Thursday, May 19, 2022

सीखने के नियम (Laws of Learning)

 सीखने के नियम (Laws of Learning)



प्रतिपादक-  Edward Lee Thorndike (American Psychologist)

पुस्तक - शिक्षा मनोविज्ञान (1913)

थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर मानव अधिगम के तीन मुख्य नियमों (Primary Laws) एवं पांच गौण नियमों (Secondary Laws) का प्रतिपादन किया।


(A) सीखने के मुख्य नियम (Primary Laws of Learning)


(I) तत्परता का नियम (Law of Readiness)/मानसिक तैयारी का नियम (Law of mental preparation) -


सीखने के लिए यह आवश्यक है कि सीखने वाला (Learner) सीखने के लिए तैयार हो एवं तत्पर हो। जब सीखने वाले के सामने कोई समस्या होती है और वह उस समस्या को हल करने के लिए प्रयत्न करता है तो हम कहते हैं कि वह सीखने के लिए तत्पर है। जब तक मनुष्य सीखने के लिए तत्पर नहीं होते तब तक वह न तो  स्वयं सीख सकते हैं और न ही कोई दूसरा उन्हें सिखा सकता है। अतः आवश्यक है कि सर्वप्रथम शिक्षार्थियों को सीखने के लिए तत्पर किया जाए। तत्परता ध्यान केन्द्रित करने में सहायता देती है और शिक्षार्थी किसी भी कार्य को शीघ्र सीख लेते हैं, उन्हें सीखने में सन्तोष मिलता है। सीखने के लिए तत्पर नहीं होने पर उन्हें सीखने की क्रिया से असंतोष मिलता है।

जैसे- घोड़े को तालाब तक ले जाया जा सकता है लेकिन पानी पीने के लिए बाध्य नहीं की जा सकता है।


तत्परता के नियम के शैक्षिक उपयोग :-


  1. शिक्षकों को विषय-वस्तु प्रस्तुत करने से पहले छात्रों को उस विषय-वस्तु के प्रति सकारात्मक सोच विकसित करने के लिए अभिप्रेरित करना चाहिये ताकि वे उसे सीखने के लिए तत्पर हो जायें।

  2. अध्यापक को चाहिये कि वह विषय-वस्तु का परिचय इस तरह से प्रस्तुत करे कि छात्रों का रुझान (interest) तथा ध्यान (attention) विषय-वस्तु की ओर केन्द्रित हो जाये।

  3. छात्रों से ऐसे प्रश्न पूछे जायें ताकि उनमें विषय-वस्तु के अधिगम हेतु जिज्ञासा (curiosity) उत्पन्न हो जाये। 

  4. पढ़ाने से पहले अध्यापक को छात्रों की अभिवृत्तियों (attitudes), अभिक्षमताओं (abilities) तथा रुचियों का पता लगाना चाहिये और फिर उसके अनुकूल शिक्षण करें।


इस नियम का उपयोग बालक में रूचि उत्पन्न करने, तैयार करने, जिज्ञासा जागृत करने तथा ध्यान केन्द्रित करने में किया जाता है।

(II) अभ्यास का नियम (Law of exercise)


इस नियम को उपयोग और अनुप्रयोग का नियम (Law of Use and Disuse) भी कहते हैं। इस नियम के अनुसार यदि अन्य परिस्थितियाँ सामान्य रहें तो अभ्यास करने से सीखने की दक्षता में वृद्धि होती है और अभ्यास की कमी के कारण उद्दीपक तथा अनुक्रिया में सम्बन्ध कमजोर पड़ जाता है। अर्थात् सीखने की क्षमता में कमी जा जाती है। बार-बार अभ्यास करने से सीखी गई बातें अधिक समय तक याद रहती हैं और अभ्यास न करने से हम उनको भूल जाते हैं। अतः उपयोग और अभ्यास सीखने तथा याद करने में सहायक होता है तथा अनुप्रयोग तथा अभ्यास न करना सीखने तथा धारण करने में बाधा डालते हैं।

जो पाठ्य-सामग्री आवश्यकता से अधिक बार दोहरा ली जाती है वे हमारी स्मृति में स्थायी रूप संचित रहती हैं। जैसे- राष्ट्रगान, बचपन में सीखी गयी कविताएँ, पहाड़ें तथा प्रार्थना आदि। जिन शब्दों को हम प्रतिदिन प्रयोग में लाते हैं उन शब्दों को हम अधिक शुद्ध लिखते तथा बोलते हैं, जबकि कभी-कभी प्रयोग में आने वाले शब्दों के लिखने ने प्रायः अशुद्धियाँ हो जाती हैं। इस पंक्ति से समझा जा सकता है।


करत करत अभ्यास के जडमति होत सुजान
रसरी आवत जात ते, सिल पर होत निशान

अभ्यास के नियम के शैक्षिक उपयोग :-


  1. अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों में विषय-वस्तु को दोहराने की प्रकृत्ति विकसित करे ताकि वे सामग्री को अधिक समय तक धारण कर सकें।

  2. अध्यापकों को छात्रों को यह बताना चाहिए कि अभ्यास न करने की स्थिति में वे सीखी गयी सामग्री को भूल जायेगें।

  3. जीवन भर काम आने वाली बातों को तो अति अधिगम (Over learning) तक करा देनी चाहिये ताकि छात्रों को ये चीज आजीवन याद रहे; जैसे—राष्ट्रीय गान, पहाड़ें, दैनिक जीवन में काम आने वाले सूत्र आदि । 

  4. अभ्यास के द्वारा हस्तलेख (Handwriting) को सुधारा जा सकता है।

  5. अभ्यास के द्वारा संगीत, ड्राइंग, शार्टहैंड आदि में निपुणता प्राप्त की जा सकती है।


(III) प्रभाव का नियम (Law of Effect)/सन्तोष का नियम (Law of Satisfaction)/ परिणाम का नियम - 


इस नियम को सन्तोष या असन्तोष का नियम भी कहा जाता है जिस कार्य को करने से हमें संतोष या सुख प्राप्त होता है, उसे हम बार-बार करना चाहते हैं। शिक्षा में परस्कार और दण्ड देने का नियम इसी ओर संकेत करता है। जिस कार्य को करने से बालक को पुरस्कार मिलता है उसे वह बार-बार करना चाहता है और सीखी हुई विषय वस्तु को अधिक समय तक अपनी स्मृति में सुरक्षित रखता है। किन्तु जिस कार्य को करने के लिए उसे दण्ड मिलता है उसे वह दोबारा नहीं करना चाहता है। अतः उसे वह  सीखता नही है।

यदि किसी बच्चे के गणित के प्रश्न हल करते समय उत्तर ठीक-ठीक मिलते जाते हैं तो वह आगे के प्रश्न अधिक उत्साह के साथ हल करता रहता है परन्तु यदि प्रश्नों के उत्तर गलत आते हैं तो वह हताश होता है तथा झुंझला कर आगे के प्रश्न करने बन्द कर देता है। सन्तोषप्रद परिणाम व्यक्ति को कार्य करने अथवा सीखने के लिए प्रेरित करते हैं। जबकि कष्टकर अथवा असन्तोषप्रद परिणाम व्यक्ति को क्रिया करने में बाधा डालते हैं।


प्रभाव के नियम के शैक्षिक उपयोग :-


  1. अध्यापकों को यह प्रयत्न करना चाहिये कि छात्र उनके शिक्षण से सन्तुष्ट हो । 

  2. छात्रों को उनकी क्रियाओं के परिणाम की जानकारी तुरन्त प्रदान की जानी चाहिये ताकि उनको पृष्ठ-पोषण (feed-back) द्वारा उचित दिशा-निर्देश मिल सकें।

  3. छात्रों के समस्यात्मक व्यवहार (Problematic behaviour) को दण्ड से सम्बन्धित करके सुधारा जा सकता है।  

  4. इस नियम के द्वारा छात्रों की बुरी आदतों को दण्ड से सम्बन्धित करके छुड़ाया जा सकता है तथा अच्छी आदतों को पुरस्कार द्वारा प्रोत्साहित करके सुदृढ़ (Strong) किया जा सकता है।



(B) अधिगम के गौण नियम (Secondary Laws of Learning)


थॉर्नडाइक का प्रयोग करने का कार्य निरन्तर चलता रहा और बाद में उन्होंने अपने सीखने के नियमों में थोड़ा संशोधन किया तथा सीखने के अन्य पाँच गौण नियम बताये जो निम्नलिखित हैं-

(I) बहुअनुक्रिया का नियम (Law of Multiple Response):-

थार्नडाइक के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी नए कार्य या किसी नई समस्या का समाधान खोजता है तो वह उस समस्या का हल अनेक प्रकार से ढूंढने का प्रयास करता है। विभिन्न प्रयासों के आधार पर अंत में सफल हो जाता है और उपयुक्त विधि का चुनाव कर लेता है। प्रयत्न तथा भूल द्वारा सीखने का सिद्धांत इसी नियम पर ही प्रतिपादित हुआ है।

(II) मानसिक स्थिति अथवा मनोवृत्ति का नियम (Law of Mental Set or Attitude)-

अधिगम में मानसिक स्थिति अथवा मनोवृत्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यदि बालक किसी कार्य को करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होता या कार्य उसकी अभिवृति के अनुकूल नहीं होता है तो वह कार्य करने में बार-बार गलतियां करेगा और सफलता प्राप्त करने में अधिक समय लगेगा। इसके प्रतिकूल यदि कार्य उसके अभिवृति के अनुकूल होता है तो वह ध्यान केंद्रित करके कार्य को शीघ्रता से पूर्ण कर लेगा। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह विषय वस्तु को प्रस्तुत करने से पहले उसके प्रति छात्रों को मानसिक रूप से तैयार कर लें।

(III) आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity)-

इस नियम के अनुसार कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभक्त करके पूर्ण किया जाता है। इस प्रकार अलग- अलग भागों में विभक्त करने से कार्य आसान एवं सुगम हो जाता है। ऐसा करने से समय व धन की बचत होती है। इसमें बालक समस्या के मुख्य तत्वों को छांट लेता है और उनको अपनी क्रिया का आधार बनाता है। भ्रांति उत्पन्न करने वाले तत्वों को छोड़ देता है। शिक्षण की "अंश से पूर्ण की ओर" विधि इसी नियम के आधार पर विकसित की गई है। यह नियम समस्या का हल खोजने में सीखने की विश्लेषण क्षमता एवं सूझ में वृद्धि करता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि विषय समग्री को कई भागों में विभक्त करके छात्रों के सामने प्रस्तुत करें और अंत में विषय वस्तु को एक साथ संकलित करके बच्चों को बताना चाहिए।

(IV) सादृश्यता द्वारा अनुक्रिया का नियम (Law of Response by Analogy)-

यह नियम पूर्व में सीखी गई विषय वस्तु को आत्मसात् करने पर आधारित है। अनुक्रिया दो परिस्थितियों की समानता अथवा सादृश्यता के आधार पर होती है। इसमें पूर्व-ज्ञान या पूर्व अनुभव का उपयोग नवीन अधिगम परिस्थितियों में कर लिया जाता है। यहाँ अन्तरण का सिद्धान्त कार्य करता है। जब किसी ज्ञान या अनुभव को अच्छी तरह से धारण कर लिया जाता है या उसका आत्मसात् (Assimilation) कर लिया जाता है तो किसी दूसरी या नवीन अधिगम परिस्थितियों में उसका सरलता से अन्तरण (Transfer) किया जा सकता है। इसीलिए इस नियम को आत्मीकरण का नियम (Law of Assimilation) भी कहते हैं। यह ज्ञान या अनुभव को सम्बद्ध करने की क्रिया है। बालक को यह समझना चाहिए कि जो कुछ उसे वर्तमान में सिखाया जा रहा है, यह उसके द्वारा भविष्य में प्राप्त किए जाने वाले ज्ञान की एक कड़ी है तथा वह नवीन ज्ञान के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानता है ऐसा अनुभव करेगा। इसके आधार पर शिक्षार्थी पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से संबंध स्थापित करके, प्राप्त ज्ञान को अपने ज्ञान कोष का स्थाई अंग बना लेता है।

(5) साहचर्य परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting)-

इस नियम से यह अभिप्राय है कि कोई भी अनुक्रिया जो एक सीखने वाले के करने योग्य है, किसी भी उद्दीपक से संबंधित की जा सकती है जिसके प्रति वह संवेदनशील है। यदि नवीन ज्ञान को प्रदान करते समय पूर्व ज्ञान से संबंधित परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो शिक्षार्थी पूर्वानुसार ही अनुकिया करता है। और पूर्व ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़कर संबंधित समस्या का समाधान किया जाता है।



Thursday, May 12, 2022

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Influencing Learning)

 



(I) व्यक्तिगत कारक (Individual Factors)


(1) अभिप्रेरणा स्तर एवं सीखने की इच्छा शक्ति (Level of Motivation and Will to learn)-
जब तक किसी विद्यार्थी में किसी तथ्य को जानने अथवा क्रिया को सीखने के लिए आंतरिक इच्छा (अभिप्रेरणा) नहीं होती है तब तक उसे कुछ भी पढ़ना लिखना कठिन लगता है। अभिप्रेरणा के साथ सीखने की इच्छा का प्रबल होना भी आवश्यक होता है जिससे बच्चे में सीखने के लिए जिस स्तर एवं सीखने की इच्छा होती है वह उतनी ही जल्दी  सीखता है।

(2) शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and Mental Health)- अरस्तु कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। प्रायः यह देखा गया है कि शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ बच्चे सीखने में रुचि लेते हैं और उन्हें थकान भी कम होती है इसलिए वे शीघ्र सीखते हैं।

(3) आयु एवं परिपक्वता (Age and Maturity)- आयु के बढ़ने के साथ-साथ बालक का  शारीरिक एवं मानसिक विकास भी होते जाते हैं लगभग 16 वर्ष की आयु तक पूर्ण हो जाते हैं। जीवन के प्रथम चरण में सीखने की गति तीव्र होती है जबकि अधिक उम्र के व्यक्तियों की नवीन विषयों को सीखने की गति धीमी होती है।

(4) बुद्धि,  रुचि, अवधान, अभिक्षमता एवं अभिवृत्ति (Intelligence, Interest, Attention, Aptitude and Attitude)- जिस व्यक्ति की बुद्धि जितनी अधिक होती है वह उतना ही जल्दी सीखता है परंतु यदि बुद्धि अधिक होने के बाद भी उसकी सीखे जाने की जाने वाली सामग्री में रुचि नहीं होती तो उसका अवधान नहीं होता,  इसलिए उसमें अभिक्षमता नहीं होती और अभिवृत्ति नहीं होती जिससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं हो पाती है।

(II) शिक्षक संबंधी कारक (Teachers related Factor)


(1) शिक्षक का व्यक्तित्व (Personality) व व्यवहार (Behaviour) - व्यक्तित्व एक बहुआयामी संप्रत्य है शिक्षक के व्यक्तित्व में शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थ, शारीरिक गठन एवं सौंदर्य, वाणी, ज्ञान एवं कौशल, शिक्षण एवं विद्यार्थियों के साथ व्यवहार  आदि सम्मिलित होते है। शिक्षक का शिक्षार्थियों के प्रति जितना अधिक आत्मभाव होता है, वह उनके प्रति जितना अधिक प्रेम, सहानुभूति एवं सहयोग पूर्ण व्यवहार करता है, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है।

(2) शिक्षक का ज्ञान एवं कौशल (Knowledge and Skills)- शिक्षक को अपने विषय का जितना अधिक स्पष्ट ज्ञान होता है और वह सिखाए जाने वाले कौशल में जितना अधिक कुशल होते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है।

(3) शिक्षण  विधि एवं कौशल (Teaching Methods and Skills)- शिक्षक जितना अधिक विधियों एवं कौशल में कुशल होता है वह शिक्षण एवं  सीखने की प्रक्रिया में उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है।

(4) मनोविज्ञान का ज्ञान (Knowledge of Psychology) अधिगम एक मनोवैज्ञानिक संप्रत्यय है। अधिगम की प्रक्रिया में बालक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि अधिगम की प्रक्रिया अधिगमी के लिए ही आयोजित की जाती है। अतः शिक्षक को प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को संचालित करने हेतु मनोविज्ञान का ज्ञान  आवश्यक होता है। शिक्षक को छात्र की प्रकृति, वंश- परम्परा, वातावरण, विकास की क्रियाओं के अवस्थाएँ, बुद्धि, व्यक्तित्व, स्मृति, शिक्षण, अधिगम, अभिप्रेरणा आदि का ज्ञान होना चाहिए तभी वह प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया को संचालित कर सकता है। 

(5) बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल (Emphasis on child centred-Education) वर्तमान समय में शिक्षा बाल-केन्द्रित मानी गयी है जिसके फलस्वरूप शिक्षा का केन्द्र बालक होता है। अतः शिक्षक को बालक की रूचि, रुझान, योग्यता, बुद्धि  आदि को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य सम्पादित करना चाहिए जिससे कि बालक अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करें।

(6) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन (organization of co-curricular activities) – शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। इस सर्वांगीण विकास लिए पाठ्यक्रम में पाठचर्या के साथ पाठ्य सहगामी क्रियाओं को भी स्थान दिया गया है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं का शिक्षण में महत्वपूर्ण स्थान है। अतः शिक्षक को पाठ्य सहगामी क्रियाओं के ज्ञान के साथ-साथ उसके आयोजन का भी उचित ज्ञान होना चाहिए।

(7) वातावरण का ज्ञान (Knowledge of Environment) – अध्यापक प्रभावशाली शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को संचालित करने हेतु वातावरण का ज्ञान होना आवश्यक है। यह वातावरण भौतिक, सामाजिक तथा शैक्षिक कुछ भी हो सकता है । यदि शिक्षक को सम्पूर्ण वातावरण का ज्ञान  होता है तो तभी वह अपने शिक्षण में सफल बना पाता है। 

(8) पढ़ाने की इच्छा (Will to teach) — यदि शिक्षक विषय वस्तु को पढ़ाने में इच्छुक है तो उसका शिक्षण कार्य प्रभावशाली होता है और शिक्षार्थी भी प्रस्तुत विषय वस्तु को रुचिपूर्वक सीखने के लिए अग्रसर होता है।

(9) व्यवसाय के प्रति निष्ठा (Loyalty to Profession)- यदि शिक्षक में अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठा का भाव है तो वह विषय वस्तु को रूचि व उत्साह पूर्वक शिक्षार्थी के समक्ष प्रस्तुत करता है इसके फलस्वरूप शिक्षार्थी अधिक से अधिक लाभान्वित होता है।


(III) पाठ्यवस्तु से संबंधित कारक (Content related Factors)



(1) पाठ्यवस्तु की प्रकृति (Nature)- कोई विषय सामग्री एक स्तर के बच्चों के लिए प्रत्यक्ष एवं औपचारिक हो सकती है और दूसरे स्तर की बच्चों के लिए अप्रत्यक्ष एवं अनौपचारिक हो सकती हैं ।  कोई पाठ्यवस्तु किसी स्तर के बच्चों के लिए जितनी प्रत्यक्ष एवं औपचारिक होती है उसका शिक्षण अधिगम उतना ही अधिक प्रभावी होता है।

(2) पाठ् की लम्बाई (Length) - पाठ की लंबाई जितनी अधिक होगी तो शिक्षार्थी की रूचि उस विषय में कम होने लगती है जिससे अधिगम प्रभावित होता है।

(3) पाठ्यवस्तु का जीवन से सम्बन्ध (Relation with Life)- पाठ्यवस्तु का शिक्षार्थी के वर्तमान अथवा भविष्य के जीवन से सम्बन्ध और उसकी उपयोगिता का स्तर भी शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। जिस पाठ्यवस्तु की जीवन में जितनी अधिक उपयोगिता होती है उसे बच्चे उतनी ही अधिक शीघ्रता से सीखते हैं।

(4) पाठ्यवस्तु का कठिनाई स्तर (Difficulty Level)पाठ्यवस्तु यदि शिक्षार्थी की दृष्टि से सरल होती है तो शिक्षण-अधिगम प्रभावशाली होता है और यदि कठिन होती है तो उसका शिक्षण-अधिगम प्रभावी नहीं होता। कठिनाई स्तर का निर्धारण शिक्षार्थी की आयु, परिपक्वता और तत्सम्बन्धी पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है। यदि पाठ्यवस्तु का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाता है तो शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होती है।

(5) भाषा (Language) अधिगम की प्रक्रिया को भाषा भी प्रभावित करती है। यदि शिक्षण में सरल व संक्षिप्त वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो अधिगम में सहायता मिलती है जबकि भाषा के वाक्य बड़े और कठिन शब्दों से युक्त होते है तो अधिगम की शिक्षा के प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते है।

(IV) शिक्षण विधि से संबंधित कारक (Teaching Methods related Factors)-  


(1) शिक्षण विधि की उपयुक्तता (Suitability)-  मनोवैज्ञानिकों ने शिशु, बाल और किशोर मनोविज्ञान तथा शिक्षण एवं सीखने सम्बन्धी जो तथ्य उजागर किए हैं उनके आधार पर भिन्न आयु वर्ग के बच्चों को भिन्न-भिन्न विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं में कौशल विकसित करने की भिन्न-भिन्न विधियों का विकास किया गया है। किसी विषय के ज्ञान अथवा कौशल में दक्षता के का अंग विकास के लिए जितनी अधिक उपयुक्त शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाता है शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक  प्रभावशाली होती है। 


(2) अभ्यास एवं उपयोग (Practice and Use)— अभ्यास एवं उपयोग ये दोनों भी बड़े प्रभावी कारक हैं। शिक्षक शिक्षण करते समय सिखाए जाने वाले ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक अभ्यास कराता है और शिक्षार्थी उस सीखे हुए ज्ञान एवं कौशल का जितना अधिक प्रयोग करते हैं, शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होती है और सीखना उतना अधिक स्थायी होता है।


(3) करके सीखना (Learning by doing) — जिस कार्य को विद्यार्थी स्वयं करके सीखता है उसके स्मृति में बने रहने की संभावना अधिक होती है। अतः अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों को स्वयं करके सीखने के लिए प्रोत्साहित करें।


(4) मन में दोहराना (Recitation)- अधिगम की गयी सामग्री को मन ही मन दोहराकर सीखने की जाँच करने से अधिगम अधिक प्रभावी तथा स्थाई होता है।


(5) शिक्षण साधनों एवं तकनीकी का प्रयोग (Use of Teaching Aids and Technology)- शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि शिक्षण साधनों के प्रयोग से शिक्षण अधिगम को सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है। वर्तमान में तो हार्डवेयर शैक्षिक तकनीकी (ओवरहेड प्रोजेक्टर, रेडियो, टेलीविजन एवं कम्प्यूटर आदि) के प्रयोग से शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया को और भी अधिक रोचक, सजीव एवं प्रभावी बनाया जा सकता है।


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