उपयुक्त शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाता है शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक  प्रभावशाली होती है। 


(2) अभ्यास एवं उपयोग (Practice and Use)— अभ्यास एवं उपयोग ये दोनों भी बड़े प्रभावी कारक हैं। शिक्षक शिक्षण करते समय सिखाए जाने वाले ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक अभ्यास कराता है और शिक्षार्थी उस सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक प्रयोग करते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है और सीखना उतना अधिक स्थायी होता है।


(3) करके सीखना (Learning by doing) — जिस कार्य को विद्यार्थी स्वयं करके सीखता है उसके स्मृति में बने रहने की संभावना अधिक होती है। अतः अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों को स्वयं करके सीखने के लिए प्रोत्साहित करें।


(4) मन में दोहराना (Recitation)- अधिगम की गयी सामग्री को मन ही मन दोहराकर सीखने की जाँच करने से अधिगम अधिक प्रभावी तथा स्थाई होता है।


(5) शिक्षण साधनों एवं तकनीकी का प्रयोग (Use of Teaching Aids and Technology)- शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि शिक्षण साधनों के प्रयोग से शिक्षण अधिगम को सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है। वर्तमान में तो हार्डवेयर शैक्षिक तकनीकी (ओवरहेड प्रोजेक्टर, रेडियो, टेलीविजन एवं कम्प्यूटर आदि) के प्रयोग से शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया को और भी अधिक रोचक, सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है।


मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology)

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय (Schools of Psychology) मनोविज्ञान के सम्प्रदाय से अभिप्राय उन विचारधाराओं से है जिनके अनुसार मनोवैज्ञानिक मन, व्यवह...